Tuesday, 22 October 2019

आज के क्लाइमेट रिबेल के लिए मार्क्स की शिक्षा

*सरकार की पर्यावरण विरोधी नीतियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने वाले को 'क्लाइमेट रिबेल' कहा जाता है।

कल्पना करो कि आपको घर के किसी कोने में 150 साल पुरानी कोई चिट्ठी मिल जाय। जिसमें यह भविष्यवाणी की गयी हो कि यह दुनिया मुनाफे पर आधारित पूंजीवाद की वजह से एक भयंकर संकट का सामना करेगी।  

कल्पना करो कि उस भविष्यवाणी में यह भी व्याख्या की गयी हो कि पूंजीवाद कैसे कई पीढ़ियों से प्रकृति और मानव श्रम का शोषण करके ज़िंदा है। कैसे पूंजीवाद मुनाफे में अंधा होकर नैतिकता, तार्किकता और वैज्ञानिक उपलब्धियों की उपेक्षा कर रहा है।

और सोचिए कि उस भविष्यवाणी में यह भी कहा गया हो कि प्रकृति और मानव श्रम की लूट पर आधारित पूंजीवाद एक समय ऐसे मोड़ पर पहुँच जाएगा कि जहां ज्यादातर लोगों को दो में से एक को चुनना होगा- या तो पूंजीवाद के साथ धरती का विनाश या एक ऐसी नयी लोकतांत्रिक, तार्किक और सामजिक व्यवस्था जो धरती के साथ भी बेहतर रिश्ता बनाने में सक्षम हो।

वास्तव में कोई ऐसी चिट्ठी ही आज पूरे मानव समुदाय की सही अवस्थिति बता सकती है। संक्षेप में अगर देखें तो ये बातें  उन्नीसवीं सदी के समाजवादी विद्रोही कार्ल मार्क्स ने लिखी थी।

मार्क्स ने न सिर्फ मानव और धरती के दुश्मन "पूंजीवाद" का नाम लिया बल्कि उन्होंने इसकी भी व्याख्या की कि  कैसे यह व्यवस्था इस समय मानवता और पृथ्वी के सामने आयी इस विपदा के लिये जिम्मेदार है।

मार्क्स ने बताया कि "पूंजीवादी उत्पादन" ऐसे तकनीक विकसित करता है जो सामाजिक उत्पादन के साथ समन्वय करके सम्पदा के असली साधन-मिट्टी और मजदूर को कमजोर करते हैं।

मार्क्स ने पूँजीवाद का विश्लेषण किया और बताया कि पूंजीवादी व्यवस्था के हृदय- हर चीज को माल में बदलने की प्रवत्ति में ही दोहरा विरोधाभास है।

पूंजीवाद में, सबकुछ माल है, बिकाऊ है। किसी माल का मूल्य उसमें लगे मानव श्रम द्वारा तय होता है। 

पहला विरोधाभास तो यह कि जो मजदूर यह माल पैदा करते हैं उन्हें सिर्फ इतना ही मिलता है जितने में वे अपने जैसे मजदूर तैयार करते रहें(अपने बच्चों को)। इसके अलावा सारा मूल्य पूँजीपति अपने मुनाफे के रूप में हड़प लेता है।

दूसरा विरोधाभास यह है कि प्रकृति को इस तरह देखा जाता है जैसे इसका कोई मूल्य ही न हो-कोई ऐसी चीज जिसे हमेशा-हमेशा के लिए और मुफ्त में लूटा जा सकता है।

पूंजीवादी विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो सिर्फ मजदूरों के श्रम का ही शोषण नहीं करती बल्कि मिट्टी का भी शोषण करती है। 

चयापचय दरार 

मार्क्स ने अपने अध्ययन में दिखाया कि दूसरी सजीव प्रजातियों की तरह इंसान का भी प्रकृति के साथ मेटाबोलिक रिश्ता है। हालांकि, पूंजीवाद इस रिश्ते को लगातार छिन्न-भिन्न कर रहा है, मेटाबोलिक दरार को दिन दूना रात चौगुना बढ़ा रहा है।

पूंजी खंड एक में मार्क्स ने लिखा है-"पूंजीवादी उत्पादन मनुष्य और धरती के बीच के मेटाबोलिक प्रक्रिया को अस्तव्यस्त कर रहा है। जैसे-यह मनुष्य द्वारा खाने और कपडे के लिए मिट्टी से उपभोग किये गए मूल तत्वों को वापस मिट्टी में मिलने से रोकता है।"

कलाइमेट एंड कैपिटलिज्म  के सम्पादक इयान एंगस ने कहा है-"इस गृह पर तीन अरब साल से जीवन लगातार चलता रहा है उसकी सिर्फ एक वजह है-प्राकृतिक संसाधनों की रीसाइक्लिंग और पुनःउपयोग।"

लेकिन मेटाबोलिक दरार ने रिसाइक्लिंग की प्रक्रिया को बाधित कर दिया है। अगर हमने प्रकृति के साथ अपना व्यवहार नहीं बदला तो करोड़ों तरह के जीव-जंतु विलुप्त हो जाएंगे। क्योंकि जिस रफ़्तार से यह दरार बढ़ रही है तमाम जीव-जंतु उस रफ़्तार से तालमेल नहीं बिठा पाते।

करोड़ों साल से प्राकृतिक प्रक्रियाओं ने वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों को स्थिर बनाये रखा था। लेकिन पिछली शताब्दी में, ख़ास तौर पर पिछले तीस सालों में कार्बनडाई ऑक्साइड बहुत तेजी से बढ़ा है।

इकोलॉजी वैज्ञानिक बैरी कोमनर जिन्होंने 'क्लोजिंग सर्किल' लिखा था, मार्क्स के विचार से गहराई से प्रभावित थे। उन्होंने कहा-"इकोलॉजी का पहला नियम यह है कि हर किसी का हर चीज से सम्बन्ध है। ज़िंदा रहने के लिए हमें सर्किल को बंद करना पड़ेगा। हमें प्रकृति से उधार ली गयी सम्पदा को संरक्षित करना सीखना होगा।"

पर्यावरण की लड़ाई लड़ रहे आज करोड़ों लोग कॉमनर के इस निष्कर्ष को एक दूसरे के साथ साझा कर रहे हैं कि "हमारे सामने घटते-घटते सिर्फ दो विकल्प बचे हैं। पहला -तार्किक और सामाजिक संगठन बनाकर पृथ्वी की प्राकृतिक सम्पदाओं का वितरण हो। दूसरा-एक नए तरह के बर्बर युग का सामना करने को तैयार हो जाओ।

साम्राज्यवाद 

मार्क्स ने पूँजीवाद की गहरी जांच पड़ताल की और उन्होंने अपने समय के पूंजीवाद की गतिशीलता को समझा और जाना कि वास्तव में यह कैसे काम करता है।

उन्होंने देखा कि मुनाफे के लिए अलग अलग पूंजीपतियों में गलाकाट प्रतियोगिता है। इस प्रतियोगिता में छोटे पूंजीपति को बड़ा पूंजीपति निगल जाता है। यह प्रतियोगिता एकाधिकारी पूंजीवाद तक चलती रहती है। इस प्रक्रिया में लाखों मजदूर बेरोजगार की फ़ौज में शामिल हो जाते हैं। पूरा समुदाय और पारिस्थितिकी तंत्र तहस-नहस हो जाता है। राष्ट्रों को गुलाम बना लिया जाता है और विश्व के ऊपर युद्ध के बादल मंडराने लगते हैं। पूरा विश्व साम्राज्यवादी लुटेरे राष्ट्रों और आर्थिक गुलाम और पीड़ित उपनिवेशों, अर्ध उपनिवेशों में बदल जाता है। यह सब मिलकर एक वैश्विक पर्यावरण संकट को पैदा करते हैं।

अमरीका के मार्क्सवादी जॉन बेलामी फ़ॉस्टर ने कहा है-

वर्त्तमान संकट से निपटने के लिए तब तक कोई पर्यावरण क्रान्ति नहीं हो सकती जब तक कि वह साम्राज्यवाद विरोधी न हो और मानवता के ऊपर आये इस संकट में बहुतायत जनता को आकर्षित न करे।

इस तरह वैश्विक पर्यावरण आंदोलन पीड़ितों की एकता का आंदोलन होना चाहिए,जो असंख्य छोटे छोटे विद्रोह से मिलकर दुनियाभर के मजदूरों और लोगों के एक अंतरराष्ट्रीय आंदोलन की ओर अग्रसर होगा।

"गरीबों को धरती विरासत में मिलेगी या विरासत के लिए कोई धरती नहीं बचेगी" 

पूंजीवाद की मुनाफे के लिए प्रेत (जोम्बी) जैसी लालसा 

हॉरर फिल्म के शौकीन जोम्बी से खूब परिचित होंगे। एक मरा हुआ आदमी जो फिर ज़िंदा होकर लौट आता है पर इस बार उसमें मानवीय गुण नहीं होते। वह सोच नहीं सकता। इंसानों को मारता है और खाता भी है।  पूँजीवाद भी मुनाफे के लिए जोम्बी जैसा व्यवहार करता है। 

शुरू से ही पूंजीपति ने प्रकृति और अतिरिक्त श्रम की लूट की है। इसे लोग पूंजीपति का अधिकार समझते हैं। संचित मुनाफे को पूंजीपति प्रकृति और अतिरिक्त श्रम की लूट के अगले चक्र में लगाता है।

परिभाषा के अनुसार पूंजीपति की सभी आर्थिक कार्यवाहियों के केंद्र में रहता है-अधिकतम मुनाफ़ा। इसकी अपनी प्रक्रिया के हिसाब से या तो वह अधिकतम मुनाफ़ा कमाता है या ज्यादा मुनाफ़ा कमाने वाले पूंजीपति के मुंह का निवाला बन जाता है।

जिस पूंजीपति को मुनाफा होता है वह उत्पादन करता जाता है। यह प्रक्रिया पूँजीवाद को अतिउत्पादन के पुराने संकटों की ओर ले जाती है। ऐसे माल से बाजार भर जाते हैं जिन्हें खरीदना लोगों के वश की बात नहीं होती। ऐसे माल भी होते हैं जिनकी आमतौर पर लोगों को जरूरत भी नहीं होती।

