पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 के अनुसार
पर्यावरण में हवा, पानी, जमीन और जीव जन्तु भी
शामिल है। चारों ओर बढ़़ते
हवा, पानी और अन्य सभी तरह के प्रदूषण ने साफ
वातावरण में जीने के मनुष्य के मौलिक अधिकार को भी छीन लिया है। इसके साथ–साथ
मनुष्य के भरण–पोषण के लिए खेती एक जरूरी कार्रवाई है। लेकिन
खेती भी पर्यावरण संकट से अप्रभावित नहीं रह गयी है।
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सेमीनार में अपना आलेख प्रस्तुत करते 'किसान' पत्रिका के सम्पादक महेश त्यागी |
जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव खेती में साफ–साफ
दिखने लगा है। जलवायु परिवर्तन पर अन्तर–सरकारी पैनल (आईपीसीसी) के अनुसार वर्ष 2030 तक
कुछ इलाको को छोड़कर दुनिया के बड़े भू–भाग के कृषि उत्पादन में तीस फीसदी की कमी आ
जायेगी। ग्लोबल वार्मिंग के कारण फसलों का जीवन चक्र छोटा होता जा रहा है। साथ ही
खाद्य पदार्थो में लौह, जिंक और प्रोटीन जैसे पोषक तत्वों की कमी होती जा रही है। चारे की फसल में
नाइट्रोजन की कमी से पशुओं का पाचन तन्त्र
कमजोर हो गया है।
औद्यीगिकीकरण और बिना सोचे–समझे
स्थापित फैक्ट्ररियों से निकलने वाले घातक रसायनों और शहरों की गन्दगी ने हमारी
जीवनदायिनी नदियों को जहरीला बना दिया है। आजादी से पहले इन्हीं नदियों का पानी
कृषि के साथ नहाने–धोने और पीने के काम आता था। जो आज
रसायानिक प्रदूषण के कारण जीवन का दुश्मन बन गया है। किसान नदियों के किनारे खेतों में सिंचाईं इसी जहरीले पानी से करते है। इससे पैदा होने वाले टमाटर, खीरा, बैगन, आलू
और लौकी इत्यादि फसलों में भी जहरीले तत्व पहुँच रहे है। जिन्हें खाने को हम विवश
है।
मई 2018 को रोम में जारी खाद्य एवं कृषि संगठन
की रिपोर्ट के अनुसार खेती में अंधाधुंध उर्वरक और कीटनाशको के उपयोग से, ये
कीटनाशक न केवल विभिन्न कृषि उत्पादों बल्कि माँ के दूध में भी पहुँच गये हैं।
भारत में कई स्थानों पर माँ का दूध भी शुद्ध नहीं रहा।
खेती में बढ़ते रासायनिक खादों के इस्तेमाल से
खेती की जमीन की ऊपरी सतह कठोर हो गयी है, जिससे बारिश का पानी जमीन में नीचे पहूँचने के
बजाय ऊपर से ही बह जाता है। इस कारण भी फसल की उत्पादकता घटती जा रही है।
जीव जन्तुओं पर प्रभाव
कीटनाशक और खरपतवार नाशक रसायनों के बेतहाशा
प्रयोग करने से किसानों के मित्र कहे जाने वाले कितने ही तरह के जीव–जन्तु
का विनाश हुआ है।
केंचुआ खेती की जमीन को भुरभुरी, उपजाऊ
और वर्षा के पानी को भूजल से मिलाने में मुख्य भूमिका निभाते थे। बारिश के मौसम में
अनगिनत केंचुए पैदा हो जाते थे। इनका आहार भी मिट्टी में उपस्थित सड़ी–गली
चीजें ही थीं। अपने बारीक–बारीक बिलों में नीचे जाते हुए, अपशिष्ट
के रूप में जो मिट्टी ये जमीन की ऊपरी सतह पर निकालते थे, वो
बहुत ही उपजाऊ होती थी। जैसे ही वर्षा का पानी खेतों में लबालब भरता इनके बारीक
बिलों से होते हुए भूजल में मिल जाता था। यही प्रकृति का मृदा प्रसंस्करण और भूजल
रिचार्ज सिस्टम था, जो अब पूरी तरह नष्ट हो चुका है।
गिजाई भी वर्षा शुरू होते ही इतनी अधिक संख्या
में पैदा होते थे कि खेतों में पैर रखने की जगह तलाश करनी पड़ती थी। ये मिट्टी के
साथ–साथ फसलों को नुकसान पहुँचाने वाले कीटों के
अण्डे और लार्वा को खाकर जिन्दा रहते थे। इससे फसलें हानिकारक कीड़ों से सुरक्षित
रहती थी। लेकिन पूँजीवादी खेती का बढता प्रदूषण इन्हें भी निगल गया।
