Friday, 22 May 2015

जलवायु संकट के बारे में विभिन्न दृष्टिकोण

विनाशकारी जलवायु संकटों ने हर जागरूक नागरिक को चिन्ता में डाल दिया है। कुछ लोग इसे भाग्य का लेखा मानकर जड़ हो गये हैं, जबकि कुछ लोग विचार-विमर्श और संघर्ष करके स्थिति को बदलने में लगे हुए हैं। बदलाव के इच्छुक लोगों के नजरिये में भी विविधता है। इस समस्या के बारे में कई लोगों की समझ और उनके द्वारा प्रस्तुत समाधान एकदम सतही और दोषपूर्ण है। ऐसी भ्रामक स्थिति में सही नजरिये तक पहुँचने के लिए गलत विचारों की तह तक जाकर उसकी छानबीन करना और उनका पर्दाफाश करना जरूरी है, ताकि हम पर्यावरण संकट के बारे में एक सही समझ हासिल कर सकें और उसके आधार पर सही विकल्प की तालाश कर सकें।
गैर सरकारी संगठनों और पर्यावरणवादियों का रूख: 
विविध किस्म के गैर-सरकारी संगठन और उनसे जुड़े पर्यावरणवादी जलवायु संकट को टुकड़े-टुकड़े में देखते हैं। अलग-अलग इलाकों में सक्रिय ये लोग कभी भी जनता के सामने समग्र तश्वीर पेश नहीं करते। इसीलिए इनमें से कुछ लुप्त होते कछुए और गीदड़ों को बचाने में लगे हैं तो कुछ वृक्षारोपण अभियान में। सच्चाई यह है कि वर्तमान जलवायु संकट एक दो जीवों और इलाकों को ही प्रभावित नहीं कर रहा है, बल्कि पृथ्वी के समस्त जीव जन्तुओं, वनस्पतियों और खुद मनुष्य जाति के भविष्य को  निगल लेने पर आमादा है। यही हाल रहा तो कुछ ही सालों बाद इंसान भी एक विलुप्त प्राणी हो जायेगा। इस संकट को कम करके आंकना खुद मानवता के विनाश की सम्भावना से आँख चुराना है। इतना ही नहीं वे इस संकट के लिए प्रमुख रूप से जनसंख्या वृद्धि और इंसानों द्वारा फैलाये जा रहे निम्न स्तर के प्रदूषण को जिम्मेदार ठहराते हैं। इस तरह वे वास्तविक सच्चाई पर पर्दा डालते हैं और असली गुनाहगार से ध्यान हटाते हैं। सच तो यह है कि अमरीका की 100 कम्पनियाँ भारत जैसे गरीब देशों के करोड़ों लोगों से ज्यादा प्रदूषण फैलाती हैं। दूसरी ओर क्या जलवायु संकट के लिये आम इन्सान जिम्मेदार हैं? मानव का इतिहास दस हजार सालों से ज्यादा पुराना है जबकि अधिक कार्बन उत्सर्जन द्वारा पैदा की गयी ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु संकट का इतिहास महज 200 साल पुराना है। इस बात को पर्यावरणवादी क्यों छुपाते हैं? 200 साल पहले आखिर ऐसा क्या हुआ था, जिसने पूरे जीव जगत के लिए इतने बड़े खतरे की नींव रख दी?
औद्योगिक क्रान्ति के बाद पूँजीवाद के लिए नये युग की शुरुआत हुई थी। उसके साथ ही धरती के विनाश का एक नया अध्याय भी शुरू हुआ था। आज उद्योगपति अपनी जहर उगलती फैक्ट्रियों को न केवल बेधड़क चालू रखते हैं, बल्कि उनसे निकलने वाली विषैली गैसों को साफ करने के लिए फिल्टर तक नहीं लगाते। जलवायु संकट के लिये आम इन्सान जिम्मेदार नहीं, क्योंकि मनुष्य के जीवन चक्र से प्रकृति का चक्र असंतुलित नहीं होता। लेकिन जब मुट्ठीभर पूँजीपति प्राकृतिक संसाधनों का असीमित दोहन करते हैं  और उसकी भरपाई करने के बजाय वायुमण्डल में लगातार जहरीली गैस और कचरा झोंकते हैं, तो पर्यावरण बुरी तरह असंतुलित हो जाता है। इसीलिए आज पूँजीवाद जनित उपभोक्तावाद भयानक प्रदूषण का स्रोत बन गया है।