इस समस्या से निपटने के लिए ऐडवर्टाइज़मेंट और फाइनेन्स उद्योग आता है। जो माल बिक नहीं रहा उसका प्रचार, जो लोग खरीद नहीं पारहे उनके लिए ऋण की व्यवस्था। इस तरह पूंजीवादी व्यवस्था सिर्फ अतिरिक्त श्रम की ही लूट नहीं करती, लोगों को कर्जदार भी बनाती है। सिर्फ तनख्वाह लेने वाले गुलाम ही नहीं, कर्ज लेने वाले गुलाम भी तैयार करती है। 

मार्क्स ने पूंजीवाद में आने वाले चक्रीय संकट की तुलना उस जादूगर से की है जो अब उस दुनिया की शक्तियों को नियंत्रित करने में सक्षम नहीं है जिसे उसने अपने मंत्र द्वारा बुलाया है"। आर्थिक संकट भी पूँजीवाद के नियंत्रण से बाहर हैं। 

पूँजीवाद का मुनाफे के लिए पागलपन किसी व्यक्ति की तर्क से परे की चीज है। पूंजी अधिकतम मुनाफे की मांग करती है। कॉर्पोरेट सीईओ किसी को भी मारने, नष्ट करने और चाहे जो करना हो वह करने के लिए तैयार रहते हैं। जब तक यह व्यवस्था रहेगी तब तक अतिरिक्त श्रम और प्रकृति की लूट चलती रहेगी। क्योंकि इसी पर यह व्यवस्था टिकी है। 

कब्र खोदने वाले 

हालांकि, मार्क्स ने यह भी भविष्यवाणी की थी कि पूंजीवाद अपने कब्र खोदने वाले पैदा करता है। वह बहुतायत में ऐसे लोग तैयार करता है जिनके पास ज़िंदा रहने के लिए अपना श्रम बेचने के अलावा कुछ विकल्प नहीं होता। यह है मेहनतकश वर्ग- या 99 प्रतिशत।

पूंजीवाद में --
  • श्रम का समाजीकरण बढ़ता है जबकि उत्पाद पर मालिकाना कुछ चाँद हाथों में सिमटता चलता है।
  • मेहनतकश वर्ग सिर्फ संख्या में नहीं बढ़ता बल्कि यह पहले से ज्यादा सघन होता चलता है और वर्ग के रूप में इसकी ताकत बढाती चलती है।
  • मध्यम वर्ग और कुछ पूंजीपति भी कंगाल होकर मेहनतकश वर्ग में शामिल हो जाते हैं। 
  • एक जैसे मशीनीकरण से दुनियाभर में मेहनतकश वर्ग की काम करने की परिस्तिथियाँ और तनख्वाह, जीवन स्तर लगभग एक जैसा हो जाता है।
चेतना बढ़ना 

मार्क्स ने भविष्यवाणी की थी कि ९९ प्रतिशत की पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष से चेतना लगातार बढाती जायेगी क्योंकि पूंजीवाद प्रकृति और लोगों के खिलाफ काम करके लोगों को संघर्ष के लिए मजबूर करेगा।

विद्रोहियों और क्रांतिकारियों ने संघर्षों से सीखा है कि ९९ प्रतिशत की एकता ही सबसे अच्छा शिक्षक है।

रूसी क्रांतिकारी नेता व्लादिमीर लेनिन ने तर्क दिया कि क्रांतिकारियों को सामने आना चाहिए और ट्रेड यूनियनों के मजदूरी बढ़ाने और स्थितियों में कुछ सुधार करने की संकीर्ण मांग से बाहर निकालकर पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष के लिए एकजुट करना चाहिए।

अपनी प्रसिद्ध पुस्तक, क्या करें? में लेनिन ने तर्क दिया: "मेहनतकश वर्ग की चेतना तब तक वास्तविक राजनीतिक चेतना नहीं हो सकती है जब तक कि मेहनतकश वर्ग को अत्याचार, उत्पीड़न, हिंसा और दुर्व्यवहार के सभी मामलों का जवाब देने के लिए प्रशिक्षित नहीं किया जाता है।"

चेतना में बदलाव केवल तभी हो सकता है जब उत्पीड़ित वर्ग "अपने आसपास की परिस्तिथियों से, राजनैतिक तथ्यों और घटनाओं से" विभिन्न वर्गों के व्यवहार को सीखे और "सभी तरह के उत्पीड़न" के खिलाफ संघर्ष में इस समझ को लागू करें।

"सभी तरह के उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष" का आज निचोड़ है-जलवायु संकट के खिलाफ लड़ाई क्योंकि पर्यावरण संकट अस्तित्व के लिए खतरा है।

20 सितम्बर को ग्लोबल क्लाइमेट स्ट्राइक हुई। इसमें 185 देशों ने, 73 ट्रेड यूनियनों ने, 3024 व्यापारिक संस्थाओं, 820 विभिन्न संगठनों और 8583 वेबसाइट ने भागीदारी की। पूरी बहस जीवाश्म ईंधन (कॉल और पेट्रोलियम) के जलाने पर आकर टिक गयी। पूंजीवाद ने इसको जलाने से रोकने पर नौकरियों का रोना रो दिया। इन संगठनों के पास इसका कोई जवाब नहीं था। जबकि इसका विकल्प लेकर उत्पीड़ित जनता को गोलबंद किया जाना चाहिए। 

जब तक यह लड़ाई पूँजीवाद के खिलाफ संगठित नहीं होगी तब तक पूंजीपति वर्ग इसे भटकाते रहेंगे।

समाजवाद या कुछ और

आज पारम्परिक ऊर्जा श्रोतों पर खूब बहस है। जीवाश्म ईंधन के विकल्प के तौर पर इसे देखा जा रहा है। तमाम वैज्ञानिक और रिसर्च संस्थान इनके उपयोग की बात कर रहे हैं। पर पूंजीवाद इसे लागू क्यों करेगा? वह किसी भी नयी तकनीकी को इसलिए लाता है कि उसका मुनाफ़ा दिन दूना रात चौगुना बढे। उसे इंसानियत और प्रकृति की परवाह नहीं। उसके हिसाब से हमें सब कुछ बाजार के ऊपर छोड़ देना चाहिए। धीरे-धीरे वह समय आएगा जब पारम्परिक ऊर्जा श्रोत भी पूंजीपति को मुनाफ़ा देने लगेंगे और वह अपनी फैक्ट्री और मशीनों को चलाने के लिए जीवाश्म ईंधन का त्याग कर देगा। 

पहली बात तो यह कि क्या हमारे पास इतना इफरात समय है कि हम पूँजीवाद को एक मौक़ा और दें? यानी हाथ पर हाथ रखकर धरती को बर्बाद होते देखते रहें। दूसरी बात क्या पूंजीवाद तकनीकी बदलकर प्रकृति और अतिरिक्त श्रम की लूट बंद कर देगा। यानी क्या वह अपने हृदय की धड़कन को अपने आप बंद कर लेगा। कि हे क्रांतिकारी और पर्यावरण प्रेमियों आपकी सदिच्छा का सम्मान करते हुए मैं खुद के प्राण त्याग रहा हूँ।

न तो हमारे पास इतना समय है कि बाजार भरोसे धरती को मरने दें न पूँजीवाद कभी अपने हृदय कि धड़कन खुद बंद करेगा। इसलिए जरूरी है कि हम सभी उत्पीड़ितों को मिलकर पूँजीवाद के हाथ से अर्थव्यवस्था को छीनना होगा। इस पूंजीवाद की जगह एक नयी व्यवस्था लानी होगी। ऐसी व्यवस्था जो इस धरती पर रहने वाले सभी मनुष्यों के लिए, नदियों के लिए, झरनों के लिए, जीव जंतुओं के लिए मतलब हर सजीव और निर्जीव के लिए अनुकूल हो। जिसमें किसी का दम न घुटे। ऐसी उत्पादन व्यवस्था जिसमें ऊर्जा की खपत कम से कम हो। मानव श्रम को ऊर्जा के रूप में इस्तेमाल हो।

अब आप इसे समाजवाद कहिए या कोई और नाम दो। पर यही इस धरती का भविष्य है। यह हम सब की जरूरत है। 

यह लेख मंथली रिव्यू के एक लेख का भावानुवाद है। मूल लेख अंग्रेजी में है। उसे पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जा सकते हैं--
Marx’s lessons for today’s climate rebels
अनुवाद-- राजेश कुमार

