Monday, 9 September 2019

उत्तर प्रदेश में प्रदूषित नदियाँ

8 सितम्बर सेमिनार में आलेख प्रस्तुत करती सिमरन

नदियाँ प्राणी जगत के लिए बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। नदियों के किनारे बसे क्षेत्र भरे-पूरे होते हैं। सभी बड़े शहर बड़ी नदियों के किनारे ही बसे हुए हैं। इनके बिना हम सभ्यता और जीवन की कल्पना नहीं कर सकते। पर बीते कुछ दशकों में नदियों का हाल बहुत खराब हो गया है। नदियाँ हद से ज्यादा प्रदूषित हो चुकी हैं। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) से प्राप्त अकड़ो के आधार पर भारत में 521 नदियों में 323 नदियों का पानी प्रदूषित हो चुका है और कुछ नदियों जैसे गंगा, यमुना का पानी नहाने लायक भी नहीं बचा है। बाकी स्वच्छ बची नदियों में ज़्यादातर छोटी नदियाँ हैं।
2007 में ही भारत की पवित्र कहे जाने वाली गंगा नदी दुनिया भर में पाँच सबसे प्रदूषित नदियों में शामिल की जा चुकी है और 10 सबसे प्रदूषित नदियों में भारत की एक और पवित्र कहे जाने वाली नदी यमुना भी शामिल है। ये दोनों ही नदियाँ उत्तर प्रदेश से होकर गुजरती हैं। विश्व जल निगरानी दिवस संगठन (डब्ल्यूडब्ल्यूएमडीओ) ने एक रिपोर्ट में खुलासा किया है कि भारत में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की नदियाँ सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं जिसमें हिंडन, काली, यमुना जैसी नदियाँ नाले में परिवर्तित हो गयी हैं। इन नदियों के किनारे सैकड़ों कारखाने लगे हैं जिनके कचरे सीधे नदियों में डाल दिये जाते हैं साथ ही शहर भर के लाखों टन अपशिष्ट बिना उपचारित किए नदियों में बहा दिये जाते हैं। उत्तर प्रदेश में छोटी-बड़ी कुल 31 नदियाँ हैं जिनमें गंगा, यमुना, घाघरा, गोमती, हिंडन, काली प्रमुख हैं। ये नदियाँ कई बड़े शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों से होकर गुजरती हैं। उत्तर प्रदेश के बड़े मैदानी भागों को ये नदियाँ सिचती हैं। पेय जल, रोजी-रोटी जैसे खेती, मतस्य पालन, विद्युत उत्पादन और दैनिक दिनचर्या के काम के लिए लोग इन्ही नदियों और इनसे निकाले गए नहरों पर निर्भर करते हैं। पर आज हालत यह है कि जहाँ नदियाँ पहले पालनकर्ता कहलाती थी वही नदियाँ अपने क्षेत्र में कैंसर तक का कारण बन रही हैं।
प्रदूषित नदियाँ
नदियों के प्रदूषण की जाँच बीओडी (बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड) स्तर के द्वारा की जाती है। बीओडी एक निश्चित समय अवधि में निश्चित तापमान पर किसी दिए गए पानी के नमूने में मौजूद कार्बनिक पदार्थ को तोड़ने के लिए सूक्ष्म जीवों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले आवश्यक विघटित ऑक्सीजन (यानी मांग) की मात्रा है। सुरक्षित पेय जल के लिए बीओडी 2 मिली ग्राम प्रति लिटर से कम होना चाहिए जबकि नहाने के लिए बीओडी 3 से ज्यादा नहीं होना चाहिए। पर उत्तर प्रदेश के 15 में से 11 नदियों का बीओडी 3 से अधिक पाया गया है। शुद्ध पेय जल में कम से कम 6 मिली ग्राम प्रति लिटर विघटित ऑक्सिजन होना आवश्यक है। 5 मिली ग्राम प्रति लिटर या इससे कम विघटित ऑक्सिजन होने पर पानी नहाने के लिए भी उपयुक्त नहीं होता। जैसे ही जल में प्रदूषण की मात्र बढ़ती है वैसे ही सूक्ष्म जीवों द्वारा इसे उपचरित करने के लिय विघटित ऑक्सिजन की माँग बढ़ जाती है और विघटित ऑक्सिजन की मात्रा में बहुत तेजी से कमी आती है। कई क्षेत्रों में शून्य विघटित ऑक्सिजन पाये गए हैं जिसे मृत क्षेत्र कहते है। मृत क्षेत्रों में जलीय प्रजातियों का जीवित रहना नामुमकिन है।
