Saturday, 23 May 2015

साम्राज्यवादी देशों और उनके वैज्ञानिकों का रुख

विकसित देशों के पूँजीपरस्त वैज्ञानिक जलवायु संकट का समाधान तकनीकी प्रगति के जरिये करने का दावा करते हैं। इन तकनीकों में प्रमुख हैं पैट्रोलियम पदार्थों के विकल्प के रूप में नाभिकीय र्उ$जा का इस्तेमाल तथा सल्फर डाइ ऑक्साइड और लोहे के चूर्ण का उपयोग करके ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को कम करना। अमरीका की थ्री माइल्स आइलेण्ड दुर्घटना, रूस के चेर्नोबिल परमाणु रियेक्टर त्रसदी और हाल में जापान के नाभिकीय रियेक्टर में रिसाव की वीभत्सता को देखते हुए नाभिकीय र्उ$जा का विकल्प बहुत ही घातक है। दूसरी ओर वायुमण्डल की उ$परी सतह में सल्फर डाइ आक्साइड गैस छोड़ने से क्या यह सूर्य की उ$ष्मा को परावर्तित कर ग्लोबल वार्मिंग को कम करेगी? लोहे के छोटे टुकड़े समुद्र में डाले जायें तो उससे वायुमण्डल की कार्बन डाइ ऑक्साइड को बड़े पैमाने पर अवशोषित कर लेंगे? इससे क्या कोई फर्क पड़ेगा? जागरूक वैज्ञानिकों का मानना है कि इन उपायों से और भी घातक परिणाम सामने आयेंगे। यदि सल्फर डाइ-ऑक्साइड प्रभावी भी होती है तो उसे वायुमण्डल में बार-बार झोंकना पड़ेगा जो खुद ही पर्यावरण संकट का कारण बनेगा, क्योंकि यह गैस पानी से मिलकर जानलेवा तेजाब बनाती है। इसके चलते तेजाब की बारिश होगी जिससे समुद्र की अम्लता कम होने के बजाय और अधिक बढ़ जायेगी।

ऐसे सुझाव प्रस्तुत करने का सीधा मतलब है समस्या को टालना और उससे मुँह चुराना। ऐसे तकनीकी समाधानों को पेश करने वाले वैज्ञानिक उन बड़ी साम्राज्यवादी कम्पनियों की स्वार्थ पूर्ति करते हैं जो क्वेटो प्रोटोकॉल के तहत कार्बन उत्सर्जन में कटौती की अपनी जिम्मेदारी से भाग खड़ी हुई हैं। अमरीका ने बाली मानचित्र, कोपेनहेगन और कानकुन सम्मेलन से किनाराकशी की और आज वह दुनियाभर में जलवायु संकट के बारे में तरह-तरह के भ्रम फैलाने में लगा है। वह ऐसे वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित करता है जो या तो जलवायु संकट से इन्कार करते हैं या नीम-हकीमी नुस्खे सुझाते हैं। आज जलवायु संकट पर साम्राज्यवादियों का असली एजेण्डा यह है कि जब तक धरती रहेगी, वे इसे निचोड़ते और बर्बाद करते रहेंगे, ताकि उनके मुनाफे की हवस पूरी हो सके। ये क्षणजीवी अपनी आने वाली सभी नस्लों के बारे में नहीं सोचते।

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