मार्च–अप्रैल में भारी बरसात और ओला वृष्टि से न केवल यूपी बल्कि पंजाब और
देश के उत्तर पश्चिम और मध्य इलाके में गेहूँ, सरसों, आलू, मटर आदि फसलों को भारी नुकसान हुआ। फसलों की बरबादी को देखकर किसानों
की साँसे थम गयीं। खेत में जाते ही किसानों की आँखों के आगे बर्बादी का ऐसा मंजर
सामने आया कि इस सदमें से कई किसान बेहाल और तनाव ग्रस्त हो गये। तबाह फसलों के
चलते बैकों का कर्ज न चुका पाने की आशंका से कई किसानों ने जहर खाकर या फाँसी
लगाकर आत्महत्या कर ली। कई किसानों की जिन्दगी दिल के दौरे ने निगल ली। यह सिलसिला
अभी भी जारी है। बारिश अगर समय से हो, तो
खेती में जान फूँक दे और असमय हो, तो
किसानों की जान ले ले। आसमान में उमड़ते–घुमड़ते
बादलों का इन्तजार करनेवाले किसान मेघों की छाया तक से डरने लगे हैं।
सरकारी खबरों के अनुसार देश–भर में कुल 106–73 लाख हेक्टेयर भू–क्षेत्र में खेती का नुकसान हुआ है। आम
की फसल को 30 से 80 प्रतिशत तक का नुकसान हुआ है। एक अनुमान के मुताबिक मौसम की मार से
पूरे देश में 22 हजार करोड़ रुपये की क्षति हुई है।
इतना अनुमान तब है जब पूरे नुकसान के बारे में प्रभावित राज्यों से अभी पूरा
ब्यौरा नहीं मिला है। गाँव के बुजुर्ग किसानों ने बताया कि उनकी याद में कभी ऐसा
नहीं हुआ कि जब बेमौसम बरसात और ओला वृष्टि ने रबी की फसलों को तबाह कर दिया हो।
जब देश में किसान मौसम की मार से
आत्महत्याएँ कर रहे हैं उसी दौरान सरकारी रहनुमा उनके जख्मों पर नमक छिड़कनेवाले
बयान दे रहे हैं। जब किसानों को सरकार की मदद की जरूरत है तब केन्द्र सरकार में
मंत्री नितिन गड़करी ने सलाह दी है कि किसान भगवान या सरकार के भरोसे रहने के बजाय
अपने भरोसे रहना सीखंे। किसानों की खुदकुशी के मुद्दे पर एनडीटीवी इण्डिया के एक
सवाल के जवाब में केन्द्रीय कृषि मंत्री ने एक अलग ही अन्दाज में मुस्कराते हुए
कहा कि आपका यह कहना सही है कि खुदकुशी मेरी ही सरकार के कार्यकाल में हुई है– लेकिन यह है कलयुग। सतयुग और त्रेता
में जो पाप करता था वह उसका प्रायश्चित जरूर करता था। लेकिन कलयुग में पाप कोई और
करता है, प्रायश्चित किसी और को करना पड़ता है।
कृषि मंत्री केन्द्र की पिछली कांग्रेस सरकार पर निशाना साधते हुए कहना चाहते थे
कि आज के हालात पिछली सरकार की देन है। लेकिन किसानों को तत्काल राहत देने के बजाय
वे थोथी बयानबाजी में व्यस्त हैं। उत्तर प्रदेश में शामली के जिलाधिकारी बड़ी बेबसी
से कहते हैं कि किसानों की मौत सदमें से नहीं बल्कि बीमारियों से हो रही है।
महाराष्ट्र के अकोला क्षेत्र में बीजेपी सांसद ने कहा कि किसान सजग नहीं है।
उन्हें मरने दो जिन्हंे किसानी करनी है वे करंेगे ही। हरियाणा के कृषि मंत्री ने
आत्महत्या करनेवाले किसानों को कायर कहा। दम तोड़ते किसानों से बेरूखी दिखाते हुए
सरकार के मंत्रियों और नौकरशाहों की बयानबाजियाँ जारी हैं।
सवाल यह उठता है कि जिन आर्थिक नीतियों
के कारण देश–भर में पिछले 25 सालों में 7 लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके
हैं। उन नीतियों को रोका क्यों नहीं जा रहा है। 90 प्रतिशत किसानों पर कर्ज है। अकेले उत्तर प्रदेश में मेरठ और
सहारनपुर मण्डल के किसानों पर 178
अरब का कर्ज है। किसानों ने साहुकारों से 24 से
36 प्रतिशत ब्याज पर कर्ज लिया है। पिछले
10 सालों में पूँजीपतियों को 42 लाख करोड़ रुपये की छूट दी गयी। वर्ष 2015 के बजट में भी 5–90 लाख करोड़ रुपये करों में छूट दी गयी
है। इन तथ्यों से स्पष्ट है कि सरकार चाहे कांग्रेस की हो या भाजपा की, नीतियाँ एक ही चलती हैं। इनके एजेण्डे
में खेती और किसान नहीं है। सभी सरकारों ने किसानांे को इस हद तक मजबूर कर दिया है
कि किसान अपनी खेती–बाड़ी छोड़कर दिहाडी मजदूर बन जाना चाहते
हैं। नयी आर्थिक नीतियों से तबाह किसानों पर पर्यावरण संकट के कहर से दोहरी मार
पड़ी है। खेती–किसानी को बबार्दी के कगार पर धकेल
दिया गया। इस तबाही की भरपाई कैसे और कब तक हो सकेगी?