Tuesday, 24 September 2019

ग्रेटा ने दुनिया भर के हुक्मरानों को चेतावनी दी, माफ नहीं करेगी युवा पीढ़ी


(प्रस्तुति : अनिल अश्विनी शर्मा , साभार डाउन टू अर्थ, 24 सितम्बर 2019)
16 साल की ग्रेटा थुनबर्ग ने दुनिया भर के नेताओं से पूछा, आपने जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए कोई ठोस कार्रवाई क्यों नहीं की?
संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन एक्शन समिट को
संबोधित करती 
16 साल की जलवायु कार्यकर्ता ग्रेटा थुनबर्ग
सोमवार को संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन कार्रवाई समिट की शुरूआत में ही जलवायु कार्यकर्ता के रूप में विश्व भर में अपनी पहचान बनाने वाली 16 वर्षीय ग्रेटा थनबर्ग ने सीधे दुनिया भर के नेताओं को चेतावनी दे डाली कि यदि आपने जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए ठोस निर्णय नहीं लिया तो विश्व भर के युवाओं के साथ धोखा होगा और वे कभी भी आपको माफ नहीं करेंगे।
समिट को संबोधित करते हुए ग्रेटा ने विश्व भर के नेताओं की कटु आलोचना की और बार-बार कहा कि आपकी अब तक हिम्मत कैसे हुई कि आप सभी ने जलवायु परिवर्तन के खिलाफ अब तक किसी प्रकार की कार्रवाई नहीं की। वास्तव में आप सभी आज भी पूरी तरह से पर्याप्त परिपक्व नहीं हुए हैं। अब भी आप सभी के कार्य यह बताते हैं कि आप अभी अपरिक्व हैं।
अपने भाषण में बार-बार का वह न केवल गुस्से से उत्तेजित होती रही, बल्कि उनकी आंखों में आंसू भी आए। ग्रेटा के भाषण को संयुक्त राष्ट संघ के महासचिव ने अपनी कुर्सी से काफी झुक कर ध्यान से उसके कहे एक-एक शब्द सुन और उसकी कही बातों में अपनी सहमति में सिर हिला रहे थे।
ग्रेटा ने अपने भाषण में कहा कि आप लोगों को यह सोचना चाहिए कि भविष्य की पीढ़ियों की नजर आप पर है और आप हैं कि हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। वे चेतावनी भरे लहजे में कहती हैं कि अगर आप हमें असफल करना चाहते हैं, तो मैं कहती हूं, हम  सभी आप  सभी को जीवन पर्यंत माफ नहीं करने वाले। वह आगे कहती हैं कि आप हमें असफल कर रहे हैं लेकिन हम युवा लोग आपके विश्वासघात को अब समझने लगे हैं।
ग्र्रेटा ने न्यूयॉर्क स्थित संयुक्त राष्ट्र संघ में दुनियाभर की सरकारों के प्रमुखों, व्यापार जगत के नेताओं और दुनिया भर के नागरिक समाज के वरिष्ठ प्रतिनिधियों को संबोधित कर रही थीं। दिन भर चले कार्यक्रम में जलवायु परिवर्तन को मात देने के लिए विश्व के कई देशों ने अनेक दूरगामी कदमों को उठाने का वादा किया। ग्रेटा ने अपने भाषण के दौरान कई देशों के नेताओं को बुरी तरह से झकझोर दिया।
उन्होंने कहा कि अब वक्त आ गया है कि दुनियाभर के नेताओं को अब इस विषय पर गहन विचार विमर्श कर इसका त्वरित हल निकालना होगा। ग्रेटा ने कहा आप सभी लोगों ने मिलकर दुनियाभर के बच्चों का बचपन नर्क बना दिया है जहां दुनियाभर के जल स्त्रोत, हवा और जमीन सभी प्रदूषित हो चुके हैं। उन्होंने कहा बचपन तो छिना ही साथ ही हमारे सपनों को समय से पहले ही रौंद दिया।
उन्होंने भाषण में कहा कि वास्तव में अनगिनत बच्चों के सपनों को आप सभी ने अपने लुभावने वायदे से कुचल डाला। आप लोगों की करनी की ही देन है कि आज पूरी दुनिया की परिस्थितिकी खत्म हो चली है। उन्होंने विश्व के नेताओं पर कुछ न करने का आरोप लगाया। अपने संबोधन के दौरान ग्रेटा कई बार भावुक और गुस्ते से तिलमिलाती नजर आईं और ऐसी स्थिति में वह कुछ देर के लिए रूक भी कईं और फिर पूरे आवेश के साथ बोलीं, आपने हम सब युवाओं को असफल कर दिया हैं। हम सबकी आंखें आप लोगों पर हैं और अगर आपने हमें फिर से असफल किया तो हम आपको कभी माफ नहीं पाएंगे। आपको यहां के सम्मेलन में इसी वक्त इस बात के लिए निर्णय लेना होगा। दुनिया अब पूरी तरह से जाग चुकी है और चीजें बदलने वाली हैं, चाहे आपको यह अच्छा लगे या फिर न लगे।
समिति को जब ग्रेटा ने बोलना शुरू किया तो संयुक्त राष्ट्र के महासचिव सहित विश्व भर के नेताओं को अंदाजा नहीं था कि यह युवा बच्ची अपने सवालों से सभी की बोलती बंद कर देगी और किसी के पास उसके सवालों का जवाब नहीं होगा। ग्रेटा के भाषण को संयुक्त राष्ट्र के महासचिव सहित कई नेताओं ने प्रशंसा की।

अक्षरश: पढ़िए ग्रेटा थनबर्ग का भाषण

(प्रस्तुति : विवेक मिश्र, साभार डाउन टू अर्थ, 24 सितम्बर 2019)

मेरा संदेश यह है कि हम आपको देखते रहेंगे
(तालियां…)
यह सब गलत है। मुझे यहां नहीं होना चाहिए बल्कि महासागर के उस पार वापस स्कूल में होना चाहिए। फिर भी आप सभी लोग हम युवा के पास आशा के लिए आए हैं !
आप की हिम्मत कैसे हुई!
(भावुकता से…)
आपने अपने खोखले शब्दों से मेरे सपने और मेरा बचपना चुरा लिया है। फिर भी मैं भाग्यशाली लोगों में से एक हूं। लोग भुगत रहे हैं। लोग मर रहे हैं। समूची पारिस्थितिकी व्यवस्था ढह रही है। हम सामूहिक विलुप्ति की चौखट पर हैं।
(रुंधे गले से..)
और आप सभी लोग धन और शाश्वत आर्थिक विकास की काल्पनिक कथाओं के बारे में बात कर रहे। आप लोगों की यह हिम्मत हुई कैसे? 
(तालियां…)
30 वर्षों से अधिक हो गए, विज्ञान पारदर्शी शीशे की तरह स्पष्ट कर चुका है। जब राजनीति और समाधान की जरूरत है, तब भी वह सुदूर कहीं नजर नहीं आती। किस साहस के साथ आप यहां कह रहे हैं कि हमने पर्याप्त काम कर दिया है और आगे भी देखना जारी रखेंगे।   
आप कहते हैं कि आप हमें (युवाओं को) सुनते हैं और आपको तात्कालिकता समझ में आती है। लेकिन यह कोई मायने नहीं रखता कि मैं कितनी दुखी और गुस्से में हूं। मैं इस पर (आपके कदमों पर) यकीन नहीं करना चाहती। क्योंकि यदि आप वाकई स्थितियों को समझते हैं और लगातार कार्रवाई करने में विफल हो रहे हैं, तो आप बुरा ही करेंगे। और इसलिए मैं यकीन करने को खारिज करती हूं।
(तालियां…)
10 वर्षों में हमारे उत्सर्जन में आधी कटौती का लोकप्रिय विचार हमें सिर्फ तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस नीचे बनाए रखने का 50 फीसदी मौका और मानव नियंत्रण से परे कभी न बदले जा सकने वाले बदलावों की श्रृंखला का जोखिम भर देता है। 
हो सकता है 50 फीसदी आपको स्वीकार हो। लेकिन उन संख्याओं में छोटे-छोटे बदलावों के बिंदु, अधिकांश प्रतिक्रियाओं, जहरीले वायु प्रदूषण में छिपी अतिरिक्त गर्मी अथवा समानता और जलवायु न्याय के पहलू शामिल नहीं है।
बड़ी मुश्किल से मौजूद तकनीकी के साथ हवा के बाहर आपके अरबों टन कार्बन डाई ऑक्साइड को सोखेने वाली मेरी पीढ़ी पर वो भी भरोसा करते हैं। इसलिए 50 फीसदी का जोखिम स्वीकार योग्य नहीं है हम (मेरी पीढ़ी) वह है जो दुष्परिणामों के साथ जी रही है।
वैश्विक तापमान की बढ़ोत्तरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस नीचे रखने का मौका 67 फीसदी है। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज ने इस बारे में बेहतरीन सांख्यिकी पेश की है। 1 जनवरी, 2018 को दुनिया के पास कॉर्बन डाई ऑक्सीजन उत्सर्जित करने की सिर्फ 420 गीगाटन है जो कि पहले से ही गिरकर यह संख्या अब 350 गीगाटन पर पहुंच चुकी है। 
आपकी हिम्मत कैसे हुई ? कछ तकनीकी समाधानों और बेहद लचीले रवैये से ही निदान के बारे में सोचने की। आज के उत्सर्जन स्तर को देखते हुए कहा जा सकता है कि शेष बचा हुआ समूचा "सीओटू बजट" साढ़े आठ वर्षों से भी कम समय में खत्म हो जाएगा।
इन आंकड़ों के साथ आज कोई भी समाधान और योजना पेश नहीं की गई। क्योंकि यह संख्याएं बेहद असहज करने वाली हैं। और आप अभी तक यह बताने के लिए पर्याप्त तरीके से परिपक्व नहीं हो पाएं हैं।
आप हमें विफल कर रहे हैं। लेकिन युवा पीढ़ी आपके विश्वासघात को समझना शुरु कर चुकी है। भविष्य की पीढ़ी अपनी आंखे आप पर टिकाए हुए है। अगर आप हमें विफल करने की कोशिश करेंगे तो हम आपको कभी माफ नहीं करेंगे।
(शाबासी और तालियां…)
हम आपको इससे दूर भागने नहीं देंगे। यहीं और अभी हम क्या रेखा खींच रहे हैं? यह दुनिया जग रही है। बदलाव आ रहा है। आप उसे चाहें या न चाहें।
धन्यवाद

Sunday, 22 September 2019

ओजोन परत की क्षय से बढती बीमारियाँ

आलेख प्रस्तुत करते हुए समर्थ बंसल 

धरती के ऊपरी सतह पर ओजोन की परत होती है, जो हमें पराबैगनी किरणों से बचाती है। लेकिन ओजोन की मात्रा में कमी से यह परत कहीं-कहीं नष्ट हो जाती है। इनसानी शरीर ,पौधों, सागरीय पारितंत्र और पारिस्थितिक चक्र पर इसका भयानक प्रभाव पड़ता है। इन्हीं किरणों के कारण चर्म-कैंसर, मोतियाबिंद जैसे रोग हो जाते हैं और ये किरणें धरती का तापमान बढ़ाकर ग्लोबल वार्मिंग में सहायक होती हैं। 2018 की संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार ओजोन परत में सुधार आ रहा है और उम्मीद जताई गयी कि 2030 में गैर-ध्रुवीय उत्तर और 2050 में गैर ध्रुवीय दक्षिण गोलार्ध में यह परत पूरी तरह ठीक हो जायेगी। लेकिन यह महज अनुमान है। सच कुछ और है। कई देशों में सीऍफ़सी का अवैध उत्पादन निरंतर जारी है, जो ओजोन की परत को तेजी से नष्ट करने के लिए जिम्मेदार है। चीन और भारत दो ऐसे देश हैं जहां यह अवैध धंधा अपने पूरे जोर पर है। इन देशों के उद्योगों में ओजोन परत की क्षय के लिए जिम्मेदार गैसों का इस्तेमाल धडल्ले से हो रहा है। उद्योग के मालिक मुनाफा बढाने के लिए इन गैसों का इस्तेमाल करते हैं क्योंकि ये सस्ती पड़ती हैं। 2018 की नासा की रिपोर्ट बताती है कि ओजोन परत में छेद का क्षेत्रफल अंटार्कटिका पर 229 लाख वर्ग किलोमीटर हो गया है।


ओजोन परत क्या है?

