Monday, 25 May 2015

विकल्प क्या है?

इस बात में अब कोई संदेह नहीं कि वर्तमान व्यवस्था को बनाये रखते हुए जलवायु संकट का समाधान करना सम्भव नहीं है। इस व्यवस्था के दायरे में इसके लिए जितने भी उपाय सुझाये गये हैं उनकी सफलता की कोई उम्मीद नहीं है। हम इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि संकट पूँजीवाद का स्थायी लक्षण है। पूँजीवाद चिरस्थायी और निरन्तर जारी रहने वाली व्यवस्था नहीं है, क्योंकि-
(1) अनन्त और असीम पूँजी संग्रह की लालसा इसे एक ऐसे उत्पादन तंत्र की ओर धकेलती है जिसका अन्तिम लक्षण लगातार फैलते जाना और मुनाफा देते रहना होता है, न कि मानवता की जरूरतों को पूरा करना।
(2) पूँजीवाद के अन्तर्गत खेती और खाद्य सुरक्षा प्रणाली पर्यावरण को नष्ट करती है, लेकिन फिर भी यह सबके लिए पर्याप्त मात्र में पौष्टिक भोजन मुहैय्या नहीं करती है।
(3) इसने पर्यावरण का अन्धाधुन्ध विनाश किया है।
(4) इसने दुनिया के गरीब और अमीर देशों के बीच तथा हर देश के भीतर गरीबों और अमीरों के बीच सम्पत्ति के बटवारे में गहरी खाई पैदा की है और उसे लगातार बढ़ाती जा रही है।
(5) तकनोलॉजी के रूप में हर समस्या की रामबाण दवा ढूँढने के जो दावे पूँजीवाद के पुरोधा करते रहे हैं वह और कुछ नहीं, बल्कि इस व्यवस्था द्वारा पैदा की गयी सामाजिक और जलवायु सम्बन्धी समस्याओं से ध्यान हटाना है।
प्रकृति को विनाश से बचाने के लिए सामाजिक न्याय, समानता, सामूहिकता और प्रकृति के साथ परस्पर निर्भरता के सम्बन्धों पर आधारित एक नयी समाज व्यवस्था का निर्माण जरूरी है। यह कोई कपोल कल्पना नहीं है। सामन्ती समाज के गर्भ में ही पूँजीवाद के बीज पल रहे थे और उसी के भीतर वह पैदा हुआ था। उसी तरह आज दुनिया के विभिन्न हिस्सों में विनाशकारी पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ विभिन्न प्रकार के विचार, संगठन और आन्दोलन क्रियाशील हैं। ये आंदोलन तात्कालिक मुद्दों को लेकर, स्थानीय स्तर पर और कहीं-कहीं स्वतः स्फूर्त हो सकते हैं, लेकिन उम्मीद की किरण जन-        प्रतिरोध के इन नाना-रूपों वाले पूँजीवाद विरोधी संघर्षों में ही है। ये बीज अपने भीतर विराट वृक्ष बनने की सम्भावना लिए हुए हैं, बशर्ते इनका संचालन सही क्रान्तिकारी विचारों की रोशनी में किया जाए।
1990 के आसपास जब दुनिया का शक्ति संतुलन विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के पक्ष में झुक गया था तो अपने अहंकार के मद में चूर, साम्राज्यवादी शक्तियों ने ‘‘कोई विकल्प नहीं’’ का नारा दिया था। 20 साल बीतने के बाद अब यह नारा नये अर्थ ग्रहण कर चुका है-यदि इस धरती को और इस पर रहने वाले जीव जन्तुओं पेड़-पौधों और मानव जाति को बचाना है तो पूँजीवाद को पूरी तरह खत्म करने के अलावा अब ‘‘कोई विकल्प नहीं।’’ इस विनाशकारी व्यवस्था का एक मात्र विकल्प है-समाजवाद, जहाँ रोजी-रोजगार के      साधनों और जीवन की अनिवार्य जरूरतों-भोजन, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य सेवा इत्यादि का बँटवारा सम्पूर्ण मानवता के हित में होगा, न कि बाजार की निष्ठुर शक्तियों की स्वार्थपूर्ति के लिए। जहाँ हर एक के लिए उत्पादक श्रम करना अनिवार्य होगा और दूसरों की कमाई पर पलने वाले जोंकों का नामोनिशान नहीं होगा। इसका अर्थ है सभी महत्त्वपूर्ण आर्थिक फैसले स्थानीय, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय, हर स्तर पर सही मायने में लोकतांत्रिक प्रक्रिया से लिया जाना। तब सामाज का संचालन मुनाफा और पूँजी संचय की हवस से नहीं, बल्कि निम्नलिखित सरोकारों से होगा-
(1) हर एक व्यक्ति को मनुष्य के लिए बुनियादी जरूरत की चीजों-भोजन साफ पानी, आवास, कपड़ा, इलाज, शिक्षा और मनोरंजन की आपूर्ति कैसे की जाए? हर सक्षम व्यक्ति को सामाजिक उत्पादन में कैसे शामिल किया जाए?
(2) जो कुछ भी पैदा हो रहा है उसमें से कितने की खपत होने की सम्भावना है और उसके लिए कितना निवेश करना पड़ेगा?
(3) निवेश को किस प्रकार नियंत्रित किया जाय?
(4) इन कार्यों को सम्पन्न करने के दौरान प्रकृति के साथ सकारात्मक पारस्परिक क्रिया और जलवायु को बेहतर बनाने का सही तरीका क्या होगा?
इसके लिए संकीर्ण स्थानीय या राष्ट्रीय सीमाओं में सोचने के बजाय विश्व बन्धुत्व और अंतरराष्ट्रीयतावाद की भावनाओं से संचालित होना जरूरी होगा और वैश्विक स्तर पर सही मायने में लोकतांत्रिक ढांचे और रूपों का सृजन करना होगा। निश्चय ही इस सपने को पूरा करने के लिए स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक योजना की जरूरत होगी और यह सपना तभी साकार हो पायेगा जब केवल जनता के लिए ही नहीं बल्कि जनता का और जनता के द्वारा नियोजन होगा।
मुनाफे की हवस में बाजारवादी ताकतों ने उ$ँची क्रयशक्ति वाले मुट्ठी भर धनाढ्यों में अमर्यादित, भोग-विलास की उपभोक्तावादी संस्कृति को खूब बढ़ावा दिया है। लेकिन एक न्यायपूर्ण और समतामूलक समाज में लोगों के लिए न्यूनतम जरूरी साधनों से संतुष्ट रहना होगा। परमुण्डे फलाहारकरने वाले अय्याश हमारे आदर्श नहीं हो सकते। धरती की तबाही और दुनिया की बहुसंख्य आबादी की बदहाली की कीमत पर धनी देशों की, मुट्ठी भर मध्यमवर्गीय लोगों की जीवन शैली, जो खुद उन्हीं देशों में सबके लिए दुर्लभ है, उसकी नकल करने के बजाय एक विनम्र और किफायती जीवन शैली अपनाना जरूरी होगा। सादगी भरे जीवन में उपभोक्ता वस्तुओं की भले ही भरमार नहीं होगी, लेकिन वह जीवन सांस्कृतिक रूप से समृद्ध और लोगों के साथ जीवन्त रूप से जुड़ा हुआ होगा। ढेर सारे अनुत्पादक पेशों की, जो पूँजीवादी प्रतिस्पर्धा और मुनाफाखोरी से पैदा हुए हैं, जरूरत ही नहीं रहेगी और उन्हें समाप्त कर दिया जाएगा। तार्किक ढंग से संगठित होने के चलते ऐसे समाज में काम के घंटे अपने आप ही काफी कम हो जायेंगे। सादा जीवन उच्च विचारतथा जियो और जीने दोका नारा तभी सार्थक होगा।
हमें इस पूँजीवादी दुष्प्रचार से उबारना होगा कि मानवता को न्याय और समता का स्वप्न दिखाने और उन्हें काफी हद तक जमीन पर उतारने वाले समाजवादी प्रयोग उलट-पलट दिये गये या असफल हो गये। असफलता ही सफलता का स्तम्भ है। यही विज्ञान का मंत्र है। हमें अतीत के उन प्रयोगों की असफलताओं से सीखने की जरूरत है, ताकि हम मानवता के भविष्य को सँवार सकें।
विकल्प हर चीज का है। सड़क परिवहन में ट्रकों-बसों और मोटर गाड़ियों की जगह रेलवे को बढ़ावा देना, उद्योग धन्धों को विकेन्द्रित करके बड़े शहरों की जगह छोटे कस्बों-शहरों की स्थापना करना, कार्यस्थल के करीब आवास की व्यवस्था करके अनावश्यक आवाजाही को रोकना, उपभोक्ता ने माल की स्थानीय खपत को योजनाबद्ध तरीके से प्रोत्साहित करना, ऐसे कई उपाय हैं, जिनसे पर्यावरण विनाश को काफी कम किया जा सकता है।
मुनाफे की भूख को हटा दें तो यातायात का सबसे किफायती और टिकाउ$ साधन रेलवे है। ट्रकों की तुलना में प्रति टन, प्रति किलोमीटर ढुलाई का खर्च इसमें एक तिहाई कम आता है और इसमें कार्बन का धुआँ भी कम निकलता है। एक मालगाड़ी पर 250 से 500 ट्रकों का माल लद जाता है। साथ ही 8 लेन की सड़कों पर जितना आवागमन होता है उससे कहीं अधिक दो पटरी के रेल पर सम्भव है। लेकिन मुनाफे से संचालित पूँजीवाद ने किस तरह रेलवे की जगह सड़क परिवहन को बढ़ावा दिया इसकी चर्चा पहले ही जा चुकी है।

