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पेपर प्रस्तुति-राजेश कुमार
रसायन विज्ञान,एमिटी इंटरनेशनल स्कूल, नोएडा
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तारीख-8 सितम्बर 2019
परिचय
‘डाउन टू अर्थ’ प्रकाशन की एक किताब है -"ड्रॉट बट व्हाई"। केवल 126 पेज की यह किताब करोड़ों भारतवासियों की जिंदगी के बारे में कहानी बताती है। यूँ तो इस किताब में ज्यादातर आंकड़े और तथ्य 2014 से 2017 तक के हैं। पर यह किताब की सीमा बिलकुल नहीं बने हैं। बल्कि इस ढंग से किताब को लिखा गया है कि वह आजादी के बाद के गरीब भारत से शुरू होकर आज के अमीर होते भारत की कहानी बताती है। पर्यावरण संकट के प्रभावों में सूखा और बाढ़ मुख्य हैं। सूखा आज देश भर में विकराल समस्या बनी हुई है। अब यह उतनी प्राकृतिक नहीं है जितनी यह मानव निर्मित है। यही इस रिपोर्ट का मूल है। आज की गई समाज में उत्पादन की गतिविधियाँ कल की सूखा को बुलाती हैं। सूखा बाकायदा न्यौते पर आता है। 1997 के बाद सूखा प्रभावित क्षेत्रों में 57 फीसदी की वृद्धि हुई है।
समस्या
आज ग्रामीण और शहरी जीवन में सूखा से आने वाली समस्याओं से कौन परिचित नहीं है? सूखा से निपटने के लिए सरकारी कदम भी उठाये जा रहे हैं, पर वह ऊँट के मुँह में जीरे के समान हैं। गाँव में रोज़गार के साधन कम हो रहे हैं। शहरों की आबादी बढ़ रही है। अन्य समस्याओं के साथ पानी की विकराल समस्या भी हर किसी को अपने चपेट में ले रही है। आज स्थिति यह हो गयी है कि विकास की दौड़ में सबसे आगे मेट्रो शहरों के पास अपने उपयोग के लिए पर्याप्त पानी नहीं है। दिल्ली के लिए पानी 300 किलोमीटर दूर हिमालय की घाटी में बने टिहरी डैम से आता है। हैदराबाद के लिए 105 किलोमीटर दूर कृष्णा नदी पर बने नागार्जुनसागर डैम से पानी आता है तो बैंगलौर में पानी की आपूर्ति 100 किलोमीटर दूर कावेरी नदी से की जाती है। उदयपुर अपनी झीलों के सहारे पानी की आपूर्ति करता है। यह झील अब सूखने के कगार पर हैं। शहरी जीवन भयंकर सूखा की गिरफ्त में है।
ग्रामीण जीवन को सूखा और ज्यादा प्रभावित करता है। क्योंकि खेती से लेकर पशु-पालन तक सब पानी पर निर्भर है। सूखा पड़ने से पूरी अर्थव्यवस्था चरमरा जाती है। गाँव से शहरी इलाकों की ओर पलायन शुरू हो जाता है। हरियाणा के मेवात जिले की एक घटना है। 2015 की गर्मियों में किसानों ने धान की पौध लगाई। पहली बारिश में देरी हो गयी। किसानों ने किसी तरह डीज़ल से ट्यूबवेल चला कर सिंचाई की। इसके बाद पौध तैयार थी। पर अचानक एक रात भयंकर तूफ़ान के साथ पाँच घण्टे झमाझम बारिश हुई। करीब 250 मिमी बारिश हुई। खेत पानी से डूब गए। इस क्षेत्र में सालभर में करीब 500 से 600 मिमी बारिश होती है,पर एक ही दिन में अचानक इतनी बारिश ने सब बर्बाद कर दिया। ऐसी स्थिति में किसानों की आँखों में आँसू के सिवा और क्या होगा? दूसरी घटना जम्मू की है। ठण्ड कम होने की वजह से जम्मू में लीची पर बे मौसम फूल आ गया। जैसे ही ठण्ड बढ़ना शुरू हुई फूल गिर गए। पूरी फसल मारी गयी। किसान मुँह देखते रह गए।
उधर मध्यप्रदेश में छोटे बच्चे स्कूल जाने की जगह अपनी माँ के साथ दिनभर पानी की खोज में भटकते रहते हैं।
