इस बात में अब कोई संदेह नहीं कि वर्तमान
व्यवस्था को बनाये रखते हुए जलवायु संकट का समाधान करना सम्भव नहीं है। इस
व्यवस्था के दायरे में इसके लिए जितने भी उपाय सुझाये गये हैं उनकी सफलता की कोई
उम्मीद नहीं है। हम इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि संकट पूँजीवाद का स्थायी
लक्षण है। पूँजीवाद चिरस्थायी और निरन्तर जारी रहने वाली व्यवस्था नहीं है, क्योंकि-
(1) अनन्त और असीम पूँजी संग्रह की लालसा इसे
एक ऐसे उत्पादन तंत्र की ओर धकेलती है जिसका अन्तिम लक्षण लगातार फैलते जाना और
मुनाफा देते रहना होता है, न
कि मानवता की जरूरतों को पूरा करना।
(2) पूँजीवाद के अन्तर्गत खेती और खाद्य
सुरक्षा प्रणाली पर्यावरण को नष्ट करती है, लेकिन फिर भी यह सबके लिए पर्याप्त मात्र में
पौष्टिक भोजन मुहैय्या नहीं करती है।
(3) इसने पर्यावरण का अन्धाधुन्ध विनाश किया
है।
(4) इसने दुनिया के गरीब और अमीर देशों के बीच
तथा हर देश के भीतर गरीबों और अमीरों के बीच सम्पत्ति के बटवारे में गहरी खाई पैदा
की है और उसे लगातार बढ़ाती जा रही है।
(5) तकनोलॉजी के रूप में हर समस्या की रामबाण
दवा ढूँढने के जो दावे पूँजीवाद के पुरोधा करते रहे हैं वह और कुछ नहीं, बल्कि इस व्यवस्था द्वारा पैदा की गयी सामाजिक
और जलवायु सम्बन्धी समस्याओं से ध्यान हटाना है।
प्रकृति को विनाश से बचाने के लिए सामाजिक
न्याय,
समानता, सामूहिकता और प्रकृति के साथ परस्पर निर्भरता
के सम्बन्धों पर आधारित एक नयी समाज व्यवस्था का निर्माण जरूरी है। यह कोई कपोल
कल्पना नहीं है। सामन्ती समाज के गर्भ में ही पूँजीवाद के बीज पल रहे थे और उसी के
भीतर वह पैदा हुआ था। उसी तरह आज दुनिया के विभिन्न हिस्सों में विनाशकारी
पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ विभिन्न प्रकार के विचार, संगठन और आन्दोलन क्रियाशील हैं। ये आंदोलन
तात्कालिक मुद्दों को लेकर, स्थानीय
स्तर पर और कहीं-कहीं स्वतः स्फूर्त हो सकते हैं, लेकिन उम्मीद की किरण जन- प्रतिरोध के इन नाना-रूपों वाले पूँजीवाद
विरोधी संघर्षों में ही है। ये बीज अपने भीतर विराट वृक्ष बनने की सम्भावना लिए
हुए हैं, बशर्ते इनका संचालन सही क्रान्तिकारी
विचारों की रोशनी में किया जाए।
1990 के आसपास जब दुनिया का शक्ति संतुलन विश्व
पूँजीवादी व्यवस्था के पक्ष में झुक गया था तो अपने अहंकार के मद में चूर, साम्राज्यवादी शक्तियों ने ‘‘कोई विकल्प नहीं’’ का नारा दिया था। 20 साल बीतने के बाद अब यह
नारा नये अर्थ ग्रहण कर चुका है-यदि
इस धरती को और इस पर रहने वाले जीव जन्तुओं पेड़-पौधों और मानव जाति को बचाना है तो
पूँजीवाद को पूरी तरह खत्म करने के अलावा अब ‘‘कोई विकल्प नहीं।’’ इस विनाशकारी व्यवस्था का एक मात्र विकल्प है-समाजवाद, जहाँ रोजी-रोजगार के साधनों और जीवन की अनिवार्य जरूरतों-भोजन, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य
सेवा इत्यादि का बँटवारा सम्पूर्ण मानवता के हित में होगा, न कि बाजार की निष्ठुर शक्तियों की
स्वार्थपूर्ति के लिए। जहाँ हर एक के लिए उत्पादक श्रम करना अनिवार्य होगा और
दूसरों की कमाई पर पलने वाले जोंकों का नामोनिशान नहीं होगा। इसका अर्थ है सभी
महत्त्वपूर्ण आर्थिक फैसले स्थानीय, क्षेत्रीय
और अंतरराष्ट्रीय, हर स्तर पर सही मायने में लोकतांत्रिक
प्रक्रिया से लिया जाना। तब सामाज का संचालन मुनाफा और पूँजी संचय की हवस से नहीं, बल्कि निम्नलिखित सरोकारों से होगा-
(1) हर एक व्यक्ति को मनुष्य के लिए बुनियादी
जरूरत की चीजों-भोजन साफ पानी, आवास, कपड़ा, इलाज, शिक्षा
और मनोरंजन की आपूर्ति कैसे की जाए? हर
सक्षम व्यक्ति को सामाजिक उत्पादन में कैसे शामिल किया जाए?
(2) जो कुछ भी पैदा हो रहा है उसमें से कितने
की खपत होने की सम्भावना है और उसके लिए कितना निवेश करना पड़ेगा?
(3) निवेश को किस प्रकार नियंत्रित किया जाय?
(4) इन कार्यों को सम्पन्न करने के दौरान
प्रकृति के साथ सकारात्मक पारस्परिक क्रिया और जलवायु को बेहतर बनाने का सही तरीका
क्या होगा?
