ग्लेशियर जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यन्त
संवेदनशील और उसके सही सूचक होते हैं। जब जलवायु ठण्डी होती है तो वे फैलते हैं और
जब गर्म होती है तो सिकुड़ जाते हैं। एक अध्ययन के अनुसार दुनिया के लगभग एक लाख
ग्लेशियरों का क्षेत्रफल सन् 1980 से लगातार सिकुड़ता जा रहा है। हिमालय के
ग्लेशियर पिघलने से आस-पास के इलाके बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं।
आई पी सी सी की चौथी मूल्यांकन रिपोर्ट में
बताया गया है कि दुनिया में
सर्वाधिक तेजी से पिघलने वाले हिमालय के ग्लेशियर हैं। यदि वे इसी रफ्तार
से पिघलते रहे तो सन् 2085 तक या तो लुप्त हो जायेंगे या शायद 5 लाख वर्ग किलो
मीटर के वर्तमान क्षेत्रफल का केवल पाचवाँ हिस्सा ही बचा रह जायेगा। नतीजा यह कि
आगे चलकर इस इलाके की सदानीरा नदियाँ बरसाती नाले में बदल जायेंगी। आई पी सी सी के
ये अनुमान विवादों के घेरे में हैं और शायद इसमें त्रुटि भी हो, लेकिन
यह तथ्य निर्विवाद है कि पिछले सौ सालों में हिमालय के साथ-साथ भारत के अन्य भागों
का औसत तापमान 0.42 से 0.57 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है और हिमालय के ग्लेशियर
तेजी से पिघल रहे हैं। पिछले 61 सालों में गंगोत्री ग्लेशियर हर साल 18.8 मीटर की
दर से पिघल रहा है जिससे इसका क्षेत्रफल 1.147 वर्ग किलोमीटर कम हो गया है। बर्फ
पिघलने की तेज रफ्तार के कारण ही गंगा नदी ग्लेशियर के नीचे से नहीं, बल्कि
सतह के ऊपर से प्रवाहित हो रही है।
50 करोड़ लोगों के लिए जीवनदायी हिमालय की
नदियाँ अस्तित्व के संकट से जूझ रहीं हैं। इनसे निकलने वाली यमुना, गंगा, ब्रह्मपुत्र
और सिन्धु नदियाँ उत्तर भारत, बांग्ला देश और पाकिस्तान को अपने जल से सिंचित
रखती हैं, लेकिन तेजी से पिघलते ग्लेशियर और बढ़ते प्रदूषण
से नदियों के पानी की मात्र और गुणवत्ता में कमी आ रही है। एक पौराणिक कथा के
अनुसार भगीरथ ने अपने पूर्वजों का पाप धोने के लिए शिवजी से विनम्र निवेदन कर
स्वर्ग की पुत्री गंगा को पृथ्वी पर अवतरित कराया था। आज उसी गंगा का पवित्र जल
प्रदूषण की चपेट में आकर पीने लायक भी नहीं रह गया है। गंगा के किनारे बसे
कारखानों का प्रदूषित जल और शहरों के गन्दे नाले बिना जल शोधन किये ही गंगा में
बहा दिये जाते हैं जिससे यह गटर में बदलती जा रही है। और तो और, तीर्थ
यात्रियों द्वारा गंदगी फैलाये जाने के कारण गंगा का मुहाना, गंगोत्री
भी साफ-सुथरा नहीं बचा।
हिमालय की नदियों पर बन रहे बड़े-बड़े बाँधों के
विशालकाय जलाशयों से पहाड़ों का संतुलन बिगड़ने लगा है, जिससे
पृथ्वी के अन्दर उथल-पुथल की संभावना बढ़ती जा रही है। एक ओर यह पूरा इलाका भूकम्प
संवेदी हो गया है, वहीं दूसरी ओर पाला मनेरी, लोहारी
नाग और टिहरी के बाँधों ने हजारों एकड़ जंगल, खेत
और चारागाह डुबोकर नष्ट कर दिए तथा स्थानीय लोगों को उजाड़कर विस्थापित कर दिया है।
सरकार न तो विस्थापित लोगों के पुनर्वास की उचित व्यवस्था कर रही है और न ही ऐसी
सैकड़ों परियोजनाओं पर रोक लगा रही है। जर्मनी जैसे कई देश बड़े बाँधों से परेशान
हैं। इसके कारण वहाँ तलछट या गाद जमा होना एक विकट समस्या है जिसकी सफाई के दौरान मछलियाँ
मर रही हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि बड़े बाँध विकास के मॉडल नहीं हो सकते हैं।
इनका प्रबल विरोध हुआ और इनके खिलाफ बड़े-बड़े आन्दोलन भी हुए, लेकिन
अपने संकीर्ण स्वार्थों के चलते शासक वर्ग इसे लगातार बढ़ावा देकर विनाश को बुलावा
दे रहे हैं। हिमालय की पहाड़ियों पर वर्फबारी कम होने के कारण पानी के चश्मे, झरनें
और झीलें सूखती जा रही हैं। बड़े ग्लेशियरों की अपेक्षा छोटे ग्लेशियर तेजी से पिघल
रहे हैं। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के एक अध्ययन के मुताबिक हिमाचल
प्रदेश में सन् 1962 से 2006 के बीच चेनाब, पार्वती