शहरों में उद्योग और फैक्ट्री साफ़ पानी को लेते हैं और बदले में लौटाते हैं - कचरा, गंदे नाले और प्रदूषित पानी। गाँव में किसान कुएँ को गहरा और गहरा करते जाते हैं। हर कोई पानी की अंतिम बूँद को निचोड़ लेना चाहता है। आज सूखा गरीब भारत के सर पर कोई प्राकृतिक आपदा नहीं बल्कि अमीर होते भारत की नीतियों की देन है। इससे निपटने के लिए सूखा क़ानून को बदलने की जरूरत है। पानी की हर बूँद को बचाकर फिर से भूजल को पुनर्भरण करने की जरूरत है। इसके लिए हमें लाखों नए जलाशय बनाने होंगे। यह स्थानीय लोगों से सलाह मशविरा करके इस तरह बनाये जाएँ कि इनमें इकट्ठा पानी को लोग अपने रोजमर्रा के कामों में उपयोग कर सकें। रोजगार पैदा करने के लिए कहीं भी गड्ढा खुदवाने से काम नहीं चलेगा। ऑस्ट्रेलिआ और कैलफोर्निया में भी सूखा आया पर वहां की सरकारों ने गैर जरूरी पानी के खर्चे पर तुरन्त रोक लगा दी। भारत में भी यही करना होगा। इन प्रयासों से हम रोज-ब-रोज उद्योग, खेती, और घरेलू स्तर पर पानी बचा सकेंगे। साल-दर-साल हमारी बचत बढ़ती चलेगी। इस तरह हमें नियमित रूप से आ रहे सूखा से निजात मिलेगी।
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फोटो-1 कर्णाटक के गाँव यारागुप्पी का एक दृश्य |
सरकार का नज़रिया
प्रधानमंत्री ने 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने का वायदा किया है। इस वायदे की भी पड़ताल जरूरी है । “राष्ट्रीय पतिदर्श सर्वेक्षण संगठन” के अनुसार 2003 से 2013 तक आते-आते खेती में आय ₹1060 से बढ़कर ₹3844 प्रतिमाह हो गयी। खेती में आय 13.7 फ़ीसदी सालाना की दर से बढ़ी। यह तब है जब इस दशक में प्राकृतिक आपदा और सूखा अपेक्षाकृत कम रहीं हैं। मनरेगा ने भी ग्रामीण इलाकों में लोगों की आय में इजाफा किया। किसानों की 2022 तक दोगुनी आय के लिए खेती में आय 15 फीसदी प्रतिवर्ष की दर से बढ़नी चाहिए। जोकि पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए कोई नया करिश्मा नहीं है। जो रफ़्तार अभी है उसी से वे 2022 तक दोगुनी आय तक पहुँच जाएँगे।
साथ-साथ बढ़ती मँहगाई किसानों की कमर तोड़ती रहेगी। 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो भी जाय तो तब तक उनका बिजली बिल भी दोगुना हो जायेगा, पढ़ाई का खर्चा दोगुने से भी ज्यादा हो जायेंगे । दवाइयों की कीमत दोगुनी होजायेगी। आने जाने का किराया दो गुना होजायेगा। यानी किसानों को 2022 तक दोगुनी आय से कोई भला नहीं होने वाला। बस आँकड़ों के बाजीगर दोगुनी आय का गाना गाकर राजनीति चमका रहे हैं।
इसी व्यवस्था में एक अच्छा उदाहरण
एक गाँव का उदाहरण भी है जो बहुत ही रोचक और प्रोत्साहित करने वाला है। महाराष्ट्र के अहमद नगर जिले का एक गाँव है-‘हिवरे बाजार’ इस गाँव में 1989 से पहले लोग सूखा से तंग आकर गाँव छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर रहे थे। चोरी, छीना - झपटी के मामले बढ़ रहे थे। 1990 में सरपंच पवार की अगुआई में गाँव में खेती की सिंचाई का तरीका बदला। सरकारी सहायता से ड्रिप सिंचाई शुरू की। ग्राम पंचायत ने केला और गन्ना की फसलों पर पूरी तरह से पाबंदी लगा दी। क्योंकि इनके लिए ज्यादा पानी चाहिए। ग्राम पंचायत ने मिलकर पानी को इकट्ठा करना शुरू किया। 1995 तक आते-आते गाँव में पानी का स्तर 30 फुट पर आ गया जो पहले 120 फुट से भी ज्यादा नीचे था। 2016 में बारिश कम हुई, ग्राम पंचायत की बैठक हुई, उन्होंने तय किया कि बाजरा उगाया जाय। जिससे कम पानी में भी सब की फसल अच्छी हो सके। वहाँ 50 फीसद कम बारिश पर भी फसल उत्पादन में कोई कमी नहीं आयी। बिना बारिश के भी गाँव के खुले कुएँ में 10-12 फुट की गहराई पर पानी था। इस गाँव में साक्षरता दर सौ फीसदी है। यह गाँव प्रति व्यक्ति आय के मामले में देशभर में सबसे ऊपर है। पचास फीसद से ज्यादा परिवार दस लाख सालाना से ज्यादा कमाते हैं, इनमें छः घर ऐसे भी शामिल हैं जिनके पास कोई जमीन नहीं है।
कैसे किसी गाँव को दस साल में सूखा रहित बनाएँ ?
