Friday, 24 April 2015

मौसम परिवर्तन और बीमारियाँ

धरती का तापमान बढ़ने और मौसम में अचानक उतार-चढ़ाव आने के चलते नयी-नयी बीमारियाँ पैदा हो रही हैं। इसका ताजा उदाहरण वर्ष 2010 में बरसात के मौसम में डेंगू और मलेरिया का प्रकोप है। जिसने पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली में हजारों लोगों की जिन्दगी निगल ली। इन बीमारियों के सभी प्रचलित इलाज बेकार क्यों साबित हुए? क्यों लोग इलाज के दौरान ही अचानक मौत के मुँह में समाने लगे? जिन बीमारियों का बहुत पहले उन्मूलन हो चुका था वे फिर से इतने भयावह रूप में क्यों प्रकट हो रही हैं? यह आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के उ$पर एक बहुत बड़ा प्रश्न है। पूँजीवादी विचारों वाले चिकित्सा विशेषज्ञ दरअसल समस्या को समग्रता में देखने के बजाय उसको एक-दूसरे से अलग-अलग करके देखते हैैं। वे लक्षण का इलाज करते हैं जबकि रोग की जड़ तक पहुँचने की कोशिश नहीं करते। वे यह समझ पाने में असमर्थ हैं कि मौजूदा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था चिकित्सा विज्ञान को बौना बना देती है। पारिस्थितिकीय तंत्र में बदलाव अैर जलवायु परिवर्तन के कारण न केवल नयी-नयी बीमारियाँ पैदा होती हैं, बल्कि पुरानी बीमारियाँ पहले से भी अधिक घातक रूप में प्रकट होती हैं। जंगल कटने, बाढ़ और सुखे के कारण वास स्थल में होने वाले बदलावों के चलते रोग के वाहक तेजी से अनुकूलित होते हैं। विज्ञान आज इसके घातक स्वरूप के आगे लाचार है, क्योंकि आरसिन और आइसोनेक्स जैसी दवायें भी इसके इलाज में कारगर नहीं रह गयीं हैं।  टी.बी. के जीवाणु ने इन दवाओं के खिलाफ प्रतिरोध क्षमता विकसित कर ली। इस बीमारी से ग्रस्त रोगियों में से मरने वालों की संख्या 50 से 70 प्रतिशत हो गयी है।
गरीबों की बस्तियाँ रोग के कीटाणुओं को पनपने के लिए अनुकूल माहौल      उपलब्ध कराती हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में भारी संख्या में बच्चों की निगलने वाली इन्सेफलाइटिस (जापानी बुखार) से पीड़ित 60 प्रतिशत रोगियों के आवास के आसपास बरसात का सड़ता पानी जमा रहता है। यही पानी रिसकर भू जल में मिल जाता है जिसे पीकर लोग बीमार पड़ते हैं। लेकिन चिकित्सा के पेशे से जुड़े लोगों के लिए गरीबी और पर्यावरण कोई मुद्दा नहीं है जो खुद ही एक गम्भीर समस्या बन चुका है। ऐसे में रोगाणुओं के विरुद्ध एण्टीबायोटिक टीकाकरण और अन्य दवाएँ भला कैसे कारगर हो सकती हैं। इसीलिए संक्रामक बीमारियाँ इन उपायों के बाद भी खत्म नहीं हुई हैं। पिछले दिनों पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पोलियो के खतरनाक वायरस की दोबारा वापसी इसका ताजा उदाहरण है। जब मेडिकल प्रशासन की लापरवाही और उचित रख-रखाव के चलते खराब हो चुके टीके अनपढ़ गरीब लोगों को लगा दिये जायें तो भला क्या होगा! क्या केवल दवा की खोज करने से बीमारियाँ डरकर भाग जायेंगी?
संक्रामक बीमारियों का दुबारा फैलना तो आने वाले भयावह संकट की अभिव्यक्ति मात्र है। मुनाफे के लिए जंगलों को उजाड़ा जा रहा है जिससे वातावरण नष्ट-भ्रष्ट होकर नयी-नयी बीमारियों को जन्म दे रहा है। कीटनाशकों और विषैले रसायनों ने लाभदायक सुक्ष्म जीवों का ही नाश नहीं किया बल्कि इसके खतरनाक रोगाणुओं को अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए प्रेरित भी किया। यही कारण है कि पहले से भी ज्यादा घातक मच्छर अब मानव बस्तियों पर आक्रमण कर रहे हैं। यह दीगर बात है कि हर विपत्ति को मुनाफे में बदलने वाली कम्पनियाँ मच्छरों को भगाने के लिये नये-नये उत्पाद बनाकर बेहिसाब मुनाफा निचोड़ रही हैं। उ$पर से स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण करके सरकार ने बीमारियों से त्रस्त जनता को मुनाफाखोर डॉक्टरों और निजी अस्पतालों के आगे असहाय छोड़ दिया है। समस्या को तंग दायरे में समझने के कारण ही आज वैज्ञानिक शोध और तकनीक  की भारी असफलता सामने आ रही है।
आज जरूरत इस बात की है कि हम प्रकृति, मानव समाज और चिकित्सा विज्ञान के अर्न्तसम्बन्धों को गहराई से समझें और नयी-नयी महामारियाँ पैदा करने वाली गैर-बराबरी पर आधारित इस रुग्ण व्यवस्था का इलाज ढूंढें।

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