Saturday, 23 May 2015

कानकुन सम्मेलन

कोपेनहेगन जलवायु सम्मेलन का जो नतीजा सामने आया था उसे देखते हुए शायद ही किसी को यह मुगालता होगा कि कानकून सम्मेलन में कोई रास्ता निकलेगा। इस सम्मेलन में तय की गयी कटौती लागू भी हो जाये तो धरती का तापमान 3 से 4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जायेगा। जबकि--वैज्ञानिकों के मुताबिक इसकी अधिकतम सीमा 2 डिग्री सेल्सियस है।
साम्राज्यवादी देशों ने 2020 तक कार्बन उत्सर्जन में अपनी मर्जी से 13 से 16 प्रतिशत तक कटौती करने का वचन दिया है जबकि तत्काल 40 प्रतिशत कटौती करना बेहद जरूरी है। अमरीका, जो पृथ्वी को तबाह करने में अकेले में एक चौथाई हिस्से के लिए जिम्मेदार है, उसने इस अवधि में केवल 4 प्रतिशत की कटौती का वचन दिया है। जापान ने साफ-साफ कह दिया कि वह इस अवधि में किसी भी कटौती के लिए राजी नहींे है।
धनी देशों का यह गैरजिम्मेदाराना रवैया कोई नया नहीं है। क्वेटो प्रोटोकॉल की पहली अवधि (2012) समाप्त होने को है। लेकिन 2008 से 2010 के बीच इन देशों के लिए 5.2 प्रतिशत कटौती का जो लक्ष्य रखा गया था, उसमें कमी लाने के बजाय      41 में से 17 देशों ने उत्सर्जन बढ़ाया है और किसी-किसी मामले में तो 40 से 100 प्रतिशत तक अधिक उत्सर्जन किया है। जिन देशों ने लक्ष्य पूरा किया है, वहाँ भी उत्सर्जन में वास्तविक कटौती नहीं की गयी, बल्कि दूसरे देशों से कार्बन व्यापार करके अपने देश में किये गये उत्सर्जन का हिसाब बराबर किया गया।
इस सम्मेलन ने पहली बार भारत सहित विकासशील देशों के लिए यह जरूरी बना दिया कि वे अपने देश में होने वाले प्रदूषण की रिपोर्ट हर दो साल पर ‘‘अन्तरराष्ट्रीय सलाह एवं विश्लेषण’’ प्रक्रिया के आगे पेश करे। पहले उन्हें केवल उन गतिविधियों के मामले में ऐसी रिपोर्टें पेश करना जरूरी था, जो धनी देशों की आर्थिक सहायता से चलायी जा रही हों। जाहिर है कि यह कदम धनी और गरीब देशों को एक ही तराजू पर तोलने वाला है। जाहिर है कि अमरीका जैसा चाहता था वैसा ही हुआ। उसने विकासशील देशों के अपने पिछलग्गुओं को साथ लेकर अपना मनोरथ पूरा कर लिया। अमरीका ने ब्राजील दक्षिण-अफ्रीका, भारत और चीन (ब्रिक) के साथ साँठ-गाँठ करके यह सहमति बनायी जिस पर बाद में 20 अन्य देशों ने भी हस्ताक्षर कर दिये। जी-77 की इस पर सहमति नहीं बनी और इसीलिए इसे सम्मेलन में स्वीकृत नहीं किया गया। साम्राज्यवादी देश यही चाहते थे सहमति हो तो उनकी जीत, असहमति हो तो तीसरी दुनिया की हार। विकिलीक्स के रहस्योद्घाटनों से यह बात सामने आयी है कि धनी देशों ने कई गरीब देशों को धमकाकर और सहायता रोकने का डर दिखाकर उन्हें कोपेनहेगन समझौते पर सहमति जताने के लिए बाध्य किया था।
इस तरह कोपेनहेगन में अमरीकी राष्ट्रपति ने जो मुद्दे उछाले थे, कानकुन में उन्हें और भी दृढ़ता से रखा गया--
-कोपेनहेगन में अन्तरराष्ट्रीय सलाह और विश्लेषण की अस्पष्ट रूप से चर्चा की गयी थी, तब भारत ने उसका विरोध किया था, लेकिन कानकुन में वह इस मुद्दे पर राजी हो गया।
-हरित जलवायु कोष की बात को फिर से ठुकराया गया। इसके लिए 100 अरब डॉलर का कोष बनाने का सुझाव दिया गया, लेकिन पैसा कहाँ से आयेगा और किनके बीच बँटेगा। यह स्पष्ट नहीं किया गया।
-क्वेटो सम्मेलन में परिशिष्ट-1 (विकसित देश) और परिशिष्ट-2 (विकासशील देश) में अंतर करते हुए उनके लिए उत्सर्जन कटौती का अलग-अलग मानदण्ड और लक्ष्य तय किया गया था। इस फर्क को पहले-पहल कोपेनहेगन में ही धुँधलाने का प्रयास किया गया और कानकुन सम्मेलन में इस अन्तर को मिटाने की दिशा में आगे कदम बढ़ाया गया।
-वार्ताओं के शुरुआती चरण से ही यह स्थापित था कि पर्यावरण विनाश के लिए विकसित देश सर्वाधित जिम्मेदार हैं। इसलिए उसे सुधारने में उनकी जिम्मेदारी अधिक होगी। विकासशील देश गरीबी और पिछड़ी तकनीक के चलते यदि प्रदूषण फैलाते हैं, तो विकसित देशों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे गरीबी उन्मूलन और तकनोलॉजी का विकास करने में गरीब देशों की सहायता करें। अमरीका शुरू से ही इस सच्चाई से आँख चुराते हुए सब के लिए एक मानदण्ड की वकालत करता आ रहा था। कानकुन में वह इस बात को थोपने में काफी हद तक सफल रहा।
-शुरूआती वार्ताओं में पृथ्वी का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस ग्रेड से अधिक न बढ़ने देने पर लगभग 100 देश राजी थे। कोपेनहेगन में इसे बढ़ाकर 2 डिग्री सेल्सियस करने का प्रस्ताव रखा गया। कानकुन तक आते-आते कई देश इस पर सहमत होते गये।

इस तरह इस सम्मेलन में क्वेटो प्रोटोकॉल के जरिये धनी देशों ने जो आधी-अधूरी प्रतिबद्धता दुहरायी थी, उससे भी उन्होंने पल्ला झाड़ लिया जो साम-दाम-दण्ड-भेद की अमरीकी नीति का नतीजा है। अब साम्राज्यवादी देशों को उस क्वेटो प्रोटोकॉल से छुटकारा मिल गया जिससे हर देश के लिए निश्चित मात्र और निश्चित समय में उत्सर्जन कटौती करने की कानूनी बाध्यता तय की गयीं थीं। मानवद्रोही, आत्मघाती और क्षणजीवी धनी देश कम कार्बन तकनोलॉजी का विकास करने, बेहिसाब उपभोग पर लगाम लगाने और अपनी विलासितापूर्ण जीवनशैली को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं और उन्हें किसी की परवाह भी नहीं है। भले ही धरती तबाह हो जाये जल कर खाक हो जाये।

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