Saturday, 23 May 2015

अन्तरराष्ट्रीय वार्ताओं की असलियत

(क) क्वेटो प्रोटोकॉल और उसकी असफलता 
(ख) बाली मानचित्र
(ग) कोपेनहेगन सम्मेलन 
(घ) कानकुन सम्मेलन 
(ङ) जलवायु परिवर्तन पर वार्ताएँ क्यों असफल हो रही हैं
(च) पूँजीवाद मोटर कार उद्योग और प्रदूषण

क्वेटो प्रोटोकॉल और उसकी असफलता
ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को नियन्त्रिात करने के लिए 1990 के दशक में विश्व स्तर पर प्रयास शुरू हुआ। 1992 में रियो-द जेनेरियो में पृथ्वी सम्मेलन के नाम से पर्यावरण संकट पर पहला विश्व सम्मेलन हुआ।  साम्राज्यवादी देशों की नीयत इसी पहले सम्मेलन में सामने आ गयी थी जिसके घोषणा पत्र में कहा गया था कि ‘‘आर्थिक विकास ही ऐसी परिस्थिति तैयार करता है, जिसमें पर्यावरण की सबसे अच्छी तरह रक्षा की जा सके।’’
इस सम्मेलन ने विश्व बैंक को दुनिया भर में पर्यावरण सम्बन्धी उपायों की निगरानी करने का कार्यभार सौंपा। विडम्बना यह कि विश्व बैंक ने 90 के दशक में खनिज ऊर्जा के क्षेत्र में वैकल्पिक ऊर्जा की तुलना में 15 गुना अधिक पूँजी निवेश के लिए कर्ज दिया। तब से आज तक जलवायु सम्मेलनों की दिशा कमोबेश यही है। जलवायु परिवर्तन पर सम्मेलन के लिए संयुक्त राष्ट्र निर्देश (यूएनएफसीसी) ने कई दौर की बातचीत के बाद 1997 में जापान के क्वेटो शहर में सम्मेलन करके क्वेटो प्रोटोकॉल नाम से एक दस्तावेज स्वीकार किया। इसके तहत दुनिया में पहली बार औद्योगिक देशों को इस बात के लिए ‘‘कानूनी रूप से बाध्य’’ किया गया कि वे अपनी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 2008-2012 तक आते-आते 1990 के स्तर से 5.2 प्रतिशत कम करेंगे। इस सहमति के अनुसार यूरोपीय संघ को 8 प्रतिशत, अमरीका को 7 प्रतिशत और जापान को 6 प्रतिशत की कमी लानी थी। चीन सहित सभी विकासशील देशों को शुरुआती दौर में इस कटौती से मुक्त रखा गया था।
इस सहमति के बाद की वार्ताओं में साम्राज्यवादी देशों ने कार्बन उत्सर्जन कम करने की जिम्मेदारी को टालने के लिए दो नये तरीके सुझाये-
 उत्सर्जन परमिट की अदला-बदली, यानी जिन विकासशील देशों के लिए उत्सर्जन में कटौती करना जरूरी नहीं, उनको पैसे देकर उनसे उत्सर्जन में कटौती करवाने और उसके बदले अपने देश में हुए उत्सर्जन की उतनी ही मात्र की क्षतिपूर्ति के लिए परमिट लेना। 2. ‘‘कार्बनकुण्ड’’ की अनुमति जिसमें धनी देशों को जंगल और खेती के बदले कार्बन उत्सर्जन की छूट देना। यूरोपीय यूनियन ने इन उपायों का विरोध करते हुए कहा कि यह प्रदूषण घटाने की अपनी जिम्मेदारी से बचने का एक बहाना है जबकि अमरीका, कनाडा, जापान, आस्टेªलिया और न्यूजीलैण्ड ने इसका समर्थन किया। सन् 2000 के हेग सम्मेलन में इस पर कोई सहमति नहीं बनी और वार्ता भंग हो गयी। 2001 में अमरीका ने क्वेटो प्रोटोकॉल को गलत बताते हुए एकतरफा फैसला करके खुद को इससे अलग कर लिया।
2001 में बॉन में दुबारा वार्ता शुरू हुई, लेकिन क्वेटो प्रोटोकॉल को पूरी तरह बेअसर बना दिया गया। कार्बन उत्सर्जन परमिट की खरीद-बिक्री और कार्बन कुण्ड की माँग स्वीकार कर ली गयी। इस तरह उन धनी देशों को उत्सर्जन बढ़ाने का परमिट मिल गया जिनका उत्सर्जन 1990 के बाद तेजी से बढ़ रहा था। और तो और, ‘‘कानूनी बाध्यता,’’ जो क्वेटो प्रोटोकॉल को प्रभावी बनाने वाला एक मात्र बिन्दु था, उसकी जगह ‘‘राजनीतिक बाध्यता’’ लाकर दरअसल जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी वार्ताओं को निरर्थक वाद-विवाद के मंच में बदल दिया गया। उत्सर्जन बढ़ाने वाले देशों के लिए अब अधिकतम दण्ड यही हो सकता है कि अगले साल के लिए उनकी कटौती का कोटा बढ़ा दिया जायेगा।
