वैसे तो
पूरा देश ही लेकिन खास तौर से उत्तर भारत के अधिकांश गाँव बुरी तरह विभिन्न
बीमारियों की चपेट में आते जा रहे हैं। इन बीमारियों में
खाँसी–जुकाम जैसी
साधारण बीमारियों से लेकर हार्ट अटैक और कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियाँ शामिल हैं।
स्थिति दिन–ब–दिन खराब होती चली जा रही है। अब
गाँव में सुमित्रानन्दन पन्त की सुकुमार और सुन्दर प्रकृति की देवी निवास नहीं
करती बल्कि वहाँ प्रदूषण और गन्दगी की काली छाया मँडराती रहती है। लेख के शुरू में
मैं अखबारों की कुछ ताजा घटनाओं का जिक्र करूँगा, जिससे इस भयावहता का अन्दाजा लग सके। इसके बाद इस समस्या की
चीरफाड़ करूँगा।

22 अक्टूबर को अमर उजाला ने खबर दी कि संक्रामक बीमारी ने
फतेहपुर के डिघरूवा गाँव को अपनी चपेट में ले लिया है। लगभग सभी घरों में लोग
बीमार हैं। कई–कई घरों
में तो परिवार के सभी सदस्य बिस्तर पर हैं। कोई खाना–पानी देने वाला नहीं है। ग्राम प्रधान ने इसकी सूचना अमौली
ब्लॉक के स्वास्थ्य विभाग को दी थी। लेकिन विभाग की तरफ से कोई कार्रवाई नहीं की
गयी। विशेषज्ञ डॉक्टर के अभाव में लोग झोलाछाप डॉक्टर से ही इलाज करा रहे हैं।
ग्रामीणों ने बताया कि स्थिति इतनी खराब है कि गाँव में कोई सफाईकर्मी नहीं आता है।
पूरा गाँव गन्दगी में डूबा रहता है।
26 अक्टूबर को अमर उजाला की ही खबर के अनुसार कैराना के पंजीठ
गाँव में 24 घंटे के अन्दर
तीन ग्रामीणों की मौत हो गयी। इनकी मौत हेपेटाइटिस–सी और कैंसर के चलते हुई। इलाके में एक बड़ा तालाब है, जिसमें बड़े नाले का गन्दा पानी आकर
समाता रहता है। इसी गन्दे पानी की वजह से पूरा गाँव बीमारी की चपेट में है।
मुजफ्फरनगर
का सटा सिखेड़ा क्षेत्र चारों तरफ से औद्योगिक ईकाइयों से घिरा है। पूरे इलाके में
प्रदूषण इतना फैल चुका है कि इलाके के गाँवों में जानलेवा बीमारियाँ कहर बरपा रही
हैं। हालत इतनी नाजुक है कि पिछले पाँच सालों में अकेले निराना गाँव में 12 लोग कैंसर से जान गँवा बैठे हैं।
वहीं अन्य 7 लोग इस गम्भीर
बीमारी से जूझ रहे हैं। गाँव में मातम फैला हुआ है। गाँव वाले प्रशासन से इसकी कई
बार शिकायत कर चुके हैं। लेकिन नतीजा ढाँक के तीन पात। इतना सबकुछ होते हुए भी आज
तक इलाके में कोई मदद नहीं पहुँच पायी। अगर आप यहाँ की हालत देख लें तो आपकी आँखें
आँसुओं से भर जायेंगी और जिन्दगी से आपका विश्वास उठ जायेगा। ऐसी हालत में भी यहाँ
के लोग जिन्दा हैं और जिन्दगी से संघर्ष कर रहे हैं, इसके लिए उनके जज्बे की तारीफ करनी चाहिए।
सटा
सिखेड़ा के आस–पास की
औद्योगिक ईकाइयाँ भूजल का बेतहाशा दोहन करती हैं। फैक्ट्रियों से निकले कचरे को
रजबाहों में बहा दिया जाता है। इससे रजबाहों का पानी काला हो गया है और वे बदबूदार
नालों में बदल गये हैं। इसकी बदबू से इसके पास खड़ा आदमी गश खाकर गिरने जैसी स्थिति
में आ जाता है। इसका प्रदूषण कैंसर और अन्य जानलेवा बीमारियों का स्रोत है।
