Monday, 18 March 2019

केरल में बाढ़ का कहर


अक्टूबर महीने में नौजवान भारत सभा के साथी बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए दिल्ली से राहत सामग्री लेकर केरल गये। मैं भी इस टीम का हिस्सा था। केरल के साथियों ने इस काम में हमारा बहुत सहयोग किया। हमने केरल के गाँवों का दौरा किया। तबाही का मंजर हमारे सामने था। जितना हमसे बन पड़ा, हमने बाढ़ पीड़ितों की उतनी मदद की। केरल की बाढ़ के बारे में हमें जो जानकारी मिली, उसे मैं इस लेख में साझा कर रहा हूँ। इसके साथ ही मैं इस बाढ़ के कारणों पर भी अपनी बात रखूँगा।

देश की दक्षिणपश्चिमी सीमा पर अरब सागर और सह्यद्रि पर्वत शृंखलाओं के बीच सुन्दर प्रदेश केरल स्थित है। लेकिन लगता है कि उसकी सुन्दरता को ग्रहण लग गया। अगस्त के महीने में आयी बाढ़ ने केरल के लोगों की जिन्दगी में भूचाल ला दिया। यह पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बन गया। मौसम विभाग ने पहले ही भारी बारिश की चेतावनी दे दी थी। लेकिन सरकार ने इस चेतावनी को गम्भीरता से नहीं लिया और न ही किसी ने भारी बारिश से होने वाले भयानक कहर के बारे में ही सोचा था। 8 अगस्त से शुरू हुई बारिश 20 अगस्त तक जारी रही। इस दौरान कुल 771 मिलीमीटर बारिश हुई। इसने पिछले 94 सालों के सभी रिकार्ड  तोड़ दिये। दूसरे सालों की तुलना में इस साल ढाई गुना अधिक बारिश हुई। इसके चलते सभी बाँधों में पानी भर गया, जिससे प्रशासन को 39 बाँधों के 35 शटर मजबूरन खोलने पड़े। 26 साल में पहली बार इदुक्की बाँध के सभी 5 द्वारों को खोलना पड़ा। इससे नदियों का जल स्तर अचानक बढ़ गया। नदियाँ अपने तटों से ऊपर बहने लगीं। नदियों के किनारे बसे गाँवों में पानी तेजी से भरता चला गया। राज्य के 14 में से 13 जिले बारिश से प्रभावित हुए। इसमें इडुक्की, कोट्टायम, एरनाकुलम, पलक्कड़ और 9 अन्य जिले शामिल हैं। कुछ जिलों में भूस्खलन भी हुआ।
  
केरल के स्थानीय लोगों ने बताया कि पहले उन्हें हालात की भयावहता का अंदाजा बिलकुल भी नहीं था। लेकिन बाँध खोलने के 4 घंटे बीततेबीतते पानी कंधों तक पहुँच गया। लोगों को इतना समय भी नहीं मिला कि वे अपने सामान को सुरक्षित स्थानों पर ले जा पाते। वे जैसेतैसे अपनी जान बचाकर निकलने के प्रयास में लग गये। जल स्तर इतनी तेजी से बढ़ा कि पानी पहली मंजिल से ऊपर बहने लगा। इससे लोग अपने घरों की छतों पर 23 दिनों तक फँसे रहे। 123 साल पुराने मुल्लपेरियार बाँध के खोले जाने से पेरियार नदी के जल स्तर में तेजी से वृद्धि हुई। इससे लोगों को भारी तबाही का सामना करना पड़ा। इस दौरान पूरे प्रदेश भर में लगभग साढ़े तीन हजार राहत शिविर चलाये गये, जिसमें 10 लाख से अधिक लोगों ने 15 दिन से अधिक समय तक शरण ली। केरल के मुख्यमंत्री के अनुसार बाढ़ में 483 लोगों की मौत हो गयी।

इस बाढ़ से केरल का 80 प्रतिशत क्षेत्र गम्भीर रूप से प्रभावित हुआ। राज्य के बाढ़ प्रभावित इलाके में बिजली की आपूर्ति बाधित रही जिससे पूरा राज्य बाढ़ के साथ ही अंधकार में भी डूब गया। कोचिन की सभी हवाई उड़ानों को 26 अगस्त तक के लिए स्थगित करना पड़ा। राज्य के सारे स्कूलकॉलेज बन्द कर दिये गये। पर्यटकों का बाढ़ प्रभावित इलाके में जाना प्रतिबंधित कर दिया गया। रेलवे सेवाएँ भी रद्द कर दी गयीं। हजारों किलोमीटर की सड़क टूटकर बह गयी। लोगों की घरेलू वस्तुएँ, बाइक, कार आदि सामान बहकर समुद्र में चले गये। प्रदेश की यातायात व्यवस्था कुछ दिनों के लिए पूरी तरह ठप्प हो गयी। 11 हजार घर ढह गये और 46 हजार हेक्टेयर से भी अधिक की फसल पूरी तरह तबाह हो गयी। राज्य सरकार के अनुसार इस तबाही में कुल 20 हजार करोड़ रुपये की सम्पत्ति नष्ट हो गयी।

मीडिया के जरिये इस तबाही की खबर जल्दी ही देशदुनिया के कोनेकोने तक पहुँच गयी। केरल के लोगों की जिन्दगी तबाह  हो गयी थी। उसे फिर से पटरी पर लाने के लिए राज्य सरकार ने केन्द्र से मदद की गुहार की। केन्द्र सरकार ने कुल मिलाकर लगभग 600 करोड़ की ही मदद की, इतने बड़े विनाश को देखते हुए यह रकम बहुत कम थी। फिर भी देशदुनिया के लोग मदद के लिए भारी संख्या में सामने आये। केरल के हजारों मछुआरों ने लोगों की मदद के लिए जान की बाजी लगा दी। उन्होंने अपनी नाव और सरकारी डोंगियों के माध्यम से बाढ़ में डूबे इलाके से लोगों को निकाल कर राहत शिविर में पहुँचाया। इसी कड़ी में नौजवान भारत सभा के भी कुछ साथियों ने केरल जाकर बाढ़ पीड़ितों की मदद का फैसला किया। हमारे साथियों ने उत्तर प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड और दिल्ली के कई इलाकों की जनता से मदद की अपील की। लोगों ने बढ़चढ़कर सहयोग किया।

