लोगों के बीच जलवायु परिवर्तन के वैज्ञानिक और तकनीकी पहलुओं पर चर्चा
होती रहती है। इसे
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सेमीनार में आलेख प्रस्तुत करते विक्रम प्रताप |
प्रकृति से जोड़कर समझा जाता है। लेकिन इसके आर्थिक-राजनीतिक
कारण पर लगभग चुप्पी साध ली जाती है। जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संकट की जड़ें विज्ञान-तकनीकी
और प्रकृति में जितनी गहरी है, उससे कहीं अधिक गहरी इनसान की जिंदगी को बनाये रखने
वाली सबसे जरूरी कार्रवाई में है-- यानी आर्थिक व्यवस्था और उसके राजनीतिक विस्तार
में। इस आलेख में इन्हीं मुद्दों पर बात की जायेगी।
जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण प्रदूषण को अलग-अलग करके देखना चाहिए
क्योंकि अगर हमारा पर्यावरण एक बार प्रदूषित हो गया तो उसकी सफाई हो सकती है लेकिन
जलवायु परिवर्तन को पलटा नहीं जा सकता। हालाँकि पर्यावरण प्रदूषण
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मेरठ शहर में गंदगी का आलम |
बहुत भयावह होता
जा रहा है। जैसे-- 2017 में वायु प्रदूषण के चलते भारत में 12.4 लाख लोगों की मौत
हो गयी। पानी का संकट इतना बढ़ गया है कि देश की 60 करोड़ आबादी पानी की एक–एक बूँद के लिए तरस
रही है। दूसरी ओर भारत में हर साल इलेक्ट्रॉनिक सामानों से 38 लाख क्विन्टल कबाड़
पैदा हो रहा है। जबकि भारत में प्रतिदिन 25,490 टन प्लास्टिक कचरा भी निकलता है। ये सब देश में प्रदूषण के गहराते
संकट को दिखाते हैं।
जलवायु परिवर्तन
जलवायु परिवर्तन को पलटा नहीं जा सकता। इसलिए इसे इररिवर्सेबल
क्राइसिस कहते हैं। जैसे—एक बार गेहूँ पीसकर रोटी बना दी जाये तो वापस उस रोटी को
गेहूं में नहीं बदला जा सकता। इसी तरह मौजूदा जलवायु परिवर्तन को पलटा नहीं जा
सकता क्योंकि यह ग्लोबल वार्मिंग से जुड़ा हुआ है। ग्लोबल वार्मिंग से धरती का
तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है। इससे मौसम के पैटर्न में बहुत बड़े-बड़े हेर-फेर हो
रहे हैं। जैसे—अधिक बारिश वाले इलाके में सूखा पड जा रहा है, उपजाऊ जमीन रेगिस्तान
में तब्दील होती जा रही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश का भूगर्भ जल गिरता जा रहा है,
जिसके चलते पूरा इलाका बंजर होने के कगार पर पहुँच गया है। यह सब इररिवर्सेबल
क्राइसिस है।

ग्लोबल वार्मिंग के पीछे असली कारण ग्रीन हाउस गैसें हैं। 18वीं सदी के औद्योगिक क्रान्ति के बाद से दुनिया भर में उद्योग-धंधे बढ़ते जा रहे हैं। नतीजतन, वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा बढती जा रही है। ये गैसें सूरज की उष्मा को सोखकर धरती को गरमाये रखती हैं। इनकी मात्रा बढने का सीधा अर्थ है— धरती के तापमान में वृद्धि। पहले चार्ट से स्पष्ट है कि जीवाश्म ईंधन (पेट्रोलियम और कोयला) तथा उद्योग धंधों से 65 प्रतिशत कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जित होती है, जो एक मुख्य ग्रीन हाउस गैस है। 11 प्रतिशत कार्बन डाई ऑक्साइड जंगल और जमीन से उत्सर्जित होती है, जिसमें कृषि और घरेलू कामकाज मुख्य है। अगर हम दूसरे चार्ट पर निगाह डालें तो पता चलता है कि अमरीका के कुल कार्बन उत्सर्जन का 83 प्रतिशत हिस्सा यातायात, बिजली और उद्योग से आता है। इन क्षेत्रों में एक सामान्य इनसान का कोई हस्तक्षेप नहीं होता। इसलिए यह कहना सही नहीं है कि पर्यावरण संकट के लिए सब इनसान बराबर जिम्मेदार हैं। घरों में इस्तेमाल होने वाले खाना पकाने के साधनों से बहुत कम कार्बन उत्सर्जन होता है। दोनों चार्ट अमरीकी सरकार के आँकड़ों पर आधारित हैं।
ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव
मार्क लायनस ने एक किताब लिखी है जिसका नाम ‘सिक्स डिग्रीज’ है।
उन्होंने जलवायु परिवर्तन पर वैज्ञानिक शोध के आंकड़ों को लेकर दिखाया है कि एक-एक
डिग्री तापमान बढ़ने से कितने भयानक परिणाम सामने आ सकते हैं। जैसे—उन्होंने दिखाया
कि एक डिग्री तापमान बढ़ने से अमरीका के कई इलाके रेगिस्तान में बदल गये। दो डिग्री
तापमान बढ़ने से चीन के शहर प्यासे मर गए। इसी तरह आगे तापमान बढ़ता जाता है, नील
नदी मर जाती है। 5 से 6 डिग्री पर दुनिया के सारे जीव-जंतु नष्ट हो जाते हैं।
8 अक्टूबर 2018 को संयुक्त राष्ट्र संघ के जलवायु परिवर्तन पर
अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) ने अपनी रिपोर्ट पेश की। जलवायु संकट पर इस रिपोर्ट
के कुछ बिंदु इस तरह हैं-- तापमान पूर्व औद्योगिक स्तर से एक डिग्री बढ़ गया है। आर्कटिक सागर की
बर्फ तेजी से पिघल रही है। 90 फीसदी ग्लेशियर पीछे खिसकते जा रहे है। 2018 की जून
और जुलाई महीनों में केवल कैलिफोर्निया के वनों में 140 बार आग लगी। यूनान के
जंगलों में लगी आग से 80 लोग मारे गये। भारत में बिना मौसम के आये धूल के तूफानों
ने 500 से अधिक लोगों की जान ले ली। दक्षिण
अफ्रीका के केप टाउन शहर में सूखे में तीन गुना बढ़ोतरी हुई। जापान, भारत, अमरीका तथा अन्य
जगहों पर बेतहाशा बारिश होने से फसल और घर नष्ट हो गये। आईपीसीसी ने सम्भावना जताई
कि 2030 तक दुनिया का तापमान पूर्व औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री तक बढ़ जायेगा। 2030
तक कुछ इलाकों को छोड़कर दुनिया के बड़े भूभाग के कृषि उत्पादन में 30 प्रतिशत तक
गिरावट आएगी।
कार्बन उत्सर्जन : भ्रम और उसका निवारण
जैसे-जैसे पर्यावरण का संकट बढ़ता जा रहा है, लोगों में यह एक बहस-मुबाहसे
का हिस्सा बनता जा रहा है लेकिन निहित स्वार्थ के कुछ समूह इसके बारे में भ्रम
फैला रहे हैं। इनसे जुड़े कुछ भ्रमों के बारे में और उनके निवारण पर आगे बात की
जायेगी।
पहला भ्रम : जनसंख्या वृद्धि
ही जलवायु परिवर्तन का कारण है।
ऐसा कहा जा रहा है कि आबादी बढने के साथ ही कार्बन उत्सर्जन में
वृद्धि होती जा रही है। जलवायु संकट के लिए जनसंख्या को दोषी ठहरा दिया जाता है।
संलग्न तालिका से स्पष्ट है कि अमरीका का कार्बन उत्सर्जन भारत से दुगुना है, जबकि
भारत की जनसंख्या अमरीका से चार गुने से भी अधिक है। अगर कार्बन उत्सर्जन के लिए
हर व्यक्ति बराबर जिम्मेदार होता तो न केवल तालिका में भारत दूसरे स्थान पर होता,
बल्कि उसका उत्सर्जन अमरीका से चार गुना अधिक होता, लेकिन स्थिति ठीक उलटी है।
तालिका से ही स्पष्ट है कि प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के मामले में अमरीका
पहले स्थान पर है। कुल उत्सर्जन के मामले में चीन पहले स्थान पर है लेकिन चीन का यह