गुरसल किसान का करीबी मित्र पक्षी था। किसान जब
खेतों की जुताई करते थे, बड़ी संख्या में गुरसलें अपने बच्चों को साथ
लेकर हल के पीछे–पीछे शोरगुल करती हुए चलती थीं। जमीन से निकलने
वाले शत्रु कीटों से वे अपना और अपने बच्चों का पेट भरती थीं। इससे जुताई के समय
ही फसलों की जड़ों में लगने वाले सभी कीटों का सफाया हो जाता था। लेकिन बढ़ते
प्रदूषण से ये पक्षी भी अब लुप्त होने के कगार पर है।
बरसात शुरू होते ही बहुत बडी तादाद में पीले–पीले
मेढक जमीन से बाहर आ जाते थे। टर्र–टर्र, टीं–टीं विभिन्न तरह की आवाजों के साथ एक मधुर
संगीत का वादन करते हुए, वे जहरीले कीट, पतंगों को अपना निवाला बनाते थे।
कीटनाशकों के घातक प्रदूषण से मेढकों के साथ–साथ वह कर्णप्रिय संगीत भी खो गया, जिसे
सुनते हुए लोग शाम को सो जाते थे और सुबह जागने पर उनके स्वागत में निरन्तर बजता
रहता था।
वनस्पति पर प्रभाव
वर्षा ऋतु में बहुत सारे खरपतवार भी उगते थे, जो जानवरों
के लिए बेहद पौष्टिक होते थे। उन्हें खाकर जानवरों के शरीर तो पुष्ट होते ही थे, दूधारू
पशुओं का दूध भी बढ़ता था। कई खरपतवार तो मनुष्यों को भी पसन्द थे। जिन्हें पीसकर
बरसाती साग बनाया जाता था। जिसका स्वाद बड़ा ही लजीज होता था। लेकित अफसोस खरपतवार
नाशकों के खतरनाक प्रदूषण ने उन्हे नष्ट कर दिया।
इनसान पर प्रभाव
2016–17 में कीटनाशक के जहर के चलते महाराष्ट्र के
50 किसानों की मौत हो गयी। सबसे अधिक मौत यवतमाल जिले के 19 किसानों की हुई। इस
इलाके की मुख्य फसल कपास है। कीटनाशक का जहर कितना खतरनाक होता है, इसका
अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कपास की फसल में छिड़काव के दौरान जिन
किसानों ने फसल पर कीटनाशकों का छिड़काव करते समय सुरक्षा के जरूरी उपाय नहीं
अपनाये थे, उन पर घातक असर देखने को मिला। किसानों को
कीटनाशकों का छिड़काव करते समय सुरक्षा किट,
चश्मा और दस्ताने का इस्तेमाल करना
चाहिए, लेकिन अशिक्षा और धन की कमीं के चलते वे ऐसा
नहीं करते। इस इलाके के किसान कपास की जेनेटिकली मॉडिफ़ाइड फसलें उगाते हैं, जिन्हें
कृमि रोग से सुरक्षित माना गया है, लेकिन 2017 में फसलों पर कीड़े लग गये, इसी
के चलते कीटनाशक का इस्तेमाल पूरे इलाके में बढ़ गया। इस दौरान इलाके में जहर के
दुष्प्रभाव में आये 800 किसानों को अस्पताल में भर्ती कराया गया।
1960 के दशक में शुरू हुई हरित क्रान्ति
पूँजीवादी खेती का एक नमूना है, जिसमें अनाज का उत्पादन भूख मिटाने के लिए नहीं
बल्कि बाजार के लिए किया जाता है। अधिक मुनाफा कमाने की होड़ में खेती का प्राकृतिक
और संतुलित ढाँचा चरमरा गया है। हवा और पानी में घुलते जहर ने पर्यावरण को गम्भीर
नुकसान पहुँचाया है।
एक अध्ययन के अनुसार पूरे देश की 14.6
करोड़ हेक्टेअर से ज्यादा उपजाऊ जमीन बंजर हो गयी है। हरित क्रान्ति के अदूरदर्शी
पुरोधाओं ने तात्कालिक फायदे के लिए देश को पर्यावरण संकट में धकेल दिया। जैव
विविधता का विनाश करने वाले निरवंसिया (ट्रांसजेनिक बीटी) बीज
जीन टेक्नोलॉजी और कॉरपोरेट खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। देश के कई इलाकों में
खाद्यान्न की जगह जेट्रोफा, केला, नारियल,
फूल, सफेद मूसली और पीपर मेंन्ट की खेती को
बढ़ावा देकर पर्यावरण का विनाश किया जा रहा है। समय रहते अगर इसे नहीं रोका गया तो
आने वाली नस्लों को साफ भोजन–पानी मिलना भी मुश्किल होगा।
–– महेश त्यागी
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