इस दौरान हमें कुछ अजीब सवालों का सामना भी करना पड़ा। जैसे–– कुछ लोगों का कहना था कि उत्तर प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड यानी उत्तर भारतीय लोग केरल की मदद क्यों करें? इस तरह की क्षेत्रवादी सोच देश की जनता की एकता को खत्म कर देती है। ऐसी सोच देश के लिए बेहद घातक है। कुछ संगठनों और पार्टियों ने झूठी बात फैलाने की कोशिश की कि केरल के लोग गाय का मांस खाते हैं इसलिए वहाँ ऐसी आपदा आयी। इन्होंने केरल की मदद का भी विरोध किया। ऐसे लोगों ने यह खबर भी फैलायी कि कोर्ट ने सबरीमाला मन्दिर में महिलाओं को प्रवेश की अनुमति दे दिया। इससे बाढ़ आयी। ऐसी झूठी अफवाहें फैलाने वाले लोग अंधविश्वास को बढ़ावा देते हैं और जनता से सच्चाई छिपाते हैं। कुछ साल पहले उत्तराखंड की केदारनाथ घाटी में भी ऐसी भयावह तबाही आयी थी लेकिन उत्तराखंड के लोग गाय का मांस तो नहीं खाते। फिर वहाँ बाढ़ क्यों आयी? ऐसी बेसिरपैर की बातों को हवा देकर केरल के लोगों को बदनाम करने की कोशिश की गयी। केरल एक विकसित राज्य है, जहाँ 99 प्रतिशत लोग साक्षर हैं। उसके विकास में मौजूदा राज्य सरकार का बड़ा योगदान है। इस सरकार को बदनाम करने के लिए भी विपक्षी पार्टियों द्वारा झूठी खबरें फैलायी गयीं।

13 अक्टूबर को हम कोट्टायम जिले के एडत्वा क्षेत्र में पहुँचे। दो महीने बाद भी बाढ़ का पानी खेतों से उतरा नहीं था। खेतों में 23 फीट पानी भरा हुआ था। ऐसा लग रहा था कि समुद्र खेतों तक फैल आया हो। स्थानीय किसानों ने बताया कि इस क्षेत्र से बहुत बड़ी मात्रा में धान की आपूर्ति होती है। इसलिए इस क्षेत्र को धान का कटोराकहा जाता है। उन्होंने आगे बताया कि बाढ़ से धान की सारी फसल चैपट हो गयी। पूरे खेत में पानी और जलकुम्भी की भरमार के चलते अक्टूबर में धान की दूसरी फसल भी नहीं रोपी जा सकी। लोगों ने बताया कि सरकार ने एक एकड़ की फसल तबाह होने पर 5000 रुपये और घर तबाह होने पर 10 हजार रुपये की मदद की। नुकसान को देखते हुए यह रकम बहुत ही कम थी।

केरल में आयी बाढ़ का असली कारण क्या है? इसके लिए भारी बारिश और केरल में मौजूद बड़े बाँध काफी हद तक जिम्मेदार हैं। यह हमेशा विवाद का विषय रहा है कि बाँध बड़े होने चाहिए या छोटे? दुनिया भर में देखा जाये तो 19000 बड़े बाँधों के साथ चीन पहले स्थान पर है जबकि 5500 बाँधों के साथ अमरीका दूसरे स्थान पर। इस कड़ी में भारत पाँचवे स्थान पर है। पर्यावरण को होने वाले नुकसान के चलते जहाँ कुछ देशों ने बड़े बाँधों के निर्माण पर रोक लगा दी है, वहीं भारत में बड़े बाँधों का निर्माण धड़ल्ले से जारी है। हमारे यहाँ बड़े बाँधों को देश का स्वाभिमान और तकनीकी प्रगति से जोड़कर देखा जाता है। हालाँकि पर्यावरण के नजरिये से बड़े बाँध बहुत नुकसानदायक होते हैं। बड़े बाँधों के निर्माण के चलते भारी संख्या में स्थानीय आबादी अपनी जमीन से उजड़ जाती है। जैसे नर्मदा नदी पर बाँध के निर्माण से 245 गाँव पूरी तरह डूब गये। 10 लाख से अधिक लोग विस्थापित हुए, जिनमें अधिकतर गरीब किसान थे। न तो उन्हें उनकी जमीन का सही मुआवजा दिया गया और न ही उनके पुनर्वास की सही व्यवस्था की गयी। आज भी ये विस्थापित लोग अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। यही हालत उत्तराखंड के टिहरी बाँध की भी है। इसके बारे में पर्यावरणविदों ने चेतावनी दी है कि इसमें इकट्ठा पानी के भारी दबाव से भूकम्प आने की सम्भावना बढ़ गयी है।

बड़े बाँध से विशाल इलाका पानी में डूब जाता है। इससे बड़ी संख्या में पेड़पौधों और जीवजन्तुओं का खात्मा हो जाता है। यह कहा जाता है कि बड़े बाँध बाढ़ को रोकने में मददगार होंगे। हालाँकि छोटीमोटी बाढ़ को रोकने में वे सहायक भी होते हैं। लेकिन बाँध का रखरखाव ठीक से न हो, तलहटी में जमा गाद समयसमय पर साफ न किया जाये और बाँध की दीवारों की मरम्मत न की जाये तो भारी बारिश के समय बाँध के टूटने का खतरा पैदा हो जाता है और ये भयानक तबाही को न्यौता दे सकते हैंं। केरल के इदुक्की और मुल्लपेरियार बाँध के साथ भी कुछ ऐसी ही हालत पैदा हो गयी थी।
2011 में माधव गाडगिल की रिपोर्ट में चेतावनी दी गयी कि इस इलाके में अंधाधुंध खनन, पेड़ों की कटाई और बाँधों का निर्माण खतरनाक साबित हो सकता है। खास तौर पर खनन के चलते इडुक्की जिले में होने वाले भूस्खलन की ओर चेताया गया था। लेकिन सरकार ने यह रिपोर्ट कूड़ेदान में फेंक दी। यह बात साफ है कि पेड़ों की कटाई, नदियों का सँकरा होते जाना, बाँधों का निर्माण और अंधाधुंध खनन ने भी इस आपदा में भूमिका निभायी। कोई भी राजनीतिक दल या उनके नेता इन कारणों पर बात करने के लिए तैयार नहीं है।