ओजोन परत पृथ्वी के वायुमंडल की ऊपरी सतह पर एक ऐसी परत होती है जो ओक्सीजन के तीन परमाणुओं से मिलाकर बनी होती है। यह मुख्यतः स्ट्रेटोस्फीयर के निचले भाग में पृथ्वी की सतह के ऊपर लगभग 10 किलोमीटर से 50 किलोमीटर की दूरी तक स्थित होती है। जब सूर्य की पराबैगनी किरणें ओक्सीजन के अणु (O2) से टकराती है तो वह दो परमाणु (2O) में टूट जाता है, जो बचे हुए  ओक्सीजन के अणु (O2) से जुड़कर ओजोन (O3)  बनाता है।

ओजोन परत की महत्व

ओजोन परत सूर्य से आने वाली पराबैगनी किरणों को सोख लेती है जो बहुत ज्यादा हानिकारक होती हैं। यह किरणें न केवल मनुष्य के लिए, बल्कि पृथ्वी पर जीवित प्रत्येक जीव के लिए बेहद हानिकारक हैं। यह परत अगर न हो तो सारा रेडिएशन पृथ्वी पर पहुंचकर सभी मनुष्यों और पौधों के डीएनए को नुकसान पहुंचाता है , ग्लेशियर के पिघलने की दर में वृद्धि हो जाती है, और पूरी दुनिया के बंजर रेगिस्तान बनने तथा छोटे-छोटे जीवों और जीवाणु का अस्तित्व खत्म होने की पूरी सम्भावना बन जाती है।

ओजोन परत को हानि पहुंचाने वाली गैसे

क्लोरो-फ्लोरो-कार्बन (सीएफसी), हाइड्रो-क्लोरो-फ्लोरो-कार्बन (एचसीएफसी), हाइड्रो-ब्रोमो-फ्लोरो-कार्बन, हैलोंस, मिथाइल ब्रोमाइड, कार्बन टेट्राक्लोराइड और मिथाइल क्लोरोफॉर्म गैसें ओजोन परत को नुकसान पहुंचाती हैं। इन गैसों के स्त्रोत इस तरह हैं--

1.    ये गैसें मुख्यतः निजी व सरकारी गाड़ी, बसों के एयर कंडीशनर, घरों व  बाजार में 
      इस्तेमाल आने वाले फ्रिज से, परफ्यूम आदि एरोसोल स्प्रे से निकलती हैं।
2.    ये द्रावक की तरह इस्तेमाल में लाई जाती हैं।
3.    इनका इस्तेमाल गैर प्रतिक्रियाशील कंटेनर व पाइपों को बनाने में होता है।
4.    क्लोरो-डाईफ्लोरो-मीथेन का इस्तेमाल टेफ़लोन बनाने के लिए किया जाता है, जो नॉन 
      स्टिक कडाही, तवे और अन्य बर्तन बनाने में मुख्य रूप से इस्तेमाल होती है।
5.    ये गैसें सर्जिकल उपकरणों और उपसाधनों को बनाने में इस्तेमाल होती हैं ।
6.    फोम उद्योगों में भी ये गैसें इस्तेमाल होती है।

कैसे ये गैसें ओजोन परत की क्षति के लिए जिम्मेदार हैं

ये गैसें ओजोन (O3) के अणुओं को तोड़कर ओक्सीजन के अणु में बदलाव को तेज कर डालती हैं। एक अनुमान यह बताता है कि इन गैसों से निकला क्लोरिन का एक परमाणु जो फ्री रेडिकल के फार्म में होता है, वह ओजोन के एक लाख अणुओं को ओक्सीजन के अणुओं में बदल देता है।

ओजोन परत की क्षय  के परिणाम व प्रभाव

●     पराबैगनी किरणों के कारण मानव शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली पर बहुत अधिक दुष्प्रभाव 
      पड़ता है। नॉन-मेलानोमा और मेलानोमा चर्म-कैंसर, मोतियाबिंद आदि बीमारियों की 
      सम्भावना बहुत बढ़ जाती है।
●     पेड़ पौधों के शारीरिक विकास पर और न्यूट्रिएंट्स की विनिमय प्रणाली पर असर पड़ता है।
●     फाइटोप्लांकटोन सागरीय पारितंत्र का आधारभूत जीव है। पराबैगनी किरणों से इनका 
      जीवन दर घट जाता है और मछली, केकड़े, झींगे आदि जीव के विकास पर भी दुषप्रभाव 
      पड़ता है।
●    सभी प्रकार के जैव रासायनिक चक्रों पर प्रभाव पड़ता है जिसके कारण ग्रीन हाउस व 
     अन्य जरूरी गैसों के बनने और टूटने में बड़ा बदलाव आता है। ये सभी बदलाव 
     हमारे जैवमंडल और जलवायु पर भयानक प्रभाव डालते हैं।
●   क्लोरो-फ्लोरो-कार्बन, हाइड्रो-क्लोरो-फ्लोरो-कार्बन में बहुत अधिक मात्रा में ग्रीनहाउस प्रभाव 
    को बढ़ा देती हैं, जिसके चलते धरती का तापमान बढ़ता जाता है।

ओजोन परत की क्षय कौन है जिम्मेदार

इन्वारामेंट इन्वेस्टीगेशन एजेंसी की 2016-18  की रिपोर्ट के अनुसार चीन में फोम उद्योगों के लिए मुख्य तौर पर सीएफसी-11 का अवैध उत्पादन होता है। संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम की 2007 की रिपोर्ट के अनुसार, 2012-16 के बीच चीन ने 5,40,000 टन पोलिओल्स का निर्यात रूस, भारत, अमेरिका, मलेशिया, थाईलैंड, इंडोनेशिया, श्रीलंका, पाकिस्तान, वेतनाम, बांग्लादेश को किया था। पोलिओल्स से कम पैसे में बेहतर फोम मिलता है। विकसित देशों में अविकसित टेक्नोलॉजी वाले यंत्र इन्हीं गैसों पर निर्भर हैं। इस्तेमाल किए हुए एसी, फ्रीज आदि उपकरणों के भारी निर्यात के चलते भी इन गैसों का उत्सर्जन ज्यादा हो रहा है। ये आयातित उपकरण नये उपकरणों से काफी सस्ते पड़ते हैं। ओजोन परत की क्षय के लिए ऐसी कम्पनियां ही जिम्मेदार हैं, जो क्षरण को बढाने वाली गैसों का धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रही हैं। पूरे विश्व में ऐसी गैसों का अवैध व्यापार निजी हितों के लिए क्योंकि इस अवैध व्यापार में भारी मुनाफा कमाने का मौक़ा मिलता है।

-- समर्थ बंसल

Thursday, 19 September 2019

पिघलते ग्लेशियर सूखती नदियाँ

पिछले कुछ सालों में पूरे विश्व में हुए औद्योगिक विकास के कारण पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है। इसे ग्लोबल वार्मिंग कहा जाता है। पृथ्वी के गर्म होने से दुनिया भर में कई ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। यहाँ तक कि कई ग्लाशियर खत्म होने के कगार पर हैं जिससे पर्वतीय क्षेत्रों का जनजीवन प्रभावित हो रहा है। इसके तात्कालिक और दूरगामी प्रभाव मैदानी इलाकों और समुद्र पर भी प्रकट होना शुरू हो चुके हैं।

सेमिनार में आलेख प्रस्तुत करते सुधीर
 

ग्लेशियरों के मरने के कारण 

दुनिया भर में अन्धाधुन्ध औद्योगिक विकास के कारण प्राकृतिक संसाधनों का तेजी से इस्तेमाल किया जा रहा है। इससे प्रदूषण का बढ़ जाना लाजमी है। दूसरी तरफ भूमि की पूर्ति के लिए जंगलों को साफ कर वहाँ से खनिज सम्पदा निकले जा रहे हैं, वहाँ कल-कारखाने लगाए जा रहे हैं। फलतः बेतहाशा कार्बन का उत्सर्जन हो रहे हैं और वैश्विक स्तर पर तापमान में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। 1990 से 2000 के बीच तापमान में 0.42 से 0.57 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई थी।2015 तक 1 डिग्री सेल्सियस से अधिक वृद्धि हो चुकी है। बढ़ते तापमान के कारण ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। अगर वैश्विक तापमान इसी दर से बढ़ता रहा तो बहुत से ग्लेशियर जल्द ही खत्म हो जायेंगे। 

1970 के दशक से हिमालयी क्षेत्र के कई हिस्सों में ग्लेशियर पिघलने शुरू हो गए थे जो बहुत चिंता का विषय है। हिमालय के ग्लेशियर पर अध्ययन कर तैयार की गयी काठमांडू पोस्ट के एक रिपोर्ट (आईसीएमओडी) में यह अनुमान लगाया गया है कि सौ सालों से भी कम समय में भारत में ग्लेशियर कि जगह चट्टान नजर आयेंगे और इसकी वजह से हिन्दू-कुश हिमालयी क्षेत्रों से जुड़े सभी 8 देश प्रभावित होंगे। इस रिपोर्ट में यह बात कही गयी है कि ग्लेशियरों के पिघलने का कारण ग्रीन हाउस गैसों का बड़े पैमाने पर उत्सर्जन हैं और यदि 2015 के पेरिस समझौते को न मानकर मौजूदा दर से ही इन गैसों को उत्सर्जित किया जाएगा तो 2100 तक हिन्दू-कुश क्षेत्र की एक तिहाई बर्फ पिघल जायेगी। 

