आज पीने के पानी से लेकर हमारे शरीर तक में प्लास्टिक के कणों
की भारी संख्या में मौजूदगी हमारे लिए गम्भीर खतरा बनती जा रही है। दूध–दही, चीनी, शहद से लेकर अन्य खाद्य सामान प्लास्टिक के पैकेट में पैक
होकर आ रहे हैं, जिनमें भारी संख्या में प्लास्टिक के
कणों की मौजूदगी से सम्पूर्ण जीवन चक्र संकट में है। खाद्य पदार्थों और पानी के
माध्यम से ये प्लास्टिक के कण हमारे शरीर में चले जाते हैं जो कैंसर सहित और अन्य
घातक बीमारियों को जन्म दे रहें हैं। प्लास्टिक कचरे के बारे में हमें सचेत हो
जाना चाहिए क्योंकि आज हमारी जमीन, नदियाँ और समुद्र
प्लास्टिक कचरे के ढेर से पटते जा रहे हैं।
प्लास्टिक कचरे की मौजूदगी हमारे परिस्थितिकीय तंत्र के सन्तुलन को बिगाड़ रही है। अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरण कानून के मुताबिक पिछले 10 सालों में प्लास्टिक कचरे का उत्पादन 40 प्रतिशत बढ़ गया है। प्लास्टिक कचरे के उत्पादन की दर में ये वृद्धि आने वाले सालों में गम्भीर खतरा बन जायेगी। पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अनुसार भारत में प्रतिदिन 25,490 टन प्लास्टिक कचरा निकलता है। जिसमें से 15000 टन कचरे का ही प्रतिदिन एकत्रीकरण और पुन:नवीनीकरण हो पाता है। शेष कचरा (40 फीसदी) जमीन पर कूड़े का ढेर बनता है या फिर नालियों को जाम करता है। नदियों से होता हुआ महासागरों में चला जाता है।
जर्मनी के हेमहोल्त्ज सेंटर फॉर एनवायरमेंटल रिसर्च की ताजा
रिपोर्ट के मुताबिक समुद्र के कुल प्लास्टिक कचरे का 90 फीसद एशिया और अफ्रीका की दस नदियों से आता है। इसमें पहले और दूसरे
स्थान पर क्रमश: चीन की याँग्त्सी और भारत की सिंधु
नदी है। प्लास्टिक कचरे को ढोने की दस बड़ी नदियों की सूची में गंगा नदी 6वें स्थान पर है। इस रिपोर्ट के मुताबिक गंगा नदी हर साल 5.44 लाख टन प्लास्टिक कचरा बंगाल की खाड़ी में डालती है। जबकि
पहले स्थान पर चीन की याँग्त्सी नदी है जो सालाना 15 लाख टन प्लास्टिक अपने महासागरों में उड़ेल देती है।
ब्रांडेड प्लास्टिक कचरा आज विश्व के लिए गम्भीर समस्या का
रूप ले चुका है। ग्रीनपीस की हालिया रिपोर्ट में बताया गया कि वैश्विक स्तर पर
सबसे ज्यादा प्लास्टिक कचरा फैलाने में दुनिया की बड़ी माल उत्पादक ब्रांडेड
बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ शीर्ष पर है— जिनमें कोका–कोला, पेप्सिको और
नेस्ले, डेनोन, मोंडेलेज इंटरनेशनल, प्रोक्टर एंड
गैंबल, यूनिलीवर, पेर्फेटी वैन मेलले, मार्स, और कोलगेट–पामोलिव शामिल
हैं। इनमे से शीर्ष तीन कम्पनियाँ ( कोका कोला, पेप्सिको और नेस्ले ) ही अकेले कुल
प्लास्टिक कचरे का 14 प्रतिशत प्लास्टिक कचरा फैलाती हैं।
दुनिया की सबसे बड़ी सॉफ्ट ड्रिंक बनाने वाली कम्पनी कोका–कोला सबसे ज्यादा प्लास्टिक कचरा पैदा करने वाली कम्पनी है। साफ है कि
जितनी बड़ी उपभोक्ता माल उत्पादक कम्पनी उतनी ही बडी कचरा उत्पादक कम्पनी।
ब्रांडेड कम्पनियाँ अपने उत्पादों की पैकेजिंग और लेबलिंग के
लिए भारी पैमाने पर प्लास्टिक का इस्तेमाल करती हैं। इन कम्पनियों द्वारा इस्तेमाल
कुल प्लास्टिक कचरे के केवल 9 प्रतिशत भाग का
ही पूनर्नवीनीकरण हो पता है। जबकि शेष बचे भाग को जला दिया जाता है या जमीन पर