पूरी दुनिया में पर्यावरण की समस्या बढ़ती ही जा रही है। एक ही समय कहीं बाढ़, कहीं सूखा, कहीं तेज आँधीतूफान तो कहीं खतरनाक बर्फबारी हो रही है। इनमें लाखों लोगों की जिन्दगी तबाह हो रही है। नेता, सरकार और पूँजीवादी बुद्धिजीवी इसे प्राकृतिक आपदा बता रहे हैं। धर्म के कुछ ठेकेदार इसे आस्था और धर्म का मामला बताकर लोगों को गुमराह कर रहे हैं। बिहार, उत्तराखंड, हिमांचल प्रदेश, केरल आदि जगहों पर आपदाएँ आयीं। इनके बारे में वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों ने सही कारण बताये और चेतावनी भी दी। लेकिन सरकारों ने इसे अनसुना कर दिया। मीडिया ने ऐसी खबरों को लोगों तक पहुँचाया ही नहीं। सच बात तो यह है कि ये सभी आपदाएँ मानवनिर्मित हैं। विकास की अंधी दौड़ ने इन्हें बुलावा दिया है। विकास का मौजूदा मॉडल ही गलत जिसमें मुट्ठीभर लोग मालामाल होते जा रहे हैं और जनता कंगाल। पर्यावरण प्रदूषण की मार भी इसी गरीब जनता के ऊपर पड़ रही है।

–– नवनीत
(किसान-10 पत्रिका से साभार)

