साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के मौजूदा दौर में
बाजार को सर्वव्यापी, निर्विकल्प और सर्वोपरी शक्ति के रूप
में स्थापित कर दिया गया है। दौलत और सत्ता आज विवेक पर हावी है। बाजारवादी ताकतें
धरती के दूरगामी भविष्य की चिन्ता करने के बजाय अपने तात्कालिक मुनाफे के पीछे
पागल हैं। इसीलिए जलवायु संकट के समाधान भी वे बाजार के तर्कों और शर्तों पर ही
प्रस्तुत करते हैं। इन बाजारवादी समाधानों में कार्बन व्यापार उत्सर्जन का
प्रतिसंतुलन और अनाज से जैव ईंधन (बायो-डीजल) का उत्पादन प्रमुख है। इनका मकसद
पूँजी संचय और बेतहाशा उपभोग को लगातार जारी रखना है, जो पर्यावरण विनाश के लिए जिम्मेदार है।
प्राकृतिक और मानव श्रम की लूट पर फलने-फूलने वाली बाजार की समृद्धि और पर्यावरण
की रक्षा दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं। इन दोनों को एक साथ साधना सम्भव नहीं है।
बाजारवादी इस तथ्य को स्वीकार करने के बजाय कि अन्धाधुन्ध पूँजीवादी उत्पादन और उपभोग के
कारण ही पर्यावरण का विनाश हुआ है, उल्टे
उस पर पर्दा डालते हैं। नतीजा यह कि आज दुनिया के तापमान में आईपीसीसी के अनुमानों
से कहीं ज्यादा तेजी से वृद्धि हो रही है। यह स्थिति तब तक बनी रहेगी, जब तक इस प्राकृतिक महाविपदा के असली कारणों को
दूर नहीं किया जायेगा और विनाश के कारकों को ही समाधान के रूप में प्रस्तुत किया
जाता रहेगा।
पश्चिमी साम्राज्यवादी देश वातावरण में 80
प्रतिशत कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्र बढ़ाने के लिए जिम्मेदार हैं। ब्रिटेन का एक
नागरिक 11 दिन में जितना कार्बन-डाइ- ऑक्साइड का उत्सर्जन करता है उतना बाग्लादेश
का एक नागरिक एक साल में भी नहीं करता। 14 करोड़ की आबादी वाले 6 अफ्रीकी देश जितना
कार्बन डाइ ऑक्साइड उत्पन्न करते हैं, उतना
ब्रिटेन के एक ही पावर प्लान्ट से उत्सर्जित होता है। अमरीका के निजी वाहनों के
धुएँ और विलासिता के सामानों से निकलने वाली जहरीली गैसें पर्यावरण विनाश के बहुत
बड़े कारण हैं। लेकिन फिर भी अमरीका और अन्य धनी देश इस जिद पर अड़े हैं कि जब तक
तीसरी दुनिया के देश अपना उत्सर्जन नहीं घटाते, तब तक वे भी नहीं घटायेंगे। सीधी बात यह कि जो
लोग पृथ्वी की तबाही के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं वे ही इसके समाधान की
जिम्मेदारी से भाग रहे हैं। यही कारण है कि जलवायु वार्ताएँ एक-एक कर असफल होती जा
रही हैं।
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