यह सही है कि कहना आसान है, करना कठिन। लेकिन जब भी कोई नया विचार, जो बहुजन हिताय हो, जन-जन का विचार बन जाता है, तो उसे जमीन पर उतरते और नये समाज की बुनियाद बनते देर नहीं लगती। दुनिया भर की क्रांतियाँ इस बात की गवाह हैं कि कुछ लोगों के मन-मस्तिष्क में जो विचार पैदा होते हैं, वही आम जनता तक पहुँचकर क्रांति का वाहक बन जाते हैं-चाहे फ्रांसीसी क्रांति हो, अमरीकी क्रांति या रूस-चीन की क्रान्ति। निश्चय ही यह काम दो चार-दस लोगों के वश का नहीं है। इसके लिए विचारशील, धैर्यवान और कर्मठ कार्यकर्ताओं की एक पूरी पीढ़ी और उनके द्वारा निर्मित मजबूत संगठन जरूरी होगा। करोड़ों जनता जो वंचित है और सामाजिक व पर्यावरण सम्बन्धी विपत्तियों से सबसे अधिक त्रस्त है इस अभियान में बढ़-चढ़कर साथ देगी।

Saturday, 23 May 2015

अन्तरराष्ट्रीय वार्ताओं की असलियत

(क) क्वेटो प्रोटोकॉल और उसकी असफलता 
(ख) बाली मानचित्र
(ग) कोपेनहेगन सम्मेलन 
(घ) कानकुन सम्मेलन 
(ङ) जलवायु परिवर्तन पर वार्ताएँ क्यों असफल हो रही हैं
(च) पूँजीवाद मोटर कार उद्योग और प्रदूषण

