यह निर्विवाद है कि हरित क्रांति ने खाद्यान्न
के मामले में देश को एक हद तक आत्मनिर्भर बनाया, लेकिन
उससे भी बड़ा सच यह है कि हरित क्रांति का अगुआ प्रान्त पंजाब आज इसके बुरे अंजाम
भुगत रहा है। अमरीका की सलाह और सहायता से 1960 के दशक से शुरू हुई हरित क्रांति
पूँजीवादी खेती का एक नमूना है जिसमें अनाज का उत्पादन लोगों की भूख मिटाने के लिए
नहीं, बल्कि बाजार के लिए किया जाता है। इसके तहत
अधिक मुनाफा देने वाली गेहूँ, धान, कपास और गन्ने की एकफसली खेती को बढ़ावा
दिया गया, जबकि दलहन, तिलहन
और मोटे अनाज की परम्परागत फसलों की उपेक्षा की गयी। इससे फसल चक्र प्रभावित हुआ
तथा मिट्टी की उर्वरता, नमी और भुरभुरेपन में कमी आयी। इसकी भरपाई के
लिए रासायनिक खाद, कीटनाशक और भूजल का बेअन्दाज इस्तेमाल किया
जाने लगा जिससे भूजल खतरनाक स्तर तक गिर गया, जमीन
जहरीली हो गयी और किसानों के मित्र कहे जाने वाले जीव-जन्तुओं और खरपतवारों का
भारी पैमाने पर विनाश हुआ। मिट्टी के आवश्यक अवयव-कार्बनिक
पदार्थ और खनिज लवण नष्ट हो गये तथा मिट्टी की उ$परी
परत कठोर हो गयी। खेती का प्राकृतिक और संतुलित ढाँचा चरमरा गया और पर्यावरण को
अपूरणीय क्षति हुई। इसके अलावा पंजाब की जनता आज हरित क्रांति के तीन बुरे नतीजों-कर्ज, कैंसर
और पेयजल संकट की मार झेल रही है।
पूँजी और तकनीक पर निर्भर, छोटे
और सीमान्त किसानों को हरित क्रान्ति का लाभ नहीं मिला। ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ
साधन-सम्पन्न लोगों की सम्पत्ति में तो बेहिसाब बढ़ोतरी हुई, लेकिन
बड़ी संख्या मंे गरीब किसानों का जीवन-स्तर बद से बदतर होता चला गया। इसने एक नये
वर्ग-विभाजन को जन्म दिया। इसी का परिणाम है कि भारत का अन्न भण्डार माना जाने
वाला पंजाब आज भूख और कुपोषण के मामले में अफ्रीका के गरीब देशों से भी आगे है।
यहाँ तक कि भरपेट खाने वाले लोगों को भी पर्याप्त मात्र में पोषक-तत्व नहीं मिलता
जिससे वे कुपोषण के शिकार हैं। एक चौंकाने वाली खबर यह है कि यहाँ माँ-बाप अपने
बच्चों के लिए खिलौने की जगह व्हीलचेयर खरीदने को मजबूर हैं।
एक अध्ययन के अनुसार उत्तर भारत के सबसे अधिक
उपजाउ क्षेत्र गंगा-यमुना के दोआबा में सतह से एक फुट
नीचे की जमीन पथरीली होने लगी है और पूरे देश की 14.6 करोड़ हेक्टेयर उपजाउ$ भूमि
बंजर हो गयी है। हरित क्रान्ति के अदूरदर्शी पुरोधाओं ने तात्कालिक लाभ के लिए देश
को पर्यावरण संकट में धकेल दिया और वर्तमान शासक वैश्वीकरण के तहत खेती को
साम्राज्यवादी देशों की दैत्याकार कम्पनियों के हवाले करते जा रहे हैं। इसे ही वे
दूसरी हरित क्रान्ति का नाम दे रहे हैं। जैव विविधता का विनाश करने वाले निरवंसिया
(बी.टी.) बीज, जीन टेक्नोलॉजी और कारपोरेट खेती को बढ़ावा दिया
जा रहा है। देश के कई अन्य इलाकों में डॉलर कमाने के लोभ में खाद्यान्न की जगह
जट्रोफा, केला, युक्लिप्टस, नारियल, फूल, सफेद
मूसली और पीपरमेन्ट की खेती को बढ़ावा देकर पर्यावरण का विनाश किया जा रहा है। बैंक
या साहूकारों से कर्ज लेकर इन फसलों की खेती करने वाले किसान फसल बर्बाद होने या
उचित दाम न मिलने से तबाह हो रहे हैं। देश भर में लाखों किसान आत्महत्या कर चुके
हैं। और कई इलाकों में वे आत्महत्या करने के बजाय साहूकारों के साथ-साथ सरकार की
किसान विरोधी नीतियों के खिलाफ भी संघर्ष कर रहे हैं, ताकि
कर्ज वसूली के भय से भविष्य में कोई अन्य किसान आत्महत्या करने को मजबूर न हो।
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