प्रदूषण के जाँच का दूसरा मानक है जल में अमलियाता या क्षारकता का होना है। सामान्य तौर पर पानी उदासीन प्रकृति का होना चाहिए। इसका पीएच मान 6.5 से 8.5 के बीच होना चाहिए। पर कई स्तनों पर पीएच 9 से 10 के बीच पाया गया है। पानी में कोलीफॉर्म नामक बैक्टीरिया भी पाया जा सकता है जिससे पानी से होने वाली बीमारियाँ होती है। इसकी मात्रा अधिक होने पर इसमें रोगजनक बैक्टीरिया जैसे गियार्डिया और क्रिप्टोस्पोरिडियम पनपते हैं जिनका अभी तक कोई प्रभावी इलाज नहीं है। पेय जल में कोलीफॉर्म नहीं पाये जाने चाहिए फिर भी अधिक से अधिक 50 एमपीएन प्रति मिली लिटर तक कोलीफॉर्म होने पर इसे शुद्ध माना जाता है। पर वास्तव में इसकी संख्या हजारों गुणा ज्यादा पायी गयी है।
वहीं जल में भारी धातुओं के प्रतिशत मात्रा भी काफी बढ़ी हुई पायी गयी जो शरीर में अनेक रोगों को जन्म देते हैं। लोहा, तांबा, जस्ता के बढ़े हुए मात्रा घातक सिद्ध होते हैं। जबकि पारा, कैडमियम, आर्सेनिक, सीसा का जल में होना हानिकारक होता है।
इस आधार पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कई नदियाँ जैसे हिंडन, काली, यमुना, रामगंगा गंभीर रूप से प्रदूषित हैं। इन नदियों के किनारे बसे क्षेत्रों में भूमिगत पेय जल भी प्रदूषित हो चुका है, पेट की बीमारी, त्वचा रोग, कैंसर जैसी बीमारियाँ तेजी से फैल रही हैं।
हिंडन नदी
यह 6 जिलों से गुजरती हुई यमुना में मिल जाती है। पिछले 5 सालों में अलग अलग जगहों पर इसके पानी में बीओडी या तो बढ़ा है या स्थिर है। कई जगहों पर औसत बीओडी 62 से भी ऊपर पायी गयी है जबकि विघटित ऑक्सिजन आदिकांश जगहों पर शून्य है। कोलिफोर्म बैक्टीरिया की संख्या लाखों एमपीएन प्रति एमएल है। सहारनपुर में लेड की मात्रा अनुमत सीमा से 179 गुणा अधिक पायी गयी। अन्य धातुओं की मात्रा भी गंभीर है। इसे गंभीर प्रदूषित नदियों के श्रेणी में रखा गया है।
काली नदी
इसमें कोलिफोर्म की मात्रा 5 करोड़ तक पायी गयी है। विघटित ऑक्सिजन शून्य हो चुका है। नाइट्राइट जिसकी मात्रा शून्य होनी चाहिए, 8.45 मिलीग्राम प्रति लिटर पायी गयी है। सीसा, मैगनीज लोहा, क्रोमियम जैसे तत्व अत्यधिक मात्रा में पाये गए है। इस नदी का पानी खेती के लिए भी उपायुक्त नहीं है। इससे उगाई जा रही सब्जियाँ भी रोगजनक सिद्ध हो रही हैं।
गोमती नदी
यह नदी अपने उद्गम स्थान से ही नाले में परिवर्तित हो चुकी है। इसके जल में जलकुंभी को छोड़ कर कोई वनस्पति या मछलियाँ जीवित नहीं रेह प रही हैं। इसमें मेथेन गैस के उठते हुए बुलबुले भी पाये गए हैं।
यमुना नदी
यानुना नदी दिल्ली से गुजरते हुए एक नाले में तब्दील हो चुकी है। पानी में अमोनिया की मात्रा बेहद खतरनाक स्तर पर है। दिल्ली में ही 1500 करोड़ लीटर अनुपचारित सीवेज और 500 लीटर औद्योगिक अपशिष्ट नदी में प्रत्येक दिन बहाये जाते हैं। नदी में बड़ी मात्रा में विषैले झाग पाये गए हैं। गौर तलब है कि घरेलू तथा औद्योगिक अपशिष्टों के आपस में मिल जाने के बाद उनका शोधन संभव नहीं हो पाता है।
गंगा नदी
ये सारी नदियाँ अलग अलग जगहों से होते हुए अपने साथ लाये हुए कचरे के साथ गंगा में मिलती हैं। इसका पानी नहाने लायक भी नहीं बचा है। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के अध्ययन के अनुसार गंगा इतनी प्रदूषित हो चुकी है कि इसके किनारे बसने वाले लोगों को कभी भी कैंसर हो सकता है। बनारस में इसके पानी में ज़िंक, कैडमियम, तांबा, क्रोमियम जैसे भरी धातु कि मात्रा बहुत उच्च पायी गयी है और सीसा बहुत खतरनाक स्तर पर लगभग हजार गुना तक मौजूद है। पिछले कुछ सालों के दौरान गंगा कि सफाई के लिए लगभग 3000 करोड़ रुपये खर्च किए गए पर इसके पानी कि गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं आया है।