आँकड़ा भी भ्रामक है क्योंकि अमरीकी कम्पनियों का प्लान्ट चीन और भारत जैसे देशों में
लगे हैं, जो इन्हीं देशों में उत्सर्जन करते हैं। कार्बन व्यापार के माध्यम से भी
अमरीकी कंपनियाँ अपने उत्सर्जन को कम करके दिखा लेती हैं। इससे साफ़ पता चलता है कि
कार्बन उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन के लिए जनसंख्या बिलकुल जिम्मेदार नहीं है।
इसके लिए मुनाफे पर आधारित व्यवस्था जिम्मेदार है, जिसमें अपना मुनाफा बढाने के
लिए कंपनियाँ पर्यावरण को तबाह कर रही हैं।
दूसरा भ्रम : कार्बन व्यापार और कार्बन क्रेडिट उत्सर्जन पर रोक लगा
सकता है।
कार्बन क्रेडिट एक तरह का परमिट होता है जो किसी देश या संगठन को
कार्बन उत्सर्जन की एक निश्चित मात्रा का उत्पादन करने की अनुमति देता है और जिसका
पूरी तरह उपयोग नहीं करने की दशा में खरीदा-बेचा जा सकता है। क्योटो प्रोटोकॉल के
तहत यूरोपीय संघ सहित 43 विकसित (औद्योगिक) देशों के कार्बन उत्सर्जन का कोटा तय
कर दिया गया था। यह कोटा उस देश के राष्ट्रीय रजिस्टर में अंकित कर दिया जाता है।
उसी के अनुसार देश के अन्दर उद्योग और अन्य संगठनों का कोटा तय किया जाता है। अगर
किसी संगठन या देश ने अपने निर्धारित कोटे से कम कार्बन उत्सर्जन किया तो उसका कुछ
क्रेडिट बच जाता है, जिसे वह दूसरे देश को बेच सकता है। इसे ही कार्बन व्यापार के
नाम से जाना जाता है।
इस तरह स्पष्ट है कि कार्बन व्यापार और कार्बन क्रेडिट के जरिये
विकसित देशों के कार्बन उत्सर्जन पर रोक नहीं लगाई जा सकती बल्कि इन्हीं के माध्यम
से ये देश किसी गरीब देश से कार्बन क्रेडिट खरीद कर धडल्ले से कार्बन उत्सर्जित
करते हैं। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि अगर भारत पेड़ लगाकर अपने कार्बन
उत्सर्जन को कम करता है तो वह अतिरिक्त कार्बन क्रेडिट अर्जित कर लेता है, जिसे
बेचकर डॉलर कमा सकता है। लेकिन अगर एक बार अमरीका ने भारत का कार्बन क्रेडिट खरीद
लिया तो यह माना जाएगा कि अमरीका ने अपने कार्बन उत्सर्जन में कटौती की है न कि
भारत ने। पर्यावरण संरक्षण के लिहाज से कार्बन व्यापार बहुत खतरनाक चीज है, जिसे
साम्राज्यवादी देशों ने अपने कार्बन उत्सर्जन को छिपाने के लिए इजाद किया है। इससे
साफ़ तौर पर समझा जा सकता है कि कुल उत्सर्जन के मामले में अमरीका कैसे दूसरे स्थान
पर आ गया है। इसलिए कार्बन व्यापार और कार्बन क्रेडिट एक धोखे की टट्टी है। यह उसी बाजार के
द्वारा सुझाया गया समाधान है जो कार्बन उत्सर्जन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है।
लैरी लोहमन का लेख है— “कार्बन व्यापार के खिलाफ छह तर्क, 29 सितंबर, 2008।” इस लेख में
वे बताते हैं कि (1) कार्बन व्यापार गलत उद्देश्य पर केन्द्रित है, (2) यह
संसाधनों को बर्बाद करता है, (3) यह ऐसे ज्ञान की मांग करता है जो हमारे पास है
ही नहीं, (4) यह गैर-जनवादी है , (5) यह ग्लोबल वार्मिंग के सकारात्मक समाधान में अडंगा डालता है और (6) यह अनुभव के बजाय
विश्वास पर आधारित है।
तीसरा भ्रम : कार्बन फुटप्रिंट से हर व्यक्ति के कार्बन उत्सर्जन की
जिम्मेदारी तय होती है।
सीधे और परोक्ष रूप से किसी व्यक्ति की सभी गतिविधियों को जारी रखने लिए
