Saturday, 23 May 2015

पर्यावरण विनाश की जड़ें शोषणकारी व्यवस्था के इतिहास में

औद्योगिक क्रान्ति के साथ पर्यावरण विनाश का एक नया दौर शुरू हुआ, लेकिन यह समस्या उससे भी बहुत पहले रोमन साम्राज्य से ही चली आ रही है। जंगलों की अन्धाधुन्ध कटाई, प्राकृतिक संसाधनों का बेहिसाब दोहन, शिकार करके जंगली जानवरों का खात्मा, और प्राचीन उद्योग धन्धों द्वारा प्रदूषण फैलाना इसके उदाहरण हैं। रोमन साम्राज्य द्वारा उत्तरी अफ्रीका में जैतून का तेल निकालने के कारखानों के अवशेष अभी भी मिलते हैं। धरती के बेहिसाब दोहन के चलते जिन इलाकों में कभी जैतून के हरे-भरे जंगल थे वे आज रेगिस्तान में बदल गये हैं। रोमन साम्राज्य के जमाने में धातु गलाने के उद्योगों के आसपास राँगा, पारा और आरसेनिल के जहरीले अवशेष भी पाये गये हैं। उस दौर में प्लेग फैलाने में पर्यावरण प्रदूषण ही सहायक रहा था।
उस दौर में कई सभ्यताओं के विनाश के पीछे धरती को वीरान बनाया जाना, पर्यावरण को नष्ट किया जाना और पानी के स्रोतों का खत्म होना महत्त्वपूर्ण कारक रहे हैं। आज की साम्राज्यवादी व्यवस्था रोमन और माया सभ्यता से कहीं ज्यादा विराट और आगे बढ़ी हुई है। आज भी वही सब, उससे कहीं बड़े पैमाने पर हो रहा है। जहरीले और रेडियोधर्मी कचरे को जलाशयों में बहा देना, जंगल काट कर नारियल और ताड़ की खेती करना, हवा-पानी में जहर घोलना और हजारों जीव-जन्तुओं का लुप्त होते जाना। मौजूदा दौर में पर्यावरण विनाश करने वाली शक्तियाँ रोमन साम्राज्य की तरह किसी खास इलाके तक सीमित नहीं हैं। वैश्वीकरण के तहत वे पूरी दुनिया में अपनी विनाशकारी गतिविधियों को फैला रहीं हैं। साथ ही आज उनके पास दैत्याकार तकनोलॉजी है जो अकेले उस दौर के हजारों गुलामों के बराबर काम करती हैं और इस तरह ये लोग लाखों गुना तेज रफ्तार से प्राकृतिक विनाश करने में सक्षम हैं। पुरानी सभ्यता में यह समझ नहीं थी कि पर्यावरण संकट प्रकृति और मानव जाति के लिए कितना घातक है, इसलिए वे लोग अन्धी खाई की ओर बढ़ते चले गये थे। लेकिन वर्तमान शासकों को अच्छी तरह पता है कि वे क्या कर रहे हैं, फिर भी वे उन्हीं सभ्यताओं के नक्शेकदम पर चल रहे हैं जिनका इतिहास में नामों निशान नहीं बचा।

उपनिवेशवादी दौर
असमान विकास और पर्यावरण विनाश की विश्वव्यापी समस्याओं के लिए यूरोप का उत्थान और पूरी दुनिया के देशों को गुलाम बनाने की उसकी मुहिम का भी बड़ा हाथ रहा है। तीसरी दुनिया के देशों के पारिस्थितिकी तंत्र का भारी विनाश करके उन्हंे नरक में बदल दिया गया ताकि साम्राज्यवादी देशों के स्वर्ग की रौनक बनी रहे।
पुर्तगाल, स्पेन और ब्रिटेन ने पूरी दुनिया में अपने उपनिवेश बनाये और वहाँ जंगलों को काट कर प्लांटेशन शुरू किया। 400 वर्षों तक अपनी औद्योगिक जरूरतों और विलासिता के साधनों की पूर्ति के लिए उन्होंने स्थानीय लोगों के जीवन के लिए अनाज और अन्य जरूरी फसलों की जगह नील, गन्ना, तम्बाकू रबर, कॉफी आदि की खेती करवायी। प्रकृति और मानव श्रम के निर्मम शोषण ने आत्मनिर्भर और समृद्ध स्थानों को अकाल, भुखमरी और महामारी का पर्याय बना दिया। खनिज पदार्थों को धरती से निकाल-निकाल कर उसे खोखला कर दिया। जंगलों को काट-काट कर वीरान बना दिया।