खेती पर जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव
साफ तौर पर दिखने लगा है। अन्तर सरकारी पैनल की रिर्पोट में वैज्ञानिक तथ्यों के
आधार पर इसका खुलासा करते हुए कहा गया है कि अब खतरा बहुत बढ़ गया है। पर्यावरण को
बचाने के लिए ठोस कदम उठाये जाने की बेहद जरूरत है। क्यूबा के क्रान्तिकारी फिदेल
कास्त्रो चेतावनी देते है कि अगर पर्यावरण को आज नहीं सुधारा गया तो कल बहुत देर
हो जायेगी।
लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारों के
कानों पर जूँ तक नहीं रेंग रही है। वे बेशर्मी से कह रही हैं कि फसलों को ज्यादा
नुकसान नहीं हुआ है। नुकसान का आकलन करने के लिए सरकार की ओर से जो कारिन्दे सर्वे
करने गये उनका कृषि से कोई रिश्ता नहीं था। साफ है कि हवाई और कागजी सर्वे से
किसानों की मौत का आकलन किया जा रहा है। इन्हीं तथ्यहीन सर्वे रिर्पोट के आधार पर
किसानों का मुआवजा तय किया जायेगा। इस तरह जो मुआवजा मिलेगा वह भी किसानों के
जख्मों को नहीं भर सकता। आज किसानों की इस दुर्दुशा पर कौन न रो देगा। माखनलाल
चतुर्वेदी ने लिखा है कि “किसान तेरा चैड़ा छाता रे, तु जन–जन का भ्राता रे”। आज हमारे भ्राता यानी किसान की हालत
पर सरकारी नीतियाँ कहर बनकर टूट रही हैं। इन नीतियों में चीख–चीखकर खुशहाली समृद्धि और विकास के
खोखले दावे किये गये थे। लेकिन किसका विकास?
1991 में उदारीकरण और वैश्वीकरण की नयी आर्थिक नीतियों ने विदेशी लूटेरांे
के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था के कपाट खोल दिये गये। निर्यातोन्मुखी विकास को बढ़ावा
देना, विदेशी मालों की खपत बढ़ाने के लिए
मध्यवर्ग में विलासिता और उपभोक्तावाद का प्रचार–प्रसार करना,
सरकारी उपक्रमांे का निजीकरण और श्रम
और पर्यावरण कानूनों में ढील देना इन्हीं नीतियों का परिणाम था। मुट्ठी–भर देशी लुटेरों ने विदेशी के साथ
मिलकर प्राकृतिक संसाधनों का बेतहाशा दोहन किया। पेड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई और फैक्टिरियों
के धुएँ और कणांे से पर्यावरण तबाह होता गया। इससे न केवल प्रदूषण बढ़ा बल्कि
प्रदूषण के कारण जलवायु में बदलाव आये और इसने धरती का तापमान भी बढ़ा दिया जो अभी
तक जारी है। उघोगांे और आधारभूत ढाँचे के विस्तार के लिए लगातार जल, जंगल, जमीन, पहाड़ और नदियों को तबाह किया गया।
परिणाम स्वरूप पर्यावरण संकट के कारण जलवायु परिवर्तन इस हद तक हुआ कि धरती के अलग
अलग हिस्सों में तेज बारिश,
बाढ़ और तबाही का मंजर नजर आ रहा है।
व्यावस्थापोषक अखबार, टीवी चैनल और बुद्धिजीवियों के द्वारा
इस तबाही को प्राकृतिक आपदा, दैवीय
आपदा, कुदरत की मार आदि शब्द से परिभाषित
लोगों को भ्रमित किया जाना कोई नयी बात नहीं है। आज कोई अखबार ऐसा नहीं है कि जो
लोगों के सामने सच्ची तस्वीर पेश करे। असल में इस पूरी बर्बादी और तबाही की जड़ में
जलवायु परिवर्तन है। यह प्रकृति विरोधी, जनविरोधी
आर्थिक नीतियों का ही नतीजा है। पर्यावरण संकट के साथ साथ कृषि संकट गहराता जा रहा
है। सरकार के खोखले वादे से कुछ होनेवाला नहीं है। किसानों को दुर्दशा से मुक्ति के लिए कमर कसकर आगे आना
होगा। उन्हंे देशी–विदेशी गठजोड़ से बनी लूट–खसोट की इन नीतियों को समझना और इन पर
प्रहार करना होगा। अगर किसान संगठित नहीं होते तो पर्यावरण के मामले में सरकार की
खराब नीतियाँ इसी तरह चलती रहेगी।
Desh videsh 20 se sabhar
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