(8 सितम्बर 2019 को मेरठ में आयोजित
सेमिनार "जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संकट" में महबूब के द्वारा
प्रस्तुत आलेख)
![]() |
आलेख प्रस्तुत करते हुए महबूब |
पर्यावरण संकट पर टीवी में प्रायोजित
बहस, एसी कमरों में चलने वाले बड़े-बड़े
सेमिनार और किताबी ज्ञान से बाहर निकलकर अपने आसपास देखें तो सच्चाई भयावह है। हमने शामली जिले के गढ़ी दौलत गांव के कुछ नौजवानों से मुलाकात की। पर्यावरण पर
कुछ विचार विमर्श हुआ। उन्होंने हमें अपने गांव आने का न्योता दिया। अगले दिन हम
कुछ साथी उनके गांव पहुंचे। सबसे पहले उन्होंने हमें अपने गांव का तालाब दिखाया। काफी बड़ा तालाब था। तालाब में पानी कम था, गंदगी
ज्यादा थी।
ग्रामीणों से बातचीत करने पर पता चला
कि बरसात के महीने में कीचड़ वाला बदबूदार पानी घरों के अंदर तीन से चार फुट तक भर
जाता है। जो तालाब कभी ग्रामीण अंचल की पानी निकासी के साधन थे, आज वही
तालाब गंदगी, बीमारी और जल-भराव का स्रोत बन गये
हैं। जो तालाब कभी देहाती जन-जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे। वे आज लोगों को मौत
का कारण बन चुके हैं। तालाब के आस-पास का कोई घर नहीं बचा होगा जिसमें एलर्जी से
प्रभावित रोग न हो। इतनी बुरी हालत है कि लोगों के हाथ-पैर से लेकर जनन अंगों तक
गले हुए हैं। पूरे शरीर पर फफोले और फुंसियाँ निकली हुई हैं। छोटे बच्चों के हाथों
की उंगलियों में घाव बन चुके हैं। उनकी आंखों में सूजन है। कई बीमार हैं। लोग पानी
की जगह पर जहर पी रहे हैं। गांव के सभी सरकारी नल खराब पानी के चलते बंद होते जा
रहे हैं। गांवों में कैंसर के रोगी बढ़ते जा रहे हैं। हर महीने अलग-अलग बुखार से
लोग मौत के मुंह में समाते जा रहे हैं।
![]() |
गंदे पानी से गुजरते ग्रामीण |
ऐसे हालात देखने के बाद हमने गांव के
नौजवानों और बुजुर्गों से समस्या के समाधान पर तुरन्त कार्रवाई की बातचीत की। लेकिन
उन्होंने समझा कि हम सरकार की ओर से आये हैं और सारा काम हम ही कर देंगे। हमने
कहा कि भाई पूरे गांव को इकट्ठा करो। हम मिलकर तालाब की सफाई करेंगे। चंदा इकट्ठा
करके तालाब की खुदाई की जायेगी। जैसे ही हमने कुछ करने की बात की तो लोग तैयार नहीं हुए। लोग तैयार भी कैसे हो सकते हैं? जब देश का लंबरदार साफ़-सुथरी सड़कों पर
झाड़ू लगाकर स्वस्थ अभियान पूरा करता हो, जनता के प्रतिनिधि एसी कमरों में
फिटनेस टेस्ट देते हो तो जनता कैसे गन्दे तालाब में उतरकर सफाई करे? वह अपने
अधिकारों के लिए कैसे संघर्ष करेगी? जब उसके आदर्श इतने गये गुजरे हों।
उस तालाब से निकलने वाले नाले का हमने
सर्वे भी किया। नाला वेन्नाला खेड़ा, कुर्ता, लूम्ब, हेवा मियां, गढ़ी आदि
गांवों से होकर गुजरता है। गांव के बुजर्गों से बातचीत करने पर पता चला कि बहुत
पहले रजवाहा आया था। आज वही रजवाहा गंदे नाले में तब्दील हो चुका है। इसके आसपास
के तालाबों का पानी तेजाब से भी बुरा है।
प्रशासन तालाब का पानी तालाब में और खेत का पानी खेत में जैसे लुभावने कार्यक्रम
करके अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेता है। कुछ लोगों को ग्राम पंचायत भवन में बुलाकर
कोल्डड्रिंक पिलाकर इस काम को अंजाम दे दिया जाता है।
![]() |
प्रदूषित तालाब |