ग्लेशियर पिघलने की दर 

हिमालय के 75 प्रतिशत ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिंग के कारण पिघल रहे हैं। इसरो ने 2011 में एक रिपोर्ट जारी करके बताया था कि 1989 से 2004 के बीच हिमालय के ग्लेशियरों का 3.75 प्रतिशत क्षेत्रफल कम हुआ है। इसके पहले इसरो ने 2010 में 1317 ग्लेशियरों का अध्ययन किया था जिसमें यह तथ्य सामने आया कि 1962 से 2010 तक हिमालय के 16 प्रतिशत ग्लेशियर पिघल चुके हैं। 

गंगोत्री ग्लेशियर पिछले कई दशकों से हर साल 18.8 मीटर की दर से पिघल रही है जिससे इसका क्षेत्रफल लगभग 1.15 वर्ग मीटर सिकुड़ गया है। ग्लेशियर के पिघलने की दर का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि  गंगा नदी का बहाव ग्लेशियर के नीचे से होने के बजाय सतह के ऊपर से हो रहा है। 

साइन्स एडवांसेज की एक रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि हिमालय के 10 हजार ग्लेशियरों में 60 हजार करोड़ तन के करीब बर्फ मौजूद है और हर साल लगभग 800 करोड़ बर्फ पिघल रही है। इस रिपोर्ट के अनुसार 1975 से 2000 के बीच ग्लेशियर हर साल लगभग 10 इंच पिघल रहे थे लेकिन इसके बाद 2003 से 2016 के बीच ग्लेशियर के पिघलने की रफ्तार दोगुनी हो गयी। हिमालय के गंगोत्री, यमुनोत्री, सतोपंथ, चौराबी, भागीरथी, खर्क जैसे ग्लेशियरों का भी अस्तित्व खतरे में है। इसका सीधा प्रभाव भारत, पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेश, भूटान और आस पास के देशों पर पड़ेगा। और इसका नुकसान इन देशों में रहने वाली गरीब जनता को झेलना पड़ेगा। 

बड़े ग्लेशियरों की तुलना में छोटे ग्लेशियर अधिक तेजी से पिघल रहे हैं जिसके कारण समुद्र तल के 10 इंच तक बढ्ने का अनुमान है। समुद्र तल में 10 इंच बढ़ोतरी का अर्थ है, तटीय क्षेत्र और द्वीप जलमग्न हो जायेंगे। अगर ऐसा होता है तो इन इलाकों में जनजीवन तबाह हो जाएगी। साथ ही बड़े पैमाने पर शरणार्थियों के उमड़ आने का खतरा होगा। 

ग्लेशियर के पिघलने के शुरुआती प्रभाव 

तेजी से पिघलते बर्फ के कारण ग्लेशियरों से निकालने वाली नदियों में हर साल तापमान परिवर्तन के साथ ही बाढ़ की स्थिति बनी रहती है। भारत में बाढ़ का संकट हर साल गहराता जा रहा है। बाढ़ के पानी से खेती नष्ट हो जाती है। इससे जान-माल की क्षति तो होती ही है, इसके बाद रोग का खतरा बढ़ जाता है। हर साल बाढ़ के कारण मरने वाले लोगों और जीव जंतुओं की संख्या में इजाफा हो रहा है। ग्लेशियरों के पिघलने और बनाने में असंतुलन की स्थिति से जल चक्र बुरी तरह प्रभावित होता है जिससे अलग अलग क्षेत्रों में असमान वर्षा एक साथ कहीं बाढ़ कहीं सूखा की स्थिति पैदा करती है। नदियों का पानी समुद्र में पहुँचने पर समुद्र तल ऊपर उठ रहा है जिससे तटीय क्षेत्र सिकुडते जा रहे हैं। 1970 से 2014 के बीच आर्कटिक की 40 प्रतिशत बर्फ पिघल चुकी है जिससे समुद्र के जलस्तर और तापमान में तेजी से वृद्धि हुई है। 

ग्लेशियर के पिघलने के दूरगामी प्रभाव 

ग्लेशियरों के लगातार पिघलने के कारण छोटे ग्लेशियरों के बहुत जल्दी खत्म होने की आशंका है। इन ग्लेशियरों से निकालने वाली नदियों का क्षेत्रफल लगातार घटता जा रहा है। हिमालय से निकालने वाली नदियों और इनसे जुड़ी मौसमी अफवाह की नदियों के ऊपर लगभग 80 करोड़ लोग निर्भर हैं। पेय जल, दैनन दिन के कार्यों, खेती के सिचाई, जल द्वारा विद्युत उत्पादन के लिए जल की पूर्ति इन्ही नदियों द्वारा होती है। भूमिगत जल की मात्र भी आस पास के नदियों में प्रवाहित हो रहे जल के मात्र से प्रभावित होती है। नदियों के सूखने का सीधा प्रभाव आम लोगों के जीवन स्तर और रहन सहन पर पड़ता है। जल की भारी कमी से पेय जल, खेती नष्ट होने, लगातार अकाल की वजह से भूमि बंजर होने की समस्या कई स्थानों पर दिखाई दे रहे हैं। वर्तमान में, हमारे देश के कई क्षेत्र सूखे से ग्रस्त हैं। भारत का 68प्रतिशत हिस्सा सूखा प्रभावित इलाका है जिसमें हर साल लगभग 33 प्रतिशत हिस्सा सूखे से प्रभावित रहता है। इससे हर साल लगभग 5 करोड़ लोग प्रभावित होते हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय भारत सरकार के अनुसार 1997 के बाद से देश में सूखा ग्रस्त क्षेत्र 57 प्रतिशत तक बढ़ गया है। 

हिमालय से निकालने वाली गंगा, यमुना, ब्रम्ह्पुत्र, सिंधु जैसी बड़ी नदियों के पानी में भी कमी मापी गयी है। उत्तर प्रदेश में नर्मदा, यमुना, टोंस, बेतवा, मन्दाकिनी और बाकी छोटी नदियों के आस पास के क्षेत्र पानी का संकट झेल रहे हैं। कई नदियाँ बालू रोड़ी खनन क्षेत्र में परिणित हो गयी हैं। 

हिन्दू-कुश हिमालय के पिघलने के परिणाम 

हिन्दू-कुश हिमालय के ग्लेशियर अंटार्क्टिका और ग्रीनलैंड के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा ग्लेशियर है। बढ़ते ग्लोबल वर्मिग के कारण 2100 तक इसका दो तिहाई हिस्सा गायब हो सकता है। हिन्दू कुश क्षेत्र, माउंट एवरेस्ट और के2 का घर इन सभी ग्लेशियरों का काफी महत्व है। इसमें 8 देशों अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, चीन, भारत, म्यांमार, नेपाल और पाकिस्तान में 3500 किमी का क्षेत्रफल शामिल है। इन ग्लेशियरों से दुनिया की 10 महत्वपूर्ण नदियाँ निकलती हैं, जिसमें गंगा, सिंधु, मेकांग और म्यांमार की इरावड़ी शामिल है। इसके अतिरिक्त येलो नदी और या हुआंग, जो एशिया की दूसरी सबसे लम्बी नदी है, भी शामिल हैं।  

Tuesday, 10 September 2019

जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संकट के आर्थिक-राजनीतिक कारण


लोगों के बीच जलवायु परिवर्तन के वैज्ञानिक और तकनीकी पहलुओं पर चर्चा होती रहती है। इसे
सेमीनार में आलेख प्रस्तुत करते विक्रम प्रताप 
प्रकृति से जोड़कर समझा जाता है। लेकिन इसके आर्थिक-राजनीतिक कारण पर लगभग चुप्पी साध ली जाती है। जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संकट की जड़ें विज्ञान-तकनीकी और प्रकृति में जितनी गहरी है, उससे कहीं अधिक गहरी इनसान की जिंदगी को बनाये रखने वाली सबसे जरूरी कार्रवाई में है-- यानी आर्थिक व्यवस्था और उसके राजनीतिक विस्तार में। इस आलेख में इन्हीं मुद्दों पर बात की जायेगी।

जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण प्रदूषण को अलग-अलग करके देखना चाहिए क्योंकि अगर हमारा पर्यावरण एक बार प्रदूषित हो गया तो उसकी सफाई हो सकती है लेकिन जलवायु परिवर्तन को पलटा नहीं जा सकता। हालाँकि पर्यावरण प्रदूषण 
मेरठ शहर में गंदगी का आलम 
बहुत भयावह होता जा रहा है। जैसे-- 2017 में वायु प्रदूषण के चलते भारत में 12.4 लाख लोगों की मौत हो गयी। पानी का संकट इतना बढ़ गया है कि देश की 60 करोड़ आबादी पानी की एकएक बूँद के लिए तरस रही है। दूसरी ओर भारत में हर साल इलेक्ट्रॉनिक सामानों से 38 लाख क्विन्टल कबाड़ पैदा हो रहा है। जबकि भारत में प्रतिदिन 25,490 टन प्लास्टिक कचरा भी निकलता है। ये सब देश में प्रदूषण के गहराते संकट को दिखाते हैं। 


जलवायु परिवर्तन
जलवायु परिवर्तन को पलटा नहीं जा सकता। इसलिए इसे इररिवर्सेबल क्राइसिस कहते हैं। जैसे—एक बार गेहूँ पीसकर रोटी बना दी जाये तो वापस उस रोटी को गेहूं में नहीं बदला जा सकता। इसी तरह मौजूदा जलवायु परिवर्तन को पलटा नहीं जा सकता क्योंकि यह ग्लोबल वार्मिंग से जुड़ा हुआ है। ग्लोबल वार्मिंग से धरती का तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है। इससे मौसम के पैटर्न में बहुत बड़े-बड़े हेर-फेर हो रहे हैं। जैसे—अधिक बारिश वाले इलाके में सूखा पड जा रहा है, उपजाऊ जमीन रेगिस्तान में तब्दील होती जा रही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश का भूगर्भ जल गिरता जा रहा है, जिसके चलते पूरा इलाका बंजर होने के कगार पर पहुँच गया है। यह सब इररिवर्सेबल क्राइसिस है।