उत्पादित ग्रीनहाउस गैसों की कुल मात्रा ही उसका कार्बन फुटप्रिंट कहलाती है। इसे आमतौर पर कार्बन
डाई ऑक्साइड की टन में मात्रा के द्वारा व्यक्त किया जाता है। यानी एक इनसान खाना,
कपडा, वाहन आदि का इस्तेमाल करता है, जिसे उत्पादित करने में कार्बन उत्सर्जित
किया जाता है, उसकी कुल मात्रा ही कार्बन फुटप्रिंट है। कार्बन फुटप्रिंट एक ऐसी
अवधारणा है जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा उत्सर्जित कार्बन पर पर्दा डालती है।
इसके लिए हर व्यक्ति को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। इसमें इस बात को भी नजरअंदाज
कर दिया जाता है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने माल की बिक्री को बढाकर मुनाफा
बटोरने के लिए उपभोक्तावाद और विलासितापूर्ण जीवन शैली को बढ़ावा देती हैं। पर्यावरण
के मानकों को तोड़कर प्राकृतिक संसाधनों का बेतहासा दोहन करती हैं और माल बनाने के लिए
भारी मात्रा में कार्बन का उत्सर्जन करती हैं।
चौथा भ्रम : जलवायु परिवर्तन प्राकृतिक संकट है यानी जलवायु परिवर्तन
का सीधे-सीधे खंडन करना।
ऐसा माहौल बनाना कि मानो जलवायु परिवर्तन जैसी कोई बात ही न हो। मौसम
में होने वाले अवांछित बदलाव धरती का कोई चक्र हो। इसका मानवजनित कार्बन उत्सर्जन
से कोई लेना-देना न हो। ये सब बातें उन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हित में हैं, जो
अपने कार्बन उत्सर्जन में कटौती नहीं करना चाहती। यही कम्पनियां ऐसी बातों को
फैलाने में मदद करती हैं। आइये, अब देखें कि इसे कैसे अंजाम दिया जाता है?
एक्सॉन-मोबिल कम्पनी मोबिल और रॉकफेलर की स्टैण्डर्ड आयल कम्पनी के
विलय के बाद अस्तित्व में आयी। मदर जोन्स पत्रिका के अनुसार सन 2000 से 2003 के बीच एक्सॉन-मोबिल
ने जलवायु परिवर्तन के खंडन के लिए 40 संगठनों को 86 लाख डॉलर उपलब्ध करवाया। इन
संगठनों ने दुनिया भर में इस तरह का प्रचार अभियान चलाया जो पर्यावरण संकट से
इनकार करता है और इससे जुड़े भ्रमों को बढ़ावा देते हैं। इन अभियानों के जरिये जनता
और उनके प्रतिनिधियों के विचारों को प्रभावित किया जता है। क्योटो प्रोटोकॉल के
बाद से एक्सॉन-मोबिल ने जलवायु परिवर्तन के खंडन को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न
संगठनों के ऊपर 200 लाख डॉलर खर्च कर दिया है। इन संगठनों में से 54 ने अपनी
वेबसाइटों पर पर्यावरण से सम्बन्धित जानकारी पोस्ट की, जिनमें से 25 ने यह स्वीकार
किया कि जलवायु परिवर्तन के बारे में वैज्ञानिकों में सहमति है, जबकि 29 ने जलवायु
परिवर्तन को लेकर वैज्ञानिकों के बीच सहमति से इनकार किया। इन षड्यंत्रों का
खुलासा 2006 में रॉयल सोसाइटी द्वारा एक्सॉन-मोबिल को भेजे गए पत्र से हुआ। इतना ही
नहीं इन संगठनों ने बड़े पैमाने पर लोगों को गुमराह करने के लिए सामग्री पोस्ट की
कि जलवायु परिवर्तन पूरी तरह प्राकृतिक है, इसमें इनसानी हस्तक्षेप से कोई फर्क
नहीं पड़ा है।
2007-2017 के बीच एक्सॉन-मोबिल ने अमरीका के उन कांग्रेस सदस्यों को 18.7
लाख डॉलर का लुभावना उपहार दिया, जिन्होंने जलवायु परिवर्तन के खंडन को बढावा दिया
और इसी काम के लिए 4.54 लाख डॉलर अमरीका के लेजस्लेटिव एक्सचेंज काउंसिल को भी दिया
