Friday, 20 January 2017

किसानों पर मौसम परिवर्तन की मार

मार्चअप्रैल में भारी बरसात और ओला वृष्टि से न केवल यूपी बल्कि पंजाब और देश के उत्तर पश्चिम और मध्य इलाके में गेहूँ, सरसों, आलू, मटर आदि फसलों को भारी नुकसान हुआ। फसलों की बरबादी को देखकर किसानों की साँसे थम गयीं। खेत में जाते ही किसानों की आँखों के आगे बर्बादी का ऐसा मंजर सामने आया कि इस सदमें से कई किसान बेहाल और तनाव ग्रस्त हो गये। तबाह फसलों के चलते बैकों का कर्ज न चुका पाने की आशंका से कई किसानों ने जहर खाकर या फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली। कई किसानों की जिन्दगी दिल के दौरे ने निगल ली। यह सिलसिला अभी भी जारी है। बारिश अगर समय से हो, तो खेती में जान फूँक दे और असमय हो, तो किसानों की जान ले ले। आसमान में उमड़तेघुमड़ते बादलों का इन्तजार करनेवाले किसान मेघों की छाया तक से डरने लगे हैं।
सरकारी खबरों के अनुसार देशभर में कुल 106–73 लाख हेक्टेयर भूक्षेत्र में खेती का नुकसान हुआ है। आम की फसल को 30 से 80 प्रतिशत तक का नुकसान हुआ है। एक अनुमान के मुताबिक मौसम की मार से पूरे देश में 22 हजार करोड़ रुपये की क्षति हुई है। इतना अनुमान तब है जब पूरे नुकसान के बारे में प्रभावित राज्यों से अभी पूरा ब्यौरा नहीं मिला है। गाँव के बुजुर्ग किसानों ने बताया कि उनकी याद में कभी ऐसा नहीं हुआ कि जब बेमौसम बरसात और ओला वृष्टि ने रबी की फसलों को तबाह कर दिया हो।
जब देश में किसान मौसम की मार से आत्महत्याएँ कर रहे हैं उसी दौरान सरकारी रहनुमा उनके जख्मों पर नमक छिड़कनेवाले बयान दे रहे हैं। जब किसानों को सरकार की मदद की जरूरत है तब केन्द्र सरकार में मंत्री नितिन गड़करी ने सलाह दी है कि किसान भगवान या सरकार के भरोसे रहने के बजाय अपने भरोसे रहना सीखंे। किसानों की खुदकुशी के मुद्दे पर एनडीटीवी इण्डिया के एक सवाल के जवाब में केन्द्रीय कृषि मंत्री ने एक अलग ही अन्दाज में मुस्कराते हुए कहा कि आपका यह कहना सही है कि खुदकुशी मेरी ही सरकार के कार्यकाल में हुई हैलेकिन यह है कलयुग। सतयुग और त्रेता में जो पाप करता था वह उसका प्रायश्चित जरूर करता था। लेकिन कलयुग में पाप कोई और करता है, प्रायश्चित किसी और को करना पड़ता है। कृषि मंत्री केन्द्र की पिछली कांग्रेस सरकार पर निशाना साधते हुए कहना चाहते थे कि आज के हालात पिछली सरकार की देन है। लेकिन किसानों को तत्काल राहत देने के बजाय वे थोथी बयानबाजी में व्यस्त हैं। उत्तर प्रदेश में शामली के जिलाधिकारी बड़ी बेबसी से कहते हैं कि किसानों की मौत सदमें से नहीं बल्कि बीमारियों से हो रही है। महाराष्ट्र के अकोला क्षेत्र में बीजेपी सांसद ने कहा कि किसान सजग नहीं है। उन्हें मरने दो जिन्हंे किसानी करनी है वे करंेगे ही। हरियाणा के कृषि मंत्री ने आत्महत्या करनेवाले किसानों को कायर कहा। दम तोड़ते किसानों से बेरूखी दिखाते हुए सरकार के मंत्रियों और नौकरशाहों की बयानबाजियाँ जारी हैं।
सवाल यह उठता है कि जिन आर्थिक नीतियों के कारण देशभर में पिछले 25 सालों में 7 लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। उन नीतियों को रोका क्यों नहीं जा रहा है। 90 प्रतिशत किसानों पर कर्ज है। अकेले उत्तर प्रदेश में मेरठ और सहारनपुर मण्डल के किसानों पर 178 अरब का कर्ज है। किसानों ने साहुकारों से 24 से 36 प्रतिशत ब्याज पर कर्ज लिया है। पिछले 10 सालों में पूँजीपतियों को 42 लाख करोड़ रुपये की छूट दी गयी। वर्ष 2015 के बजट में भी 5–90 लाख करोड़ रुपये करों में छूट दी गयी है। इन तथ्यों से स्पष्ट है कि सरकार चाहे कांग्रेस की हो या भाजपा की, नीतियाँ एक ही चलती हैं। इनके एजेण्डे में खेती और किसान नहीं है। सभी सरकारों ने किसानांे को इस हद तक मजबूर कर दिया है कि किसान अपनी खेतीबाड़ी छोड़कर दिहाडी मजदूर बन जाना चाहते हैं। नयी आर्थिक नीतियों से तबाह किसानों पर पर्यावरण संकट के कहर से दोहरी मार पड़ी है। खेतीकिसानी को बबार्दी के कगार पर धकेल दिया गया। इस तबाही की भरपाई कैसे और कब तक हो सकेगी?
