प्रकृति पर अपनी इन्सानी जीत को लेकर हमें बहुत ज्यादा डींग नहीं हाँकनी चाहिए, क्योंकि ऐसी हरेक जीत के बदले प्रकृति हमसे बदला लेती है। यह सही है कि हरेक जीत से पहले-पहल वे ही नतीजे हासिल होते हैं जिनकी हमें उम्मीद थी, लेकिन दूसरी-तीसरी मंजिल में उससे बिलकुल अलग किस्म के अनदेखे नतीजे सामने आते हैं जो अकसर पहले वाले नतीजों को बेअसर कर देते हैं।
मेसोपोटामिया, यूनान, एशिया माइनर और दूसरे इलाकों में जिन लोगों ने खेती की जमीन के लिए जंगलों को तबाह कर डाला, उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि उन जंगलों के साथ-साथ नमी इकट्ठा करने और उसे हिफाजत से रखने वाले खजाने को खाली करके वे इन देशों की मौजूदा तबाही की बुनियाद डाल रहे हैं। आल्प्स के इटलीवासियों ने जब दक्षिणी इलाकों पर से चीड़ के जंगलों को काट-काटकर पूरी तरह इस्तेमाल कर लिया, जिन्हें उत्तरी इलाकों ने बड़ी हिफाजत से पाला-पोसा था, तब उन्हें इस बात का अहसास नहीं था कि ऐसा करके वे अपने इलाके के पशुपालन की जड़ खोद रहे हैं। इस बात का तो उन्हें और भी कम अहसास था कि इसके चलते वे हर साल कई महीने के लिए अपने पहाड़ी झरनों के पानी से खुद को महरूम कर रहे हैं और दूसरी ओर उन स्रोतों को ऐसी हालत में पहुँचा रहे हैं कि वे बरसात के मौसम में मैदानी इलाकों में भयावह बाढ़ लाया करें। ...
इस तरह हर कदम पर हमें आगाह किया जाता है कि हम प्रकृति पर विदेशी हमलावरों की तरह हकूमत बिलकुल नहीं करते-जैसे कि हम प्रकृति से बाहर के लोग हों - बल्कि अपने खून, माँस और दिमाग के साथ हम प्रकृति का अपना हिस्सा हैं, हम उसके भीतर ही मौजूद हैं और इसके ऊपर हमारी सारी हकूमत इस बात में शामिल है कि दूसरे सभी जानवरों से हम इस मायने में बेहतर हालत में हैं कि हम प्रकृति के नियमों को सीख सकते हैं और उन्हें सही ढंग से लागू कर सकते हैं।
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