Friday, 22 May 2015

वैश्वीकरण और प्राकृतिक सम्पदा की लूट

हमारे देश में 1970 और 1980 के दशक में पर्यावरण के प्रति लोगों की जागरुकता बढ़ी। हिमालय के जंगलों को बचाने के लिए चिपको आन्दोलन, मध्य और दक्षिण भारत में बड़े बाँधों के खिलाफ आन्दोलन तथा विदेशी कम्पनियों को मछली मारने का लाइसेन्स देने के खिलाफ मछुआरों के आन्दोलन के बाद सरकार को पर्यावरण सम्बन्धित कई नियम-कानून पारित करने पड़े। लेकिन 1991 में उदारीकरण, वैश्वीकरण और नई आर्थिक नीतियों ने विदेशी निवेशकांे को लुभाने के लिए इन कायदे-कानूनों की धज्जियाँ उड़ानी शुरू की। विदेशी लुटेरों के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था के कपाट खोलना, निर्यातोन्मुखी विकास को बढ़ावा देना, विदेशी मालों की खपत बढ़ाने के लिए मध्यमवर्ग में विलासिता और उपभोक्तावाद का प्रचार-प्रसार करना, सरकारी उपक्रमों का निजीकरण तथा श्रम और पर्यावरण कानूनों में ढील देना इन्हीं नीतियों का परिणाम था। फिर तो एक तरफ जहाँ मुट्ठी भर ऊपरी तबके के लिए विकास की बयार बहने लगी, वहीं दूसरी तरफ भयंकर गरीबी की काली आँधी चलने लगी। गिने-चुने अभिजात वर्ग के लिए समृद्धि के पहाड़ खड़े किये गये, जबकि देश की बहुसंख्य जनता कंगाली-बदहाली के भँवर में फँसती गयी। करोड़ों मजदूरों की जिन्दगी नरक से भी बदतर हो गयी, लाखों किसानों ने आत्महत्या की और देश के भावी कर्णधार युवा वर्ग के भविष्य में अन्धकार छा गया। इतना ही नहीं, देशी-विदेशी पूँजीपतियों ने हमारी धरती माँ को इतनी बेरहमी से लूटा कि जल, जंगल, जमीन और सम्पूर्ण वातावरण को नष्ट कर डाला।
आज एक-एक गाँव, कस्बा और शहर पर्यावरण विनाश की दर्दनाक कहानी बयान कर रहा है। विश्व पर्यावरण सम्मेलन में बड़ी-बड़ी डींगें हाँकने वाले हमारे शासक हमारी थालियों में जहरीला खाना और प्रदूषित जल परोस रहे हैं, जिससे नयी-नयी बीमारियों की चपेट में आकर लाखों देशवासी असमय मौत के शिकार हो रहे हैं।
नयी आर्थिक नीति के तहत 1997 से अब तक खनन के लिए 70 हजार हेक्टेयर जंगलों का कटान किया गया। 1947 से अब तक विकास के नाम पर अपनी जमीन से उजाड़े गये 6 करोड़ लोग विस्थापितों की जिन्दगी जी रहे हैं। इसके लिए पूँजीपति, प्रशासन और नेताओं ने कई हथकण्डे अपनाये हैं, जैसे-इलाके के मुखर तबके और मुखिया को पैसे से खरीदना और पटाना, जन विरोधी, पर्यावरण नाशक नीतियों का विरोध करने वालों को विकास विरोधी और देशद्रोही बताकर उन्हें जेल में डालना, आदिवासी इलाकों में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस भेजकर स्थानीय लोगों के विरोध का दमन करना और जनता में फूट डालकर एक हिस्से को दूसरे से लड़ाना। इन इलाकों में रहने वाले इंसान जब इतनी बुरी तरह प्रभावित हैं, तो जंगली जीवों का क्या हश्र हुआ होगा? बाघों और कछुओं के लुप्त होने पर हाय-तौबा मचाने वाले स्वयं सेवक और मीडिया क्या कभी पर्यावरण के दुश्मन सत्ताधारियों को बेनकाब करते हैं?