खेती पर जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव साफ तौर पर दिखने लगा है। अन्तर सरकारी पैनल की रिर्पोट में वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर इसका खुलासा करते हुए कहा गया है कि अब खतरा बहुत बढ़ गया है। पर्यावरण को बचाने के लिए ठोस कदम उठाये जाने की बेहद जरूरत है। क्यूबा के क्रान्तिकारी फिदेल कास्त्रो चेतावनी देते है कि अगर पर्यावरण को आज नहीं सुधारा गया तो कल बहुत देर हो जायेगी।
लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारों के कानों पर जूँ तक नहीं रेंग रही है। वे बेशर्मी से कह रही हैं कि फसलों को ज्यादा नुकसान नहीं हुआ है। नुकसान का आकलन करने के लिए सरकार की ओर से जो कारिन्दे सर्वे करने गये उनका कृषि से कोई रिश्ता नहीं था। साफ है कि हवाई और कागजी सर्वे से किसानों की मौत का आकलन किया जा रहा है। इन्हीं तथ्यहीन सर्वे रिर्पोट के आधार पर किसानों का मुआवजा तय किया जायेगा। इस तरह जो मुआवजा मिलेगा वह भी किसानों के जख्मों को नहीं भर सकता। आज किसानों की इस दुर्दुशा पर कौन न रो देगा। माखनलाल चतुर्वेदी ने लिखा है कि किसान तेरा चैड़ा छाता रे, तु जनजन का भ्राता रे आज हमारे भ्राता यानी किसान की हालत पर सरकारी नीतियाँ कहर बनकर टूट रही हैं। इन नीतियों में चीखचीखकर खुशहाली समृद्धि और विकास के खोखले दावे किये गये थे। लेकिन किसका विकास?
1991 में उदारीकरण और वैश्वीकरण की नयी आर्थिक नीतियों ने विदेशी लूटेरांे के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था के कपाट खोल दिये गये। निर्यातोन्मुखी विकास को बढ़ावा देना, विदेशी मालों की खपत बढ़ाने के लिए मध्यवर्ग में विलासिता और उपभोक्तावाद का प्रचारप्रसार करना, सरकारी उपक्रमांे का निजीकरण और श्रम और पर्यावरण कानूनों में ढील देना इन्हीं नीतियों का परिणाम था। मुट्ठीभर देशी लुटेरों ने विदेशी के साथ मिलकर प्राकृतिक संसाधनों का बेतहाशा दोहन किया। पेड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई और फैक्टिरियों के धुएँ और कणांे से पर्यावरण तबाह होता गया। इससे न केवल प्रदूषण बढ़ा बल्कि प्रदूषण के कारण जलवायु में बदलाव आये और इसने धरती का तापमान भी बढ़ा दिया जो अभी तक जारी है। उघोगांे और आधारभूत ढाँचे के विस्तार के लिए लगातार जल, जंगल, जमीन, पहाड़ और नदियों को तबाह किया गया। परिणाम स्वरूप पर्यावरण संकट के कारण जलवायु परिवर्तन इस हद तक हुआ कि धरती के अलग अलग हिस्सों में तेज बारिश, बाढ़ और तबाही का मंजर नजर आ रहा है। व्यावस्थापोषक अखबार, टीवी चैनल और बुद्धिजीवियों के द्वारा इस तबाही को प्राकृतिक आपदा, दैवीय आपदा, कुदरत की मार आदि शब्द से परिभाषित लोगों को भ्रमित किया जाना कोई नयी बात नहीं है। आज कोई अखबार ऐसा नहीं है कि जो लोगों के सामने सच्ची तस्वीर पेश करे। असल में इस पूरी बर्बादी और तबाही की जड़ में जलवायु परिवर्तन है। यह प्रकृति विरोधी, जनविरोधी आर्थिक नीतियों का ही नतीजा है। पर्यावरण संकट के साथ साथ कृषि संकट गहराता जा रहा है। सरकार के खोखले वादे से कुछ होनेवाला नहीं है। किसानों को  दुर्दशा से मुक्ति के लिए कमर कसकर आगे आना होगा। उन्हंे देशीविदेशी गठजोड़ से बनी लूटखसोट की इन नीतियों को समझना और इन पर प्रहार करना होगा। अगर किसान संगठित नहीं होते तो पर्यावरण के मामले में सरकार की खराब नीतियाँ इसी तरह चलती रहेगी।

