Tuesday, 22 October 2019

आज के क्लाइमेट रिबेल के लिए मार्क्स की शिक्षा

*सरकार की पर्यावरण विरोधी नीतियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने वाले को 'क्लाइमेट रिबेल' कहा जाता है।

कल्पना करो कि आपको घर के किसी कोने में 150 साल पुरानी कोई चिट्ठी मिल जाय। जिसमें यह भविष्यवाणी की गयी हो कि यह दुनिया मुनाफे पर आधारित पूंजीवाद की वजह से एक भयंकर संकट का सामना करेगी।  

कल्पना करो कि उस भविष्यवाणी में यह भी व्याख्या की गयी हो कि पूंजीवाद कैसे कई पीढ़ियों से प्रकृति और मानव श्रम का शोषण करके ज़िंदा है। कैसे पूंजीवाद मुनाफे में अंधा होकर नैतिकता, तार्किकता और वैज्ञानिक उपलब्धियों की उपेक्षा कर रहा है।

और सोचिए कि उस भविष्यवाणी में यह भी कहा गया हो कि प्रकृति और मानव श्रम की लूट पर आधारित पूंजीवाद एक समय ऐसे मोड़ पर पहुँच जाएगा कि जहां ज्यादातर लोगों को दो में से एक को चुनना होगा- या तो पूंजीवाद के साथ धरती का विनाश या एक ऐसी नयी लोकतांत्रिक, तार्किक और सामजिक व्यवस्था जो धरती के साथ भी बेहतर रिश्ता बनाने में सक्षम हो।

वास्तव में कोई ऐसी चिट्ठी ही आज पूरे मानव समुदाय की सही अवस्थिति बता सकती है। संक्षेप में अगर देखें तो ये बातें  उन्नीसवीं सदी के समाजवादी विद्रोही कार्ल मार्क्स ने लिखी थी।

मार्क्स ने न सिर्फ मानव और धरती के दुश्मन "पूंजीवाद" का नाम लिया बल्कि उन्होंने इसकी भी व्याख्या की कि  कैसे यह व्यवस्था इस समय मानवता और पृथ्वी के सामने आयी इस विपदा के लिये जिम्मेदार है।

मार्क्स ने बताया कि "पूंजीवादी उत्पादन" ऐसे तकनीक विकसित करता है जो सामाजिक उत्पादन के साथ समन्वय करके सम्पदा के असली साधन-मिट्टी और मजदूर को कमजोर करते हैं।

मार्क्स ने पूँजीवाद का विश्लेषण किया और बताया कि पूंजीवादी व्यवस्था के हृदय- हर चीज को माल में बदलने की प्रवत्ति में ही दोहरा विरोधाभास है।

पूंजीवाद में, सबकुछ माल है, बिकाऊ है। किसी माल का मूल्य उसमें लगे मानव श्रम द्वारा तय होता है। 

पहला विरोधाभास तो यह कि जो मजदूर यह माल पैदा करते हैं उन्हें सिर्फ इतना ही मिलता है जितने में वे अपने जैसे मजदूर तैयार करते रहें(अपने बच्चों को)। इसके अलावा सारा मूल्य पूँजीपति अपने मुनाफे के रूप में हड़प लेता है।

दूसरा विरोधाभास यह है कि प्रकृति को इस तरह देखा जाता है जैसे इसका कोई मूल्य ही न हो-कोई ऐसी चीज जिसे हमेशा-हमेशा के लिए और मुफ्त में लूटा जा सकता है।

पूंजीवादी विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो सिर्फ मजदूरों के श्रम का ही शोषण नहीं करती बल्कि मिट्टी का भी शोषण करती है। 

चयापचय दरार 

मार्क्स ने अपने अध्ययन में दिखाया कि दूसरी सजीव प्रजातियों की तरह इंसान का भी प्रकृति के साथ मेटाबोलिक रिश्ता है। हालांकि, पूंजीवाद इस रिश्ते को लगातार छिन्न-भिन्न कर रहा है, मेटाबोलिक दरार को दिन दूना रात चौगुना बढ़ा रहा है।

पूंजी खंड एक में मार्क्स ने लिखा है-"पूंजीवादी उत्पादन मनुष्य और धरती के बीच के मेटाबोलिक प्रक्रिया को अस्तव्यस्त कर रहा है। जैसे-यह मनुष्य द्वारा खाने और कपडे के लिए मिट्टी से उपभोग किये गए मूल तत्वों को वापस मिट्टी में मिलने से रोकता है।"

कलाइमेट एंड कैपिटलिज्म  के सम्पादक इयान एंगस ने कहा है-"इस गृह पर तीन अरब साल से जीवन लगातार चलता रहा है उसकी सिर्फ एक वजह है-प्राकृतिक संसाधनों की रीसाइक्लिंग और पुनःउपयोग।"

