Friday, 15 May 2015

क्या पूँजीवाद पर्यावरण संकट को हल कर सकता है?

 किसी समस्या को जड़ से मिटाने के लिए उसकी जड़ तक पहुँचना जरूरी होता है। पर्यावरण संकट के बारे में भी यह जानना जरूरी है कि आखिर प्रकृति का विनाश क्यों हो रहा है? इस प्रश्न पर विचार करते ही यह स्पष्ट हो जाता है कि आज पर्यावरण से जुड़ी जितनी समस्यायें हैं-ग्लोबल वार्मिंग, वायु और जल प्रदूषण, नयी-नयी बीमारियाँ, जीव जन्तुओं का लुप्त होना, उन सब के पीछे हमारी मौजूदा आर्थिक व्यवस्था की कार्यप्रणाली दोषी है। यह मनुष्य के जन्मजात लोभ-लालच या लापरवाही का नतीजा नहीं है। इसे किसी पूँजीपति या अधिकारी की निजी करतूत के रूप में न देखकर हमें उस सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था पर विचार करना होगा जो इस विनाश का मूल कारण है।
आज पूरी दुनिया में पूँजीवाद का डंका बज रहा है। यह सर्वव्यापी, सर्वग्राही है। हमारे मन-मस्तिष्क में पूँजीवादी मूल्य और पूँजीवादी विचार पूरी तरह रचे-बसे होते हैं, क्योंकि इन्हीं मूल्यों को ग्रहण करते हुए हम बड़े होते हैं। इसीलिए हम अवचेतन रूप से इन्हें सहज स्वीकार्य, स्वाभाविक और लाभदायक मानकर उसे अपने जीवन में उतारते हैं, जैसे-निजी लोभ-लालच और स्वार्थ, अन्धी प्रतियोगिता, मजदूरों का निर्मम शोषण, गरीबी-अमीरी की चौड़ी होती खाई, प्रकृति का बेहिसाब दोहन इत्यादि। हमें कुछ भी गलत नहीं लगता, बल्कि हम समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए इन बातों का होना जरूरी मानते हैं। इसके प्रति हमारा दृष्टिकोण आलोचनात्मक नहीं होता। लेकिन पर्यावरण और पूँजीवाद के बीच शाश्वत टकराव के कुछ पहलुओं पर यदि हम आलोचनात्मक दृष्टि से विचार करें तो यह स्पष्ट होगा कि क्यों इस व्यवस्था के रहते पर्यावरण संकट का        समाधान सम्भव नहीं है।
पूँजीवाद के लिए लगातार विस्तार करते रहना जरूरी है। पूँजीवाद की चालक शक्ति और इसके जिन्दा रहने की शर्त यह है कि वह लगातार पूँजी संचय करके मुनाफे और दौलत की ढेर लगाता जाए। इसके लिए जरूरी है कि दौलतमदों में मुनाफे की हवस और लोगों में ज्यादा से ज्यादा उपभोग की लालसा जगायी जाए। अपने माल की बिक्री बढ़ाने के लिए पूँजीपति विज्ञापनों के माध्यम से लोगों में अधिक से अधिक उपभोग करने की भूख पैदा करते हैं। उनके लिए यह धरती और प्रकृति, मानव समाज और अन्य जीव-जन्तुओं के साथ मिलजुलकर जिन्दगी बसर करने की जगह नहीं, बल्कि अपने मुनाफे में दिन-दूनी, रात-चौगुनी बढ़ोतरी करने के लिए कच्चे माल और ऊर्जा का बेहिसाब दोहन करने का जरिया होती है।