Tuesday, 5 March 2019

गाँवों में फैलती कैंसर जैसी घातक बीमारियाँ

वैसे तो पूरा देश ही लेकिन खास तौर से उत्तर भारत के अधिकांश गाँव बुरी तरह विभिन्न बीमारियों की चपेट में आते जा रहे हैं। इन बीमारियों में खाँसीजुकाम जैसी साधारण बीमारियों से लेकर हार्ट अटैक और कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियाँ शामिल हैं। स्थिति दिनदिन खराब होती चली जा रही है। अब गाँव में सुमित्रानन्दन पन्त की सुकुमार और सुन्दर प्रकृति की देवी निवास नहीं करती बल्कि वहाँ प्रदूषण और गन्दगी की काली छाया मँडराती रहती है। लेख के शुरू में मैं अखबारों की कुछ ताजा घटनाओं का जिक्र करूँगा, जिससे इस भयावहता का अन्दाजा लग सके। इसके बाद इस समस्या की चीरफाड़ करूँगा।
1 नवम्बर को हिन्दुस्तान अखबार ने खबर दी कि उत्तरकाशी के बड़कोट गाँव में अज्ञात बीमारी से 15 लोगों की मौत हो गयी। गाँव में इसके चलते भयावह माहौल बन गया है। ग्रामीणों ने बताया कि मेडिकल प्रशासन जानबूझकर इसकी अनदेखी करता रहा है। वे बारबार प्रशासन से माँग करते रहे कि इस बीमारी की जाँच करायी जाये लेकिन प्रशासन इसे सुनता ही नहीं। इसी दिन की एक अन्य खबर के अनुसार बस्ती जिले के माझा मानपुर गाँव में दिल दहला देने वाली एक घटना घटी। किसी अज्ञात बीमारी से एक ही परिवार की 4 बच्चियों की मौत हो गयी। बच्चियाँ 2 महीने से लेकर 5 साल की थीं। इस मामले में भी स्वास्थ्य विभाग की लापरवाही का कोई ओरछोर नहीं था।
22 अक्टूबर को अमर उजाला ने खबर दी कि संक्रामक बीमारी ने फतेहपुर के डिघरूवा गाँव को अपनी चपेट में ले लिया है। लगभग सभी घरों में लोग बीमार हैं। कईकई घरों में तो परिवार के सभी सदस्य बिस्तर पर हैं। कोई खानापानी देने वाला नहीं है। ग्राम प्रधान ने इसकी सूचना अमौली ब्लॉक के स्वास्थ्य विभाग को दी थी। लेकिन विभाग की तरफ से कोई कार्रवाई नहीं की गयी। विशेषज्ञ डॉक्टर के अभाव में लोग झोलाछाप डॉक्टर से ही इलाज करा रहे हैं। ग्रामीणों ने बताया कि स्थिति इतनी खराब है कि गाँव में कोई सफाईकर्मी नहीं आता है। पूरा गाँव गन्दगी में डूबा रहता है।
26 अक्टूबर को अमर उजाला की ही खबर के अनुसार कैराना के पंजीठ गाँव में 24 घंटे के अन्दर तीन ग्रामीणों की मौत हो गयी। इनकी मौत हेपेटाइटिससी और कैंसर के चलते हुई। इलाके में एक बड़ा तालाब है, जिसमें बड़े नाले का गन्दा पानी आकर समाता रहता है। इसी गन्दे पानी की वजह से पूरा गाँव बीमारी की चपेट में है।
मुजफ्फरनगर का सटा सिखेड़ा क्षेत्र चारों तरफ से औद्योगिक ईकाइयों से घिरा है। पूरे इलाके में प्रदूषण इतना फैल चुका है कि इलाके के गाँवों में जानलेवा बीमारियाँ कहर बरपा रही हैं। हालत इतनी नाजुक है कि पिछले पाँच सालों में अकेले निराना गाँव में 12 लोग कैंसर से जान गँवा बैठे हैं। वहीं अन्य 7 लोग इस गम्भीर बीमारी से जूझ रहे हैं। गाँव में मातम फैला हुआ है। गाँव वाले प्रशासन से इसकी कई बार शिकायत कर चुके हैं। लेकिन नतीजा ढाँक के तीन पात। इतना सबकुछ होते हुए भी आज तक इलाके में कोई मदद नहीं पहुँच पायी। अगर आप यहाँ की हालत देख लें तो आपकी आँखें आँसुओं से भर जायेंगी और जिन्दगी से आपका विश्वास उठ जायेगा। ऐसी हालत में भी यहाँ के लोग जिन्दा हैं और जिन्दगी से संघर्ष कर रहे हैं, इसके लिए उनके जज्बे की तारीफ करनी चाहिए।
सटा सिखेड़ा के आसपास की औद्योगिक ईकाइयाँ भूजल का बेतहाशा दोहन करती हैं। फैक्ट्रियों से निकले कचरे को रजबाहों में बहा दिया जाता है। इससे रजबाहों का पानी काला हो गया है और वे बदबूदार नालों में बदल गये हैं। इसकी बदबू से इसके पास खड़ा आदमी गश खाकर गिरने जैसी स्थिति में आ जाता है। इसका प्रदूषण कैंसर और अन्य जानलेवा बीमारियों का स्रोत है। फैक्ट्री के मालिकों की पहुँच सरकार के ऊँचे नुमाइन्दों तक होने के चलते उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो पाती। ऐसे में फैक्ट्री के मालिक पूरी तरह मनमानी पर उतर आये हैं और पर्यावरण के सभी नियमकानूनों को धता बताते हुए धड़ल्ले से जहर फैलाने वाली अपनी फैक्ट्रियों को चला रहे हैं। इनकी फैक्ट्रियाँ देश के विकास की सीढ़ी नहीं हैं बल्कि मौत के बूचड़खानों में बदल गयी हैं।
सहारनपुर के रणखंडी गाँव की हालत निराना से भी बदतर हो गयी है। पत्रिकाडॉटकॉम वेबसाइट की 25 अक्टूबर की खबर के अनुसार पिछले 5 सालों में कैंसर की बीमारी ने सैकड़ों लोगों की जिन्दगी निगल ली। आज भी बड़ी संख्या में एक महीने के बच्चे से लेकर बूढे़ लोग इस बीमारी की चपेट में हैं। ग्रामीणों के विरोध प्रदर्शन के बावजूद प्रशासन गहरी नींद में सो रहा है। जब गाँव वाले अपनी समस्या बताने के लिए विधायक के पास गये तो विधायक ने गाँव वालों के साथ बदतमीजी की और उन्हें भगा दिया। यानी जनता की सेवा के नाम पर सांसदविधायक लाखों की तनख्वाह और ढेरों सुखसुविधाएँ हासिल करते हैं लेकिन वास्तव में करते कुछ नहीं। इस व्यवस्था को लोकतंत्र नहीं बल्कि चोरतंत्र कहें तो ज्यादा सही होगा। तो चोरतंत्र के एक पहरूए से जब गाँव वाले तंग आ गये तो उन्होंने विधायक के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और प्रदर्शन करके माँग की कि इस विधायक को हटाया जाये।
सैकड़ों मौतों के बाद रणखंडी गाँव का मंजर कैसा होगा ? यह सोचकर ही शरीर में कंपकंपी दौड़ जाती है। वह हृदय नहीं पत्थर हैजो इतनी भयावह हालत देखकर भी नहीं पिघलता। गाँव के पास बहने वाले नाले में कभी साफ पानी हुआ करता था लेकिन अब इसमें त्रिवेणी सुगर मिल और कई अन्य फैक्ट्रियों का जहरीला कचरा बहा करता है। भूमिगत जल इतना प्रदूषित हो गया है कि शाम को बाल्टी में रखा पानी सुबह तक काला हो जाता है। लेकिन यही पानी गाँव वाले पीने के लिए मजबूर हैं। इस इलाके में ढंग का कैंसर अस्पताल न होने के चलते इलाज के लिए दूरदराज के शहरों में जाना पड़ता है। सच पूछा जाये तो इन गाँव वालों की तकलीफें प्रशासन का कोई व्यक्ति सुनने के लिए तैयार नहीं। न ही कोई सरकार और न ही कोई भगवान सुनने को तैयार है।
13 सितम्बर को उत्तर प्रदेश के राज्यपाल मेरठ आये। उन्होंने केएमसी अस्पताल में कैंसर के इलाज की आधुनिक तकनीकी को हरी झंडी दिखायी। जबकि मेरठ में पहले से मौजूद वैलेंटिस कैंसर अस्पताल और मेरठ कैंसर अस्पताल में मरीजों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। ये बातें किस ओर इशारा कर रही हैं। इनसे साफ पता चल रहा है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कैंसर बुरी तरह पैर पसार रहा है। ऐसा नहीं है कि देश के दूसरे हिस्सों की हालत बेहतर है। हिमाचल प्रदेश जो प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच बसा है, वहाँ शिमला के एकमात्र कैंसर अस्पताल में बिस्तर की संख्या 42 है, जबकि रोजाना 100 से 120 मरीज चेकअप के लिए आते हैं, जिसमें से 10–15 मरीजों को उपचार के लिए रोज ही भरती होना पड़ता है। जिस रफ्तार से नये मरीज आ रहे हैं, उससे बिस्तर की संख्या कम पड़ गयी है। अकेले हिमाचल प्रदेश में हर साल कैंसर के लगभग 5000 नये मामले सामने आ रहे हैं। नवभारत टाइम्स की 20 अप्रैल की खबर के अनुसार पूर्वी उत्तर प्रदेश में कैंसर तेजी से फैल रहा है। वर्ष 2007 में बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज में केवल 1000 मरीज इलाज कराने आये थे लेकिन पिछले एक साल में यह संख्या बढ़कर 9000 हो गयी है। पूरे देश में हर साल अकेले कैंसर की बीमारी से 3 लाख लोगों की मौत हो रही है।
इस हिसाब से अन्दाजा लगाने पर यह आसानी से समझा जा सकता है कि पूरे देश में टायफाइड, डेंगू, मलेरिया, चिकनगुनिया, हार्ट-अटैक, टीबी और अन्य घातक बीमारियाँ किस पैमाने पर अपना पैर पसार रही हैं। आज शायद ही देश का कोई गाँव, मोहल्ला, कस्बा या शहर हो जो इन बीमारियों के हमले से बचा हो। अगर बचा है तो वह किसी अजूबे से कम नहीं है। जहाँ तक गाँवों की स्वास्थ्य व्यवस्था का सवाल है, वह पूरी तरह से चरमरा गयी है। मेडिकल प्रशासन अपने निकम्मेपन के चलते सवालों के घेरे में है। कुछ जगहों पर जहाँ सरकारी डॉक्टर ईमानदार और मेहनती हैं, तो वे दवा की कमी से जूझ रहे हैं। सरकारें निजी अस्पतालों को फायदा पहुँचाने के लिए सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं का खात्मा कर रही हैं। जनता को स्वास्थ्य सुविधा देना अब उनकी प्राथमिकता नहीं रह गयी है। न केवल नेता, मंत्री और स्वास्थ्य अधिकारी बल्कि निजी अस्पतालों के कर्ताधर्ता धनदौलत की लूट में पागल हो गये हैं। वे सिर से लेकर पाँव तक स्वार्थों में डूबे हुए हैं। उनकी सोच पूँजीवादी है। वे धन की देवी के पुजारी हैं। जनता की सेवा उनका उद्देश्य नहीं है। उन्होंने लालच, स्वार्थ और लूटपाट की सारी हदें तोड़ दी हैं।
दूसरी ओर जनता तिलतिल कर मरने के लिए अभिशप्त है। इस समस्या का दूरदूर तक कहीं अन्त दिखायी नहीं दे रहा है। इसके बावजूद यह समय की माँग है कि इस समस्या का समाधान निकाला जाये। दो स्तरों पर तुरन्त कदम उठाने की जरूरत है। पहला, नदियों, नहरों, नालों और तालाबों की तत्काल सफाई करायी जाये और इनमें कचरा फैलाने वाली फैक्ट्रियों पर तुरन्त रोक लगायी जाये। दूसरा, सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं को और बेहतर बनाया जाये। लेकिन सवाल यह है कि ये सब होगा कैसे ? मौजूदा लूटखसोट की व्यवस्था में इसका समाधान होना मुमकिन नहीं। इस व्यवस्था को बदलकर जनता के हित वाली नयी और अच्छी व्यवस्था लानी होगी। यह बदलाव करेगा कौन ? यह लड़ाई हमें खुद लड़नी होगी।
अगर हम यह लड़ाई नहीं लड़ते तो एकएक करके काल के गाल में समाते चले जायेंगे।