ग्लोबल वार्मिंग के पीछे असली कारण ग्रीन हाउस गैसें हैं। 18वीं सदी के औद्योगिक क्रान्ति के बाद से दुनिया भर में उद्योग-धंधे बढ़ते जा रहे हैं। नतीजतन, वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा बढती जा रही है। ये गैसें सूरज की उष्मा को सोखकर धरती को गरमाये रखती हैं। इनकी मात्रा बढने का सीधा अर्थ है— धरती के तापमान में वृद्धि। पहले चार्ट से स्पष्ट है कि जीवाश्म ईंधन (पेट्रोलियम और कोयला) तथा उद्योग धंधों से 65 प्रतिशत कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जित होती है, जो एक मुख्य ग्रीन हाउस गैस है। 11 प्रतिशत कार्बन डाई ऑक्साइड जंगल और जमीन से उत्सर्जित होती है, जिसमें कृषि और घरेलू कामकाज मुख्य है। अगर हम दूसरे चार्ट पर निगाह डालें तो पता चलता है कि अमरीका के कुल कार्बन उत्सर्जन का 83 प्रतिशत हिस्सा यातायात, बिजली और उद्योग से आता है। इन क्षेत्रों में एक सामान्य इनसान का कोई हस्तक्षेप नहीं होता। इसलिए यह कहना सही नहीं है कि पर्यावरण संकट के लिए सब इनसान बराबर जिम्मेदार हैं। घरों में इस्तेमाल होने वाले खाना पकाने के साधनों से बहुत कम कार्बन उत्सर्जन होता है। दोनों चार्ट अमरीकी सरकार के आँकड़ों पर आधारित हैं।

ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव
मार्क लायनस ने एक किताब लिखी है जिसका नाम ‘सिक्स डिग्रीज’ है। उन्होंने जलवायु परिवर्तन पर वैज्ञानिक शोध के आंकड़ों को लेकर दिखाया है कि एक-एक डिग्री तापमान बढ़ने से कितने भयानक परिणाम सामने आ सकते हैं। जैसे—उन्होंने दिखाया कि एक डिग्री तापमान बढ़ने से अमरीका के कई इलाके रेगिस्तान में बदल गये। दो डिग्री तापमान बढ़ने से चीन के शहर प्यासे मर गए। इसी तरह आगे तापमान बढ़ता जाता है, नील नदी मर जाती है। 5 से 6 डिग्री पर दुनिया के सारे जीव-जंतु नष्ट हो जाते हैं।

8 अक्टूबर 2018 को संयुक्त राष्ट्र संघ के जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) ने अपनी रिपोर्ट पेश की। जलवायु संकट पर इस रिपोर्ट के कुछ बिंदु इस तरह हैं-- तापमान पूर्व औद्योगिक स्तर से एक डिग्री बढ़ गया है। आर्कटिक सागर की बर्फ तेजी से पिघल रही है। 90 फीसदी ग्लेशियर पीछे खिसकते जा रहे है। 2018 की जून और जुलाई महीनों में केवल कैलिफोर्निया के वनों में 140 बार आग लगी। यूनान के जंगलों में लगी आग से 80 लोग मारे गये। भारत में बिना मौसम के आये धूल के तूफानों ने 500 से अधिक लोगों की जान ले ली।  दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन शहर में सूखे में तीन गुना बढ़ोतरी हुई। जापान, भारत, अमरीका तथा अन्य जगहों पर बेतहाशा बारिश होने से फसल और घर नष्ट हो गये। आईपीसीसी ने सम्भावना जताई कि 2030 तक दुनिया का तापमान पूर्व औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री तक बढ़ जायेगा। 2030 तक कुछ इलाकों को छोड़कर दुनिया के बड़े भूभाग के कृषि उत्पादन में 30 प्रतिशत तक गिरावट आएगी।

कार्बन उत्सर्जन : भ्रम और उसका निवारण
जैसे-जैसे पर्यावरण का संकट बढ़ता जा रहा है, लोगों में यह एक बहस-मुबाहसे का हिस्सा बनता जा रहा है लेकिन निहित स्वार्थ के कुछ समूह इसके बारे में भ्रम फैला रहे हैं। इनसे जुड़े कुछ भ्रमों के बारे में और उनके निवारण पर आगे बात की जायेगी।

पहला भ्रम : जनसंख्या वृद्धि ही जलवायु परिवर्तन का कारण है।
ऐसा कहा जा रहा है कि आबादी बढने के साथ ही कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि होती जा रही है। जलवायु संकट के लिए जनसंख्या को दोषी ठहरा दिया जाता है। संलग्न तालिका से स्पष्ट है कि अमरीका का कार्बन उत्सर्जन भारत से दुगुना है, जबकि भारत की जनसंख्या अमरीका से चार गुने से भी अधिक है। अगर कार्बन उत्सर्जन के लिए हर व्यक्ति बराबर जिम्मेदार होता तो न केवल तालिका में भारत दूसरे स्थान पर होता, बल्कि उसका उत्सर्जन अमरीका से चार गुना अधिक होता, लेकिन स्थिति ठीक उलटी है। तालिका से ही स्पष्ट है कि प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के मामले में अमरीका पहले स्थान पर है। कुल उत्सर्जन के मामले में चीन पहले स्थान पर है लेकिन चीन का यह आँकड़ा भी भ्रामक है क्योंकि अमरीकी कम्पनियों का प्लान्ट चीन और भारत जैसे देशों में लगे हैं, जो इन्हीं देशों में उत्सर्जन करते हैं। कार्बन व्यापार के माध्यम से भी अमरीकी कंपनियाँ अपने उत्सर्जन को कम करके दिखा लेती हैं। इससे साफ़ पता चलता है कि कार्बन उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन के लिए जनसंख्या बिलकुल जिम्मेदार नहीं है। इसके लिए मुनाफे पर आधारित व्यवस्था जिम्मेदार है, जिसमें अपना मुनाफा बढाने के लिए कंपनियाँ पर्यावरण को तबाह कर रही हैं।  

दूसरा भ्रम : कार्बन व्यापार और कार्बन क्रेडिट उत्सर्जन पर रोक लगा सकता है।
कार्बन क्रेडिट एक तरह का परमिट होता है जो किसी देश या संगठन को कार्बन उत्सर्जन की एक निश्चित मात्रा का उत्पादन करने की अनुमति देता है और जिसका पूरी तरह उपयोग नहीं करने की दशा में खरीदा-बेचा जा सकता है। क्योटो प्रोटोकॉल के तहत यूरोपीय संघ सहित 43 विकसित (औद्योगिक) देशों के कार्बन उत्सर्जन का कोटा तय कर दिया गया था। यह कोटा उस देश के राष्ट्रीय रजिस्टर में अंकित कर दिया जाता है। उसी के अनुसार देश के अन्दर उद्योग और अन्य संगठनों का कोटा तय किया जाता है। अगर किसी संगठन या देश ने अपने निर्धारित कोटे से कम कार्बन उत्सर्जन किया तो उसका कुछ क्रेडिट बच जाता है, जिसे वह दूसरे देश को बेच सकता है। इसे ही कार्बन व्यापार के नाम से जाना जाता है।

इस तरह स्पष्ट है कि कार्बन व्यापार और कार्बन क्रेडिट के जरिये विकसित देशों के कार्बन उत्सर्जन पर रोक नहीं लगाई जा सकती बल्कि इन्हीं के माध्यम से ये देश किसी गरीब देश से कार्बन क्रेडिट खरीद कर धडल्ले से कार्बन उत्सर्जित करते हैं। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि अगर भारत पेड़ लगाकर अपने कार्बन उत्सर्जन को कम करता है तो वह अतिरिक्त कार्बन क्रेडिट अर्जित कर लेता है, जिसे बेचकर डॉलर कमा सकता है। लेकिन अगर एक बार अमरीका ने भारत का कार्बन क्रेडिट खरीद लिया तो यह माना जाएगा कि अमरीका ने अपने कार्बन उत्सर्जन में कटौती की है न कि भारत ने। पर्यावरण संरक्षण के लिहाज से कार्बन व्यापार बहुत खतरनाक चीज है, जिसे साम्राज्यवादी देशों ने अपने कार्बन उत्सर्जन को छिपाने के लिए इजाद किया है। इससे साफ़ तौर पर समझा जा सकता है कि कुल उत्सर्जन के मामले में अमरीका कैसे दूसरे स्थान पर आ गया है। इसलिए कार्बन व्यापार और कार्बन क्रेडिट एक धोखे की टट्टी है। यह उसी बाजार के द्वारा सुझाया गया समाधान है जो कार्बन उत्सर्जन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है।

लैरी लोहमन का लेख है— “कार्बन व्यापार के खिलाफ छह तर्क, 29 सितंबर, 2008।” इस लेख में वे बताते हैं कि (1) कार्बन व्यापार गलत उद्देश्य पर केन्द्रित है, (2) यह संसाधनों को बर्बाद करता है, (3) यह ऐसे ज्ञान की मांग करता है जो हमारे पास है ही नहीं, (4) यह गैर-जनवादी है , (5) यह ग्लोबल वार्मिंग के सकारात्मक समाधान में अडंगा डालता है और (6) यह अनुभव के बजाय विश्वास पर आधारित है।

तीसरा भ्रम : कार्बन फुटप्रिंट से हर व्यक्ति के कार्बन उत्सर्जन की जिम्मेदारी तय होती है।
सीधे और परोक्ष रूप से किसी व्यक्ति की सभी गतिविधियों को जारी रखने लिए उत्पादित ग्रीनहाउस गैसों की कुल मात्रा ही उसका कार्बन फुटप्रिंट कहलाती है। इसे आमतौर पर कार्बन डाई ऑक्साइड की टन में मात्रा के द्वारा व्यक्त किया जाता है। यानी एक इनसान खाना, कपडा, वाहन आदि का इस्तेमाल करता है, जिसे उत्पादित करने में कार्बन उत्सर्जित किया जाता है, उसकी कुल मात्रा ही कार्बन फुटप्रिंट है। कार्बन फुटप्रिंट एक ऐसी अवधारणा है जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा उत्सर्जित कार्बन पर पर्दा डालती है। इसके लिए हर व्यक्ति को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। इसमें इस बात को भी नजरअंदाज कर दिया जाता है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने माल की बिक्री को बढाकर मुनाफा बटोरने के लिए उपभोक्तावाद और विलासितापूर्ण जीवन शैली को बढ़ावा देती हैं। पर्यावरण के मानकों को तोड़कर प्राकृतिक संसाधनों का बेतहासा दोहन करती हैं और माल बनाने के लिए भारी मात्रा में कार्बन का उत्सर्जन करती हैं।

चौथा भ्रम : जलवायु परिवर्तन प्राकृतिक संकट है यानी जलवायु परिवर्तन का सीधे-सीधे खंडन करना।
ऐसा माहौल बनाना कि मानो जलवायु परिवर्तन जैसी कोई बात ही न हो। मौसम में होने वाले अवांछित बदलाव धरती का कोई चक्र हो। इसका मानवजनित कार्बन उत्सर्जन से कोई लेना-देना न हो। ये सब बातें उन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हित में हैं, जो अपने कार्बन उत्सर्जन में कटौती नहीं करना चाहती। यही कम्पनियां ऐसी बातों को फैलाने में मदद करती हैं। आइये, अब देखें कि इसे कैसे अंजाम दिया जाता है?