क्वेटो प्रोटोकॉल और उसकी असफलता
ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को नियन्त्रिात करने के लिए 1990 के दशक में विश्व स्तर पर प्रयास शुरू हुआ। 1992 में रियो-द जेनेरियो में पृथ्वी सम्मेलन के नाम से पर्यावरण संकट पर पहला विश्व सम्मेलन हुआ।  साम्राज्यवादी देशों की नीयत इसी पहले सम्मेलन में सामने आ गयी थी जिसके घोषणा पत्र में कहा गया था कि ‘‘आर्थिक विकास ही ऐसी परिस्थिति तैयार करता है, जिसमें पर्यावरण की सबसे अच्छी तरह रक्षा की जा सके।’’
इस सम्मेलन ने विश्व बैंक को दुनिया भर में पर्यावरण सम्बन्धी उपायों की निगरानी करने का कार्यभार सौंपा। विडम्बना यह कि विश्व बैंक ने 90 के दशक में खनिज ऊर्जा के क्षेत्र में वैकल्पिक ऊर्जा की तुलना में 15 गुना अधिक पूँजी निवेश के लिए कर्ज दिया। तब से आज तक जलवायु सम्मेलनों की दिशा कमोबेश यही है। जलवायु परिवर्तन पर सम्मेलन के लिए संयुक्त राष्ट्र निर्देश (यूएनएफसीसी) ने कई दौर की बातचीत के बाद 1997 में जापान के क्वेटो शहर में सम्मेलन करके क्वेटो प्रोटोकॉल नाम से एक दस्तावेज स्वीकार किया। इसके तहत दुनिया में पहली बार औद्योगिक देशों को इस बात के लिए ‘‘कानूनी रूप से बाध्य’’ किया गया कि वे अपनी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 2008-2012 तक आते-आते 1990 के स्तर से 5.2 प्रतिशत कम करेंगे। इस सहमति के अनुसार यूरोपीय संघ को 8 प्रतिशत, अमरीका को 7 प्रतिशत और जापान को 6 प्रतिशत की कमी लानी थी। चीन सहित सभी विकासशील देशों को शुरुआती दौर में इस कटौती से मुक्त रखा गया था।
इस सहमति के बाद की वार्ताओं में साम्राज्यवादी देशों ने कार्बन उत्सर्जन कम करने की जिम्मेदारी को टालने के लिए दो नये तरीके सुझाये-
 उत्सर्जन परमिट की अदला-बदली, यानी जिन विकासशील देशों के लिए उत्सर्जन में कटौती करना जरूरी नहीं, उनको पैसे देकर उनसे उत्सर्जन में कटौती करवाने और उसके बदले अपने देश में हुए उत्सर्जन की उतनी ही मात्र की क्षतिपूर्ति के लिए परमिट लेना। 2. ‘‘कार्बनकुण्ड’’ की अनुमति जिसमें धनी देशों को जंगल और खेती के बदले कार्बन उत्सर्जन की छूट देना। यूरोपीय यूनियन ने इन उपायों का विरोध करते हुए कहा कि यह प्रदूषण घटाने की अपनी जिम्मेदारी से बचने का एक बहाना है जबकि अमरीका, कनाडा, जापान, आस्टेªलिया और न्यूजीलैण्ड ने इसका समर्थन किया। सन् 2000 के हेग सम्मेलन में इस पर कोई सहमति नहीं बनी और वार्ता भंग हो गयी। 2001 में अमरीका ने क्वेटो प्रोटोकॉल को गलत बताते हुए एकतरफा फैसला करके खुद को इससे अलग कर लिया।
2001 में बॉन में दुबारा वार्ता शुरू हुई, लेकिन क्वेटो प्रोटोकॉल को पूरी तरह बेअसर बना दिया गया। कार्बन उत्सर्जन परमिट की खरीद-बिक्री और कार्बन कुण्ड की माँग स्वीकार कर ली गयी। इस तरह उन धनी देशों को उत्सर्जन बढ़ाने का परमिट मिल गया जिनका उत्सर्जन 1990 के बाद तेजी से बढ़ रहा था। और तो और, ‘‘कानूनी बाध्यता,’’ जो क्वेटो प्रोटोकॉल को प्रभावी बनाने वाला एक मात्र बिन्दु था, उसकी जगह ‘‘राजनीतिक बाध्यता’’ लाकर दरअसल जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी वार्ताओं को निरर्थक वाद-विवाद के मंच में बदल दिया गया। उत्सर्जन बढ़ाने वाले देशों के लिए अब अधिकतम दण्ड यही हो सकता है कि अगले साल के लिए उनकी कटौती का कोटा बढ़ा दिया जायेगा।
अमरीका जो दुनिया भर में होने वाले कुल ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के एक चौथाई हिस्से के लिए अकेले जिम्मेदार है, उसका इससे अलग रहना बॉन सम्मेलन की सबसे बड़ी असफलता थी। हालाँकि क्वेटो प्रोटोकॉल ग्लोबल वार्मिंग कम करने की दिशा में एक बहुत ही विनम्र शुरुआत थी। वैज्ञानिकों के अनुसार इसके पूरी तरह लागू होने पर भी अगले 100 सालों में सामान्यतः जितनी ग्लोबल वार्मिंग होती उसमें केवल 0.15 डिग्री सेल्सियस कमी आ पाती। जलवायु में समुचित नियंत्रण के लिए उत्सर्जन में 60 से 70 फीसदी की कटौती जरूरी है जिसके लिए इससे 30 गुना अधिक कटौती की जरूरत है। लेकिन साम्राज्यवादी देश क्वेटो प्रोटोकॉल के छोटे से लक्ष्य को भी मानने पर राजी नहीं हैं।
क्वेटो प्रोटोकॉल से किनाराकशी के बाद अमरीका ने ग्लोबल क्लाइमेट कोलीशन जैसी लॉबिंग संस्थाओं और अपने पिट्ठू वैज्ञानिकों के जरिये जलवायु वार्ताओं की जरूरत और आईपीसीसी की रिपोर्ट पर ही प्रश्न चिन्ह लगाना शुरू किया तथा यह भ्रम फैलाया कि जलवायु परिवर्तन महज एक हौवा है। इसके पीछे मोटर वाहन उद्योग और अन्य कम्पनियों का स्वार्थ है, क्योंकि उत्सर्जन में कटौती करने से उनके मुनाफे में कमी आना तय है। अन्ततः अमरीकी राष्ट्रपति बुश ने आईपीसीसी की रिपोर्ट की जाँच-पड़ताल के लिए राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (एनएएस) को जिम्मेदारी सौंपी। एनएएस ने अपनी रिपोर्ट में आईपीसीसी की रिपोर्ट को सही ठहराया और बताया कि ग्लोबल वार्मिंग मानव गति-   विधियों का ही नतीजा है और धरती के अस्तित्व के लिए काफी खतरनाक है। सच्चाई सामने आने पर अमरीकी राष्ट्रपति ने नया पैंतरा बदला। उसने दो कारणों से क्वेटो प्रोटोकॉल को दोषपूर्ण बताया-(1) अमरीकी अर्थव्यवस्था पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा क्योंकि इससे मजदूरों की छँटनी होगी और उपभोक्ताओं के लिए महँगाई बढ़ेगी। (2) चीन और भारत सहित विकासशील देशों को उत्सर्जन कटौती की जिम्मेदारी से मुक्त रखा गया है। इस तरह अमरीका ने साफ-साफ स्वीकार कर लिया कि क्वेटो प्रोटोकॉल को स्वीकार करना उसके बूते से बाहर है। अमरीका में केवल खनिज तेलों के इस्तेमाल से ही प्रति व्यक्ति 5.6 टन कार्बन डाइ ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। नाभिकीय ऊर्जा का उपयोग करने वाले फ्राँस में 1.8 टन और सभी साम्राज्यवादी देशों का औसत 3.8 टन है। दुनिया के अन्य सभी देश मिलकर औसतन 0.7 टन का उत्सर्जन करते हैं यानी विकसित देशों का औसत इससे 5 गुना अधिक और अमरीका का 8 गुना अधिक है। ऐसी स्थिति में विकसित और विकासशील देशों को एक तराजू पर तौलने की यह अमरीकी माँग दरअसल अपनी जिम्मेदारी से भागने का एक बहाना मात्र है। साम्राज्यवादी देशों के आर्थिक विकास की रफ्तार और पृथ्वी का विनाश दोनों सहगामी हैं। यह विश्व पूँजीवादी व्यवस्था से जुड़ा हुआ प्रश्न है। अपनी मर्जी से वे इस धारा को पलटने वाले नहीं हैं। इसीलिए पृथ्वी पर आसन्न खतरे की कीमत पर भी वे अपने मुनाफे की रफ्तार को बनाये रखने पर आमादा हैं।