और बास्पा की खाड़ी के ग्लेशियरों का पाँचवा भाग लुप्त हो गया, जिससे
395 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की बर्फ पिघलकर खत्म हो चुकी है। कम जाड़ा, हल्की
बर्फबारी और खारदुंग ग्लेशियर का पतला होना लद्दाख में ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते
दुष्प्रभाव की ओर संकेत कर रहे हैं। एक जमाना था, जब
यहाँ की दुर्गम बर्फीली पहाड़ियों पर पहुँचना मौत को दावत देना था, जहाँ
पहुँचते-पहुँचते शिराओं- धमनियों
का खून जमने लगता था, जबकि आज वहाँ लोग आसानी से टैंªकिग
कर रहे हैं। भारत और पाकिस्तान के लिए ये लक्षण शुभ नहीं हैं क्योंकि इन ग्लेशियरों
से निकलने वाली नदियाँ इन देशों के करोड़ों निवासियों की प्यास बुझाती हैं।
काराकोरम के ग्लेशियर 15-20 मीटर प्रति वर्ष की रफ्तार से पीछे हट रहे हैं। यहाँ
पर जल उपलब्धता 1947 में 56 लाख लीटर प्रति व्यक्ति थी जो घटकर सन् 2005 में मात्र
12 लाख लीटर रह गयी है। पाकिस्तान की 45 नहरों की हालत खस्ता है और सिन्धु नदी के
बाँधों के जलाशयों में गाद जमा होने के कारण उनकी जल-संचय क्षमता आधी रह गई है।
पंजाब और हरियाणा में भूजल के अधिक दोहन से स्थिति काफी खराब है। ग्लेशियरों से
मिलने वाले नहरी जल के अभाव में वहाँ दुहरी मार पड़ेगी। इसको देखते हुए कहा जा रहा
है कि आने वाले समय में पेयजल सबसे दुर्लभ संसाधन होगा और इस पर कब्जे के लिए
लोगों के बीच भयानक संघर्ष छिड़ेंगे।
पहले लद्दाख में जौ, चुकन्दर, नोल-खोल
और शलजम जैसी सब्जियाँ ही उगती थीं,
लेकिन जलवायु गर्म होने के कारण यहाँ
बैंगन, पहाड़ी मिर्च और टमाटर की खेती भी होने लगी है।
यहाँ तक कि 9 हजार फीट की ऊँचाई पर उगने वाले सेब और खुबानी अब लद्दाख के 12 हजार
फीट ऊँचे पहाड़ों पर भी उगाये जा रहे हैं। उत्प्रवासी पक्षियों ने गर्मी बढ़ने के
कारण यहाँ आने का समय बदल दिया है और कम बर्फबारी के कारण घास के मैदानों में
लम्बी अवधि तक घास उपलब्ध होती है। एशिया के कुख्यात भूरे बादलों में कारखानों से
निकलने वाले धुएँ के काले और छोटे कण होते हैं जो सूर्य की ऊष्मा को धरती से वापस
लौटाकर अन्तरिक्ष में लौटाने के बजाय उन्हें रोक लेते हैं। इससे जाड़े का मौसम गर्म
हो जाता है और ग्लेशियर के पिघलने में सहायक होता है।
नेपाल, भूटान
और तिब्बत के बीच स्थित, कंचनजंगा की खूबसूरत पहाड़ियों से घिरा सिक्किम
भी जलवायु परिवर्तन की विभीषिका से नहीं बच पाया है। सन् 2000 से 2002 के बीच जब
वहाँ सूखा पड़ा तो इलायची के पौधों की डालियाँ कमजोर हो गयीं और मौसम नम होने पर उन
डालियों पर फफँूदियों का प्रकोप हो गया। अंगमारी की इस बीमारी के चलते इलायची के
उत्पादन में 30 से 50 प्रतिशत तक गिरावट आयी। इलायची की खेती करने वाले किसान
दर-बदर की ठोकर खाने और दिहाड़ी मजदूरी करने को विवश हो गये। पर्यटकों के लिए मनोरम
प्राकृतिक छटा बिखेरने वाले सिक्किम की जैव विविधता आज खतरे में है। प्रकृति के
सहचर सिक्किम निवासी लाचार हैं।
सिक्किम के तापमान और सालाना बारिश में भारी
उठापटक हुई है। 20 साल पहले जिस जगह एक फुट बर्फ होती थी, आज
वहाँ बर्फबारी का नामोनिशान नहीं है। वनस्पतियों पर इसका घातक प्रभाव पड़ रहा है।
पहले धीरे-धीरे बर्फ पिघलकर मिट्टी को नम और उर्वर बनाती थी, लेकिन
आज बर्फ की कमी, तेज हवा और भारी वर्षा के कारण भूक्षरण हो रहा
है और मिट्टी की उर्वरता घटती जा रही है। वहाँ मक्के की बोआई और फूलों का मौसम भी
बदल गया है। ठण्ड कम होने से ऊनी कपड़ों की माँग और उनके उत्पादन में गिरावट आयी
है। नम और उ$ष्ण जलवायु का फायदा उठाकर वहाँ मच्छर भी आतंक
मचा रहे हैं। इस तरह गर्मी बढ़ने से वहाँ की जीवन शैली, संस्कृति, उत्पादन
कार्य और व्यापार भी प्रभावित हो रहा है।
भविष्य में सिक्किम के तेजी से पिघलते जा रहे 84
ग्लेशियर तबाही और बरबादी के सबब बन सकते हैं। 1990 में जेमू ग्लेशियर के पिघलने
से आयी बाढ़ ने पूरी घाटी में तबाही मचायी थी।