एक्सॉन-मोबिल कम्पनी मोबिल और रॉकफेलर की स्टैण्डर्ड आयल कम्पनी के विलय के बाद अस्तित्व में आयी। मदर जोन्स पत्रिका के अनुसार सन 2000 से 2003 के बीच एक्सॉन-मोबिल ने जलवायु परिवर्तन के खंडन के लिए 40 संगठनों को 86 लाख डॉलर उपलब्ध करवाया। इन संगठनों ने दुनिया भर में इस तरह का प्रचार अभियान चलाया जो पर्यावरण संकट से इनकार करता है और इससे जुड़े भ्रमों को बढ़ावा देते हैं। इन अभियानों के जरिये जनता और उनके प्रतिनिधियों के विचारों को प्रभावित किया जता है। क्योटो प्रोटोकॉल के बाद से एक्सॉन-मोबिल ने जलवायु परिवर्तन के खंडन को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न संगठनों के ऊपर 200 लाख डॉलर खर्च कर दिया है। इन संगठनों में से 54 ने अपनी वेबसाइटों पर पर्यावरण से सम्बन्धित जानकारी पोस्ट की, जिनमें से 25 ने यह स्वीकार किया कि जलवायु परिवर्तन के बारे में वैज्ञानिकों में सहमति है, जबकि 29 ने जलवायु परिवर्तन को लेकर वैज्ञानिकों के बीच सहमति से इनकार किया। इन षड्यंत्रों का खुलासा 2006 में रॉयल सोसाइटी द्वारा एक्सॉन-मोबिल को भेजे गए पत्र से हुआ। इतना ही नहीं इन संगठनों ने बड़े पैमाने पर लोगों को गुमराह करने के लिए सामग्री पोस्ट की कि जलवायु परिवर्तन पूरी तरह प्राकृतिक है, इसमें इनसानी हस्तक्षेप से कोई फर्क नहीं पड़ा है।

2007-2017 के बीच एक्सॉन-मोबिल ने अमरीका के उन कांग्रेस सदस्यों को 18.7 लाख डॉलर का लुभावना उपहार दिया, जिन्होंने जलवायु परिवर्तन के खंडन को बढावा दिया और इसी काम के लिए 4.54 लाख डॉलर अमरीका के लेजस्लेटिव एक्सचेंज काउंसिल को भी दिया गया। ग्रीनपीस, मदरजोन्स, नेचर, इनसाइड क्लाइमेट न्यूज़ आदि ने एक्सॉन-मोबिल के द्वारा किये जा रहे पर्यावरण विनाश की खबरों को उजागर किया। जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित एक्सॉन-मोबिल के काले करतूतों की ढेरों जानकारी विभिन्न वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं।

पाँचवाँ भ्रम : जलवायु संकट पर अन्तरराष्ट्रीय वार्ताओं से उम्मीद है।
1997 में जापान के क्वोटो शहर में सम्मेलन करके क्वोटो प्रोटोकॉल नाम से एक दस्तावेज स्वीकार किया गया। इसमें औद्योगिक देशों के लिए 5.2 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन में कटौती का लक्ष्य रखा गया। लेकिन इस मामले में भी असफलता हाथ लगी। 2012 तक इन देशों ने कार्बन उत्सर्जन में कटौती के बजाय 11 प्रतिशत की वृद्धि कर दी थी। क्योटो सम्मेलन के बाद बाली, कानकुन, कोपेनहेगेन आदि सम्मेलनों में औद्योगिक देश जलवायु परिवर्तन से जुडी अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हटते गये। 2015 के पेरिस जलवायु सम्मेलन के बाद में अमरीका ने अपना पिंड छुडा लिया। इस तरह अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन पर होने वाले सम्मेलन एक तरह का धोखा है। क्योटो प्रोटोकॉल की बाध्यकारी कटौती से पीछे हटना है। इनसे कोई उम्मीद नहीं बची है।

कार्बन उत्सर्जन की वर्गीय स्थिति
हर व्यक्ति अपनी वर्गीय हैसियत के हिसाब से कार्बन उत्सर्जित करता है जैसे ग्रीनपीस के अनुसार तीस हजार की मासिक आमदनी वाले परिवार 3000 रुपये मासिक आमदनी वाले परिवार से चार गुणा ज्यादा कार्बन उत्सर्जित करते हैं। आदिवासी परिवार सबसे कम कार्बन उत्सर्जित करते हैं क्योंकि उनकी जीवन शैली पूरी तरह प्रकृति के सानिध्य में होती है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ बहुत अधिक कार्बन उत्सर्जन करती हैं। इस तरह उच्च वर्ग के मुट्ठी भर लोग दुनिया भर में बेतहासा कार्बन उत्सर्जित करके पूरी धरती के भविष्य को संकट में डाल रहे हैं। इनके अय्यासी के चलते इस ग्रह का भविष्य खतरे में है। जबकि दूसरी ओर अधिकाँश जनता को इस संकट की भयावहता के बारे में सही जानकारी उपलब्ध नहीं कराई जा रही है और इस संकट को बढाने में उसका योगदान न के बराबर है। सोचने वाली बात है कि जिन लोगों के लिए दो जून की रोटी जुटाना ही जिन्दगी की सबसे बड़ी जद्दोजहद ही वे भला कितना कार्बन उत्सर्जित कर सकते हैं। इसलिए पर्यावरण संकट के लिए सबको दोषी ठहराना असली गुनहगार को बचा लेने के समान है। सभी दोषी हैं— ऐसा दुष्प्रचार उन कंपनियों के गुनाहों पर पर्दा डाल दिया जाता है जो पर्यावरण संकट के लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार हैं।

जलवायु परिवर्तन के आर्थिक-राजनीतिक कारण
इस तरह की जीवन शैली को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिसमें कार्बन उत्सर्जन की गुंजाइश अधिक हो। जैसे— मोटर वाहनों की बिक्री को बढाने के लिए लोगों में लोभ-लालच पैदा करना, क्लब, बीयर-बार, मॉल, मल्टीप्लेक्स और विज्ञापन के बोर्ड आदि में बिजली का अंधाधुंध इस्तेमाल, वनों को काटकर आधुनिक शहरों को बसाना और उसमें अय्यासी के सभी सामान मुहैया करना आदि। यह सब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है जिसके जरिये वे उपभोक्तावाद को बढ़ावा देती हैं। यह सब अधिक मुनाफे के लिए किया जा रहा है। दुनिया की आर्थिक व्यवस्था पर मोटर कार निर्माता और पेट्रोलियम की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का वर्चस्व है। जैसे-- जनरल मोटरफोर्ड और क्रिस्लर जैसी दैत्याकार मोटर-वाहन कम्पनियाँ आदि। ये बड़ी गाड़ियों को प्रचारित करती हैं जो सभी विलासितापूर्ण समानों से लैश होती हैं। बड़ी गाड़ियाँ का मतलब है अधिक मुनाफा और अधिक प्रदूषण। दूसरी ओर खनन कम्पनी पॉस्को और वेदान्ता द्वारा खनन के चलते पर्यावरण का विनाश होता है। ये कम्पनियां सरकारों पर अपना दबदबा बनाये रखती हैं। 1990 की वैश्वीकरण की नीतियों के बाद ये कम्पनियां बेलगाम हो गयी हैं।

सैन्य गतिविधियों के चलते भी पर्यावरण का बहुत नुकसान होता है। 2007 में अमरीकी सेना ने 1700 करोड़ लीटर तेल का इस्तेमाल किया। यानी 4.8 करोड़ लीटर प्रतिदिन। अमरीका का रक्षा विभाग ऊर्जा इस्तेमाल करने के मामले में दुनिया भर में पहले स्थान पर है। वह अमरीकी सरकार की कुल ऊर्जा खपत के 93 प्रतिशत हिस्से के लिए जिम्मेदार है। ऊर्जा की इतनी बड़ी मात्रा की खपत के चलते होने वाले कार्बन उत्सर्जन की मात्रा का सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है।

समाधान क्या है?
1992 के पृथ्वी सम्मेलन में फिदेल कास्त्रो ने चेतावनी देते हुए कहा था, स्वार्थपरता बहुत हो चुकी। दुनिया पर वर्चस्व कायम करने के मंसूबे बहुत हुए। असंवेदनशीलता, गैरजिम्मेदारी और फरेब की हद हो चुकी है। जिसे हमें बहुत पहले ही करना चाहिए था, उसे करने के लिए कल बहुत देर हो चुकी होगी”।