बाली मानचित्र

जलवायु परिवर्तन पर अगली महत्त्वपूर्ण वार्ता दिसम्बर 2007 में बाली (इन्डोनेशिया) में हुई। उस समय आईपीसीसी की रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन की स्थिति के और अधिक खतरनाक रूप लेने को रेखांकित किया गया था। उसके अनुसार 2005 में वायुमण्डल में कार्बन डाइ ऑक्साइड और मिथेनगैस की सघनता 6500 वर्षों की प्राकृतिक सीमा को पार कर चुकी है। इसका कारण उद्योगों में पेट्रोल, डीजल और कोयले का       अन्धाधुन्ध उपयोग है। अमरीका इसके लिए सबसे ज्यादा दोषी है। लेकिन बाली सम्मेलन में सबसे ज्यादा अड़ंगेबाजी भी उसी ने की।
अमरीका ने क्वेटो प्रोटोकॉल के लक्ष्य को गिरा कर उत्सर्जन कटौती की समय सीमा वर्ष 2012 से आगे बढ़ाकर 2020 तक करने, प्रकृति के तापमान का औद्योगिक क्रान्ति के स्तर से 2 डिग्री सेल्सियल अधिक तापमान तक सीमित रखने और 1990 के स्तर से सिर्फ 25-40 प्रतिशत कटौती का लक्ष्य रखने का सुझाव दिया। अपने लगुए-भगुओं के जरिये उसने इसे स्वीकार भी करवा लिया। लेकिन इतने को भी अपने लिए बाध्यकारी नहीं माना। आईपीसीसी ने इस देरी और टाल-मटोल को पृथ्वी के अस्तित्व के लिए बेहद खतरनाक बताया लेकिन सम्मेलन पर इस चेतावनी का कोई असर नहीं हुआ।
बाली सम्मेलन में कार्बन उत्सर्जन में कटौती के एक नये बहाने-कार्बन व्यापार को भी शामिल कर लिया गया। कार्बन व्यापार का अर्थ है-एक टन कार्बन उत्सर्जन में कटौती से कार्बन क्रेडिट की एक इकाई प्राप्त होगी। जैसे तमिलनाडु में नारियल के छिलके से बिजली बनाकर कार्बन उत्सर्जन में सालाना 3418 टन कार्बन उत्सर्जन को घटाकर 28 टन पर ला दिया गया। इस तरह इससे 3390 इकाई कार्बन क्रेडिट कमाया गया। विकसित देश इस क्रेडिट के बदले कुछ पैसे देकर अपने लिए उतनी ही मात्र में कार्बन उत्सर्जन का परमिट हासिल कर लेंगे। दरअसल यह विकसित देशों द्वारा अपने उत्सर्जन को जारी रखने का ही एक उपाय है।

बाली सम्मेलन से पहले अमरीका के येल विश्वविद्यालय ने एक सर्वे करवाया था, जिसमें 68 प्रतिशत अमरीकी नागरिकों ने इस राय से सहमति जतायी थी कि अमरीका वर्ष 2050 तक कार्बन उत्सर्जन में 90 प्रतिशत तक की कटौती करने के लिए अन्तरराष्ट्रीय सन्धि पर हस्ताक्षर करे। लेकिन अमरीकी सरकार अपने देश के बहुमत का सम्मान नहीं करती। उसकी नकेल तो मोटरगाड़ी, बिजली, कोयला कम्पनियों के हाथ में है जिनके लिए कार्बन उत्सर्जन में कटौती का सीधा अर्थ है मुनाफे में कटौती। इन मानवद्रोही कम्पनियों को पृथ्वी बचाने से अधिक अपना मुनाफा बढ़ाने की चिन्ता है। यही कारण है कि बाली सम्मेलन में भी क्वेटो प्रोटोकॉल को बाध्यकारी समझौते की मान्यता नहीं मिली।

कोपेनहेगन सम्मेलन (2009)

