Monday, 4 May 2015

पूँजीवादी समाज में नाना प्रकार के प्रदूषण

पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली प्रकृति और मजदूर वर्ग के बेलगाम शोषण पर टिकी हुई है। निजी मुनाफे को बनाये रखने के लिए यह प्रकृति के विनाश की कोई परवाह नहीं करती। औद्योगिक कचरे और धुँए के अलावा अन्य कई तरीकों से यह दुनिया को नारकीय बनाती है और धरती को इन्सानों के रहने लायक नहीं छोड़ती।
विज्ञापन: पूँजीवाद में उत्पादन मुनाफे के लिए होता है न कि सबके उपभोग के लिए। चूंकि पूँजीवादी व्यवस्था में लोगों की क्रय शक्ति लगातार कम होती जाती है, इसलिए बहुत सारा माल बिक नहीं पाता और मंदी छा जाती है। ऐसे में हर पूँजीपति अपने अतिरिक्त माल की अधिक से अधिक बिक्री के लिए विज्ञापन के एक से बढ़कर एक तरीके अपनाता है। साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के मौजूदा दौर में पूँजीवाद पूरी दुनिया को माल में बदल देने पर आमादा है। हवा, पानी, जमीन, आदमी, इन्सानी रिश्ते, धर्म, संस्कृति, प्रेम, वात्सल्य- हर चीज उसकी निगाह में माल है जिन्हें बेचने और उपभोक्तावाद को बढ़ावा देने के लिए अन्धाधुन्ध विज्ञापन करना जरूरी है। आज दुनिया भर में विज्ञापनों का हजारों अरब रुपये का कारोबार है जिससे सैकड़ों अस्पताल, स्कूल और बेघरों के लिए घर बनाये जा सकते हैं। विज्ञापनों में इस्तेमाल होने वाले कागज के लिए हर साल लाखों पेड़ काटे जाते हैं और सड़कों के किनारे विज्ञापनों के चमकीले बोर्ड को रोशन करने के लिए करोड़ों यूनिट बिजली फूँक दी जाती है।
प्लास्टिक कचरा: प्लास्टिक बैग, उत्पादों के पैकेट, प्लास्टिक के बर्तन, बोतल और डिब्बे इधर-उधर फेंक दिये जाते हैं। जो नालियों में फँसकर उन्हें जाम कर देते हैं। इसके कारण नालियों का कचरा सड़ता रहता है जिससे मच्छर और बीमारी के कीटाणु फैलते हैं। प्लास्टिक का निबटारा करना कठिन है। यह जल्दी सड़ता नहीं, जलाने पर जहरीली गैस पैदा करता है और जमीन को बंजर बना देता है। अपने माल को आकर्षक बनाकर अधिक मात्र में बेचने के लिए कम्पनियाँ प्लास्टिक की आकर्षक पैकिंग करती हैं। इस तरह यह खतरनाक प्रदूषक हमारी दिनचर्या में पूरी तरह शामिल है। इस पर प्रतिबन्ध लगाने का कोई भी आदेश लागू नहीं हो पाता क्योंकि यह पूँजीपतियों के स्वार्थ में आड़े आता है। पोलीथीन प्रदूषण का एक बड़ा जरिया बन गया है और इस हद तक जीवन शैली का अंग बन चुका है कि इससे पीछा छुड़ाना काफी मुश्किल होता जा रहा है।
ओजोन परत का क्षरण: पृथ्वी की सतह से 15-30 किलोमीटर उ$पर ओजोन की परत होती है जो हमें सूर्य से आने वाली घातक पराबैंगनी किरणों से बचाती है। तेजी से फैलते प्रदूषण से यह परत क्षरित हो रही है। खतरनाक पराबैंगनी किरणों के सम्पर्क में आने से शरीर का झुलस जाना, त्वचा कैंसर और मोतियाबिंद का खतरा पैदा होता है। स्प्रे, रेफ्रीजरेटर आदि में इस्तेमाल किया जाने वाला क्लोरोफ्लोरो कार्बन ओजोन परत में छेद के लिए जिम्मेदार है। अन्टार्कटिका की ओजोन परत में बड़ा छेद होने से इस इलाके में गर्मी तेजी से बढ़ रही है। लगभग 90 प्रतिशत क्लोरोफ्लोरो कार्बन अमरीका और विकसित देशों ने उत्सर्जित किया है। हालाँकि इस रसायन के इस्तेमाल पर प्रतिबन्ध लग चुका है, फिर भी चोरी-छिपे इसका इस्तेमाल जारी है। साथ ही वायुमंडल में पहले से मौजूद इस जहर के प्रभाव को खत्म होने में पचासों साल लगेंगे।
चिकित्सकीय कचरे से प्रदूषण: चिकित्सा में उपयोग किये जाने वाले उपकरणों का उचित निपटारा न होने से ये बीमारी फैलाने के स्रोत बन गये हैं। ऐसे ही एक रसायन कोबाल्ट 60 के कचरे से विकिरण होने के चलते पिछले दिनों दिल्ली में कई व्यक्ति घायल हो गये। इसका असर वातावरण में काफी समय तक रहता है और लोगों को मौत का शिकार बनाता है।
इलेक्ट्रॉनिक कबाड़ से प्रदूषण: टेलीविजन, मोबाइल, कम्प्यूटर, रेफ्रीजरेटर और अन्य इलेक्ट्रॉनिक सामानों से भारत में हर साल 38 लाख क्विन्टल कबाड़ पैदा होता है। इतना ही नहीं, हमारे देश के कबाड़ी हर साल 5 लाख क्विन्टल कचरा विदेशों से आयात करते हैं। इस कबाड़ को दुबारा इस्तेमाल के लिए गलाने के दौरान बड़ी मात्र में विषैली गैस और रसायन उत्पन्न होते हैं जो पर्यावरण को बुरी तरह प्रभावित करते हैं। धनी देश अपने यहाँ से पुराने रद्दी कपड़े, जूते, कम्प्यूटर, बेल्ट, बैग और अन्य घरेलू सामान हमारे देश में गरीबों के लिए दान के रूप में भेज देते हैं। हर छोटे-बड़े शहर में इन पुराने सामानों की धड़ल्ले से बिक्री होती है। दरअसल यह उन देशों का कचरा ही है। जिसे निबटाना उनके लिए एक भारी समस्या है। इस तरह गरीब देशों को कूड़ेदान बनाया जा रहा है और इस पर इन देशों के शासकों की मौन सहमति है।

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