पहले गाँव-देहात तरह-तरह के पेड़-पौधों से
गुलजार रहते थे। कलरव करते, गीत सुनाते रंग-बिरंगे पंछी सबका मन मोह लेते
थे। गौरेया जिसका हर परिवार से घरेलू रिश्ता होता था, अब
हर जगह फुदकती नजर नहीं आती। मृत जानवरों को खाकर पर्यावरण को स्वच्छ रखने वाले
गिद्ध अब विषाक्त माँस खाकर लुप्त हो गये। ये जीव-जन्तु हमारे समाज और संस्कृति का
अनिवार्य अंग रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग आज न केवल हमारी जीविका और जीवनशैली को
तबाह कर रहा है, बल्कि इसने सदियों पुराने पेड़-पौधे और
जीव-जन्तुओं की प्रजातियों के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है। ईंट, पत्थर
और कंकरीट के बढ़ते जंगल, विषैला पानी, धुआँ
छोड़ती फैक्ट्रियाँ, उजड़ते जंगल, बढ़ते
रेगिस्तान और सूखती नदियाँ ही चारों तरफ दिखाई दे रही हैं। ऐसे में शस्य स्यामला
धरती पर प्रकृति के निकट रहने वाले नाजुक जीवों की प्रजातिया खुद को कैसे बचा सकती
हैं? प्रतिदिन दर्जनों जीव-जन्तु लुप्त हो रहे हैं।
यह समूचे पारिस्थितिकीय तंत्र के लिए खतरे की घण्टी है। गिद्ध, बया, गौरेया, सारस
और न जाने कितने अनाम पंछियों के दर्शन दुर्लभ हो गये हैं। प्रकृति के ये मित्र
लुप्तप्राय हैं, क्योंकि स्वार्थलोलुप इंसानों ने इनके
प्राकृतिक वासस्थान को तहस-नहस कर दिया।
पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि दुनिया के
औसत तापमान में 1.1 से 6.4 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी होने पर जीवों की 30 प्रतिशत
प्रजातियाँ सन् 2050 तक खत्म हो जायेंगी। आज करोड़ों साल पहले लुप्त हो चुके
डायनासोर को पुर्नजीवित करने के लिए वैज्ञानिक एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं, जबकि
आज लुप्त होती हजारों प्रजातियों को बचाने का कोई सकारात्मक प्रयास नहीं दिखाई
देता। पर्यावरण संतुलन के लिए जमीन के 33 प्रतिशत भाग में जंगल होना चाहिए लेकिन
अन्धाधुन्ध कटाई के चलते अब भारत में मात्र 19.27 प्रतिशत वनभूमि बची है। कई
राज्यों में स्थिति कहीं ज्यादा भयावह है। विकास को लेकर इतराने वाले हरियाणा
राज्य में 6.8 प्रतिशत जंगल हैं जिनमें मात्र 3.52 प्रतिशत प्राकृतिक वन हैं।
मुनाफे की हवस में जीवनदायी औषधियों और वन्यजीवों को पनाह देने वाले प्राकृतिक
जंगलों को कभी बाँध बनाने के लिए,
कभी खदानों के लिए तो कभी उद्योग लगाने
के लिए मुनाफाखोर पूँजीपति और उनकी हिमायती सरकारें बेरहमी से उजाड़ रही हैं। इसके
बदले कुछ सजावटी पेड़ लगाकर क्या इस प्राकृतिक विनाश की भरपाई हो सकती है? प्राकृतिक
जंगलों में विविध तरह के घास-फूस,
झाड़ियाँ, सरकण्डे, जंगली
पेड़, चींटी, केंचुए, कन
खजूरे, गिरगिट, चूहे, खरगोश, साँप, लकड़बग्घे, हिरन, शेर, विविध
तरह की चिड़ियाँ आदि हजारों जीव-जन्तु और आँख से दिखाई न देने वाले सैकड़ों सूक्ष्म
जीव पाये जाते हैं जो लाखों वर्षों में स्थापित परस्पर निर्भर जीवनचक्र निभाते आये
हैं। यही जंगल का जैव-विविधतापूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र है। कृत्रिम वृक्षारोण से
ऐसा जटिल पारिस्थितिकी तंत्र और ऐसी जैव विविधता क्या सौ सालों में भी विकसित हो
सकती है? वृक्षारोपण बीमारी का इलाज नहीं, बल्कि
रोगी को दिलासा देने वाली छद्म दवा (प्लसींबों) है।
देश में खत्म होते जंगल और वृक्षारोपण अभियान
की हकीकत किसी से छुपी नहीं है। उत्तर प्रदेश के महोबा जिले में मात्र 5.45
प्रतिशत वन क्षेत्र बचा है। जिसमें पायी जाने वाली औषधियाँ-सफेद
मूसली, सतावर, ब्राम्ही, गुड़मार, हरशृंगार, धतूरा
और पिपली के साथ-साथ भेड़िये, तेन्दुए जैसे जंगली जानवर खत्म होने की कगार पर
हैं। इसी जिले में वर्ष 2008-09 में स्पेशल ट्री प्लान्टेशन कार्यक्रम के तहत 70
लाख पौधे रोपे गये थे जिनका अस्तित्व अब केवल कागजों पर है। नेताओं द्वारा दो-चार
पौधे लगाकर फोटो खिंचवा लेने से क्या इस समस्या का समाधान हो सकता है? इन्हीं
की सरपरस्ती में तो पूँजीपति, ठेकेदार, खनन
माफिया और वन अधिकारी हर तरह से प्राकृतिक जंगलों को उजाड़ रहे हैं। यही हाल देश के
अन्य राज्यों का भी है। उत्तराखण्ड में 64 प्रतिशत वनाच्छादित भूमि है जो उद्योग
धन्धों के फैलते जाल के कारण दिनोंदिन घटती जा रही है।
भारत ही नहीं वरन दुनिया के सभी देशों का यही
हाल है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण दुनिया की सबसे बड़ी और सर्वाधिक जैव विविधतापूर्ण
रूस के साइबेरिया की बैकल झील गम्भीर पारिस्थितिकीय संकट का सामना कर रही है।
गर्मी बढ़ने और बर्फ कम होने के चलते ठण्डे जलवायु के आदी इस झील के जीवों और
मछलियों का भविष्य संकट में है। लातिन अमरीका के वर्षादायी जंगल बहुराष्ट्रीय
कम्पनियों के मुनाफे की भंेट चढ़ चुके हैं।
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