इसके लिए संकीर्ण स्थानीय या राष्ट्रीय सीमाओं
में सोचने के बजाय विश्व बन्धुत्व और अंतरराष्ट्रीयतावाद की भावनाओं से संचालित
होना जरूरी होगा और वैश्विक स्तर पर सही मायने में लोकतांत्रिक ढांचे और रूपों का
सृजन करना होगा। निश्चय ही इस सपने को पूरा करने के लिए स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक
योजना की जरूरत होगी और यह सपना तभी साकार हो पायेगा जब केवल जनता के लिए ही नहीं
बल्कि जनता का और जनता के द्वारा नियोजन होगा।
मुनाफे की हवस में बाजारवादी ताकतों ने उ$ँची क्रयशक्ति वाले मुट्ठी भर धनाढ्यों में
अमर्यादित, भोग-विलास की उपभोक्तावादी संस्कृति को
खूब बढ़ावा दिया है। लेकिन एक न्यायपूर्ण और समतामूलक समाज में लोगों के लिए
न्यूनतम जरूरी साधनों से संतुष्ट रहना होगा। ‘परमुण्डे फलाहार’ करने वाले अय्याश हमारे आदर्श नहीं हो सकते।
धरती की तबाही और दुनिया की बहुसंख्य आबादी की बदहाली की कीमत पर धनी देशों की, मुट्ठी भर मध्यमवर्गीय लोगों की जीवन शैली, जो खुद उन्हीं देशों में सबके लिए दुर्लभ है, उसकी नकल करने के बजाय एक विनम्र और किफायती
जीवन शैली अपनाना जरूरी होगा। सादगी भरे जीवन में उपभोक्ता वस्तुओं की भले ही
भरमार नहीं होगी, लेकिन वह जीवन सांस्कृतिक रूप से
समृद्ध और लोगों के साथ जीवन्त रूप से जुड़ा हुआ होगा। ढेर सारे अनुत्पादक पेशों की, जो पूँजीवादी प्रतिस्पर्धा और मुनाफाखोरी से
पैदा हुए हैं, जरूरत ही नहीं रहेगी और उन्हें समाप्त
कर दिया जाएगा। तार्किक ढंग से संगठित होने के चलते ऐसे समाज में काम के घंटे अपने
आप ही काफी कम हो जायेंगे। ‘सादा
जीवन उच्च विचार’ तथा ‘जियो और जीने दो’ का नारा तभी सार्थक होगा।
हमें इस पूँजीवादी दुष्प्रचार से उबारना होगा
कि मानवता को न्याय और समता का स्वप्न दिखाने और उन्हें काफी हद तक जमीन पर उतारने
वाले समाजवादी प्रयोग उलट-पलट दिये गये या असफल हो गये। असफलता ही सफलता का स्तम्भ
है। यही विज्ञान का मंत्र है। हमें अतीत के उन प्रयोगों की असफलताओं से सीखने की
जरूरत है, ताकि हम मानवता के भविष्य को सँवार
सकें।
विकल्प हर चीज का है। सड़क परिवहन में
ट्रकों-बसों और मोटर गाड़ियों की जगह रेलवे को बढ़ावा देना, उद्योग धन्धों को विकेन्द्रित करके बड़े शहरों
की जगह छोटे कस्बों-शहरों की स्थापना करना, कार्यस्थल के करीब आवास की व्यवस्था करके
अनावश्यक आवाजाही को रोकना, उपभोक्ता
ने माल की स्थानीय खपत को योजनाबद्ध तरीके से प्रोत्साहित करना, ऐसे कई उपाय हैं, जिनसे पर्यावरण विनाश को काफी कम किया जा सकता
है।
मुनाफे की भूख को हटा दें तो यातायात का सबसे
किफायती और टिकाउ$ साधन रेलवे है। ट्रकों की तुलना में
प्रति टन, प्रति किलोमीटर ढुलाई का खर्च इसमें एक
तिहाई कम आता है और इसमें कार्बन का धुआँ भी कम निकलता है। एक मालगाड़ी पर 250 से
500 ट्रकों का माल लद जाता है। साथ ही 8 लेन की सड़कों पर जितना आवागमन होता है
उससे कहीं अधिक दो पटरी के रेल पर सम्भव है। लेकिन मुनाफे से संचालित पूँजीवाद ने
किस तरह रेलवे की जगह सड़क परिवहन को बढ़ावा दिया इसकी चर्चा पहले ही जा चुकी है।
यह सही है कि कहना आसान है, करना कठिन। लेकिन जब भी कोई नया विचार, जो बहुजन हिताय हो, जन-जन का विचार बन जाता है, तो उसे जमीन पर उतरते और नये समाज की बुनियाद
बनते देर नहीं लगती। दुनिया भर की क्रांतियाँ इस बात की गवाह हैं कि कुछ लोगों के
मन-मस्तिष्क में जो विचार पैदा होते हैं, वही
आम जनता तक पहुँचकर क्रांति का वाहक बन जाते हैं-चाहे फ्रांसीसी क्रांति हो, अमरीकी क्रांति या रूस-चीन की क्रान्ति। निश्चय
ही यह काम दो चार-दस लोगों के वश का नहीं है। इसके लिए विचारशील, धैर्यवान और कर्मठ कार्यकर्ताओं की एक पूरी
पीढ़ी और उनके द्वारा निर्मित मजबूत संगठन जरूरी होगा। करोड़ों जनता जो वंचित है और
सामाजिक व पर्यावरण सम्बन्धी विपत्तियों से सबसे अधिक त्रस्त है इस अभियान में
बढ़-चढ़कर साथ देगी।