किसी भी गाँव को सूखा रहित बनाया जा सकता है। नीचे दिए गए चार चरण में इस प्रक्रिया को समझाया गया है।
पहला चरण-पहले दो साल में पुराने पानी भण्डार की जगहों को साफ़ सुथरा किया जाय और नए क्षेत्र बनाने के लिए निवेश किया जाय। हर गाँव के पास औसत 224 हेक्टेयर जमीन है। यह जमीन 2.44 अरब लीटर पानी इकट्ठा कर सकती है। इतना पानी पीने के लिए, घरेलू उपयोग के लिए और सिंचाई के लिए पर्याप्त है। इससे केवल दो साल बाद ही पर्याप्त मात्रा में पानी धरती में रिचार्ज हो जायेगा, इकट्ठा हो जायेगा। तब सूखा से लड़ा जा सकता है। फ़ोटो 2-गाँव गाँव ऐसे तालाब बनाने होंगे
दूसरा चरण - अगले तीन से पाँच साल के भीतर खेती की मानसून पर निर्भरता घटेगी और खेती को एक नया जीवन मिलेगा। कम बारिश वाले इलाकों में छोटे किसान दूसरी फसल भी उगा सकेंगे। इससे उनकी आमदनी बढ़ेगी। गाँव से शहर में पलायन कम होगा।सरकारी सहायता से बीज का वितरण और फसल बीमा से किसानों में आत्मविश्वास बढ़ेगा। सही फसल के चुनाव से उत्पादन ज्यादा होगा और खुशहाली बढ़ेगी।
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फोटो-2 स्वच्छ तलब का एक दृश्य |
तीसरा चरण- छः से आठ साल के भीतर पशुपालन और मछली पालन बढ़ जाएगा। एक अच्छी दूध देने वाली गाय या भैंस से कोई भी 85 रुपये प्रतिदिन कमा सकता है। अगर उसे भैस के लिए चारा मिल जाए। यह आय ग्रामीण गरीबी रेखा से लगभग चार गुना ज्यादा है। नॉन वेजिटेरियन खाने की माँग अच्छी खासी है । रिपोर्ट बताती हैं कि राजस्थान में औसत एक किसान खेती से जितना कमाता है उससे दोगुनी कमाई दस बकरियों को पालने से हो जाती है। इससे किसानों को और जिनके पास जमीन नहीं हैं उन लोगों को भी अतिरिक्त आय का साधन मिलेगा। यह अतिरिक्त आय सूखा जैसी विपत्ति से लड़ने में उन्हें सहायता करेगी।
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फोटो-3 मछली पालन से अतिरिक्त आमदनी |
चौथा चरण- नौवें और दसवें साल तक ऐसी परिस्थिति बन जाएगी कि किसान अब बागवानी और पेड़ लगा सकते हैं। अब वे नकदी फसल उगा सकते हैं। इस समय बागवानी कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़ बनी हुई है। अनाज से ज्यादा पारिश्रमिक इसमें है। इसमें सरकार को गाँव गाँव से देशभर में सही वितरण की व्यवस्था करनी होगी। इससे एक तरफ खेती की मानसून पर निर्भरता ख़त्म होगी दूसरी खेती से जुड़े लोगों की आय में बढ़ोत्तरी होगी। इस तरह देश को सूखा से निजात मिलेगी।
पर्याप्त पानी होगा तो नकदी फसल की खूब पैदावार होगी।
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फ़ोटो 4-पर्याप्त पानी से नकदी फ़सल की पैदावार |
निष्कर्ष
सूखा की समस्या अब नियमित बन गयी है और सूखा क्षेत्र दिन-ब-दिन बढ़ते जा रहे हैं। ऐसे में समस्या का सही आकलन और समाधान दोनों जरूरी है। सूखा से लड़ना असंभव नहीं है। इस रिपोर्ट में बताये गए समाधान अगर हर ग्राम पंचायत में लागू हों तो सूखा रहित गाँव बनाये जा सकते हैं। मानसून पर खेती की निर्भरता कम की जा सकती है। खेती पर निर्भर लोगों की जिंदगी में खुशहाली आ सकती है।
सीमाएँ
जो मॉडल पेश किया है उसकी अपनी सीमाएं हैं क्योंकि ग्रामपंचायत के हाथ में आज भी इतनी ताकत नहीं है कि वे अपनी समस्याओं का केंद्र से समाधान करा सके। फिर भी आज के दौर में सब के मिले-जुले प्रयास से इस मानव निर्मित आपदा से निपटना संभव है। “ड्रॉट बट व्हाई” किताब सूखा से बढ़ी परेशानियों की बारीकी से पड़ताल करती है और उम्मीद की एक किरण भी जगाती है। हर ग्राम पंचायत में इस मॉडल पर बहस हो तो एक नयी शुरुआत हो सकती है।
सन्दर्भ
“ड्रॉट बट व्हाई”-ए डाउन टूअर्थ पब्लिकेशन
https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/1/15/Flaxpits_-_The_village_pond_at_Winterbourne_-_geograph.org.uk_-_58767.jpg
https://images.livemint.com/rf/Image-621x414/LiveMint/Period2/2016/09/06/Photos/Processed/horticulture-kICE--621x414@LiveMint.jpg
https://pushkarv.org/drought/
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