आज दुनिया एक अभूतपूर्व परिस्थिति से गुजर रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण धरती के करोड़ों प्रजातियों के पेड़-पौधे, जीव-जन्तु और इंसान का अस्तित्व संकट में है। यह संकट विश्व युद्धों से अधिक संहारक, महामारियों से अधिक जानलेवा और परमाणु बमों से अधिक घातक है।
ओजोन परत में दरार बढ़ रही है। समुद्री जल में तेजाब घुलता जा रहा है। वातावरण में नाइट्रोजन और फास्फोरस का चक्र असंतुलित हो गया है। पृथ्वी तेजी से गर्म होती जा रही है। ग्लेशियरों का पिघलना, समुद्र का जलस्तर बढ़ना, कई इलाकों का रेगिस्तान में बदलना, जन्तुओं और वनस्पतियों की प्रजातियाँ लुप्त हो जाना, कहीं बाढ़ और कहीं सूखे का प्रकोप धरती के तपने के ही दुष्परिणाम हैं। जलवायु परिवर्तन के चलते खेती-किसानी की तबाही, कैंसर और टीबी का महामारियों का रूप लेने, समुद्र तट के पास बसे इलाकों के डूबने और व्यापक आबादी के विस्थापन का खतरा पैदा हो गया है। बुन्देलखण्ड का सूखा, पूरे उत्तराखण्ड और खासकर केदारनाथ घाटी की तबाही, जम्मू-कश्मीर की बाढ़, पूणे के मालिन गाँव का पहाड़ी मलबे में दब जाना पर्यावरण संकट की दर्दनाक कहानी कहते हैं। यह संकट अपने साथ खाद्यान्न का अभाव, मेहनतकशों की बर्बादी और महिलाओं के लिए दुर्दिन लाता है।
औद्योगिक क्रान्ति के बाद से ही मुनाफे की हवस में प्रकृति की तबाही शुरू हुई। इसके चलते प्रकृति और मानव समाज के बीच का परस्पर सम्बन्ध और सामंजस्य छिन्न-भिन्न होता गया। 1990 में दुनिया के शक्ति-सन्तुलन में आये बदलावों ने एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था और साम्राज्यवादी वैश्वीकरण को आगे बढ़ाया। इसने दुनिया भर में प्राकृतिक सम्पदा के दोहन और धरती के विनाश की गति को तीव्रतर कर दिया। परिणामस्वरूप पर्यावरण विनाश आज सारी हदें पार कर चुका है, जिसे समझने के लिए एक ही तथ्य काफी है-- 1750 से अब तक ढाई सौ सालों में दुनिया भर में जितना कार्बन उत्सर्जित हुआ था, उसका एक चौथाई सिर्फ 2000 से 2013 के बीच हुआ।
कारखानों से निकले कचरे और धुएँ से वातावरण विषाक्त हो गया। नदियों का पानी जीवनदायी नहीं, जानलेवा हो गया। हर साल दुनिया में वायु प्रदूषण से 24 लाख लोग ठण्डी मौत मरते हैं। गुजरात के बलसाड जिले के आस-पास का इलाका, अलंग बन्दरगाह और पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई इलाकों की जमीन से प्रदूषण के कारण कैंसर की फसल उग रही है। दिनोंदिन बढ़ती बीमारियाँ चिकित्सा विज्ञान के सामने नित नयी चुनौतियाँ पेश कर रही हैं। चेर्नोबिल, थ्री माइल आइलैण्ड और फुकुशिमा की परमाणु दुर्घटनाओं और उससे रिसने वाले रेडियोधर्मी विकिरण के घातक परिणामों से दुनिया भर के शासक वर्गों ने कोई सबक नहीं सीखा। जैतापुर, कुडानकुलम, मीठीविर्दी और गोरखपुर (फतेहाबाद) में जनता के लगातार विरोध के बावजूद सरकार वहाँ नाभिकीय संयन्त्र लगाने पर आमादा है। आज दुनिया जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संकट की ऐसी ही अनेक ज्वलन्त समस्याओं का सामना कर रही है।