गरीबों द्वारा कोयले, लकड़ी और उपले से खाना पकाने को पर्यावरण संकट के कारण के रूप में गिनवाना भी कुटिलतापूर्ण चाल है। क्या ये साधन उद्योग और निजी सड़क परिवहन से भी अधिक कार्बन उत्सर्जन करते हैं? नहीं। बल्कि उद्योग, यातायात, विद्युत उत्पादन और इनसे बने उत्पाद कार और एसी से सर्वाधिक मात्र में कार्बन उत्सर्जन होता है जो उच्च वर्ग की विलासिता के साधन के रूप में अधिक उपयोग किये जाते हैं। क्या अमीरों की अय्यासी और गरीबों की मजबूरी को एक तराजू में रखकर तौला जा सकता है? इस भीषण गरीबी और साधनहीनता के लिए भी क्या पूँजीवादी व्यवस्था ही जिम्मेदार नहीं है?
समस्या और उसके कारणों की गलत समझदारी के कारण पर्यावरणविदों द्वारा सुझाये गये उपाय, जैसे-वैकल्पिक उर्जा, वृक्षारोपण, जैविक खाद, पुरानी चीजों की रिसायकिलिंग आदि इस विराट समस्या के आगे कहीं नहीं ठहरते। ऐसा क्यों है कि हजारों गैर सरकारी संगठनों और पर्यावरणविदों के अथक प्रयासों के बावजूद जलवायु संकट की समस्या दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ रही है। सच तो यह है कि इनमें से अधिकांश सदाशयी स्वयं- सेवी उन्हीं साम्राज्यवादी सरकारों और बड़ी कम्पनियों से आर्थिक अनुदान ग्रहण करते हैं, जो पर्यावरण संकट के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं। अमूमन इन कम्पनियों के मालिक इन खुदाई खिदमतगारों को खैरात और तमगे इसीलिए देते हैं कि वे उनके कुकर्मों पर पर्दा डालें और जनता के बीच विभ्रम फैलाएँ। हो सकता है कि इनमें से कुछ एक इतने भोले हों कि वे इस बात को समझ न पाते हों, लेकिन उनका यह भोलापन पृथ्वी और मानवता के लिए तो हानिकारक ही है।
सरकार का रुख:
प्रदूषण के लिए दोषी कम्पनियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने और इस समस्या का समाधान करने के बजाय सरकारें निर्जीव, नख-दन्तविहीन पर्यावरण कानून बनाने, पर्यावरण विनाश की कीमत पर देशी-विदेशी कम्पनियों को प्रकृति के दोहन की खुली छूट देने और अंतरराष्ट्रीय वार्ताओं में धनी देशों के साथ में खड़ा होने का काम करती हैं। पर्यावरण पर बनी कई परियोजनाएँ सालों से धूल चाट रही हैं। इनमें लगी  धनराशि सरकारी अधिकारियों और नेताओं की जेब के हवाले हो जाती है। भ्रष्टाचार में डूबी पूँजीवादी सरकारों से भला उम्मीद भी क्या की जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय की फटकार या जनता की गुहार सुनकर समस्या को टालने के लिये जाँच कमेटी बैठा देना सरकार का दैनन्दिन का काम है। सरकार को अपनी जनता के स्वास्थ्य और पर्यावरण विनाश की तनिक भी चिन्ता होती तो वह पर्यावरण के मामले में कुख्यात पॉस्को और वेदान्ता जैसी कम्पनियों को भारत में अपनी इकाई लगाने की अनुमति नहीं देती। व्यापक जनांदोलनों के दबाव से वेदान्ता जैसी कम्पनियों के खिलाफ पर्यावरण मन्त्रालय को सख्त होना पड़ा, लेकिन देशभर में बड़े पैमाने पर प्राकृतिक सम्पदा की लूट आज भी जारी है।

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