गया। ग्रीनपीस, मदरजोन्स, नेचर, इनसाइड क्लाइमेट न्यूज़ आदि ने एक्सॉन-मोबिल के द्वारा किये जा रहे पर्यावरण
विनाश की खबरों को उजागर किया। जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित एक्सॉन-मोबिल के काले
करतूतों की ढेरों जानकारी विभिन्न वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं।
पाँचवाँ भ्रम : जलवायु संकट पर अन्तरराष्ट्रीय वार्ताओं से उम्मीद है।
1997 में जापान के क्वोटो शहर में सम्मेलन करके क्वोटो प्रोटोकॉल नाम
से एक दस्तावेज स्वीकार किया गया। इसमें औद्योगिक देशों के लिए 5.2 प्रतिशत कार्बन
उत्सर्जन में कटौती का लक्ष्य रखा गया। लेकिन इस मामले में भी असफलता हाथ लगी।
2012 तक इन देशों ने कार्बन उत्सर्जन में कटौती के बजाय 11 प्रतिशत की वृद्धि कर
दी थी। क्योटो सम्मेलन के बाद बाली, कानकुन, कोपेनहेगेन आदि सम्मेलनों में औद्योगिक देश जलवायु परिवर्तन से जुडी
अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हटते गये। 2015 के पेरिस जलवायु सम्मेलन के बाद में अमरीका
ने अपना पिंड छुडा लिया। इस तरह अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन पर होने
वाले सम्मेलन एक तरह का धोखा है। क्योटो प्रोटोकॉल की बाध्यकारी कटौती से पीछे
हटना है। इनसे कोई उम्मीद नहीं बची है।
कार्बन उत्सर्जन की वर्गीय स्थिति
हर व्यक्ति अपनी वर्गीय हैसियत के हिसाब से कार्बन उत्सर्जित करता है
जैसे ग्रीनपीस के अनुसार तीस हजार की मासिक आमदनी वाले परिवार 3000 रुपये मासिक
आमदनी वाले परिवार से चार गुणा ज्यादा कार्बन उत्सर्जित करते हैं। आदिवासी परिवार
सबसे कम कार्बन उत्सर्जित करते हैं क्योंकि उनकी जीवन शैली पूरी तरह प्रकृति के
सानिध्य में होती है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ बहुत अधिक कार्बन उत्सर्जन करती हैं।
इस तरह उच्च वर्ग के मुट्ठी भर लोग दुनिया भर में बेतहासा कार्बन उत्सर्जित करके
पूरी धरती के भविष्य को संकट में डाल रहे हैं। इनके अय्यासी के चलते इस ग्रह का
भविष्य खतरे में है। जबकि दूसरी ओर अधिकाँश जनता को इस संकट की भयावहता के बारे
में सही जानकारी उपलब्ध नहीं कराई जा रही है और इस संकट को बढाने में उसका योगदान
न के बराबर है। सोचने वाली बात है कि जिन लोगों के लिए दो जून की रोटी जुटाना ही
जिन्दगी की सबसे बड़ी जद्दोजहद ही वे भला कितना कार्बन उत्सर्जित कर सकते हैं।
इसलिए पर्यावरण संकट के लिए सबको दोषी ठहराना असली गुनहगार को बचा लेने के समान है।
सभी दोषी हैं— ऐसा दुष्प्रचार उन कंपनियों के गुनाहों पर पर्दा डाल दिया जाता है
जो पर्यावरण संकट के लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार हैं।
जलवायु परिवर्तन के आर्थिक-राजनीतिक कारण
इस तरह की जीवन शैली को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिसमें कार्बन उत्सर्जन
की गुंजाइश अधिक हो। जैसे— मोटर वाहनों की बिक्री को बढाने के लिए लोगों में लोभ-लालच
पैदा करना, क्लब, बीयर-बार, मॉल, मल्टीप्लेक्स और विज्ञापन के बोर्ड आदि में बिजली
का अंधाधुंध इस्तेमाल, वनों को काटकर आधुनिक शहरों को बसाना और उसमें अय्यासी के
सभी सामान मुहैया करना आदि। यह सब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की सोची-समझी रणनीति का