पूँजी तभी तक पूँजी है, जब तक उसका निवेश करके उससे मुनाफा कमाया जा सके। पूँजीवाद का यह अन्तरनिहित तर्क है। इसलिये हर पूँजीपति के लिए यह जरूरी होता है कि वह अपना मुनाफा बढ़ाता रहे या मरने को तैयार रहे। आर्थिक विकास रूकने का अर्थ है पूरी अर्थव्यवस्था का संकटग्रस्त होना और उसका अंत होना। एक ही शर्त पर विकास दर को शून्य पर टिकाये रखा जा सकता है कि पूँजीपति अपनी लागत निकाल कर सारा अधिशेष (मुनाफा) या तो खुद पर खर्च कर दे या उसे मजदूरों में बाँट दे, यानी मुनाफे को इकट्ठा करके उसे पूंजी में बदलने का काम न करे और मजदूरों का शोषण न करे। इससे ‘‘साधारण पुनरुत्पादन’’ का चक्र चलता रहेगा, भले ही अर्थव्यवस्था में ठहराव हो। लेकिन पूँजीवादी सम्बन्धों के बने रहते ऐसा सम्भव नहीं है। पूँजीपति वर्ग जिसके रोम-रोम में मुनाफा समाया हुआ हो और जो अपनी सम्पत्ति को दिन-रात बढ़ाते रहने के लिए ही जीता हो, वह भला मजदूरों का शोषण करने के बजाय क्यों अपना मुनाफा उन्हें सौंप देगा या खुद पर पूरा का पूरा खर्च कर देगा? इसके विपरीत पूँजी का मालिक मरते दम तक अपने मुनाफे को बढ़ाते रहने के लिए हाथ-पाँव मारता रहेगा। वह नयी-नयी मशीनें लाकर मजदूरों की संख्या कम करेगा, ताकि कम मजदूरी देकर ज्यादा से ज्यादा अधिशेष प्राप्त किया जा सके। यही पूँजी का मूल मंत्र है-मजदूरों का शोषण और मुनाफा। इसलिए, अर्थव्यवस्था को स्थिर रखते हुए मजदूरों का शोषण किये बिना भी निरन्तर उत्पादन जारी रखने के लिए पूँजीवादी सम्बन्धों को बदलना जरूरी होगा। इसके लिए एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना जरूरी होगा, जहाँ सामूहिक उत्पादन पर निजी मालिकाना और निजी मुनाफा न रहे तथा उत्पादन का उद्देश्य सबके लिए जरूरी साधन उपलब्ध कराना हो, कुछ लोगों के लिए निजी मुनाफे का जरिया नहीं। जब तक ऐसा नहीं होता, पूँजीवाद हर कीमत पर लगातार विस्तार करने और आर्थिक वृद्धि जारी रखने के लिए मानव श्रम और प्राकृतिक सम्पदा का निर्मम शोषण करता रहेगा। पूँजी विस्तार को कायम रखने के लिए देश से बाहर जाकर पूँजी निवेश करना तथा कच्चे माल के स्रोतों, सस्ते श्रम और बाजार पर कब्जा जमाना जरूरी है। आज साम्राज्यवादी देश यह काम बड़े पैमाने पर कर रहे हैं। तेल और खनिज पदार्थों पर कब्जे के लिए मारामारी चल रही है। साथ ही साम्राज्यवादी देशों द्वारा विदेशों में जमीन हड़पकर वहाँ अपने देश की जरूरत के लिए अनाज, पशु चारा और बायोडीजल उगाने का काम जोरों पर है। साम्राज्यवादी देशों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने मुख्यतः अफ्रीका में लगभग 3 करोड़ हेक्टेयर जमीन पर कब्जा किया है जो यूरोप की कुल सिंचित जमीन का दो तिहाई है। इस जमीन पर खेती करने का मकसद जल्दी से जल्दी और ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना है। इसके लिए पानी का बेतहाशा दोहन और रसायनों का बेहिसाब इस्तेमाल करके जमीन को बंजर बनाना पड़े तो भी साम्राज्यवादियों पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इतिहास में उपनिवेशवादियों ने प्रकृति का जिस तरह विनाश किया था, अब वे उससे भी अधिक निर्मम तरीकों से तबाही लायेंगे क्योंकि तब मुख्यतः प्राकृतिक साधनों से खेती होती थी। अब वे रसायनों, खरपतवार नाशकों या कीट नाशकों और कृत्रिम बीजों का प्रयोग करके जमीन की उर्वरता, भूगर्भ जल और जैव विविधता को जल्दी से जल्दी खत्म करने में समर्थ हैं और वे यही कर रहे हैं।
बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ प्राकृतिक संसाधनों और सस्ते श्रम की तलाश में दुनिया का कोना-कोना छान मारती हैं। उनकी लूट-खसोट के कारण देशों के बीच और देश के भीतर अलग-अलग तबकों के बीच गरीबी-अमीरी की पहले से ही मौजूद खाई और चौड़ी होती जा रही है तथा प्रकृति की तबाही भी पहले से काफी तेजी से हो रही है। पूँजीवाद की प्रकृति है बेरोकटोक, असीमित विस्तार करते जाना, लेकिन प्राकृतिक संसाधनों की मात्र तो सीमित है। इसीलिए पूँजीवादी उत्पादन और प्रकृति की सुरक्षा दोनों एक साथ चल ही नहीं सकते। उत्पादन प्रक्रिया में प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल होता है, जैसे-तेल, गैस, कोयला (ईंधन), पानी (खेती और उद्योग दोनों के लिए), पेड़ (कागज और इमारती लकड़ी के लिए), खनिज पदार्थ (लौह अयस्क, ताम्बा बॉक्साइड) इत्यादि। प्रकृति में कुछ चीजों की मात्र सीमित होने के बावजूद यदि उनका योजनाबद्ध तरीके से इस्तेमाल किया जाए तो उन्हें दुबारा पैदा किया जा सकता है। लेकिन तेल, गैस, कोयला, खनिज पदार्थ और कुछ इलाकों का भूजल ऐसे साधन हैं जिनका एक बार दोहन कर लिया जाए तो उन्हें दुबारा हासिल नहीं किया जा सकता। इसी तरह हवा, पानी और मिट्टी भी तभी तक जीव-जन्तुओं और पेड़-पौधों के काम लायक रहेंगी, जब तक उनका प्रदूषण एक सीमा से अधिक न हो।
पूँजीपति और उनके प्रबन्धक दूरदर्शी नहीं होते। उन्हें तो अधिक से अधिक 5 या 10 साल की फिक्र होती है। अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए उन्हें प्रतियोगिता, लागत में कमी और मंदी से बचने तथा सट्टेबाजों को कम समय में अधिक लाभांश देने की चिन्ता खाती रहती है। वे यह नहीं सोचते कि जिन प्राकृतिक संसाधनों का वे इस्तेमाल करते हैं, उनकी मात्र सीमित है। उल्टे जब उन्हें पता चलता है कि कोई स्रोत सूखने वाला है तो वे उसके दोहन की रफ्तार बढ़ा देते हैं और आपस में उसके लिए मारा-मारी शुरू कर देते हैं। इस तरह निजी पूँजीपति अपने मुनाफे और पूँजी संचय के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए जो भी फैसले लेते हैं, वे प्रकृति और मानव समाज के भविष्य के लिए हानिकारक होते हैं।
एक अध्ययन के अनुसार धरती के गर्भ में आज जितना खनिज तेल होने का अनुमान है और दुनियाभर में तेल की जितनी खपत आज हो रही है, उसके हिसाब से अगले 50 साल में खनिज तेल भंडार खत्म हो जायेगा। इसी तरह उर्वरक के उत्पादन में काम आने वाला फॉसफोरस भी इसी सदी में समाप्त हो जायेगा। लेकिन इस सीमा को देखते हुए साम्राज्यवादी ताकतें प्राथमिकता के आधार पर इनका किफायत से उपभोग करने या इन चीजों का विकल्प तलाशने के बजाय तेजी से इनकी छीनाझपटी करने मंे लगी हैं।