कूडे के ढ़ेर के रूप में एकत्रित होता रहता है या फिर नदियों के रास्ते महासागरों
में पहुँच जाता है।
बहुराष्ट्रीय निगम विकासशील देशों के बाजार अपने उत्पादों के
उत्पादन और बिक्री के लिए चुनते हैं। क्योंकि विकाशशील देशों में इन कम्पनियों को
सस्ता श्रम और लचीला पर्यावरण कानून मिलता है। पश्चिमी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ
सस्ते मैनुफेक्चुरिंग और अत्यधिक मुनाफा कमाने को सदैव लालायित रहती हैं। जिसके
चलते यह ब्रांडेड बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने उत्पादों के लिए सस्ता और एक बार
उपयोग होने वाले प्लास्टिक का उपयोग करती हैं। जिससे ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ
जबर्दस्त मुनाफा बटोरती हैं। विकसित देशों की यह कम्पनियाँ आज विकासशील देशों की
जमीन, नदियों और महासागरों को अपने मुनाफे के
चक्कर में आगामी सैकड़ों सालों के लिए दूषित कर रहीं है। हालत ऐसे ही रहें तो हमारी
कई पीढ़ियाँ इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा फैलाये गये प्लास्टिक कचरे के बोझ से
उबर नहीं पाएगी।

ग्रीन पीस की रिपोर्ट के मुताबिक महासागरों में पाये जाने
वाले प्लास्टिक कचरे में एकल उपयोग प्लास्टिक का कचरा– विभिन्न उत्पादों की पन्नियाँ, पानी की
बोतलें, काफी के कप, स्ट्रा, प्लास्टिक बैग और बोतलों के ढक्कन
बड़े पैमाने पर पाये गये। फोएकी के मुताबिक एकल उपयोग प्लास्टिक के विघटन में लगभग 100–500 सालों का समय लगता है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ ज्यादा मुनाफा
और कम से कम लागत मूल्य आये इसलिए ज्यादा से ज्यादा एकल उपयोग प्लास्टिक का
इस्तेमाल करती हैं।
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और निगमों के मुनाफे में सरकारों का
भी बड़ा हिस्सा होता है। जिसके चलते विकासशील देशों कि सरकारें इन बहुराष्ट्रीय
कम्पनियों को अपने यहाँ न सिर्फ न्योता देती है बल्कि इन कम्पनियों के लिए श्रम
कानूनों और पर्यावरण मानकों को ढीला करती हैं। ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ यहाँ के
श्रम और प्राकृतिक स्रोतों का जबर्दस्त तरीके से दोहन कर अपना माल बनाती हैं और
यहाँ की जनता से मुनाफा निचोड़ती हैं। साथ ही इससे उत्पन्न कचरे से वहाँ की जमीन,
नदियों और महासागरों को दूषित करती हैं। आज ये
बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ विकसशील देशों को अपना डस्टबीन बनायें हुए हैं। इन
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा फैलाये गये कचरे से होने वाली बीमारियों का
खामियाजा विकासशील देशों की जनता को पीढ़ी दर पीढ़ी भुगतना पड़ रहा है।
अन्तरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय पर्यावरण मानकों को ताक पर रखकर
ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ फलफूल रहीं हैं। सरकारें इनकी सहायक हैं। ऐसे में
विकसित और विकासशील देशों की जनता के सचेतन प्रयास से ही हम पृथ्वी को इन
दैत्याकार कम्पनियों के प्रदूषण से बचा सकते हैं। पर्यावरण का संकट आज सम्पूर्ण
मानवता और मानवजाति के अस्तित्व का संकट है। इसे सम्पूर्ण जनता के जुझारू और सचेतन
प्रयासों से ही हल किया जा सकता है।
--अनुराग
(देश-विदेश-30 पत्रिका से साभार)
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