कोपेनहेगन में भी एक बार फिर वही नाटक दुहराया गया जो जलवायु परिवर्तन पर होने वाली अन्तरराष्ट्रीय वार्ताओं में साम्राज्यवादी देशों द्वारा बार-बार खेला जाता है। फर्क इतना ही था कि इस बार यह सब कहीं ज्यादा षड्यंत्रकारी तरीके से और कहीं ज्यादा धूर्तता के साथ किया गया। इस सम्बन्ध में फिदेल कास्त्रो की टिप्पणी उल्लेखनीय है-
‘‘17 दिसम्बर की शाम से लेकर अगले दिन 18 की सुबह तक ओबामा की ओर से प्रस्ताव लाने के लिए डेनमार्क के प्रधानमंत्री, अमरीका के कुछ वरिष्ठ प्रतिनिधि, यूरोपीय आयोग के अध्यक्ष और 27 देशों के नेतागण अलग से बैठक करते रहे। यह एक ऐसा प्रस्ताव था जिसमें दुनिया के अन्य देशों के प्रतिनिधिमण्डलों की कोई भागीदारी नहीं थी। यह एकदम आलोकतांत्रिक, अवैध और गुपचुप तरीके से की गयी कार्रवाई थी। इसने दुनिया भर के सामाजिक आन्दोलनों, वैज्ञानिक और सामाजिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों तथा सम्मेलन में शामिल दूसरे हजारों लोगों की उपेक्षा की थी।’’ फिदेल के अनुसार ‘‘डेनिस राजधानी में यदि कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि रही तो वह थी मीडिया कवरेज जिसने वहाँ पैदा की गयी अराजकता तथा काफी उम्मीद लेकर पहुँचे राष्ट्र प्रमुखों, मंत्रियों और सामाजिक आन्दोलनों व संस्थाओं के प्रतिनिधियों के साथ किये गये अपमानजनक व्यवहार को पूरी दुनिया के सामने ला दिया। शान्तिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे लोगों का पुलिस द्वारा बर्बर दमन उन नाजी सेनाओं के व्यवहार की याद दिला गया जिसने अप्रैल 1940 को पड़ोसी डेनमार्क पर कब्जा कर लिया था।’’
अमरीका द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज को जी-77 ने यह कहते हुए अमान्य कर दिया कि यह सम्मेलन के लिए स्वीकार्य नहीं है और इसलिए इसे अपनाया नहीं जा सकता। सम्मेलन में बोलीविया, वेनेजुएला, क्यूबा और सूडान ने विकासशील देशों का मजबूती से पक्ष लिया तथा साम्राज्यवादी देशों और उनके पिछलग्गुओं की साजिशों का भंडाफोड़ किया। इसे सिर्फ 25 देशों का पक्ष रखने वाले प्रस्ताव के रूप में लिया गया। इस दस्तावेज में विकसित देशों, खास तौर पर अमरीका के लिए कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने की कोई बाध्यता नहीं थी। इसमें अधिक उत्सर्जन करने वाले धनी देशों ने विकासशील देशों को उत्सर्जन में कटौती करने के बदले अनुदान देने या उन्हें प्रदूषण घटाने वाली तकनोलॉजी का हस्तांतरण करने की कोई गारण्टी नहीं की थी। दुनिया के अलग-अलग देशों में भारी विषमता को ध्यान में रखते हुए जलवायु परिवर्तन की वार्ताओं में शुरू से ही यह स्थापित था कि उत्सर्जन घटाने के लक्ष्य को इस आधार पर तय किया जायेगा कि किसी देश में उपभोग का स्तर कैसा है और वहाँ ऊर्जा की खपत कितनी है। दस्तावेज में इस अंतर को नजरंदाज करने का प्रयास किया गया। क्योटो प्रोटोकॉल का सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा जलवायु सन्धि के प्रावधानों को कानूनी तौर पर बाध्यकारी बनाया जाना था जिसे ताक पर रखते हुए इस दस्तावेज ने जलवायु वार्ताओं को निरर्थक वाद-विवाद तक सीमित कर दिया। वार्ताओं की शुरूआत से ही अमरीका की यही मंशा थी।
कोपेनहेगन सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधियों की भूमिका बेहद लज्जाजनक रही। अपनी अमरीका परस्ती और साम्राज्यवाद समर्थक रवैये का परिचय देते हुए उन्होंने अमरीका के उस दस्तावेज को स्वीकार किया जो भारत सहित तीसरी दुनिया के देशों के खिलाफ था। कभी गुटनिरपेक्ष आन्दोलनों में नेतृत्वकारी भूमिका निभानेवाला भारत आज अपनी समर्पणवादी विदेश नीति के कारण जी-77 के बजाय उस जी-7 के पाले में खड़ा नजर आता है जो अपने साम्राज्यवादी स्वार्थों की पूर्ति के लिए विकासशील देशों और पूरी धरती के लिए तबाही का रास्ता तैयार कर रहा है। दरअसल भारत सरकार के रुख का अन्दाजा उसी समय से लगने लगा था जब पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने और कार्बन उत्सर्जन में कटौती के बारे में भ्रामक बयानबाजी की थी। इस तरह भारत, जो क्वेटो प्रोटोकॉल का प्रबल समर्थक था, ‘महाशक्तिबनने के मुगालते में, साम्राज्यवाद का दामन थामते हुए क्वेटो प्रोटोकॉल को तिलांजलि देने वालों की कतार में खड़ा हो गया। इसे तीसरी दुनिया और भारतीय जनता के साथ सरासर         धोखा कहा जाय तो गलत नहीं।