लेकिन मेटाबोलिक दरार ने रिसाइक्लिंग की प्रक्रिया को बाधित कर दिया है। अगर हमने प्रकृति के साथ अपना व्यवहार नहीं बदला तो करोड़ों तरह के जीव-जंतु विलुप्त हो जाएंगे। क्योंकि जिस रफ़्तार से यह दरार बढ़ रही है तमाम जीव-जंतु उस रफ़्तार से तालमेल नहीं बिठा पाते।

करोड़ों साल से प्राकृतिक प्रक्रियाओं ने वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों को स्थिर बनाये रखा था। लेकिन पिछली शताब्दी में, ख़ास तौर पर पिछले तीस सालों में कार्बनडाई ऑक्साइड बहुत तेजी से बढ़ा है।

इकोलॉजी वैज्ञानिक बैरी कोमनर जिन्होंने 'क्लोजिंग सर्किल' लिखा था, मार्क्स के विचार से गहराई से प्रभावित थे। उन्होंने कहा-"इकोलॉजी का पहला नियम यह है कि हर किसी का हर चीज से सम्बन्ध है। ज़िंदा रहने के लिए हमें सर्किल को बंद करना पड़ेगा। हमें प्रकृति से उधार ली गयी सम्पदा को संरक्षित करना सीखना होगा।"

पर्यावरण की लड़ाई लड़ रहे आज करोड़ों लोग कॉमनर के इस निष्कर्ष को एक दूसरे के साथ साझा कर रहे हैं कि "हमारे सामने घटते-घटते सिर्फ दो विकल्प बचे हैं। पहला -तार्किक और सामाजिक संगठन बनाकर पृथ्वी की प्राकृतिक सम्पदाओं का वितरण हो। दूसरा-एक नए तरह के बर्बर युग का सामना करने को तैयार हो जाओ।

साम्राज्यवाद 

मार्क्स ने पूँजीवाद की गहरी जांच पड़ताल की और उन्होंने अपने समय के पूंजीवाद की गतिशीलता को समझा और जाना कि वास्तव में यह कैसे काम करता है।

उन्होंने देखा कि मुनाफे के लिए अलग अलग पूंजीपतियों में गलाकाट प्रतियोगिता है। इस प्रतियोगिता में छोटे पूंजीपति को बड़ा पूंजीपति निगल जाता है। यह प्रतियोगिता एकाधिकारी पूंजीवाद तक चलती रहती है। इस प्रक्रिया में लाखों मजदूर बेरोजगार की फ़ौज में शामिल हो जाते हैं। पूरा समुदाय और पारिस्थितिकी तंत्र तहस-नहस हो जाता है। राष्ट्रों को गुलाम बना लिया जाता है और विश्व के ऊपर युद्ध के बादल मंडराने लगते हैं। पूरा विश्व साम्राज्यवादी लुटेरे राष्ट्रों और आर्थिक गुलाम और पीड़ित उपनिवेशों, अर्ध उपनिवेशों में बदल जाता है। यह सब मिलकर एक वैश्विक पर्यावरण संकट को पैदा करते हैं।

अमरीका के मार्क्सवादी जॉन बेलामी फ़ॉस्टर ने कहा है-

वर्त्तमान संकट से निपटने के लिए तब तक कोई पर्यावरण क्रान्ति नहीं हो सकती जब तक कि वह साम्राज्यवाद विरोधी न हो और मानवता के ऊपर आये इस संकट में बहुतायत जनता को आकर्षित न करे।

इस तरह वैश्विक पर्यावरण आंदोलन पीड़ितों की एकता का आंदोलन होना चाहिए,जो असंख्य छोटे छोटे विद्रोह से मिलकर दुनियाभर के मजदूरों और लोगों के एक अंतरराष्ट्रीय आंदोलन की ओर अग्रसर होगा।

"गरीबों को धरती विरासत में मिलेगी या विरासत के लिए कोई धरती नहीं बचेगी" 

पूंजीवाद की मुनाफे के लिए प्रेत (जोम्बी) जैसी लालसा 

हॉरर फिल्म के शौकीन जोम्बी से खूब परिचित होंगे। एक मरा हुआ आदमी जो फिर ज़िंदा होकर लौट आता है पर इस बार उसमें मानवीय गुण नहीं होते। वह सोच नहीं सकता। इंसानों को मारता है और खाता भी है।  पूँजीवाद भी मुनाफे के लिए जोम्बी जैसा व्यवहार करता है। 

शुरू से ही पूंजीपति ने प्रकृति और अतिरिक्त श्रम की लूट की है। इसे लोग पूंजीपति का अधिकार समझते हैं। संचित मुनाफे को पूंजीपति प्रकृति और अतिरिक्त श्रम की लूट के अगले चक्र में लगाता है।