बड़े-बड़े मछली मारने वाले जहाजों के इस्तेमाल के कारण ढेर सारी समुद्री मछलियाँ गायब हो गयीं। इससे प्रकृति के जीवन चक्र को तो अपूरणीय क्षति हुई ही, उस पर निर्भर करोड़ों मछुआरें तबाह हो गये। निजी और स्वार्थपूर्ण पूँजी संचय के तर्क से चलने वाली व्यवस्था ने सदियों से चली आ रही प्राकृतिक अर्थव्यवस्था को रातों-रात तबाह कर दिया। विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा सार्वजनिक सम्पत्ति की निजी लूट के ऐसे ही विनाशकारी परिणाम कई अन्य क्षेत्रों में भी देखे जा सकते हैं।
जो व्यवस्था मुनाफे की हवस से संचालित हो, उसके द्वारा धरती की सीमाओं का अतिक्रमण किया जाना लाजिमी है। धरती पर मानव सभ्यता को शुरू हुए 12 हजार साल हो गये। लेकिन पिछले 500 सालों में ही पूँजीवाद धरती के कार्बन चक्र, नाइट्रोजन चक्र, मिट्टी, जंगल और समुद्र जैसी सभी बुनियादी सीमाओं को लाँघ चुका है। धरती का पूरा जलवायु-तंत्र पतन की ओर बढ़ रहा है। जैसे-जैसे दुनिया की अर्थव्यवस्था आगे बढ़ रही है, वैसे-वैसे धरती के चयापचय में मनुष्य द्वारा दखलन्दाजी से उत्पन्न दरार चौड़ी होती जा रही है और दिनों दिन यह ज्यादा खतरनाक होती जा रही है। इस बात को जानते हुए भी दुनिया भर के पूँजीवादी शासक अपने आर्थिक विकास और पूँजी संचय पर लगाम लगाने के बजाय उसे सरपट दौड़ाने की कोशिश कर रहे हैं। पर्यावरण संकट को हल करने के लिए उसी आर्थिक व्यवस्था पर भरोसा नहीं किया जा सकता, जो पिछले 500 वर्षों से प्रकृति का विनाश करती आ रही है। पूँजीवाद और जलवायु के बीच स्थायी शत्रुता की सच्चाई को देखते हुए मौजूदा आर्थिक प्रणाली का विकल्प तलाशना जरूरी है। पूँजीपति अपनी मर्जी से इस विनाश के ताण्डव को नहीं रोकेंगे। शोषित पीड़ित जनता को बलपूर्वक उनके ऊपर अंकुश लगाना होगा, तभी धरती बच पायेगी।

यह सही है कि पूँजीवादी व्यवस्था का चरित्र सभी सामाजिक व्यवस्थाओं से इस मामले में विचित्र और न्यारा है कि यह व्यक्तिवाद, चरम स्वार्थ और गलाकाटू प्रतियोगिता को फलने-फूलने का मौका देती है। अपनी निर्बाध लूट को जारी रखने के लिए यहाँ अर्थव्यवस्था के अनुरूप राजनीति, न्याय प्रणाली, प्रचार माध्यम, शिक्षा, संस्कृति का पूरा ताम-झाम खड़ा किया जाता है। यहाँ पूँजीपतियों, राजनेताओं और कानून के बीच अपवित्र गठबन्धन-घूसखोरी, भ्रष्टाचार, सिफारिश साफ दिखाई देती है। जलवायु संकट की वार्ताओं में ऐसा ही हुआ, जब धरती को नरक बनाने वाले पूँजीपतियों के पक्ष में पत्रकार वैज्ञानिक, कानूनविद, नौकरशाह और राजनीतिक प्रतिनिधि मजबूती से खड़े हुए। उनकी निगाह में पूँजीपति वर्ग का तात्कालिक हित ही देश का हित और पूरी जनता का हित है। यही कारण है कि पूँजीपति अपने मुनाफे की कीमत पर बहुसंख्य जनता को स्वास्थ्य, शिक्षा, भोजन, रोजगार, स्वच्छ वातावरण, साफ पानी और जीवन के लिए जरूरी साधनों से वंचित रखता है और पर्यावरण का विनाश करता है। लेकिन यह भी सच है कि पूँजीवादी व्यवस्था से पहले का इतिहास इससे कहीं लम्बी अवधि का, मानव सभ्यता की कुल अवधि का 99 प्रतिशत रहा है जब सामूहिकता और परस्पर हितों को बढ़ावा मिलता रहा है। 

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