कानकुन सम्मेलन

कोपेनहेगन जलवायु सम्मेलन का जो नतीजा सामने आया था उसे देखते हुए शायद ही किसी को यह मुगालता होगा कि कानकून सम्मेलन में कोई रास्ता निकलेगा। इस सम्मेलन में तय की गयी कटौती लागू भी हो जाये तो धरती का तापमान 3 से 4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जायेगा। जबकि--वैज्ञानिकों के मुताबिक इसकी अधिकतम सीमा 2 डिग्री सेल्सियस है।
साम्राज्यवादी देशों ने 2020 तक कार्बन उत्सर्जन में अपनी मर्जी से 13 से 16 प्रतिशत तक कटौती करने का वचन दिया है जबकि तत्काल 40 प्रतिशत कटौती करना बेहद जरूरी है। अमरीका, जो पृथ्वी को तबाह करने में अकेले में एक चौथाई हिस्से के लिए जिम्मेदार है, उसने इस अवधि में केवल 4 प्रतिशत की कटौती का वचन दिया है। जापान ने साफ-साफ कह दिया कि वह इस अवधि में किसी भी कटौती के लिए राजी नहींे है।
धनी देशों का यह गैरजिम्मेदाराना रवैया कोई नया नहीं है। क्वेटो प्रोटोकॉल की पहली अवधि (2012) समाप्त होने को है। लेकिन 2008 से 2010 के बीच इन देशों के लिए 5.2 प्रतिशत कटौती का जो लक्ष्य रखा गया था, उसमें कमी लाने के बजाय      41 में से 17 देशों ने उत्सर्जन बढ़ाया है और किसी-किसी मामले में तो 40 से 100 प्रतिशत तक अधिक उत्सर्जन किया है। जिन देशों ने लक्ष्य पूरा किया है, वहाँ भी उत्सर्जन में वास्तविक कटौती नहीं की गयी, बल्कि दूसरे देशों से कार्बन व्यापार करके अपने देश में किये गये उत्सर्जन का हिसाब बराबर किया गया।
इस सम्मेलन ने पहली बार भारत सहित विकासशील देशों के लिए यह जरूरी बना दिया कि वे अपने देश में होने वाले प्रदूषण की रिपोर्ट हर दो साल पर ‘‘अन्तरराष्ट्रीय सलाह एवं विश्लेषण’’ प्रक्रिया के आगे पेश करे। पहले उन्हें केवल उन गतिविधियों के मामले में ऐसी रिपोर्टें पेश करना जरूरी था, जो धनी देशों की आर्थिक सहायता से चलायी जा रही हों। जाहिर है कि यह कदम धनी और गरीब देशों को एक ही तराजू पर तोलने वाला है। जाहिर है कि अमरीका जैसा चाहता था वैसा ही हुआ। उसने विकासशील देशों के अपने पिछलग्गुओं को साथ लेकर अपना मनोरथ पूरा कर लिया। अमरीका ने ब्राजील दक्षिण-अफ्रीका, भारत और चीन (ब्रिक) के साथ साँठ-गाँठ करके यह सहमति बनायी जिस पर बाद में 20 अन्य देशों ने भी हस्ताक्षर कर दिये। जी-77 की इस पर सहमति नहीं बनी और इसीलिए इसे सम्मेलन में स्वीकृत नहीं किया गया। साम्राज्यवादी देश यही चाहते थे सहमति हो तो उनकी जीत, असहमति हो तो तीसरी दुनिया की हार। विकिलीक्स के रहस्योद्घाटनों से यह बात सामने आयी है कि धनी देशों ने कई गरीब देशों को धमकाकर और सहायता रोकने का डर दिखाकर उन्हें कोपेनहेगन समझौते पर सहमति जताने के लिए बाध्य किया था।
इस तरह कोपेनहेगन में अमरीकी राष्ट्रपति ने जो मुद्दे उछाले थे, कानकुन में उन्हें और भी दृढ़ता से रखा गया--
-कोपेनहेगन में अन्तरराष्ट्रीय सलाह और विश्लेषण की अस्पष्ट रूप से चर्चा की गयी थी, तब भारत ने उसका विरोध किया था, लेकिन कानकुन में वह इस मुद्दे पर राजी हो गया।
-हरित जलवायु कोष की बात को फिर से ठुकराया गया। इसके लिए 100 अरब डॉलर का कोष बनाने का सुझाव दिया गया, लेकिन पैसा कहाँ से आयेगा और किनके बीच बँटेगा। यह स्पष्ट नहीं किया गया।
-क्वेटो सम्मेलन में परिशिष्ट-1 (विकसित देश) और परिशिष्ट-2 (विकासशील देश) में अंतर करते हुए उनके लिए उत्सर्जन कटौती का अलग-अलग मानदण्ड और लक्ष्य तय किया गया था। इस फर्क को पहले-पहल कोपेनहेगन में ही धुँधलाने का प्रयास किया गया और कानकुन सम्मेलन में इस अन्तर को मिटाने की दिशा में आगे कदम बढ़ाया गया।
-वार्ताओं के शुरुआती चरण से ही यह स्थापित था कि पर्यावरण विनाश के लिए विकसित देश सर्वाधित जिम्मेदार हैं। इसलिए उसे सुधारने में उनकी जिम्मेदारी अधिक होगी। विकासशील देश गरीबी और पिछड़ी तकनीक के चलते यदि प्रदूषण फैलाते हैं, तो विकसित देशों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे गरीबी उन्मूलन और तकनोलॉजी का विकास करने में गरीब देशों की सहायता करें। अमरीका शुरू से ही इस सच्चाई से आँख चुराते हुए सब के लिए एक मानदण्ड की वकालत करता आ रहा था। कानकुन में वह इस बात को थोपने में काफी हद तक सफल रहा।
-शुरूआती वार्ताओं में पृथ्वी का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस ग्रेड से अधिक न बढ़ने देने पर लगभग 100 देश राजी थे। कोपेनहेगन में इसे बढ़ाकर 2 डिग्री सेल्सियस करने का प्रस्ताव रखा गया। कानकुन तक आते-आते कई देश इस पर सहमत होते गये।

इस तरह इस सम्मेलन में क्वेटो प्रोटोकॉल के जरिये धनी देशों ने जो आधी-अधूरी प्रतिबद्धता दुहरायी थी, उससे भी उन्होंने पल्ला झाड़ लिया जो साम-दाम-दण्ड-भेद की अमरीकी नीति का नतीजा है। अब साम्राज्यवादी देशों को उस क्वेटो प्रोटोकॉल से छुटकारा मिल गया जिससे हर देश के लिए निश्चित मात्र और निश्चित समय में उत्सर्जन कटौती करने की कानूनी बाध्यता तय की गयीं थीं। मानवद्रोही, आत्मघाती और क्षणजीवी धनी देश कम कार्बन तकनोलॉजी का विकास करने, बेहिसाब उपभोग पर लगाम लगाने और अपनी विलासितापूर्ण जीवनशैली को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं और उन्हें किसी की परवाह भी नहीं है। भले ही धरती तबाह हो जाये जल कर खाक हो जाये।

जलवायु परिवर्तन पर वार्ताएँ क्यों असफल हो रही हैं?

साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के मौजूदा दौर में बाजार को सर्वव्यापी, निर्विकल्प और सर्वोपरी शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया गया है। दौलत और सत्ता आज विवेक पर हावी है। बाजारवादी ताकतें धरती के दूरगामी भविष्य की चिन्ता करने के बजाय अपने तात्कालिक मुनाफे के पीछे पागल हैं। इसीलिए जलवायु संकट के समाधान भी वे बाजार के तर्कों और शर्तों पर ही प्रस्तुत करते हैं। इन बाजारवादी समाधानों में कार्बन व्यापार उत्सर्जन का प्रतिसंतुलन और अनाज से जैव ईंधन (बायो-डीजल) का उत्पादन प्रमुख है। इनका मकसद पूँजी संचय और बेतहाशा उपभोग को लगातार जारी रखना है, जो पर्यावरण विनाश के लिए जिम्मेदार है। प्राकृतिक और मानव श्रम की लूट पर फलने-फूलने वाली बाजार की समृद्धि और पर्यावरण की रक्षा दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं। इन दोनों को एक साथ साधना सम्भव नहीं है। बाजारवादी इस तथ्य को स्वीकार करने के बजाय कि       अन्धाधुन्ध पूँजीवादी उत्पादन और उपभोग के कारण ही पर्यावरण का विनाश हुआ है, उल्टे उस पर पर्दा डालते हैं। नतीजा यह कि आज दुनिया के तापमान में आईपीसीसी के अनुमानों से कहीं ज्यादा तेजी से वृद्धि हो रही है। यह स्थिति तब तक बनी रहेगी, जब तक इस प्राकृतिक महाविपदा के असली कारणों को दूर नहीं किया जायेगा और विनाश के कारकों को ही समाधान के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहेगा।