अगर सामाजिक संगठन ऐसे कामों में शिरकत
करते हैं, लोगों को लेकर कुछ पहलकदमी करते हैं तो
उनके सामने दो सबसे बड़ी बाधा आती है। पहली बाधा, लोगों की सोच को कुंद कर दिया गया है।
देश के शासक वर्ग ने अवाम के जेहन में कूड़ा भर दिया है कि वह समझने लगे हैं कि कोई
आए और हमारी समस्या को रातों-रात खत्म कर दें। यह सोच लोगों को अंधविश्वास की तरफ
ले जाती है, जिसके कारनामों से अखबार भरे पड़े रहते
हैं। दूसरी एक और बात, जवान पीढ़ी 2 जीबी डाटा में मस्त है।
उसे पर्यावरण से सम्बन्धित कोई समस्या नजर नहीं आती है। उसके सामने पब्जी गेम के
पूरा न करने की बड़ी गंभीर समस्या है। किसी देश की खुशहाली उसके नौजवान पीढ़ी की
सोच पर निर्भर करती है। हमारे देश के भविष्य निर्माताओं की दुर्दशा किसी से छिपी
नहीं है। शिक्षा व्यवस्था का काम पर्यावरण के प्रति रुचि पैदा करना है, लेकिन आज
की शिक्षा पर्यावरण के प्रति हमें लापरवाह बनाने का काम कर रही है। वह उपभोक्ता
पैदा कर रही है, जिन्हें सामान खरीदना है। चाहे
पर्यावरण की लाश पर खड़ा होकर खरीदना हो या फिर इंसानों की लाश पर खड़ा होकर। हम
भी इसी शिक्षा व्यवस्था में पढ़कर बड़े हुए हैं और इसी समाज के अंग है। इसलिए
पर्यावरण के प्रति हमारा भी सरोकार कम है। हमने सामाजिक हालात से रूबरू कराने वाली
कुछ पत्रिकाएं पढ़ी तो जागरूक हुए।
दूसरी बाधा है, ग्रामीण
सत्ता का टकराव जैसे गांव के कुछ लोग मिलकर कुछ कदम उठाते हैं तो गांव के वे लोग
जो किसी सत्ताधारी पार्टी से जुड़े होते हैं, अपनी राजनीति के लिए खतरा महसूस करने
लगते है। उन्हें लगता है कि उनका वर्चस्व टूट जाएगा। सत्ता से जुड़े इन लोगों ने
गांव के तालाबों को कागजों में हरा भरा करके तहसील की अलमारियों में कैद कर दिया
है। प्रशासन लोगों की मौत के बाद क्रियाकर्म का इंतजाम करने में भरपूर सहयोग देता
है, लेकिन लोगों की जिंदगी बचाने के लिए
हाथ खड़ा कर देता है।
प्रकृति हमारी जरूरतों को पूरा कर सकती
है। लेकिन मुनाफे की हवस को पूरा नहीं कर सकती है। प्रकृति के साथ खिलवाड़ करना
विनाश को न्यौता देना है। पूंजीपति वर्ग सरकार के साथ मिलकर अपनी तिजोरी भरने का
काम कर रहा है। सरकार और प्रशासन का आवाम की जिंदगी से कोई सरोकार नहीं है। आज
लोगों में अजीब निराशा का भाव है। लोग अपने घरों के अंदर घुट कर मर रहे हैं, लेकिन
मिलकर संघर्ष करना पसंद नहीं करते। अगर हमें अपने जीवनदायिनी तालाबों और धरती माँ
को बचाना है, तो हमें आरामदायक एसी कमरों और होटलों
को छोड़कर जनता के बीच जाना होगा। उन्हें इस भयावह संकट से जागरूक करना पड़ेगा।
उनकी समझदारी बढ़ानी होगी। उनकी अगुवाई करनी पड़ेगी। मसलन, कुछ
नौजवानों ने एक गाँव की जनता को जागरूक करके दो-तीन महीने में पूरा मोहल्ला साफ कर
दिया। नालियों में पलने वाले मच्छर कम हो गये। ऐसा भी प्रयास किया जा सकता है।
उजाला दूर है लेकिन एक छोटी सी चिंगारी भी रोशनी का काम कर सकती है। अगर हमें आने
वाली पीढ़ी के लिए सुंदर पर्यावरण को बचाना है तो छोटे-छोटे मोहल्लों, तंग गलियों, झोपड़ियों
और कच्चे मकानों में जागरूकता का संदेश लेकर जाना पड़ेगा। नहीं तो हम अकेले-अकेले
तड़प-तड़प कर सब मारे जाएंगे।
-- महबूब
Sach me hi yahan pr bahut bura hal h gao me
ReplyDelete