Saturday, 23 May 2015

बाली मानचित्र

जलवायु परिवर्तन पर अगली महत्त्वपूर्ण वार्ता दिसम्बर 2007 में बाली (इन्डोनेशिया) में हुई। उस समय आईपीसीसी की रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन की स्थिति के और अधिक खतरनाक रूप लेने को रेखांकित किया गया था। उसके अनुसार 2005 में वायुमण्डल में कार्बन डाइ ऑक्साइड और मिथेनगैस की सघनता 6500 वर्षों की प्राकृतिक सीमा को पार कर चुकी है। इसका कारण उद्योगों में पेट्रोल, डीजल और कोयले का       अन्धाधुन्ध उपयोग है। अमरीका इसके लिए सबसे ज्यादा दोषी है। लेकिन बाली सम्मेलन में सबसे ज्यादा अड़ंगेबाजी भी उसी ने की।
अमरीका ने क्वेटो प्रोटोकॉल के लक्ष्य को गिरा कर उत्सर्जन कटौती की समय सीमा वर्ष 2012 से आगे बढ़ाकर 2020 तक करने, प्रकृति के तापमान का औद्योगिक क्रान्ति के स्तर से 2 डिग्री सेल्सियल अधिक तापमान तक सीमित रखने और 1990 के स्तर से सिर्फ 25-40 प्रतिशत कटौती का लक्ष्य रखने का सुझाव दिया। अपने लगुए-भगुओं के जरिये उसने इसे स्वीकार भी करवा लिया। लेकिन इतने को भी अपने लिए बाध्यकारी नहीं माना। आईपीसीसी ने इस देरी और टाल-मटोल को पृथ्वी के अस्तित्व के लिए बेहद खतरनाक बताया लेकिन सम्मेलन पर इस चेतावनी का कोई असर नहीं हुआ।
बाली सम्मेलन में कार्बन उत्सर्जन में कटौती के एक नये बहाने-कार्बन व्यापार को भी शामिल कर लिया गया। कार्बन व्यापार का अर्थ है-एक टन कार्बन उत्सर्जन में कटौती से कार्बन क्रेडिट की एक इकाई प्राप्त होगी। जैसे तमिलनाडु में नारियल के छिलके से बिजली बनाकर कार्बन उत्सर्जन में सालाना 3418 टन कार्बन उत्सर्जन को घटाकर 28 टन पर ला दिया गया। इस तरह इससे 3390 इकाई कार्बन क्रेडिट कमाया गया। विकसित देश इस क्रेडिट के बदले कुछ पैसे देकर अपने लिए उतनी ही मात्र में कार्बन उत्सर्जन का परमिट हासिल कर लेंगे। दरअसल यह विकसित देशों द्वारा अपने उत्सर्जन को जारी रखने का ही एक उपाय है।

बाली सम्मेलन से पहले अमरीका के येल विश्वविद्यालय ने एक सर्वे करवाया था, जिसमें 68 प्रतिशत अमरीकी नागरिकों ने इस राय से सहमति जतायी थी कि अमरीका वर्ष 2050 तक कार्बन उत्सर्जन में 90 प्रतिशत तक की कटौती करने के लिए अन्तरराष्ट्रीय सन्धि पर हस्ताक्षर करे। लेकिन अमरीकी सरकार अपने देश के बहुमत का सम्मान नहीं करती। उसकी नकेल तो मोटरगाड़ी, बिजली, कोयला कम्पनियों के हाथ में है जिनके लिए कार्बन उत्सर्जन में कटौती का सीधा अर्थ है मुनाफे में कटौती। इन मानवद्रोही कम्पनियों को पृथ्वी बचाने से अधिक अपना मुनाफा बढ़ाने की चिन्ता है। यही कारण है कि बाली सम्मेलन में भी क्वेटो प्रोटोकॉल को बाध्यकारी समझौते की मान्यता नहीं मिली।

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