पश्चिमी साम्राज्यवादी देश वातावरण में 80 प्रतिशत कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्र बढ़ाने के लिए जिम्मेदार हैं। ब्रिटेन का एक नागरिक 11 दिन में जितना कार्बन-डाइ- ऑक्साइड का उत्सर्जन करता है उतना बाग्लादेश का एक नागरिक एक साल में भी नहीं करता। 14 करोड़ की आबादी वाले 6 अफ्रीकी देश जितना कार्बन डाइ ऑक्साइड उत्पन्न करते हैं, उतना ब्रिटेन के एक ही पावर प्लान्ट से उत्सर्जित होता है। अमरीका के निजी वाहनों के धुएँ और विलासिता के सामानों से निकलने वाली जहरीली गैसें पर्यावरण विनाश के बहुत बड़े कारण हैं। लेकिन फिर भी अमरीका और अन्य धनी देश इस जिद पर अड़े हैं कि जब तक तीसरी दुनिया के देश अपना उत्सर्जन नहीं घटाते, तब तक वे भी नहीं घटायेंगे। सीधी बात यह कि जो लोग पृथ्वी की तबाही के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं वे ही इसके समाधान की जिम्मेदारी से भाग रहे हैं। यही कारण है कि जलवायु वार्ताएँ एक-एक कर असफल होती जा रही हैं।

पर्यावरण विनाश की जड़ें शोषणकारी व्यवस्था के इतिहास में

औद्योगिक क्रान्ति के साथ पर्यावरण विनाश का एक नया दौर शुरू हुआ, लेकिन यह समस्या उससे भी बहुत पहले रोमन साम्राज्य से ही चली आ रही है। जंगलों की अन्धाधुन्ध कटाई, प्राकृतिक संसाधनों का बेहिसाब दोहन, शिकार करके जंगली जानवरों का खात्मा, और प्राचीन उद्योग धन्धों द्वारा प्रदूषण फैलाना इसके उदाहरण हैं। रोमन साम्राज्य द्वारा उत्तरी अफ्रीका में जैतून का तेल निकालने के कारखानों के अवशेष अभी भी मिलते हैं। धरती के बेहिसाब दोहन के चलते जिन इलाकों में कभी जैतून के हरे-भरे जंगल थे वे आज रेगिस्तान में बदल गये हैं। रोमन साम्राज्य के जमाने में धातु गलाने के उद्योगों के आसपास राँगा, पारा और आरसेनिल के जहरीले अवशेष भी पाये गये हैं। उस दौर में प्लेग फैलाने में पर्यावरण प्रदूषण ही सहायक रहा था।
उस दौर में कई सभ्यताओं के विनाश के पीछे धरती को वीरान बनाया जाना, पर्यावरण को नष्ट किया जाना और पानी के स्रोतों का खत्म होना महत्त्वपूर्ण कारक रहे हैं। आज की साम्राज्यवादी व्यवस्था रोमन और माया सभ्यता से कहीं ज्यादा विराट और आगे बढ़ी हुई है। आज भी वही सब, उससे कहीं बड़े पैमाने पर हो रहा है। जहरीले और रेडियोधर्मी कचरे को जलाशयों में बहा देना, जंगल काट कर नारियल और ताड़ की खेती करना, हवा-पानी में जहर घोलना और हजारों जीव-जन्तुओं का लुप्त होते जाना। मौजूदा दौर में पर्यावरण विनाश करने वाली शक्तियाँ रोमन साम्राज्य की तरह किसी खास इलाके तक सीमित नहीं हैं। वैश्वीकरण के तहत वे पूरी दुनिया में अपनी विनाशकारी गतिविधियों को फैला रहीं हैं। साथ ही आज उनके पास दैत्याकार तकनोलॉजी है जो अकेले उस दौर के हजारों गुलामों के बराबर काम करती हैं और इस तरह ये लोग लाखों गुना तेज रफ्तार से प्राकृतिक विनाश करने में सक्षम हैं। पुरानी सभ्यता में यह समझ नहीं थी कि पर्यावरण संकट प्रकृति और मानव जाति के लिए कितना घातक है, इसलिए वे लोग अन्धी खाई की ओर बढ़ते चले गये थे। लेकिन वर्तमान शासकों को अच्छी तरह पता है कि वे क्या कर रहे हैं, फिर भी वे उन्हीं सभ्यताओं के नक्शेकदम पर चल रहे हैं जिनका इतिहास में नामों निशान नहीं बचा।

उपनिवेशवादी दौर
असमान विकास और पर्यावरण विनाश की विश्वव्यापी समस्याओं के लिए यूरोप का उत्थान और पूरी दुनिया के देशों को गुलाम बनाने की उसकी मुहिम का भी बड़ा हाथ रहा है। तीसरी दुनिया के देशों के पारिस्थितिकी तंत्र का भारी विनाश करके उन्हंे नरक में बदल दिया गया ताकि साम्राज्यवादी देशों के स्वर्ग की रौनक बनी रहे।
पुर्तगाल, स्पेन और ब्रिटेन ने पूरी दुनिया में अपने उपनिवेश बनाये और वहाँ जंगलों को काट कर प्लांटेशन शुरू किया। 400 वर्षों तक अपनी औद्योगिक जरूरतों और विलासिता के साधनों की पूर्ति के लिए उन्होंने स्थानीय लोगों के जीवन के लिए अनाज और अन्य जरूरी फसलों की जगह नील, गन्ना, तम्बाकू रबर, कॉफी आदि की खेती करवायी। प्रकृति और मानव श्रम के निर्मम शोषण ने आत्मनिर्भर और समृद्ध स्थानों को अकाल, भुखमरी और महामारी का पर्याय बना दिया। खनिज पदार्थों को धरती से निकाल-निकाल कर उसे खोखला कर दिया। जंगलों को काट-काट कर वीरान बना दिया।