नदियों के प्रदूषण के मुख्य कारण
नदियों के प्रदूषण के मुख्य कारण औद्योगिक अपशिष्ट और घरेलू अपशिष्ट का बिना उपचार किये नदियों में बहाया जाना है। इसके आलवे खेती में हानिकारक कीटनाशकों का प्रयोग, धार्मिक रीति-रिवाज के अवशेष, प्लास्टिक कचरे, जल का दोहन आदि भी प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हैं।
औद्योगिक अपशिष्ट में जल में बड़ी मात्रा में तेल, रसायन, विषैले पढ़ार्थ, भारी धातु मौजूद होते हैं जिन्हे शोधित करके नदियों में बहाया जाना चाहिए पर अधिकांश उद्योग पर्यावरण सुरक्षा मानकों को ताख पर रखकर पूरा कचरा नदियों में उड़ेल देते हैं। उत्तर प्रदेश के 700 से अधिक फ़ैक्टरियों से प्रतिदिन लगभग 550 मिलियन लिटर नदियों में निर्वहन किया जाता है। इसमें उपस्थित तेल के कण सतह के ऊपर आने से जल का वायु से संपर्क तोड़ देते हैं। भारी धातुओं के कण अवक्षेपित हो जाते हैं। रसायनों के मिलने से जल का पीएच मान बढ़ जाता है। ये जल फिर खेती के लिए भी उपयुक्त नहीं होते हैं। औद्योगिक क्षेत्रों में जल में पाये जाने वाली कई प्रजातियाँ जीवित नहीं रह सकती (54 में से केवल 9 जीवित रह सकती हैं)।
घरेलू अपशिष्ट जिसमे कार्बनिक पदार्थ होते हैं। साथ ही नाइट्रोजन, फास्फेट, पोटैशियम बड़े मात्रा में उपस्थित होते हैं। ये पोषक तत्व जरूरत से ज्यादा मात्रा में जल में घुल जाते हैं जिससे जलीय पौधों का तेजी से बढ्ने का खतरा रहता है। इस क्रम में और कार्बनिक पदार्थों को तोड़ने में ऑक्सिजन बड़ी मात्र में खपत होती है। फलस्वरूप जल में ऑक्सिजन कम होते होते शून्य स्तर तक पहुँच जाता है। इससे जलीय जीव-जंतुओं के जीवन पर खतरा मंडराना शुरू हो जाता है। केवल यमुना में ही प्रतिदिन 10 लाख लीटर से ज्यादा घरूलु अपशिष्ट बहाये जाते हैं जो दिल्ली से निकले कुल अपशिष्ट का दो तिहाई हिस्सा है।
घरेलू अपशिष्ट के निपटान के लिए मलजल उपचार संयंत्र होना आवश्यक है। उत्तर प्रदेश में केवल 20 जिलों में 59 मलजल उपचार संयंत्र स्थापित है जिसमे 57 परिचालन में है। इनमें केवल 15 प्रतिशत अपशिष्ट का निपटान किया जाता है। अपशिष्ट का निपटान लंबा और खर्चीला प्रक्रिया है। इसलिए इससे होने वाले नुकसान पर ध्यान दिये बिना नदियों में सीधा बहा देना ज्यादा आसान और सस्ता प्रतीत होता है। दूसरी तरफ खेती में प्रयुक्त उर्वरक और कीटनाशकों के कारण मिट्टी में नाइट्रेट की मात्रा काफी बढ़ जाती है जो पानी के साथ नदियों में आकार मिल जाती है। पानी में नाइट्रेट की मात्रा शून्य होनी चाहिए पर नदियों में कई जगह नाइट्रेट के बुलबुले पाये गए।
यदि घरेलू अपशिष्ट को जो कि उर्वरक है, मिट्टी के लिए पोषक तत्व का काम करती है, उपचारित करके इससे प्राप्त खाद को खेतों में प्रयोग करके प्रकृतिक तरीके से खेती कि जा सकती है। अपशिष्टों का इतने बड़े पैमाने पर नदियों नालों में बहाया जाना एक ओर इनकी बरबादी है तो दूसरी ओर नदियाँ अत्यधिक प्रदूषित होते जा रही हैं। इस प्रकृतिक तरीके से खेती में सबसे बड़ी रुकावट है ये उर्वरकों, कीटनाशकों की बड़ी-बड़ी अन्तरराष्ट्रीय कंपनाइयाँ जिनका उद्देश्य केवल मुनाफे तक केन्द्रित होता है। पर इसका नुकसान आम लोगों को भुगतना पड़ता है।
पर्यावरण के संतुलन के लिए ये आवश्यक है कि आम जनता आगे बढ़कर इन प्रक्रियाओं में हिस्सेदारी ले और विकास के इस उल्टी दिशा को जो विनाश के ओर ले जा रही है, सही दिशा में संचालित करें।
-सिमरन

2 comments:

  1. नदियों को बचाना
    अपने को बचाना है!
    अच्छा लेख

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  2. अच्छा लिखा है सिमरन

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