फैक्ट्री के मालिकों की पहुँच सरकार के ऊँचे नुमाइन्दों तक होने के चलते उनके
खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो पाती। ऐसे में फैक्ट्री के मालिक पूरी तरह मनमानी पर
उतर आये हैं और पर्यावरण के सभी नियम–कानूनों को धता बताते हुए धड़ल्ले से जहर फैलाने वाली अपनी
फैक्ट्रियों को चला रहे हैं। इनकी फैक्ट्रियाँ देश के विकास की सीढ़ी नहीं हैं
बल्कि मौत के बूचड़खानों में बदल गयी हैं।
सहारनपुर
के रणखंडी गाँव की हालत निराना से भी बदतर हो गयी है। पत्रिका–डॉट–कॉम वेबसाइट की 25 अक्टूबर की खबर के अनुसार पिछले 5 सालों में कैंसर की बीमारी ने सैकड़ों लोगों की जिन्दगी निगल
ली। आज भी बड़ी संख्या में एक महीने के बच्चे से लेकर बूढे़ लोग इस बीमारी की चपेट
में हैं। ग्रामीणों के विरोध प्रदर्शन के बावजूद प्रशासन गहरी नींद में सो रहा है।
जब गाँव वाले अपनी समस्या बताने के लिए विधायक के पास गये तो विधायक ने गाँव वालों
के साथ बदतमीजी की और उन्हें भगा दिया। यानी जनता की सेवा के नाम पर सांसद–विधायक लाखों की तनख्वाह और ढेरों
सुख–सुविधाएँ हासिल
करते हैं लेकिन वास्तव में करते कुछ नहीं। इस व्यवस्था को लोकतंत्र नहीं बल्कि
चोरतंत्र कहें तो ज्यादा सही होगा। तो चोरतंत्र के एक पहरूए से जब गाँव वाले तंग आ
गये तो उन्होंने विधायक के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और प्रदर्शन करके माँग की कि इस
विधायक को हटाया जाये।
सैकड़ों
मौतों के बाद रणखंडी गाँव का मंजर कैसा होगा ? यह सोचकर ही शरीर में कंपकंपी दौड़ जाती है। “वह हृदय नहीं पत्थर है” जो इतनी भयावह हालत देखकर भी नहीं
पिघलता। गाँव के पास बहने वाले नाले में कभी साफ पानी हुआ करता था लेकिन अब इसमें
त्रिवेणी सुगर मिल और कई अन्य फैक्ट्रियों का जहरीला कचरा बहा करता है। भूमिगत जल
इतना प्रदूषित हो गया है कि शाम को बाल्टी में रखा पानी सुबह तक काला हो जाता है।
लेकिन यही पानी गाँव वाले पीने के लिए मजबूर हैं। इस इलाके में ढंग का कैंसर
अस्पताल न होने के चलते इलाज के लिए दूर–दराज के शहरों में जाना पड़ता है। सच पूछा जाये तो इन गाँव वालों की तकलीफें प्रशासन का कोई व्यक्ति
सुनने के लिए तैयार नहीं। न ही कोई सरकार और न ही कोई भगवान सुनने को तैयार है।
13 सितम्बर को उत्तर प्रदेश के राज्यपाल मेरठ आये। उन्होंने
केएमसी अस्पताल में कैंसर के इलाज की आधुनिक तकनीकी को हरी झंडी दिखायी। जबकि मेरठ में पहले
से मौजूद वैलेंटिस कैंसर अस्पताल और मेरठ कैंसर अस्पताल में मरीजों की संख्या बढ़ती
ही जा रही है। ये बातें किस ओर इशारा कर रही हैं। इनसे साफ पता चल रहा है कि
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कैंसर बुरी तरह पैर पसार रहा है। ऐसा नहीं है कि देश के
दूसरे हिस्सों की हालत बेहतर है। हिमाचल प्रदेश जो प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच बसा
है, वहाँ शिमला के