हमारे देश की लगभग एक लाख बीस हजार वनस्पतियों और 10 फीसदी जन्तुओं की प्रजातियाँ लुप्त होने वाली हैं। खनिज पदार्थों के बेलगाम दोहन के चलते 90 राष्ट्रीय उद्यानों और अभ्यारण्यों का अस्तित्व खतरे में है। इन अनमोल प्राकृतिक संसाधनों का अपने देश के हित में इस्तेमाल नहीं होता बल्कि उन्हें विदेशी मुद्रा के लोभ में निर्यात कर दिया जाता है।
पर्यावरण प्रभाव का मूल्यांकनऔर समुद्र तट नियमनजैसे पर्यावरण संरक्षण कानूनों को बेअसर और कमजोर बताकर सरकार पूँजीपतियों को फायदा पहुँचाने में लगी हुई है। जनान्दोलनों के दबाव के कारण सन् 2006 में केंद्र सरकार को राष्ट्रीय पर्यावरण नीति की घोषणा करनी पड़ी, लेकिन इसमें भी आर्थिक मुद्दों को पर्यावरण से ऊपर रखा गया। लोगों की जीविका को संरक्षित करने के लिए बनाया गया जैव-विविधता अधिनियम नख-दन्त विहीन है। विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) में पर्यावरण के मुद्दे की पूरी तरह अनदेखी की जा रही है। आज मुट्ठी भर सम्पन्न लोग जितना अधिक प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग कर रहे हैं, वह धरती के पर्यावरण संतुलन को कायम रखने की क्षमता से काफी अधिक है। पिछले चार दशकों में विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों के अन्धाधुंध दोहन से        धरती की यह क्षमता आधी रह गई है। इसके बावजूद सरकार और उसके बुद्धिजीवी टिकाऊ और संतुलित विकास की लफ्फाजी करते रहते हैं।
जहाँ शोषण, अन्याय और पर्यावरण का विनाश हो रहा है वहीं इस विनाशकारी विकास के खिलाफ जनता के स्वतःस्फूर्त, स्थानीय और मुद्देवार आन्दोलन भी हो रहे हैं। बड़े बाँधों के विनाशकारी प्रभाव के खिलाफ उत्तराखण्ड के पर्यावरणविदों, सिक्किम के भिक्षुओं, अरूणाचल प्रदेश के नौजवानों, नर्मदा के तट पर बसे हजारों गाँवों के निवासियों और असम के किसानों का विरोध, जहरीला रासायनिक कचरा फैलाने वाली कोका कोला कम्पनी के खिलाफ कई इलाकों में ग्रामीणों का आन्दोलन, हाइटेक शहर कारपोरेट खेती और विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिए जमीन अधिग्रहण के खिलाफ किसानों का संघर्ष और देश के विभिन्न इलाकों में सालेम, वेदान्ता और पॉस्को जैसी मुनाफाखोर विदेशी कम्पनियों के खिलाफ आदिवासियों और स्थानीय जनता के आंदोलन आज काफी हद तक सरकार और लुटेरी कम्पनियों की राह में रोड़े अटका रहे हैं। लेकिन एकजुटता के अभाव, शासक वर्ग की कुटिल चाल और बर्बर दमन-उत्पीड़न के चलते ये आन्दोलन कमजोर पड़ जाते हैं। इन जनान्दोलनों के प्रभाव और बढ़ती जागरुकता के कारण कई राज्यों में जैविक खेती, प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित उत्पादन, सूखा पीड़ित इलाकों में विकेन्द्रित जल उपयोग की तकनीक और स्थानीय जनता की पहल पर जंगल और जंगली जानवरों का संरक्षण शुरू हुआ है। लेकिन पूँजीपतियों द्वारा जारी पर्यावरण विनाश के आगे ये सुधारवादी कदम नाकाफी साबित हो रहे हैं। देशी-विदेशी पूँजी के गठजोड़ से अस्तित्व में आयी लूट-खसोट की इन नीतियों पर जब तक समवेत और संगठित प्रहार नहीं होगा, तब तक इनकी विनाशलीला इसी तरह चलती रहेगी।


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