–– विक्रम प्रताप


(किसान-10 पत्रिका से साभार)

Sunday, 3 March 2019

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को रोको नहीं तो दुनिया प्लास्टिक के ढेर में बदल जायेगी

आज पीने के पानी से लेकर हमारे शरीर तक में प्लास्टिक के कणों की भारी संख्या में मौजूदगी हमारे लिए गम्भीर खतरा बनती जा रही है। दूधदही, चीनी, शहद से लेकर अन्य खाद्य सामान प्लास्टिक के पैकेट में पैक होकर आ रहे हैं, जिनमें भारी संख्या में प्लास्टिक के कणों की मौजूदगी से सम्पूर्ण जीवन चक्र संकट में है। खाद्य पदार्थों और पानी के माध्यम से ये प्लास्टिक के कण हमारे शरीर में चले जाते हैं जो कैंसर सहित और अन्य घातक बीमारियों को जन्म दे रहें हैं। प्लास्टिक कचरे के बारे में हमें सचेत हो जाना चाहिए क्योंकि आज हमारी जमीन, नदियाँ और समुद्र प्लास्टिक कचरे के ढेर से पटते जा रहे हैं। 


प्लास्टिक कचरे की मौजूदगी हमारे परिस्थितिकीय तंत्र के सन्तुलन को बिगाड़ रही है। अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरण कानून के मुताबिक पिछले 10 सालों में प्लास्टिक कचरे का उत्पादन 40 प्रतिशत बढ़ गया है। प्लास्टिक कचरे के उत्पादन की दर में ये वृद्धि आने वाले सालों में गम्भीर खतरा बन जायेगी। पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अनुसार भारत में प्रतिदिन 25,490 टन प्लास्टिक कचरा निकलता है। जिसमें से 15000 टन कचरे का ही प्रतिदिन एकत्रीकरण और पुन:नवीनीकरण हो पाता है। शेष कचरा (40 फीसदी) जमीन पर कूड़े का ढेर बनता है या फिर नालियों को जाम करता है। नदियों से होता हुआ महासागरों में चला जाता है।
 
जर्मनी के हेमहोल्त्ज सेंटर फॉर एनवायरमेंटल रिसर्च की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक समुद्र के कुल प्लास्टिक कचरे का 90 फीसद एशिया और अफ्रीका की दस नदियों से आता है। इसमें पहले और दूसरे स्थान पर क्रमश: चीन की याँग्त्सी और भारत की सिंधु नदी है। प्लास्टिक कचरे को ढोने की दस बड़ी नदियों की सूची में गंगा नदी 6वें स्थान पर है। इस रिपोर्ट के मुताबिक गंगा नदी हर साल 5.44 लाख टन प्लास्टिक कचरा बंगाल की खाड़ी में डालती है। जबकि पहले स्थान पर चीन की याँग्त्सी नदी है जो सालाना 15 लाख टन प्लास्टिक अपने महासागरों में उड़ेल देती है। 

ब्रांडेड प्लास्टिक कचरा आज विश्व के लिए गम्भीर समस्या का रूप ले चुका है। ग्रीनपीस की हालिया रिपोर्ट में बताया गया कि वैश्विक स्तर पर सबसे ज्यादा प्लास्टिक कचरा फैलाने में दुनिया की बड़ी माल उत्पादक ब्रांडेड बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ शीर्ष पर हैजिनमें कोकाकोला, पेप्सिको और नेस्ले, डेनोन, मोंडेलेज इंटरनेशनल, प्रोक्टर एंड गैंबल, यूनिलीवर, पेर्फेटी वैन मेलले, मार्स, और कोलगेटपामोलिव शामिल हैं। इनमे से शीर्ष तीन कम्पनियाँ ( कोका कोला, पेप्सिको और नेस्ले ) ही अकेले कुल प्लास्टिक कचरे का 14 प्रतिशत प्लास्टिक कचरा फैलाती हैं। दुनिया की सबसे बड़ी सॉफ्ट ड्रिंक बनाने वाली कम्पनी कोकाकोला सबसे ज्यादा प्लास्टिक कचरा पैदा करने वाली कम्पनी है। साफ है कि जितनी बड़ी उपभोक्ता माल उत्पादक कम्पनी उतनी ही बडी कचरा उत्पादक कम्पनी।
ब्रांडेड कम्पनियाँ अपने उत्पादों की पैकेजिंग और लेबलिंग के लिए भारी पैमाने पर प्लास्टिक का इस्तेमाल करती हैं। इन कम्पनियों द्वारा इस्तेमाल कुल प्लास्टिक कचरे के केवल 9 प्रतिशत भाग का ही पूनर्नवीनीकरण हो पता है। जबकि शेष बचे भाग को जला दिया जाता है या जमीन पर कूडे के ढ़ेर के रूप में एकत्रित होता रहता है या फिर नदियों के रास्ते महासागरों में पहुँच जाता है।  