साम्राज्यवादी दौर
राजनीतिक आजादी मिलने के बाद भी तीसरी दुनिया के देशों पर साम्राज्यवादियों का आर्थिक वर्चस्व कायम रहा। प्लांटेशन का काम उपनिवेशवादियों के नये वारिस, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने और बड़े पैमाने पर लागू किया। क्रान्ति से पहले तक क्यूबा की 60 प्रतिशत जमीन पर केवल गन्ने की खेती होती थी जबकि अपनी खाद्य आपूर्ति के लिए वहाँ 50 प्रतिशत अनाज विदेशों से मँगवाना पड़ता था। फायर स्टेन रबर कम्पनी का छोटे से देश लाइबेरिया में 1,27,000 एकड़ जमीन में रबर प्लॉटेशन है। युनाइटेड फ्रुट कम्पनी ने कई लातिन अमरीकी देशों में केवल केले की खेती शुरू करवायी। नेश्ले कम्पनी के कई देशों में कॉफी के प्लांटेशन हैं। खाद्य प्रसंस्करण और व्यापार पर भी इन्हीं कम्पनियों का एकाधिकार है।
एक फसली खेती के कारण इन कम्पनियों ने गरीब देशों की जैव विविधता को खत्म कर दिया और प्रकृति के संतुलन को तहस-नहस कर दिया। साथ ही उन्होंने इन देशों में असमान विकास और भयावह गरीबी को जन्म दिया क्योंकि 80 प्रतिशत खेती निर्यात के लिए होती थी जिसमें बमुश्किल 20 प्रतिशत लोगों को रोजगार मिल पाता था। शेष आबादी को रोजी-रोटी के लिए मुहताज और कंगाल बना दिया गया।
उपनिवेशवादी दौर में उत्पादन और श्रम विभाजन का जो वैश्विक ढाँचा तैयार हुआ था उससे तीसरी दुनिया के देश आज तक मुक्त नहीं हुए। कच्चा माल, प्राकृतिक      संसाधन और खेती से पैदा होने वाले कच्चे माल का निर्यात और बदले में उन्हीं चीजों से तैयार मालों का महँगी कीमत पर आयात। आजादी के बाद इन देशों के शासक वर्ग साम्राज्यवादियों के सहयोगी की भूमिका में सामने आये और उनकी लूट में हाथ बँटाने लगे। फर्क इतना ही था कि जो काम पहले विदेशी ताकतें आपकी फौज के दम पर करती थीं, वह देशी हुक्मरानों ने कानून बनाकर व्यापार समझौतों और सन्धियों के माध्यम से करना शुरू किया। साथ ही, साम्राज्यवादी दौर में अमरीका और उसके संघातियों ने तीसरी दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों के लिए तख्तापलट और खून-खराबे का भी भरपूर सहारा लिया।

वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में तेल के लिए मारामारी
उपनिवेशवादी ताकतों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे के लिए युद्ध और खून- खराबा सैकड़ों सालों से जारी है। साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में देशों पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कब्जों के पीछे प्राकृतिक संसाधनों और बाजार पर कब्जे के साथ-साथ खनिज तेल के स्रोतों को हथियाना एक प्रमुख कारण है। कांगो, नाइजीरिया, चाड और सुडान में लम्बे समय से साम्राज्यवादी अपने कठपुतली फौजी तानाशाहों के जरिये शासन करते रहे हैं। वहाँ की जनता को भुखमरी, बीमारी और मौत का शिकार बनाने के साथ-साथ वहाँ के पर्यावरण का विनाश इस साम्राज्यवादी लूट का ही नतीजा है। प्राकृतिक        संसाधनों की लूट से कंगाल बन चुके अंगोला में गृहयुद्ध छिड़ने के कारण लाखों लोग मारे गये। वहाँ के शासकों ने अपनी कमाई को देश के विकास में लगाने के बजाय विदेशी बैंकों में जमा कर दिया।
वैश्वीकरण के इस दौर में साम्राज्यवादी अपना स्वार्थ साधने के लिए विश्व बैंक मुद्राकोष और विश्व व्यापार संगठन के जरिये काम करते हैं। प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध लेकिन कंगाल बना दिये गये इन इलाकों के शासक इन संस्थाओं के साथ साँठ-गाँठ करके अपने देश की प्रकृति और मेहनतकशों को लूटते हैं और बदले में अपना हिस्सा ग्रहण करते हैं। यही कारण है कि अफ्रीका का चौथा तेल उत्पादक देश होने के बावजूद कांगो आज 6.4 अरब डॉलर के कर्ज में है। कुछ दशक पहले कई देशों के शासकों ने तेल उत्पादन में अपने देश की सरकारी नियन्त्राण वाली कम्पनियों को लगाया और साम्राज्यवादी देशों की तेल कम्पनियों के वर्चस्व को चुनौती दी। इससे तेल मँहगा हुआ और साथ ही तेल के लिए युद्ध और षड्यन्त्रों का नया दौर शुरू हुआ। अमरीकी सरकार ने जब तेल पर कब्जा जमाने के लिए आतंकवाद विरोधी युद्ध के बहाने इराक और अफगानिस्तान पर बर्बर हमला किया तो अमरीकी फौजों के अलावा हमले की कार्रवाई में ब्लैकवाटर वर्ल्डवाइड जैसी निजी सैनिक कम्पनी ने भी उसमें ठेकेदार के रूप में बढ़-चढ़कर भाग लिया। अमरीका का यह खूनी खेल आज भी जारी है। इस मारकाट में अमरीका और नाटो सन्धि के उसके सहयोगी देशों के साथ-साथ बहुराष्ट्रीय निगमों और दैत्याकार तेल कम्पनियों की भी भूमिका रही है। मध्यपूर्व के अलावा तेल उत्पादक लातिन अमरीकी देशों पर भी साम्राज्यवादियों की काली छाया मंडराती रहती है। वेनेजुएला और बोलिविया ने जब साम्राज्यवाद के खिलाफ खड़े होने का प्रयास किया और अपने तेल उत्पादन में सरकारी हिस्सेदारी बढ़ाई तो अमरीका उन्हें ‘‘लोकतंत्र’’ के बहाने धमकाने और सत्ता से हटाने में जुट गया। कोलम्बिया के साम्राज्यवाद विरोधी छापामार जब विदेशी तेल पाइपों के लिए खतरा बनने लगे तो सीआईए और निजी सुरक्षा ठेकेदारों ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया। तेल कम्पनी सेल द्वारा क्रान्तिकारी कवि केन सारो विवा की हत्या के पीछे भी तेल की लूट ही थी।

तेल के सीमित स्रोतों का विकल्प तलाशने के बजाय साम्राज्यवादी देश किसी भी कीमत पर उसे हथियाने पर आमादा हैं। दुनिया में उर्जा का एक बड़ा साधन होने के साथ-साथ खनिज उर्जा ही ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण है। मानव निर्मित जलवायु परिवर्तन के जिस गम्भीर संकट का दुनिया आज सामना कर रही है, उसके पीछे साम्राज्यवादी लूट-खसोट और दुनिया का विषम विकास है, जिसके एक छोर पर मुट्ठीभर साम्राज्यवादी देशों की समृद्धि है तो दूसरी ओर तीसरी दुनिया की बदहाली।