जलवायु परिवर्तन के असली कारणों पर विचारविमर्श करने और इसका समाधान प्रस्तुत करने के लिए 26 अप्रैल 2010 को कोचाबाम्बा (बोलीविया) में एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया था। इसमें दुनिया भर से 18,000 लोग शामिल हुए जिनमें वैज्ञानिक, बुद्धिजीवी, सरकारी प्रतिनिधि और 132 देशों के सामाजिक संगठनों ने भाग लिया था। इसमें जारी कोचाबाम्बा मसविदा दस्तावेज के अनुसार निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधारित एक नयी व्यवस्था का निर्माण करना जरूरी है।
  1. सभी लोगों के बीच व सभी चीजों के साथ सन्तुलन और समन्वय
  2. परिपूरकता, भाईचारा और समानता
  3. प्रकृति के साथ जनता का सामन्जस्य
  4. मनुष्यों की पहचान इस बात से तय होना कि वे कौन हैं, इससे नहीं कि वे किनकिन चीजों के मालिक हैं
  5. उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद और दखलन्दाजी के सभी रूपों की समाप्ति
  6. जनता के बीच और धरती माँ के साथ शान्ति स्थापित की जाये
इसलिए सबसे पहले हमें उपभोक्तावादी जीवन-शैली पर पूरी तरह रोक लगानी होगी। इसके साथ ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा पर्यावरण के विनाश के खिलाफ संघर्ष करना होगा और उस पर लगाम कसनी होगी। यानी एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना होगा जो मुनाफे और लोभ-लालच के बजाय प्राकृतिक न्याय पर केन्द्रित हो। उसमें इनसान और प्रकृति के बीच सहज संतुलन भरा रिश्ता हो। तभी इस समस्या का सही समाधान हो पायेगा।

--विक्रम प्रताप
संयोजक, पर्यावरण लोक मंच


Monday, 9 September 2019

खेती में कीटनाशक के इस्तेमाल से प्रदूषण


पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 के अनुसार पर्यावरण में हवा, पानी, जमीन और जीव जन्तु भी
सेमीनार में अपना आलेख प्रस्तुत करते
'किसान' पत्रिका के सम्पादक महेश त्यागी
शामिल है। चारों ओर बढ़़ते हवा
, पानी और अन्य सभी तरह के प्रदूषण ने साफ वातावरण में जीने के मनुष्य के मौलिक अधिकार को भी छीन लिया है। इसके साथसाथ मनुष्य के भरणपोषण के लिए खेती एक जरूरी कार्रवाई है। लेकिन खेती भी पर्यावरण संकट से अप्रभावित नहीं रह गयी है।
जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव खेती में साफसाफ दिखने लगा है। जलवायु परिवर्तन पर अन्तरसरकारी पैनल (आईपीसीसी) के अनुसार वर्ष 2030 तक कुछ इलाको को छोड़कर दुनिया के बड़े भूभाग के कृषि उत्पादन में तीस फीसदी की कमी आ जायेगी। ग्लोबल वार्मिंग के कारण फसलों का जीवन चक्र छोटा होता जा रहा है। साथ ही खाद्य पदार्थो में लौह, जिंक और प्रोटीन जैसे पोषक तत्वों  की कमी होती जा रही है। चारे की फसल में नाइट्रोजन की कमी से पशुओं का  पाचन तन्त्र कमजोर हो गया है।
औद्यीगिकीकरण और बिना सोचेसमझे स्थापित फैक्ट्ररियों से निकलने वाले घातक रसायनों और शहरों की गन्दगी ने हमारी जीवनदायिनी नदियों को जहरीला बना दिया है। आजादी से पहले इन्हीं नदियों का पानी कृषि के साथ नहाने–धोने और पीने के काम आता था। जो आज रसायानिक प्रदूषण के कारण जीवन का दुश्मन बन गया है। किसान नदियों के किनारे खेतों में सिंचाईं इसी जहरीले पानी से करते है। इससे पैदा होने वाले टमाटर, खीरा, बैगन, आलू और लौकी इत्यादि फसलों में भी जहरीले तत्व पहुँच रहे है। जिन्हें खाने को हम विवश है।
मई 2018 को रोम में जारी खाद्य एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट के अनुसार खेती में अंधाधुंध उर्वरक और कीटनाशको के उपयोग से, ये कीटनाशक न केवल विभिन्न कृषि उत्पादों बल्कि माँ के दूध में भी पहुँच गये हैं। भारत में कई स्थानों पर माँ का दूध भी शुद्ध नहीं रहा।
खेती में बढ़ते रासायनिक खादों के इस्तेमाल से खेती की जमीन की ऊपरी सतह कठोर हो गयी है, जिससे बारिश का पानी जमीन में नीचे पहूँचने के बजाय ऊपर से ही बह जाता है। इस कारण भी फसल की उत्पादकता घटती जा रही है।
जीव जन्तुओं पर प्रभाव
कीटनाशक और खरपतवार नाशक रसायनों के बेतहाशा प्रयोग करने से किसानों के मित्र कहे जाने वाले कितने ही तरह के जीवजन्तु का विनाश हुआ है।
केंचुआ खेती की जमीन को भुरभुरी, उपजाऊ और वर्षा के पानी को भूजल से मिलाने में मुख्य भूमिका निभाते थे। बारिश के मौसम में अनगिनत केंचुए पैदा हो जाते थे। इनका आहार भी मिट्टी में उपस्थित सड़ीगली चीजें ही थीं। अपने बारीकबारीक बिलों में नीचे जाते हुए, अपशिष्ट के रूप में जो मिट्टी ये जमीन की ऊपरी सतह पर निकालते थे, वो बहुत ही उपजाऊ होती थी। जैसे ही वर्षा का पानी खेतों में लबालब भरता इनके बारीक बिलों से होते हुए भूजल में मिल जाता था। यही प्रकृति का मृदा प्रसंस्करण और भूजल रिचार्ज सिस्टम था, जो अब पूरी तरह नष्ट हो चुका है।
गिजाई भी वर्षा शुरू होते ही इतनी अधिक संख्या में पैदा होते थे कि खेतों में पैर रखने की जगह तलाश करनी पड़ती थी। ये मिट्टी के साथसाथ फसलों को नुकसान पहुँचाने वाले कीटों के अण्डे और लार्वा को खाकर जिन्दा रहते थे। इससे फसलें हानिकारक कीड़ों से सुरक्षित रहती थी। लेकिन पूँजीवादी खेती का बढता प्रदूषण इन्हें भी निगल गया।
गुरसल किसान का करीबी मित्र पक्षी था। किसान जब खेतों की जुताई करते थे, बड़ी संख्या में गुरसलें अपने बच्चों को साथ लेकर हल के पीछेपीछे शोरगुल करती हुए चलती थीं। जमीन से निकलने वाले शत्रु कीटों से वे अपना और अपने बच्चों का पेट भरती थीं। इससे जुताई के समय ही फसलों की जड़ों में लगने वाले सभी कीटों का सफाया हो जाता था। लेकिन बढ़ते प्रदूषण से ये पक्षी भी अब लुप्त होने के कगार पर है।
बरसात शुरू होते ही बहुत बडी तादाद में पीलेपीले मेढक जमीन से बाहर आ जाते थे। टर्रटर्र, टींटीं विभिन्न तरह की आवाजों के साथ एक मधुर संगीत का वादन करते हुए, वे जहरीले कीट, पतंगों को अपना निवाला बनाते थे। कीटनाशकों के घातक प्रदूषण से मेढकों के साथसाथ वह कर्णप्रिय संगीत भी खो गया, जिसे सुनते हुए लोग शाम को सो जाते थे और सुबह जागने पर उनके स्वागत में निरन्तर बजता रहता था।
वनस्पति पर प्रभाव
वर्षा ऋतु में बहुत सारे खरपतवार भी उगते थे, जो जानवरों के लिए बेहद पौष्टिक होते थे। उन्हें खाकर जानवरों के शरीर तो पुष्ट होते ही थे, दूधारू पशुओं का दूध भी बढ़ता था। कई खरपतवार तो मनुष्यों को भी पसन्द थे। जिन्हें पीसकर बरसाती साग बनाया जाता था। जिसका स्वाद बड़ा ही लजीज होता था। लेकित अफसोस खरपतवार नाशकों के खतरनाक प्रदूषण ने उन्हे नष्ट कर दिया।
इनसान पर प्रभाव
201617 में कीटनाशक के जहर के चलते महाराष्ट्र के 50 किसानों की मौत हो गयी। सबसे अधिक मौत यवतमाल जिले के 19 किसानों की हुई। इस इलाके की मुख्य फसल कपास है। कीटनाशक का जहर कितना खतरनाक होता है, इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कपास की फसल में छिड़काव के दौरान जिन किसानों ने फसल पर कीटनाशकों का छिड़काव करते समय सुरक्षा के जरूरी उपाय नहीं अपनाये थे, उन पर घातक असर देखने को मिला। किसानों को कीटनाशकों का छिड़काव करते समय सुरक्षा किट, चश्मा और दस्ताने का इस्तेमाल करना चाहिए, लेकिन अशिक्षा और धन की कमीं के चलते वे ऐसा नहीं करते। इस इलाके के किसान कपास की जेनेटिकली मॉडिफ़ाइड फसलें उगाते हैं, जिन्हें कृमि रोग से सुरक्षित माना गया है, लेकिन 2017 में फसलों पर कीड़े लग गये, इसी के चलते कीटनाशक का इस्तेमाल पूरे इलाके में बढ़ गया। इस दौरान इलाके में जहर के दुष्प्रभाव में आये 800 किसानों को अस्पताल में भर्ती कराया गया।
1960 के दशक में शुरू हुई हरित क्रान्ति पूँजीवादी खेती का एक नमूना है, जिसमें अनाज का उत्पादन भूख मिटाने के लिए नहीं बल्कि बाजार के लिए किया जाता है। अधिक मुनाफा कमाने की होड़ में खेती का प्राकृतिक और संतुलित ढाँचा चरमरा गया है। हवा और पानी में घुलते जहर ने पर्यावरण को गम्भीर नुकसान पहुँचाया है।
एक अध्ययन के अनुसार पूरे देश की 14.6 करोड़ हेक्टेअर से ज्यादा उपजाऊ जमीन बंजर हो गयी है। हरित क्रान्ति के अदूरदर्शी पुरोधाओं ने तात्कालिक फायदे के लिए देश को पर्यावरण संकट में धकेल दिया। जैव विविधता का विनाश करने वाले निरवंसिया (ट्रांसजेनिक बीटी) बीज जीन टेक्नोलॉजी और कॉरपोरेट खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। देश के कई इलाकों में खाद्यान्न की जगह जेट्रोफा, केला, नारियल, फूल, सफेद मूसली और पीपर मेंन्ट की खेती को बढ़ावा देकर पर्यावरण का विनाश किया जा रहा है। समय रहते अगर इसे नहीं रोका गया तो आने वाली नस्लों को साफ भोजनपानी मिलना भी मुश्किल होगा।
–– महेश त्यागी