हिस्सा है जिसके जरिये वे उपभोक्तावाद को बढ़ावा देती हैं। यह सब अधिक मुनाफे के
लिए किया जा रहा है। दुनिया की आर्थिक व्यवस्था पर मोटर कार निर्माता और
पेट्रोलियम की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का वर्चस्व है। जैसे-- जनरल मोटर, फोर्ड और क्रिस्लर
जैसी दैत्याकार मोटर-वाहन कम्पनियाँ आदि। ये बड़ी गाड़ियों को प्रचारित करती हैं जो
सभी विलासितापूर्ण समानों से लैश होती हैं। बड़ी गाड़ियाँ का मतलब है अधिक मुनाफा और
अधिक प्रदूषण। दूसरी ओर खनन कम्पनी पॉस्को और वेदान्ता द्वारा खनन के चलते
पर्यावरण का विनाश होता है। ये कम्पनियां सरकारों पर अपना दबदबा बनाये रखती हैं।
1990 की वैश्वीकरण की नीतियों के बाद ये कम्पनियां बेलगाम हो गयी हैं।
सैन्य गतिविधियों के चलते भी पर्यावरण का बहुत नुकसान होता है। 2007 में अमरीकी सेना ने 1700 करोड़ लीटर तेल का
इस्तेमाल किया। यानी 4.8
करोड़ लीटर प्रतिदिन। अमरीका का रक्षा विभाग ऊर्जा इस्तेमाल करने के मामले में
दुनिया भर में पहले स्थान पर है। वह अमरीकी सरकार की कुल ऊर्जा खपत के 93 प्रतिशत
हिस्से के लिए जिम्मेदार है। ऊर्जा की इतनी बड़ी मात्रा की खपत के चलते होने वाले
कार्बन उत्सर्जन की मात्रा का सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है।
समाधान क्या है?
1992 के पृथ्वी सम्मेलन में फिदेल कास्त्रो ने चेतावनी देते हुए कहा
था, “स्वार्थपरता बहुत हो चुकी। दुनिया पर
वर्चस्व कायम करने के मंसूबे बहुत हुए। असंवेदनशीलता, गैरजिम्मेदारी
और फरेब की हद हो चुकी है। जिसे हमें बहुत पहले ही करना चाहिए था, उसे
करने के लिए कल बहुत देर हो चुकी होगी”।
जलवायु परिवर्तन के असली कारणों पर विचार–विमर्श
करने और इसका समाधान प्रस्तुत करने के लिए 26 अप्रैल 2010 को कोचाबाम्बा
(बोलीविया) में एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया था। इसमें दुनिया भर
से 18,000 लोग शामिल हुए जिनमें वैज्ञानिक, बुद्धिजीवी, सरकारी
प्रतिनिधि और 132 देशों के सामाजिक संगठनों ने भाग लिया था। इसमें जारी कोचाबाम्बा मसविदा दस्तावेज के अनुसार निम्नलिखित सिद्धान्तों पर
आधारित एक नयी व्यवस्था का निर्माण करना जरूरी है।
- सभी लोगों के
बीच व सभी चीजों के साथ सन्तुलन और समन्वय
- परिपूरकता, भाईचारा और
समानता
- प्रकृति के साथ
जनता का सामन्जस्य
- मनुष्यों की
पहचान इस बात से तय होना कि वे कौन हैं,
इससे नहीं कि वे किन–किन चीजों के
मालिक हैं
- उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद
और दखलन्दाजी के सभी रूपों की समाप्ति
- जनता के बीच और
धरती माँ के साथ शान्ति स्थापित की जाये
इसलिए सबसे पहले हमें उपभोक्तावादी जीवन-शैली पर
पूरी तरह रोक लगानी होगी। इसके साथ ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा पर्यावरण
के विनाश के खिलाफ संघर्ष करना होगा और उस पर लगाम कसनी होगी। यानी एक ऐसी
व्यवस्था का निर्माण करना होगा जो मुनाफे और लोभ-लालच के बजाय प्राकृतिक न्याय पर
केन्द्रित हो। उसमें इनसान और प्रकृति के बीच सहज संतुलन भरा रिश्ता हो। तभी इस
समस्या का सही समाधान हो पायेगा।
--विक्रम प्रताप
संयोजक, पर्यावरण लोक मंच