परिभाषा के अनुसार पूंजीपति की सभी आर्थिक कार्यवाहियों के केंद्र में रहता है-अधिकतम मुनाफ़ा। इसकी अपनी प्रक्रिया के हिसाब से या तो वह अधिकतम मुनाफ़ा कमाता है या ज्यादा मुनाफ़ा कमाने वाले पूंजीपति के मुंह का निवाला बन जाता है।

जिस पूंजीपति को मुनाफा होता है वह उत्पादन करता जाता है। यह प्रक्रिया पूँजीवाद को अतिउत्पादन के पुराने संकटों की ओर ले जाती है। ऐसे माल से बाजार भर जाते हैं जिन्हें खरीदना लोगों के वश की बात नहीं होती। ऐसे माल भी होते हैं जिनकी आमतौर पर लोगों को जरूरत भी नहीं होती।

इस समस्या से निपटने के लिए ऐडवर्टाइज़मेंट और फाइनेन्स उद्योग आता है। जो माल बिक नहीं रहा उसका प्रचार, जो लोग खरीद नहीं पारहे उनके लिए ऋण की व्यवस्था। इस तरह पूंजीवादी व्यवस्था सिर्फ अतिरिक्त श्रम की ही लूट नहीं करती, लोगों को कर्जदार भी बनाती है। सिर्फ तनख्वाह लेने वाले गुलाम ही नहीं, कर्ज लेने वाले गुलाम भी तैयार करती है। 

मार्क्स ने पूंजीवाद में आने वाले चक्रीय संकट की तुलना उस जादूगर से की है जो अब उस दुनिया की शक्तियों को नियंत्रित करने में सक्षम नहीं है जिसे उसने अपने मंत्र द्वारा बुलाया है"। आर्थिक संकट भी पूँजीवाद के नियंत्रण से बाहर हैं। 

पूँजीवाद का मुनाफे के लिए पागलपन किसी व्यक्ति की तर्क से परे की चीज है। पूंजी अधिकतम मुनाफे की मांग करती है। कॉर्पोरेट सीईओ किसी को भी मारने, नष्ट करने और चाहे जो करना हो वह करने के लिए तैयार रहते हैं। जब तक यह व्यवस्था रहेगी तब तक अतिरिक्त श्रम और प्रकृति की लूट चलती रहेगी। क्योंकि इसी पर यह व्यवस्था टिकी है। 

कब्र खोदने वाले 

हालांकि, मार्क्स ने यह भी भविष्यवाणी की थी कि पूंजीवाद अपने कब्र खोदने वाले पैदा करता है। वह बहुतायत में ऐसे लोग तैयार करता है जिनके पास ज़िंदा रहने के लिए अपना श्रम बेचने के अलावा कुछ विकल्प नहीं होता। यह है मेहनतकश वर्ग- या 99 प्रतिशत।

पूंजीवाद में --
  • श्रम का समाजीकरण बढ़ता है जबकि उत्पाद पर मालिकाना कुछ चाँद हाथों में सिमटता चलता है।
  • मेहनतकश वर्ग सिर्फ संख्या में नहीं बढ़ता बल्कि यह पहले से ज्यादा सघन होता चलता है और वर्ग के रूप में इसकी ताकत बढाती चलती है।
  • मध्यम वर्ग और कुछ पूंजीपति भी कंगाल होकर मेहनतकश वर्ग में शामिल हो जाते हैं। 
  • एक जैसे मशीनीकरण से दुनियाभर में मेहनतकश वर्ग की काम करने की परिस्तिथियाँ और तनख्वाह, जीवन स्तर लगभग एक जैसा हो जाता है।
चेतना बढ़ना 

मार्क्स ने भविष्यवाणी की थी कि ९९ प्रतिशत की पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष से चेतना लगातार बढाती जायेगी क्योंकि पूंजीवाद प्रकृति और लोगों के खिलाफ काम करके लोगों को संघर्ष के लिए मजबूर करेगा।

विद्रोहियों और क्रांतिकारियों ने संघर्षों से सीखा है कि ९९ प्रतिशत की एकता ही सबसे अच्छा शिक्षक है।

रूसी क्रांतिकारी नेता व्लादिमीर लेनिन ने तर्क दिया कि क्रांतिकारियों को सामने आना चाहिए और ट्रेड यूनियनों के मजदूरी बढ़ाने और स्थितियों में कुछ सुधार करने की संकीर्ण मांग से बाहर निकालकर पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष के लिए एकजुट करना चाहिए।

अपनी प्रसिद्ध पुस्तक, क्या करें? में लेनिन ने तर्क दिया: "मेहनतकश वर्ग की चेतना तब तक वास्तविक राजनीतिक चेतना नहीं हो सकती है जब तक कि मेहनतकश वर्ग को अत्याचार, उत्पीड़न, हिंसा और दुर्व्यवहार के सभी मामलों का जवाब देने के लिए प्रशिक्षित नहीं किया जाता है।"