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केन्द्र सरकार की पर्यावरण विरोधी नीतियां

पर्यावरण मंत्रालय ने पर्यावरण विरोधी रुख अख्तियार कर लिया है। पर्यावरण संकट की मार झेल रहे देश को राहत देने के बजाय अब सरकार कम्पनियों को धड़ाधड़ पर्यावरण की मंजूरी देगी। इसके लिए 60 दिन से अधिक समय नहीं लिया जायेगा। देशभर में पर्यावरण संरक्षण के लिए सैकड़ों संगठनों को नकारते हुए यह फैसला लिया गया है। इस फैसले के लागू होने पर पर्यावरण प्रदूषण के लिए कम्पनियों को रोका नहीं जा सकेगा। गौरतलब है कि पर्यावरण प्रदूषण को सबसे अधिक नुकसान निजी कम्पनियाँ पहुँचाती हैं। लेकिन वे लगातार पर्यावरण संरक्षण की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेती हैं। इन्हीं कम्पनियों को फायदा पहुँचाने के लिए पर्यावरण मानदण्डों की अनदेखी की जा रही है। एक अन्य मामलें में नर्मदा नदी पर बन रहे सरदार सरोवर डैम की ऊँचाई 121–92 मीटर से बढ़ाकर 138–72 मीटर करने का फैसला लिया गया है। यह फैसला कोर्ट और जनता की पूरी तरह अनदेखी करके लिया गया है। इस फैसले से विस्थापितों की सूची में 250,000 लोग और जुड़ गये हैं। जबकि जो पहले से विस्थपित हैं उनका सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद पूरी तरह पुनर्वास नहीं किया गया। पर्यावरण मामले में ही कांग्रेस सरकार ने माधव गाड़गिल द्वारा पेश पश्चिमी घाट की रिर्पोट को कूड़ेदान में डाल दिया था। यह रिर्पोट पर्यावरण संरक्षण और स्थानीय जनता के पक्ष में थी। उस समय भाजपा ने गाडगिल की रिर्पोट को लागू करने के लिए सरकार से मांग की थी। लेकिन आज वह उसे लागू करने में हीलाहवाली कर रही है। इतना ही नहीं, गोवा की भाजपा सरकार ने भी गाड़गिल की पर्यावरण पर खनन के प्रभाव की रिपाट दबा दी।

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कनहर की कहानी

20 अप्रैल 2015 को कनहर बचाओ आन्दोलनके वरिष्ठ कार्यकर्ता गम्भीरा प्रसाद को सोनभद्र पुलिस ने इलाहाबाद में गिरफ्तार कर लिया। वे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में आन्दोलन की तरफ से चल रहे मुकदमें की पैरवी के लिए एडवोकेट रवि किरन जैन के घर आये थे। जिस तरह अचानक उन्हें गिरफ्तार किया गया उसे देखते हुए लगता है कि अगर वहाँ जनता न इकट्ठी होती और पे्रस, वकील और स्थानीय नेताओं को सूचना न मिल पाती तो बहुत मुश्किल था कि गम्भीरा प्रसाद बच पाते। दबाव में रात 12 बजे गम्भीरा प्रसाद को कैंट स्टेशन इलाहाबाद में प्रस्तुत किया गया और फिर वहाँ रजिस्टर में दर्ज करके उन्हें सोनभद्र भेज दिया गया। रजिस्टर में क्या दर्ज हुआ ये पीयूसीएल के स्थानीय कार्यकर्ता चाहकर भी इलाहाबाद पुलिस से नहीं निकलवा सके। सोनभद्र में गम्भीरा प्रसाद को पुलिस रिमांड में नहीं लिया जा सका और उन्हें न्यायिक रिमांड में जेल भेज दिया गया।