एकमात्र कैंसर अस्पताल में बिस्तर की संख्या 42 है, जबकि रोजाना 100 से 120 मरीज
चेकअप के लिए आते हैं, जिसमें से 10–15 मरीजों को उपचार के लिए रोज ही भरती होना पड़ता है। जिस रफ्तार से नये
मरीज आ रहे हैं, उससे
बिस्तर की संख्या कम पड़ गयी है। अकेले हिमाचल प्रदेश में हर साल कैंसर के लगभग 5000 नये मामले सामने आ रहे हैं। नवभारत
टाइम्स की 20 अप्रैल की खबर
के अनुसार पूर्वी उत्तर प्रदेश में कैंसर तेजी से फैल रहा है। वर्ष 2007 में बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज में
केवल 1000 मरीज इलाज कराने
आये थे लेकिन पिछले एक साल में यह संख्या बढ़कर 9000 हो गयी है। पूरे देश में हर साल अकेले कैंसर की बीमारी से 3 लाख लोगों की मौत हो रही है।
इस हिसाब
से अन्दाजा लगाने पर यह आसानी से समझा जा सकता है कि पूरे देश में टायफाइड, डेंगू, मलेरिया, चिकनगुनिया, हार्ट-अटैक, टीबी और अन्य घातक बीमारियाँ किस पैमाने पर अपना पैर पसार रही हैं। आज
शायद ही देश का कोई गाँव, मोहल्ला, कस्बा या
शहर हो जो इन बीमारियों के हमले से बचा हो। अगर बचा है तो वह किसी अजूबे से कम नहीं
है। जहाँ तक गाँवों की स्वास्थ्य व्यवस्था का सवाल है, वह पूरी तरह से चरमरा गयी है। मेडिकल प्रशासन अपने निकम्मेपन
के चलते सवालों के घेरे में है। कुछ जगहों पर जहाँ सरकारी डॉक्टर ईमानदार और
मेहनती हैं, तो वे दवा की कमी
से जूझ रहे हैं। सरकारें निजी अस्पतालों को फायदा पहुँचाने के लिए सरकारी
स्वास्थ्य सुविधाओं का खात्मा कर रही हैं। जनता को स्वास्थ्य सुविधा देना अब उनकी
प्राथमिकता नहीं रह गयी है। न केवल नेता, मंत्री और स्वास्थ्य अधिकारी बल्कि निजी अस्पतालों के
कर्ताधर्ता धन–दौलत की
लूट में पागल हो गये हैं। वे सिर से लेकर पाँव तक स्वार्थों में डूबे हुए हैं।
उनकी सोच पूँजीवादी है। वे धन की देवी के पुजारी हैं। जनता की सेवा उनका उद्देश्य
नहीं है। उन्होंने लालच, स्वार्थ और लूटपाट की सारी हदें तोड़ दी हैं।
दूसरी ओर
जनता तिल–तिल कर मरने के
लिए अभिशप्त है। इस समस्या का दूर–दूर तक कहीं अन्त दिखायी नहीं दे रहा है। इसके बावजूद यह समय की माँग है
कि इस समस्या का समाधान निकाला जाये। दो स्तरों पर तुरन्त कदम उठाने की जरूरत है।
पहला, नदियों, नहरों, नालों और तालाबों की तत्काल सफाई करायी जाये और इनमें कचरा
फैलाने वाली फैक्ट्रियों पर तुरन्त रोक लगायी जाये। दूसरा,
सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं को और बेहतर
बनाया जाये। लेकिन सवाल यह है कि ये सब होगा कैसे ? मौजूदा लूट–खसोट की व्यवस्था में इसका समाधान होना मुमकिन नहीं। इस व्यवस्था को बदलकर
जनता के हित वाली नयी और अच्छी व्यवस्था लानी होगी। यह बदलाव करेगा कौन ? यह लड़ाई हमें खुद लड़नी होगी।
अगर हम यह
लड़ाई नहीं लड़ते तो एक–एक करके काल के गाल में समाते चले जायेंगे।
–– विक्रम प्रताप
(किसान-10
पत्रिका से साभार)
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