बहुराष्ट्रीय निगम विकासशील देशों के बाजार अपने उत्पादों के उत्पादन और बिक्री के लिए चुनते हैं। क्योंकि विकाशशील देशों में इन कम्पनियों को सस्ता श्रम और लचीला पर्यावरण कानून मिलता है। पश्चिमी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ सस्ते मैनुफेक्चुरिंग और अत्यधिक मुनाफा कमाने को सदैव लालायित रहती हैं। जिसके चलते यह ब्रांडेड बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने उत्पादों के लिए सस्ता और एक बार उपयोग होने वाले प्लास्टिक का उपयोग करती हैं। जिससे ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ जबर्दस्त मुनाफा बटोरती हैं। विकसित देशों की यह कम्पनियाँ आज विकासशील देशों की जमीन, नदियों और महासागरों को अपने मुनाफे के चक्कर में आगामी सैकड़ों सालों के लिए दूषित कर रहीं है। हालत ऐसे ही रहें तो हमारी कई पीढ़ियाँ इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा फैलाये गये प्लास्टिक कचरे के बोझ से उबर नहीं पाएगी। 



बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार 34 समुद्री पक्षियों में से 74 प्रतिशत समुद्री पक्षियों में प्लास्टिक कचरे का अवशेष पाया गया। फोएकी के मुताबिक महासागरों में पाये जाने वाले प्लास्टिक से हर साल 1,00,000 से ज्यादा जलीय स्तनधारियों की मौत हो जाती है। जबकि 86 प्रतिशत कछुए इन प्लास्टिक को निगल लेते हैं। अगर इसी तरह से ब्रांडेड कचरा नदियों और समुद्रों में डंप किया जाता रहेगा तो समुद्र में  पाये जाने वाली विभिन्न प्रजातियों के जीवों के अस्तित्व पर खतरा और गम्भीर हो जायेगा।



ग्रीन पीस की रिपोर्ट के मुताबिक महासागरों में पाये जाने वाले प्लास्टिक कचरे में एकल उपयोग प्लास्टिक का कचराविभिन्न उत्पादों की पन्नियाँ, पानी की बोतलें, काफी के कप, स्ट्रा, प्लास्टिक बैग और बोतलों के ढक्कन बड़े पैमाने पर पाये गये। फोएकी के मुताबिक एकल उपयोग प्लास्टिक के विघटन में लगभग 100–500 सालों का समय लगता है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ ज्यादा मुनाफा और कम से कम लागत मूल्य आये इसलिए ज्यादा से ज्यादा एकल उपयोग प्लास्टिक का इस्तेमाल करती हैं।


बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और निगमों के मुनाफे में सरकारों का भी बड़ा हिस्सा होता है। जिसके चलते विकासशील देशों कि सरकारें इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को अपने यहाँ न सिर्फ न्योता देती है बल्कि इन कम्पनियों के लिए श्रम कानूनों और पर्यावरण मानकों को ढीला करती हैं। ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ यहाँ के श्रम और प्राकृतिक स्रोतों का जबर्दस्त तरीके से दोहन कर अपना माल बनाती हैं और यहाँ की जनता से मुनाफा निचोड़ती हैं। साथ ही इससे उत्पन्न कचरे से वहाँ की जमीन, नदियों और महासागरों को दूषित करती हैं। आज ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ विकसशील देशों को अपना डस्टबीन बनायें हुए हैं। इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा फैलाये गये कचरे से होने वाली बीमारियों का खामियाजा विकासशील देशों की जनता को पीढ़ी दर पीढ़ी भुगतना पड़ रहा है।


अन्तरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय पर्यावरण मानकों को ताक पर रखकर ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ फलफूल रहीं हैं। सरकारें इनकी सहायक हैं। ऐसे में विकसित और विकासशील देशों की जनता के सचेतन प्रयास से ही हम पृथ्वी को इन दैत्याकार कम्पनियों के प्रदूषण से बचा सकते हैं। पर्यावरण का संकट आज सम्पूर्ण मानवता और मानवजाति के अस्तित्व का संकट है। इसे सम्पूर्ण जनता के जुझारू और सचेतन प्रयासों से ही हल किया जा सकता है। 

--अनुराग              
                 
(देश-विदेश-30 पत्रिका से साभार)

Saturday, 2 March 2019

आईपीसीसी की जलवायु संकट पर नयी रिपोर्ट विनाश की ओर बढ़ती मानव जाति

                             
जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी प्रभावों के कारण हमारी धरती और पूरी मानव सभ्यता पर तबाही का खतरा मंडरा रहा है। पृथ्वी लगातार गर्म होती जा रही है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। समुद्र का जलस्तर ऊपर उठ रहा है। पीने का पानी जहरीला होता जा रहा है। भारी वर्षा और सूखा दुनिया भर में तबाही मचा रहे हैं। खेती उजड़ती जा रही है। जीवों की कई प्रजातियाँ लुप्त होने के कगार पर आ गयी हैं। यदि यही हाल रहा तो वो दिन दूर नहीं जब पूरी मानव सभ्यता बर्बाद हो जायेगी।  

