अनन्तकाल से प्रकृति के सानिध्य में रहने वाली
आदिवासी जातियों को लुटेरी ब्रिटिश उपनिवेशवादी नीतियों के चलते दो सौ सालों तक
उजाड़ा जाता रहा, यह सिलसिला आज भी जारी है। सर्वोच्च न्यायालय
द्वारा सन् 2000 में जंगलों और राष्ट्रीय उद्यानों से सूखी लकड़ी और घास काटने पर
भी रोक लगाना इसी दिशा में एक और कदम है। यह जंगलों में हरे पेड़ काटने वाले
माफियाओं के खिलाफ उठाया गया कदम लग सकता है, लेकिन
सच्चाई कुछ और ही है। इस फैसले के चलते अवैध कटाव तो नहीं रुका, मगर
यह प्रतिबन्धित वन क्षेत्र में रहने वाले 40 लाख आदिवासियों की जीविका के लिए भारी
खतरा साबित हुआ है। एक तरफ वन विभाग को उत्पीड़न का नया हथियार मिला तो दूसरी तरफ
इसके चलते लाखों आदिवासी बेरोजगारी,
भुखमरी, कंगाली
और विस्थापन की पीड़ा झेल रहे हैं। साथ ही कभी खनिज पदार्थों के दोहन के लिए, कभी
देशी-विदेशी कम्पनियों को जमीन देने के लिए तो कभी जंगलों की रक्षा के नाम पर
उन्हें उजाड़ा जा रहा है। अनुमान है कि आजादी के बाद से अब तक लगभग 2 करोड़
आदिवासियों को विकास परियोजनाओं के नाम पर उनकी हजारों वर्षों से स्थापित जमीन और
सभ्यता से उजाड़ कर उन्हें दर-दर की ठोकर खाने को छोड़ दिया गया।
दरअसल आदिवासियों की जीवनशैली में कार्बन
उत्सर्जन की बहुत ही कम गुंजाइश होती है। वे पेड़ों के पत्तों से बने दोने-पत्तलों
और मिट्टी के बर्तनों से अपना काम चला लेते हैं। लकड़ी के खड़ाऊ, बाँस
की चारपाई और दैनिक जीवन की समस्त उपयोगी सामग्री उन्हें वनों से मिल जाती है।
इस्तेमाल के बाद ये सभी सामग्री सड़कर प्रकृति में घुल-मिल जाती हैं। कोई कार्बन
उत्सर्जन नहीं, कोई प्रदूषण नहीं और शहरीकरण से पैदा होने वाले
कचरे के निपटारे की कोई समस्या नहीं। स्थानीय समुदाय और आदिवासी लोग किसी भी
प्राकृतिक आपदा के आसन्न खतरे को सबसे पहले भाँप लेते हैं। मौसम और स्थानीय
पर्यावरण बिगड़ने पर उनका जीवन तुरन्त प्रभावित होता है। इसीलिए प्रकृति के ये मित्र
पर्यावरण प्रदूषण या जंगलों के विनाश के खिलाफ तत्काल संघर्ष छेड़ देते हैं। हम
कल्पना कर सकते हैं कि मानवता जिस भयावह पर्यावरण संकट से गुजर रही है, इस
स्थिति में प्रकृति को संरक्षित रखने वाले आदिवासी कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा
कर सकते हैं। लेकिन उल्टे उन्हें ही विकास के नाम पर उजाड़ा जा रहा है और विरोध
करने पर पुलिस-फौज के दम पर उनका बर्बर दमन किया जा रहा है।
सन् 2006 में पारित और जनवरी 2008 में लागू
वनाधिकार कानून वंचित समुदायों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय और उन्हें उनका हक
लौटाने के बारे में जुबानी जमा-खर्च है, जबकि जमीनी हकीकत कुछ और ही है।
आदिवासियों का शोषण कर मौज उड़ाने वाले दबंग, परजीवी
समुदायों ने कई इलाकों में आदिवासियों के घर जला दिये और उन पर तरह तरह के जुल्म
ढाये। इन दबंगों को वन-विभाग, पुलिस प्रशासन और राजनीतिक नेताओं का संरक्षण
प्राप्त होता है। लेकिन आज इन अत्याचारों से हार न मानकर आदिवासी और वंचित तबके जल, जंगल, जमीन
पर अपने अधिकार के लिए जी-जान से लड़ रहे हैं।
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