साम्राज्यवादी दौर
राजनीतिक आजादी मिलने के बाद भी तीसरी दुनिया के देशों पर साम्राज्यवादियों का आर्थिक वर्चस्व कायम रहा। प्लांटेशन का काम उपनिवेशवादियों के नये वारिस, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने और बड़े पैमाने पर लागू किया। क्रान्ति से पहले तक क्यूबा की 60 प्रतिशत जमीन पर केवल गन्ने की खेती होती थी जबकि अपनी खाद्य आपूर्ति के लिए वहाँ 50 प्रतिशत अनाज विदेशों से मँगवाना पड़ता था। फायर स्टेन रबर कम्पनी का छोटे से देश लाइबेरिया में 1,27,000 एकड़ जमीन में रबर प्लॉटेशन है। युनाइटेड फ्रुट कम्पनी ने कई लातिन अमरीकी देशों में केवल केले की खेती शुरू करवायी। नेश्ले कम्पनी के कई देशों में कॉफी के प्लांटेशन हैं। खाद्य प्रसंस्करण और व्यापार पर भी इन्हीं कम्पनियों का एकाधिकार है।
एक फसली खेती के कारण इन कम्पनियों ने गरीब देशों की जैव विविधता को खत्म कर दिया और प्रकृति के संतुलन को तहस-नहस कर दिया। साथ ही उन्होंने इन देशों में असमान विकास और भयावह गरीबी को जन्म दिया क्योंकि 80 प्रतिशत खेती निर्यात के लिए होती थी जिसमें बमुश्किल 20 प्रतिशत लोगों को रोजगार मिल पाता था। शेष आबादी को रोजी-रोटी के लिए मुहताज और कंगाल बना दिया गया।
उपनिवेशवादी दौर में उत्पादन और श्रम विभाजन का जो वैश्विक ढाँचा तैयार हुआ था उससे तीसरी दुनिया के देश आज तक मुक्त नहीं हुए। कच्चा माल, प्राकृतिक      संसाधन और खेती से पैदा होने वाले कच्चे माल का निर्यात और बदले में उन्हीं चीजों से तैयार मालों का महँगी कीमत पर आयात। आजादी के बाद इन देशों के शासक वर्ग साम्राज्यवादियों के सहयोगी की भूमिका में सामने आये और उनकी लूट में हाथ बँटाने लगे। फर्क इतना ही था कि जो काम पहले विदेशी ताकतें आपकी फौज के दम पर करती थीं, वह देशी हुक्मरानों ने कानून बनाकर व्यापार समझौतों और सन्धियों के माध्यम से करना शुरू किया। साथ ही, साम्राज्यवादी दौर में अमरीका और उसके संघातियों ने तीसरी दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों के लिए तख्तापलट और खून-खराबे का भी भरपूर सहारा लिया।

वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में तेल के लिए मारामारी
उपनिवेशवादी ताकतों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे के लिए युद्ध और खून- खराबा सैकड़ों सालों से जारी है। साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में देशों पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कब्जों के पीछे प्राकृतिक संसाधनों और बाजार पर कब्जे के साथ-साथ खनिज तेल के स्रोतों को हथियाना एक प्रमुख कारण है। कांगो, नाइजीरिया, चाड और सुडान में लम्बे समय से साम्राज्यवादी अपने कठपुतली फौजी तानाशाहों के जरिये शासन करते रहे हैं। वहाँ की जनता को भुखमरी, बीमारी और मौत का शिकार बनाने के साथ-साथ वहाँ के पर्यावरण का विनाश इस साम्राज्यवादी लूट का ही नतीजा है। प्राकृतिक        संसाधनों की लूट से कंगाल बन चुके अंगोला में गृहयुद्ध छिड़ने के कारण लाखों लोग मारे गये। वहाँ के शासकों ने अपनी कमाई को देश के विकास में लगाने के बजाय विदेशी बैंकों में जमा कर दिया।
वैश्वीकरण के इस दौर में साम्राज्यवादी अपना स्वार्थ साधने के लिए विश्व बैंक मुद्राकोष और विश्व व्यापार संगठन के जरिये काम करते हैं। प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध लेकिन कंगाल बना दिये गये इन इलाकों के शासक इन संस्थाओं के साथ साँठ-गाँठ करके अपने देश की प्रकृति और मेहनतकशों को लूटते हैं और बदले में अपना हिस्सा ग्रहण करते हैं। यही कारण है कि अफ्रीका का चौथा तेल उत्पादक देश होने के बावजूद कांगो आज 6.4 अरब डॉलर के कर्ज में है। कुछ दशक पहले कई देशों के शासकों ने तेल उत्पादन में अपने देश की सरकारी नियन्त्राण वाली कम्पनियों को लगाया और साम्राज्यवादी देशों की तेल कम्पनियों के वर्चस्व को चुनौती दी। इससे तेल मँहगा हुआ और साथ ही तेल के लिए युद्ध और षड्यन्त्रों का नया दौर शुरू हुआ। अमरीकी सरकार ने जब तेल पर कब्जा जमाने के लिए आतंकवाद विरोधी युद्ध के बहाने इराक और अफगानिस्तान पर बर्बर हमला किया तो अमरीकी फौजों के अलावा हमले की कार्रवाई में ब्लैकवाटर वर्ल्डवाइड जैसी निजी सैनिक कम्पनी ने भी उसमें ठेकेदार के रूप में बढ़-चढ़कर भाग लिया। अमरीका का यह खूनी खेल आज भी जारी है। इस मारकाट में अमरीका और नाटो सन्धि के उसके सहयोगी देशों के साथ-साथ बहुराष्ट्रीय निगमों और दैत्याकार तेल कम्पनियों की भी भूमिका रही है। मध्यपूर्व के अलावा तेल उत्पादक लातिन अमरीकी देशों पर भी साम्राज्यवादियों की काली छाया मंडराती रहती है। वेनेजुएला और बोलिविया ने जब साम्राज्यवाद के खिलाफ खड़े होने का प्रयास किया और अपने तेल उत्पादन में सरकारी हिस्सेदारी बढ़ाई तो अमरीका उन्हें ‘‘लोकतंत्र’’ के बहाने धमकाने और सत्ता से हटाने में जुट गया। कोलम्बिया के साम्राज्यवाद विरोधी छापामार जब विदेशी तेल पाइपों के लिए खतरा बनने लगे तो सीआईए और निजी सुरक्षा ठेकेदारों ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया। तेल कम्पनी सेल द्वारा क्रान्तिकारी कवि केन सारो विवा की हत्या के पीछे भी तेल की लूट ही थी।

तेल के सीमित स्रोतों का विकल्प तलाशने के बजाय साम्राज्यवादी देश किसी भी कीमत पर उसे हथियाने पर आमादा हैं। दुनिया में उर्जा का एक बड़ा साधन होने के साथ-साथ खनिज उर्जा ही ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण है। मानव निर्मित जलवायु परिवर्तन के जिस गम्भीर संकट का दुनिया आज सामना कर रही है, उसके पीछे साम्राज्यवादी लूट-खसोट और दुनिया का विषम विकास है, जिसके एक छोर पर मुट्ठीभर साम्राज्यवादी देशों की समृद्धि है तो दूसरी ओर तीसरी दुनिया की बदहाली।

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