8 अक्टूबर 2018 को जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की संस्था इंटरगवर्मेंटल पैनल ऑफ क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने अपनी नयी रिपोर्ट जारी करके चेतावनी दी। इस रिपोर्ट के अनुसार 2030 तक दुनिया का तापमान पूर्व औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री तक बढ़ जायेगा। तापमान पूर्व औद्योगिक स्तर से एक डिग्री पहले ही बढ़ गया है। जिसके परिणाम पूरी दुनिया में देखने को मिल रहे हैं। आर्कटिक सागर की बर्फ तेजी से पिघल रही है। समुद्र का जलस्तर तेजी से बढ़ रहा है। 90 फीसदी ग्लेशियर पीछे खिसकते जा रहे है। इस वर्ष जून और जुलाई महीनों में केवल कैलिफोर्निया के वनों में 140 बार आग लगी। ग्रीस में जंगलों में लगी आग से 80 लोग मारे गये। यूरोप गरम हवाओं से तपता रहा। भारत में बिना मौसम के आये धूल के तूफानों ने 500 से अधिक लोगों की जान ले ली। दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन शहर में सूखे में तीन गुना बढ़ोतरी हुई। जापान, भारत, अमरीका तथा अन्य जगहों पर बेतहाशा बारिश होने से फसल और घर नष्ट हो गये। ये सारी घटनाएँ असामान्य हैं। आने वाले दिनों में अजीबोगरीब मौसम की यह तीव्रता और अधिक बढ़ने वाली है। यदि मौसम से जुड़ी ऐसी घटनाएँ एक डिग्री पर महसूस की जा रहीं हैं जो कि औद्योगिक युग के पूर्व का स्तर हैतो 1.5 डिग्री की वृद्धि पर तो परिस्थितियाँ असहनीय हो जायेंगी।

आईपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार तापमान को पूर्व औद्योगिक स्तर के ऊपर अधिकतम 1.5 डिग्री तक रखना होगा। यदि तापमान इससे अधिक हो गया तो भारतीय उप महाद्वीप में भी इसके घातक परिणाम देखने को मिलेंगे। आईपीसीसी और दुनिया भर के वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन मानवनिर्मित है। रिपोर्ट के अनुसार यदि दुनिया का तापमान 1.5 डिग्री से अधिक बढ़ा तो भयानक गर्मी और लू की चपेट में आकर 35 करोड़ लोग मारे जायेंगी। भयानक सूखाबे मौसम बारिश, बाढ़, तूफान आदि बढ़ेंगे। कई जीव-जन्तु विलुप्त हो जायेंगी। यदि तापमान दो डिग्री को पार करता है तो स्थिति और विनाशकारी हो जायेगी। समुद्र तटीय इलाके समुद्र में डूब जायेंगी जिससे करोड़ों लोग बेघर हो जायेंगी। एशिया और अफ्रीका की कृषि अर्थव्यवस्थाएँ अधिक प्रभावित होंगी। फसल की पैदावार में गिरावट और जलवायु अस्थिरता के कारण 2050 तक गरीबों की संख्या कई अरब के आँकड़े तक पहुँच जायेगी। यदि वर्तमान गति से पर्यावरण प्रदूषण जारी रहा तो आने वाले 75 वर्षों में पृथ्वी के तापमान में 3 से 6 डिग्री की वृद्धि हो सकती है। इसके चलते बर्फ के पिघलने से समुद्री जलस्तर में एक से 12 फीट तक की वृद्धि हो सकती है और मुम्बई, न्यूयार्क, पेरिस, लन्दन, मालदीव, हालैण्ड और बांग्लादेश के अधिकांश भूखण्ड समुद्र में जलमग्न हो सकते हैं। इन घटनाओं के कारण भुखमरी गरीबी, असमानता, बीमारी तेजी से बढ़ेगी। पूरी मानव सभ्यता अस्तव्यस्त हो जायेगी।
पर्यावरण प्रदूषण का कारण वायुमण्डल में ग्रीनहाउस गैसों की वृद्धि है। पृथ्वी से उत्सर्जित होने वाली ऊर्जा को अवशोषित करने वाली गैसें ग्रीन हाउस गैस कहलाती हैं। इनमें कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, क्लोरोफ्लोरो कार्बन और जलवाष्प शामिल हैं। ये गैसें सूर्य की ऊर्जा को अन्दर आने देती हैं परन्तु बाहर नहीं जाने देती हैं। वायुमण्डल में जब इन गैसों की मात्रा बढ़ जाती है तो पृथ्वी का तापमान बढ़ने लगता है और ग्लोबल वार्मिंग की समस्या पैदा होती है।
औद्योगिक क्रान्ति के बाद से विकास की जो तीव्र प्रक्रिया अपनायी गयी है उसमें पर्यावरण की अवहेलना की गयी, जिसका परिणाम आज पारिस्थितिकीय असन्तुलन और पर्यावरणीय संकट के रूप में हमार सामनेे उपस्थित है। आज विश्व के विकसित देश हो या विकासशील देश, कोई भी पर्यावरण प्रदूषण के कारण उत्पन्न गम्भीर समस्याओं से अछूते नहीं हैं।
1990 के दशक में पूरी दुनिया व्यापार समझौतों से एक सूत्र में बँधने लगी थी और उत्पादों की स्वतंत्र तथा निर्बाध आवाजाही क के लिए नियम बनाये गये। वैश्वीकरण ने एक ऐसी अन्तर्निर्भर दुनिया बनाने की कोशिश की जिसमें सस्ते श्रम का इस्तेमाल कम्पनियों का मुनाफा बढ़ाने के लिए किया जाने लगा। अगले दो दशकों में चीन वैश्विक बाजार के लिए उत्पादों का आपूर्तिकर्ता बनकर सामने आया और उपभोग भी खूब बढ़ा। 1990 के दशक में ही दुनिया ने जलवायु परिवर्तन को सीमित दायरे में रखने पर भी सहमति जतायी थी। यह आर्थिक भूमंडलीकरण के बरक्स पारिस्थितिकीय भूमंडलीकरण था लेकिन यह अपना मकसद हासिल करने में नाकाम साबित हुआ है।
व्यापार ने जलवायु को पीछे छोड़ दिया जबकि उत्सर्जन नियंत्रण पर उपभोग भारी पड़ गया। आर्थिक भूमंडलीकरण की सफलता उत्सर्जन स्तर में बढ़ोतरी के रूप में दिखने लगी। समृद्ध देशों ने कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन करने वाले उत्पादों का इस्तेमाल कम नहीं किया बल्कि उलटा ही इन देशों का उत्सर्जन स्तर बढ़ गया। इसका नतीजा यह हुआ है कि हमारी धरती एक जलते तवे की तरह हाती जा रही है।

