खेती में रासायनिक खाद और डीजल का इस्तेमाल तथा
फसलों से उत्सर्जित कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्र के चलते ग्लोबल वार्मिंग में बहुत
अधिक वृद्धि नहीं होती है, क्योंकि पेड़-पौधे उसे अवशोषित कर इसके प्रभाव
को कम कर देते हैं। साथ ही इंसान के अस्तित्व की शर्त होने के कारण खेती से होने
वाले कार्बन डाइ ऑक्साइड उत्सर्जन को पूरी तरह रोकना सम्भव नहीं है। लेकिन इसे
काफी हद तक नियोजित और नियन्त्रिात किया जा सकता है।
खेती पर जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव साफ तौर
पर दिखने लगा है। जलवायु परिवर्तन के लिए अन्तरसरकारी पैनल (आई पी सी सी) के
अनुसार वर्ष 2030 तक कुछ इलाकों को छोड़कर दुनिया के बड़े भूभाग के कृषि उत्पादन में
30 प्रतिशत तक गिरावट आएगी। दशकों से जारी सूखे और रेगिस्तानीकरण से ग्रसित
अफ्रीका के दार्फुर में तब खूनी संघर्ष शुरू हो गया जब वहाँ के अगरा आदिवासी अपने
मवेशियों के साथ पानी की तलाश में खेतिहर ग्रामीण समुदायों के इलाके में घुस गये।
रिपोर्ट के मुताबिक वायुमण्डल में कार्बन डाइ
ऑक्साइड की मात्र बढ़ने से कुछ फसलों की पैदावार में वृद्धि हो सकती है। लेकिन अधिक
गर्मी की चपेट में आकर फसलों का जीवन-चक्र छोटा हो जायेगा, जिससे
उत्पादकता में बहुत ज्यादा गिरावट होगी। साथ ही, खाद्य
पदार्थों में लौह, जिंक और प्रोटिन जैसे पोषक तत्त्वों की मात्र
घट जायेगी, चारे की फसल में नाइट्रोजन की कमी से जानवरों
के पाचन तंत्र कमजोर हो जायेंगे तथा बांग्लादेश, भारत
और वियतनाम के समुद्र तट डूबने से धान के खेत उजड़ जायेंगे।
ग्लोबल वार्मिंग के कारण उत्तर प्रदेश में अब
हर साल मानसून 10-20 दिन देरी से पहुँचता है और उसके बाद होने वाली मूसलाधार बारिश
में छोटी नदियों में बाढ़ आ जाती है। गाँवों और मुहल्लों में पहले तालाब, गड्ढे, नाले
और छोटी नहरें हुआ करती थीं, जिनसे होकर बरसात का पानी बह जाता था। इससे
अतिवृष्टि अधिक तबाही नहीं मचा पाती थी। खेती और आवास के लिए जल निकासी के
संसाधनों को पाट दिया गया, जिसके कारण बरसात का पानी सीधे खेतों को डूबोकर
फसल चौपट कर देता है और कच्चे घरों को क्षतिग्रस्त कर देता है। उत्तर प्रदेश के
3.55 करोड़ लोग सीधे खेती से रोजगार पाते हैं जिनमें से 90 प्रतिशत छोटी जोत वाले
किसान और भूमिहीन मजदूर हैं। इनमें से 70 प्रतिशत लोग पर्यावरण संकट की विभीषिका
झेल रहे हैं।
विकास
योजनाओं के नाम पर खेती योग्य भूमि का अधिग्रहण, मानसून
के दौरान सूखा पड़ना, छोटी नदियों में बाढ़, तेजी
से कटते वृक्ष, बंजर होती जमीन और घटते भूजल के कारण खेती की
उत्पादकता तेजी से गिर रही है। 2009 में मानसून की कमी से देश के कुछ भागों में
सूखा और आकाल पड़ा। इसके बावजूद राहत पैकेज की जिम्मेदारी केन्द्र और राज्य सरकारें
एक-दूसरे पर टालती रहती हैं। खाद,
बीज, डीजल
की तेजी से बढ़ती कीमतों ने किसानों की कमरतोड़ दी है। खेती घाटे का सौदा हो गयी है।
कई किसान खेती से उजड़कर हमेशा के लिए उजरती मजदूर बन गये हैं और कई किसान
साहूकारों के चंगुल में फँसकर आत्महत्या करने को मजबूर हो गये हैं।
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