कोपेनहेगन में भी एक बार फिर वही नाटक दुहराया
गया जो जलवायु परिवर्तन पर होने वाली अन्तरराष्ट्रीय वार्ताओं में साम्राज्यवादी
देशों द्वारा बार-बार खेला जाता है। फर्क इतना ही था कि इस बार यह सब कहीं ज्यादा
षड्यंत्रकारी तरीके से और कहीं ज्यादा धूर्तता के साथ किया गया। इस सम्बन्ध में
फिदेल कास्त्रो की टिप्पणी उल्लेखनीय है-
‘‘17 दिसम्बर की शाम से लेकर अगले दिन 18 की सुबह
तक ओबामा की ओर से प्रस्ताव लाने के लिए डेनमार्क के प्रधानमंत्री, अमरीका के कुछ वरिष्ठ प्रतिनिधि, यूरोपीय आयोग के अध्यक्ष और 27 देशों के नेतागण
अलग से बैठक करते रहे। यह एक ऐसा प्रस्ताव था जिसमें दुनिया के अन्य देशों के
प्रतिनिधिमण्डलों की कोई भागीदारी नहीं थी। यह एकदम आलोकतांत्रिक, अवैध और गुपचुप तरीके से की गयी कार्रवाई थी।
इसने दुनिया भर के सामाजिक आन्दोलनों, वैज्ञानिक
और सामाजिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों तथा सम्मेलन में शामिल दूसरे हजारों लोगों की
उपेक्षा की थी।’’ फिदेल के अनुसार ‘‘डेनिस राजधानी में यदि कोई महत्त्वपूर्ण
उपलब्धि रही तो वह थी मीडिया कवरेज जिसने वहाँ पैदा की गयी अराजकता तथा काफी
उम्मीद लेकर पहुँचे राष्ट्र प्रमुखों, मंत्रियों
और सामाजिक आन्दोलनों व संस्थाओं के प्रतिनिधियों के साथ किये गये अपमानजनक
व्यवहार को पूरी दुनिया के सामने ला दिया। शान्तिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे लोगों का
पुलिस द्वारा बर्बर दमन उन नाजी सेनाओं के व्यवहार की याद दिला गया जिसने अप्रैल
1940 को पड़ोसी डेनमार्क पर कब्जा कर लिया था।’’
अमरीका द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज को जी-77 ने
यह कहते हुए अमान्य कर दिया कि यह सम्मेलन के लिए स्वीकार्य नहीं है और इसलिए इसे
अपनाया नहीं जा सकता। सम्मेलन में बोलीविया, वेनेजुएला, क्यूबा और सूडान ने विकासशील देशों का मजबूती
से पक्ष लिया तथा साम्राज्यवादी देशों और उनके पिछलग्गुओं की साजिशों का भंडाफोड़
किया। इसे सिर्फ 25 देशों का पक्ष रखने वाले प्रस्ताव के रूप में लिया गया। इस
दस्तावेज में विकसित देशों, खास
तौर पर अमरीका के लिए कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने की कोई बाध्यता नहीं थी।
इसमें अधिक उत्सर्जन करने वाले धनी देशों ने विकासशील देशों को उत्सर्जन में कटौती
करने के बदले अनुदान देने या उन्हें प्रदूषण घटाने वाली तकनोलॉजी का हस्तांतरण
करने की कोई गारण्टी नहीं की थी। दुनिया के अलग-अलग देशों में भारी विषमता को
ध्यान में रखते हुए जलवायु परिवर्तन की वार्ताओं में शुरू से ही यह स्थापित था कि
उत्सर्जन घटाने के लक्ष्य को इस आधार पर तय किया जायेगा कि किसी देश में उपभोग का
स्तर कैसा है और वहाँ ऊर्जा की खपत कितनी है। दस्तावेज में इस अंतर को नजरंदाज
करने का प्रयास किया गया। क्योटो प्रोटोकॉल का सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा जलवायु सन्धि
के प्रावधानों को कानूनी तौर पर बाध्यकारी बनाया जाना था जिसे ताक पर रखते हुए इस
दस्तावेज ने जलवायु वार्ताओं को निरर्थक वाद-विवाद तक सीमित कर दिया। वार्ताओं की
शुरूआत से ही अमरीका की यही मंशा थी।
कोपेनहेगन सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधियों की भूमिका
बेहद लज्जाजनक रही। अपनी अमरीका परस्ती और साम्राज्यवाद समर्थक रवैये का परिचय
देते हुए उन्होंने अमरीका के उस दस्तावेज को स्वीकार किया जो भारत सहित तीसरी
दुनिया के देशों के खिलाफ था। कभी गुटनिरपेक्ष आन्दोलनों में नेतृत्वकारी भूमिका
निभानेवाला भारत आज अपनी समर्पणवादी विदेश नीति के कारण जी-77 के बजाय उस जी-7 के
पाले में खड़ा नजर आता है जो अपने साम्राज्यवादी स्वार्थों की पूर्ति के लिए
विकासशील देशों और पूरी धरती के लिए तबाही का रास्ता तैयार कर रहा है। दरअसल भारत
सरकार के रुख का अन्दाजा उसी समय से लगने लगा था जब पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने
हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने और कार्बन उत्सर्जन में कटौती के बारे में भ्रामक
बयानबाजी की थी। इस तरह भारत, जो
क्वेटो प्रोटोकॉल का प्रबल समर्थक था, ‘महाशक्ति’ बनने के मुगालते में, साम्राज्यवाद का दामन थामते हुए क्वेटो प्रोटोकॉल को तिलांजलि
देने वालों की कतार में खड़ा हो गया। इसे तीसरी दुनिया और भारतीय जनता के साथ
सरासर धोखा कहा जाय तो गलत नहीं।
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