अमरीका जो दुनिया भर में होने वाले कुल ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के एक चौथाई हिस्से के लिए अकेले जिम्मेदार है, उसका इससे अलग रहना बॉन सम्मेलन की सबसे बड़ी असफलता थी। हालाँकि क्वेटो प्रोटोकॉल ग्लोबल वार्मिंग कम करने की दिशा में एक बहुत ही विनम्र शुरुआत थी। वैज्ञानिकों के अनुसार इसके पूरी तरह लागू होने पर भी अगले 100 सालों में सामान्यतः जितनी ग्लोबल वार्मिंग होती उसमें केवल 0.15 डिग्री सेल्सियस कमी आ पाती। जलवायु में समुचित नियंत्रण के लिए उत्सर्जन में 60 से 70 फीसदी की कटौती जरूरी है जिसके लिए इससे 30 गुना अधिक कटौती की जरूरत है। लेकिन साम्राज्यवादी देश क्वेटो प्रोटोकॉल के छोटे से लक्ष्य को भी मानने पर राजी नहीं हैं।
क्वेटो प्रोटोकॉल से किनाराकशी के बाद अमरीका ने ग्लोबल क्लाइमेट कोलीशन जैसी लॉबिंग संस्थाओं और अपने पिट्ठू वैज्ञानिकों के जरिये जलवायु वार्ताओं की जरूरत और आईपीसीसी की रिपोर्ट पर ही प्रश्न चिन्ह लगाना शुरू किया तथा यह भ्रम फैलाया कि जलवायु परिवर्तन महज एक हौवा है। इसके पीछे मोटर वाहन उद्योग और अन्य कम्पनियों का स्वार्थ है, क्योंकि उत्सर्जन में कटौती करने से उनके मुनाफे में कमी आना तय है। अन्ततः अमरीकी राष्ट्रपति बुश ने आईपीसीसी की रिपोर्ट की जाँच-पड़ताल के लिए राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (एनएएस) को जिम्मेदारी सौंपी। एनएएस ने अपनी रिपोर्ट में आईपीसीसी की रिपोर्ट को सही ठहराया और बताया कि ग्लोबल वार्मिंग मानव गति-   विधियों का ही नतीजा है और धरती के अस्तित्व के लिए काफी खतरनाक है। सच्चाई सामने आने पर अमरीकी राष्ट्रपति ने नया पैंतरा बदला। उसने दो कारणों से क्वेटो प्रोटोकॉल को दोषपूर्ण बताया-(1) अमरीकी अर्थव्यवस्था पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा क्योंकि इससे मजदूरों की छँटनी होगी और उपभोक्ताओं के लिए महँगाई बढ़ेगी। (2) चीन और भारत सहित विकासशील देशों को उत्सर्जन कटौती की जिम्मेदारी से मुक्त रखा गया है। इस तरह अमरीका ने साफ-साफ स्वीकार कर लिया कि क्वेटो प्रोटोकॉल को स्वीकार करना उसके बूते से बाहर है। अमरीका में केवल खनिज तेलों के इस्तेमाल से ही प्रति व्यक्ति 5.6 टन कार्बन डाइ ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। नाभिकीय ऊर्जा का उपयोग करने वाले फ्राँस में 1.8 टन और सभी साम्राज्यवादी देशों का औसत 3.8 टन है। दुनिया के अन्य सभी देश मिलकर औसतन 0.7 टन का उत्सर्जन करते हैं यानी विकसित देशों का औसत इससे 5 गुना अधिक और अमरीका का 8 गुना अधिक है। ऐसी स्थिति में विकसित और विकासशील देशों को एक तराजू पर तौलने की यह अमरीकी माँग दरअसल अपनी जिम्मेदारी से भागने का एक बहाना मात्र है। साम्राज्यवादी देशों के आर्थिक विकास की रफ्तार और पृथ्वी का विनाश दोनों सहगामी हैं। यह विश्व पूँजीवादी व्यवस्था से जुड़ा हुआ प्रश्न है। अपनी मर्जी से वे इस धारा को पलटने वाले नहीं हैं। इसीलिए पृथ्वी पर आसन्न खतरे की कीमत पर भी वे अपने मुनाफे की रफ्तार को बनाये रखने पर आमादा हैं।

No comments:

Post a Comment