चेतना में बदलाव केवल तभी हो सकता है जब उत्पीड़ित वर्ग "अपने आसपास की परिस्तिथियों से, राजनैतिक तथ्यों और घटनाओं से" विभिन्न वर्गों के व्यवहार को सीखे और "सभी तरह के उत्पीड़न" के खिलाफ संघर्ष में इस समझ को लागू करें।

"सभी तरह के उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष" का आज निचोड़ है-जलवायु संकट के खिलाफ लड़ाई क्योंकि पर्यावरण संकट अस्तित्व के लिए खतरा है।

20 सितम्बर को ग्लोबल क्लाइमेट स्ट्राइक हुई। इसमें 185 देशों ने, 73 ट्रेड यूनियनों ने, 3024 व्यापारिक संस्थाओं, 820 विभिन्न संगठनों और 8583 वेबसाइट ने भागीदारी की। पूरी बहस जीवाश्म ईंधन (कॉल और पेट्रोलियम) के जलाने पर आकर टिक गयी। पूंजीवाद ने इसको जलाने से रोकने पर नौकरियों का रोना रो दिया। इन संगठनों के पास इसका कोई जवाब नहीं था। जबकि इसका विकल्प लेकर उत्पीड़ित जनता को गोलबंद किया जाना चाहिए। 

जब तक यह लड़ाई पूँजीवाद के खिलाफ संगठित नहीं होगी तब तक पूंजीपति वर्ग इसे भटकाते रहेंगे।

समाजवाद या कुछ और

आज पारम्परिक ऊर्जा श्रोतों पर खूब बहस है। जीवाश्म ईंधन के विकल्प के तौर पर इसे देखा जा रहा है। तमाम वैज्ञानिक और रिसर्च संस्थान इनके उपयोग की बात कर रहे हैं। पर पूंजीवाद इसे लागू क्यों करेगा? वह किसी भी नयी तकनीकी को इसलिए लाता है कि उसका मुनाफ़ा दिन दूना रात चौगुना बढे। उसे इंसानियत और प्रकृति की परवाह नहीं। उसके हिसाब से हमें सब कुछ बाजार के ऊपर छोड़ देना चाहिए। धीरे-धीरे वह समय आएगा जब पारम्परिक ऊर्जा श्रोत भी पूंजीपति को मुनाफ़ा देने लगेंगे और वह अपनी फैक्ट्री और मशीनों को चलाने के लिए जीवाश्म ईंधन का त्याग कर देगा। 

पहली बात तो यह कि क्या हमारे पास इतना इफरात समय है कि हम पूँजीवाद को एक मौक़ा और दें? यानी हाथ पर हाथ रखकर धरती को बर्बाद होते देखते रहें। दूसरी बात क्या पूंजीवाद तकनीकी बदलकर प्रकृति और अतिरिक्त श्रम की लूट बंद कर देगा। यानी क्या वह अपने हृदय की धड़कन को अपने आप बंद कर लेगा। कि हे क्रांतिकारी और पर्यावरण प्रेमियों आपकी सदिच्छा का सम्मान करते हुए मैं खुद के प्राण त्याग रहा हूँ।

न तो हमारे पास इतना समय है कि बाजार भरोसे धरती को मरने दें न पूँजीवाद कभी अपने हृदय कि धड़कन खुद बंद करेगा। इसलिए जरूरी है कि हम सभी उत्पीड़ितों को मिलकर पूँजीवाद के हाथ से अर्थव्यवस्था को छीनना होगा। इस पूंजीवाद की जगह एक नयी व्यवस्था लानी होगी। ऐसी व्यवस्था जो इस धरती पर रहने वाले सभी मनुष्यों के लिए, नदियों के लिए, झरनों के लिए, जीव जंतुओं के लिए मतलब हर सजीव और निर्जीव के लिए अनुकूल हो। जिसमें किसी का दम न घुटे। ऐसी उत्पादन व्यवस्था जिसमें ऊर्जा की खपत कम से कम हो। मानव श्रम को ऊर्जा के रूप में इस्तेमाल हो।

अब आप इसे समाजवाद कहिए या कोई और नाम दो। पर यही इस धरती का भविष्य है। यह हम सब की जरूरत है। 

यह लेख मंथली रिव्यू के एक लेख का भावानुवाद है। मूल लेख अंग्रेजी में है। उसे पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जा सकते हैं--
Marx’s lessons for today’s climate rebels
अनुवाद-- राजेश कुमार

3 comments:

  1. शानदार और सहज-सरल भाषा में प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद!

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  2. बहुत बढिया

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  3. इस लेख को ब्लॉग पर पोस्ट करने के लिए धन्यवाद....

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