वैज्ञानिकों के अनुसार जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण कार्बन का उत्सर्जन है। अमरीका चीन के बाद सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जित करता है। रिपोर्ट में कार्बन उत्सर्जन को 2050 तक शून्य करने के लिए कहा गया है परन्तु क्या पूँजीवादी व्यवस्था में यह सम्भव है? कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए कई अन्तरराष्ट्रीय वार्ताएँ की गयी। क्वेटो प्रोटोकॉल के तहत यह कानून बनाया गया कि औद्योगिक देशों को ग्रीन हॉउस गैसों के उत्सर्जन में 2008-2012 तक 5.2 फीसदी कमी करनी है जिसमें से यूरोपीय संघ को 8 फीसदी, अमरीका को सात फीसदी और जापान को सात फीसदी कमी लानी थी। साम्राज्यवादी देशों ने कार्बन उत्सर्जन में कटौती से बचने के लिए उत्सर्जन परमिट की अदलाबदली करने का नया तरीका सुझाया जिसका मुख्य उद्देश्य था–– अमीर देशों के उत्सर्जन को बरकरार रखना। अमरीका हमेशा कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने से बचता रहा है। 2007 में बाली सम्मेलन में अमरीका ने क्वेटो प्रोटोकॉल के लक्ष्य को गिराकर उत्सर्जन कटौती की समय सीमा को बढ़ाकर 2012 से 2020 तक करने और न्यूनतम तापमान औद्योगिक क्रान्ति के स्तर से दो डिग्री तक अधिक रखने का सुझाव दिया। 2009 में कोपेनहेगेन सम्मेलन में भी अमरीका और उसके पिछलग्गू देश बेहद षड़यंत्रकारी तरीके से अपने आप को उत्सर्जन कटौती से बचाने में सफल हो गये। उत्सर्जन में कटौती के लिए उठाये जाने वाले कदमों को लेकर सारी दुनिया लुकाछिपी खेल रही है। उत्सर्जन स्तर में कटौती सम्बन्धी वैश्विक समझौतों को इस प्रकार तैयार किया गया है कि वे जलवायु परिवर्तन को नकार रहे हैं। जब भी कोई रिपोर्ट अमरीका के हितों से टकराती है अमरीका या तो उसमें बदलाव करवा देता है या उसे मानने से इनकार कर देता है। अमरीका ने जलवायु परिवर्तन समझौते को इस तरह लिखने के लिए बाध्य कर दिया कि उसके लक्ष्य वैज्ञानिक मानकों पर न होकर स्वैच्छिक कदमों पर आधारित थे। हरेक देश को अपने हिसाब से लक्ष्य तय करने की छूट दी गयी। इससे आवश्यक कदम उठाने में कमजोरी आयी। ऐसा लगता नहीं है कि धरती के तापमान में बढ़ोतरी को 2 डिग्री सेल्सियस के भीतर भी सीमित रखा जा सकेगा, 1.5 डिग्री सेल्सियस तो बहुत दूर की बात है। पेरिस समझौते ने बुनियादी तौर पर देशों की जवाबदेही को बहुत कम कर दिया है। यह समझौता अमरीकी सरकार को खुश करने के लिए किया गया था। 

सच्चाई यही है कि अमरीका और अन्य साम्राज्यवादी देश मिलकर ऐसी नीतियाँ बनवाने में सफल हो जाते हैं जो उनके हित में हो। ये देश किसी भी कीमत पर अपने मुनाफे में कमी नहीं आने देना चाहते हैं। दुनिया में सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन चीन करता है जो 2015 में कुल वैश्विक उत्सर्जन का 29.51 प्रतिशत था। अमरीका 14.34 प्रतिशत के सााथ दूसरे स्थान पर तथा भारत 6.81 प्रतिशत के सााथ चौथे स्थान पर था। लेकिन चीन और भारत की जनसंख्या बहुत अधिक है, लिहाजा 2015 में चीन का प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन 7.7 टन और भारत का 1.9 टन सालाना था। इस हिसाब से दुनिया के इन तीन शीर्ष देशों में उत्सर्जन कम करने में अमरीका की जिम्मेदारी अधिक बनती है। लेकिन अमरीका कार्बन उत्सर्जन को कम नहीं करना चाहता क्योंकि ऐसा करने से उसके मुनाफे में कमी आ जायेगी। बाली सम्मलेन से पहले अमरीका के येल विश्वविद्यालय ने एक सर्वे कराया था, जिसमें 68 प्रतिशत अमरीकी नागरिकों ने इस राय से सहमति जताई थी कि अमरीका वर्ष 2050 तक कार्बन उत्सर्जन में 90 प्रतिशत तक की कटौती करने के लिए अन्तरराष्ट्रीय संधि पर हस्ताक्षर करे। फिर भी अमरीकी सरकार ने ऐसा नहीं किया क्योंकि अमरीकी सरकार बहुराष्ट्रीय एकाधिकारी पूँजीपतियों के लिए काम करती है जो पृथ्वी को तबाही की ओर ले जा रहे हैं। वे केवल अपने मुनाफे के बारे में सोचते हैं। वे अपने मुनाफे की हवस में इतने अँधे हो गये हैं कि पर्यावरण की समस्या मानने से भी इनकार कर रहे हैं। अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भी जलवायु परिवर्तन की समस्या से ही इनकार कर रहे हैं। उनका कहना है कि अमरीका को और अधिक कोयला खनन करने और बिजली सयंत्र बनाने की जरूरत है ताकि उत्पादन को और अधिक बढ़ाया जा सके। ऐसे में अमरीका से ये उम्मीद करना कि वह जलवायु परिवर्तन की समस्या के बारे में गम्भीरता से सोचेगा मूर्खता होगी। यदि दुनिया अमरीका के रास्ते पर चली तो ग्रीन हॉउस गैसों का उत्पादन और बढ़ेगा जिसका असर दुनिया की उस भोलीभाली गरीब जनता पर पड़ेगा जो इस सबके लिए जिम्मेदार भी नहीं है और उससे बचने का उसके पास कोई उपाय भी नहीं है।                                                                                                      --सन्देश कुमार