पिछले 250 सालों के दौरान पूँजीवादी विकास ने प्रकृति पर आश्रित मध्ययुगीन सामन्ती उत्पादन प्रणाली को इतिहास के गर्त में धकेल दिया। इसने विराट उद्योगों, तीव्रगामी यातायात और संचार साधनों के जरिये एक ओर समृद्धि का पहाड़ खड़ा किया तो दूसरी ओर बहुसंख्यक लोगों को गरीबी और आपदाओं के नरककुण्ड में धकेल दिया। बहुराष्ट्रीय निगमों के क्रिया-कलाप क्षण-प्रतिक्षण पर्यावरण विनाश को न्यौता दे रहे हैं। दुनिया भर की सरकारों से साँठ-गाँठ करके ये निगम प्राकृतिक संसाधनों का बेलगाम दोहन करते हैं, जैव विविधता को नष्ट करते हैं और पर्यावरण संकट को बुलावा देते हैं। उन्हीं की करतूतों का नतीजा है कि दुनिया भर में हर साल 60 लाख हेक्टेयर जमीन रेगिस्तान में बदल रही है। कॉरपोरेट खेती को बढ़ावा देने के कारण कीटनाशक, खरपतवार नाशक, रासायनिक खाद, बीटी बीज और भू-जल के अत्यधिक इस्तेमाल से खेत बंजर होते जा रहे हैं और जैव विविधता नष्ट हो रही है।
पर्यावरण पर होने वाले शोध और सरकारी-गैरसरकारी वैश्विक सम्मेलनों से यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया है कि जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी परिणामों के लिए अमरीका, जापान, यूरोपीय संघ के देश और तेल उत्पादक देश सबसे अधिक जिम्मेदार हैं। क्योटो प्रोटोकाल के तहत इन्होंने कार्बन उत्सर्जन में 5.2 प्रतिशत करने की जिम्मेदारी ली थी, लेकिन कम करने की तो बात ही क्या, उस सम्मेलन के बाद से अब तक ये कार्बन उत्सर्जन को 11 प्रतिशत और अधिक बढ़ा चुके हैं। विकसित देश पर्यावरण संकट को हल करने की अपनी नाममात्र जिम्मेदारी से भी मुँह चुरा रहे हैं। इसकी भारी कीमत दुनिया की गरीब आबादी को चुकानी पड़ रही है। दुनिया भर में 5 साल से कम उम्र के एक करोड़ बच्चे हर साल खसरा, डायरिया और साँस की बीमारी से मारे जाते हैं। जो दूषित पर्यावरण और मानवद्रोही सामाजिक आर्थिक व्यवस्था की देन है। मानव जीवन का कोई भी पहलू पर्यावरण संकट की मार से अछूता नहीं है।
जलवायु परिर्वतन की इस विनाश लीला को समय रहते नियंत्रित नहीं किया गया तो यह धरती साक्षात नर्क में बदल जायेगी। हरी-भरी धरती, निर्मल नदियाँ और स्वच्छ वायुमण्डल आज एक सपना बनकर रह गये हैं। पर्यावरण संकट को लेकर दुनिया भर में जागरूकता बढ़ी है। इसके कारण और समाधान के विषय में आज तीखी बहसें चल रही हैं। दुनिया के विभिन्न इलाकों की जनता स्थानीय स्तर पर इस समस्या से स्वतःस्फूर्त ढंग से और अलग-अलग मुद्दों पर संघर्ष कर रही है। कुछ व्यक्ति, समूह और संगठन पर्यावरण की रक्षा के नाम पर जल संरक्षण, वृक्षारोपण जैसे सतही सुधारों के कामों में लगे हैं। लेकिन इस विश्वव्यापी समस्या को समग्रता में समझे बिना इसका हल सम्भव नहीं है। दुनिया भर के शोषक वर्गों ने मुनाफे और लूट की हवस में इस संकट को जन्म दिया है और आज भी इस तबाही को जारी रखे हुए हैं। क्योटो, कोपेनहेगन और कानकुन सहित जलवायु परिवर्तन को लेकर जितने भी सम्मेलन हुए उनका कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आया। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 23 सितम्बर 2014 को न्यूयॉर्क में आयोजित दुनिया भर के शासकों की बैठक भी बेनतीजा ही रहेगी, यह तय है। विकास के नाम पर विनाश को न्यौता देने वाले बाजारवाद, उपभोक्तावाद और लोभ-लाभ के पुजारियों से इसके समाधान की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। जिनके मुनाफे की हवस ने इस समस्या को पैदा किया, उन्हीं के सहयोग पर निर्भर सुधारवादियों के भरोसे छोड़ देने के बजाय इस मुद्दे को सामाजिक बदलाव के व्यापक उद्देश्य की कार्यसूची पर लाना जरूरी है। जलवायु परिवर्तन के घातक नतीजों के खिलाफ जन-संघर्ष के साथ-साथ, इस सवाल को सामाजिक सम्बन्धों में आमूल-चूल परिवर्तन के लक्ष्य से जोड़ना होगा। साथ ही इस समस्या के प्रति समग्र दृष्टिकोण अपनाने, व्यापक जनता की भागीदारी और दीर्घकालिक संघर्ष जरूरी है। आखिर कब तक इस मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था और इसके द्वारा उत्पन्न पर्यावरण संकट के आगे हम अपने वर्तमान और भविष्य की बलि चढ़ाते रहेंगे? इस संकट के समाधान के लिए मिल-जुलकर प्रयास करना आज समय की माँग है।
हमारे उद्देश्य:
निम्न लिखित मुद्दों पर अध्ययन, प्रचार और जनआंदोलन संचालित करना-
1. प्रकृति और मनुष्य के बीच के सामंजस्य को पुनर्बहाल किया जाय।
2. विकास के नाम पर प्राकृतिक सम्पदाओं के अन्धाधुन्ध दोहन और पर्यावरण विनाश पर रोक लगायी जाय।
3. धरती के सभी निवासियों के लिए स्वच्छ भोजन, साफ पानी और शुद्ध पर्यावरण को मनुष्य का नैसर्गिक अधिकार मानते हुए इसकी गारण्टी की जाय।
4. जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण विनाश से पैदा होने वाली बीमारियों और प्राकृतिक आपदाओं से बचाव की गारण्टी हो।
5. उपभोक्तावादी और विलासितापूर्ण जीवनशैली की जगह प्रकृति और मनुष्य के बीच सम्बन्धों को सन्तुलित करते हुए तार्किक, वैज्ञानिक और न्यायसंगत आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था के निर्माण की दिशा में आगे बढ़ा जाय।
6. जैव विविधता को मानवता की धरोहर मानते हुए सुरक्षा प्रदान की जाय।
कार्यक्रम:
1. इस विश्वव्यापी समस्या से सरोकार रखने वाले वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों, बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं को एकजुट करना।
2. इस विकट समस्या को समग्रता में समझने और सही समाधान तलाशने के लिए पुस्तक-पुस्तिकाओं, पर्चों का प्रकाशन और वितरण।
3. जन अभियान, विचार विमर्श, सेमिनार, गोष्ठी और सम्मेलन के जरिये लोगों की चेतना उन्नत करना। इस समस्या को लेकर युवाओं के बीच वाद-विवाद प्रतियोगिता, चित्र प्रदर्शनी और अन्य रचनात्मक कार्यक्रमों का आयोजन।
4. पर्यावरण संकट से उत्पन्न समस्याओं का अध्ययन और जाँच-पड़ताल करना, उसे जनता के बीच ले जाना तथा
शासन-प्रशासन के सामने उन समस्याओं को उठाना।
5. सरकार की पर्यावरण विरोधी परियोजनाओं और पर्यावरण विनाश की ठोस अभिव्यक्तियों का पर्दाफाश और विरोध करना।
6. प्रकृति के विनाश और बेलगाम कार्बन उत्सर्जन पर आधारित उपभोक्तावादी जीवनशैली के स्थान पर समाज और प्रकृति के सन्तुलन पर आधारित, वैकल्पिक विकास नीति और जीवनशैली का प्रचार-प्रसार करना।
7. विकास के नाम पर आम जनता और आदिवासियों की रोजी-रोटी छीनने और उनके विस्थापन का विरोध करना।
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