कनहर बचाओ आन्दोलनको समझने से पहले यह जरूरी है कि एक बार इसके इतिहास पर नजर डाल ली जाय। कनहर बाँध परियोजना उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में कनहर नदी पर प्रस्तावित बहुद्देशीय सिंचाई परियोजना है। यह परियोजना विस्थापन, विभीषिका और एक बहुत बड़े आर्थिक घोटाले की कहानी अपने में समेटे हुए है। आइये, क्रमवार इस कहानी को समझते हैं।
विकास की विभीषिका
सोनभद्र जिला भारत के विकास के उस मॉडल का शिकार है जिसे आजादी के बाद अपनाया गया। देश के औद्योगिक नक्शे पर सोनभद्र की हैसियत तो बड़ी हो गयी लेकिन यहाँ के लोगों का जीवन नारकीय होता चला गया। यह उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा जिला है। जिसका क्षेत्रफल 6,788 वर्ग किमी है। जिसमें 3,792 वर्ग किमी इलाका जंगल से घिरा है। इसकी सीमाएँ उत्तर पूर्व में बिहार, पूर्व में झारखण्ड, दक्षिण में छत्तीसगढ़ और पश्चिम में मध्य प्रदेश से मिलती हैं। यहाँ 70 प्रतिशत आदिवासी आबादी है, जिसमें गोंड, खरवार, पन्निका, भूइयाँ, बैगा, चेरो, घासिया, धरकार और धौनार शामिल हैं। अधिकतर ग्रामीण आदिवासी अपनी जीविका के लिए जंगलों पर निर्भर हैं। वे जंगल से तेंदू पत्ता, सूखी लकड़ियाँ, शहद और जड़ी बूटियाँ इकट्ठाकर उन्हें बाजार में बेचते हैं। कुछ के पास छोटी जोतें भी हैं जिसमें ज्यादातर धान और कभीकभी सब्जियाँ पैदा की जाती हैं। बड़ी जोतें ज्यादातर गैर आदिवासियों के पास हैं। इस इलाके में रहनेवाले बहुत से आदिवासियों को रिजर्व फॉरेस्ट एक्ट के अनुच्छेद 4 और 20 ने उनकी जमीन और वनाधिकार से वंचित कर रखा है। रिजर्व फॉरेस्ट एक्ट की वजह से बहुत से लोगों पर फर्जी मुकदमें लाद दिये गये हैं।
जहाँ जंगल है, जहाँ आदिवासी हैं देश का विकास वहीं की सम्पदा को लूटकर किया जा सकता है, विकास की यही सामान्य समझ है। रिहन्द बाँध का उद्घाटन करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने यह उम्मीद जतायी थी कि बिजली परियोजना के शुरू होने के बाद यहाँ जो विकास होगा उससे यह इलाका स्विट्जरलैण्ड जैसा बन जायेगा लेकिन अपार प्राकृतिक वैभव के बाद भी यह इलाका और यहाँ के लोग गरीबी और प्रदूषण की मार झेल रहे हैं। बिड़ला द्वारा स्थापित रेणुकूट का हिंडालको, हाईटेक कार्बन प्लांट, अनपरा में रेणु सागर विद्युत संयंत्र इसके अलावा एनटीपीसी द्वारा स्थापित शक्तिनगर और बीजपुर के ताप विद्युत गृह तथा केन्द्र सरकार के नियंत्रणवाली कोयला खदानें बीना, खड़िया, दुग्धी चुआ और ककरी में हैंं, यानी सोनभद्र का चप्पाचप्पा कई दशकों से डाइनामाइट के विस्फोटों, भारी मशीनों की गड़गड़ाहटों, धूल, धुएँ, राख और विस्थापन से काँप रहा है, घुट रहा है।
आज सोनभद्रसिंगरौली के इलाके में हालत यह है कि नदियों और तालाबों के बाद अब भूजल भी जहरीला होता जा रहा है। इस अंचल की तीन प्रमुख नदियाँ रिहन्द, सोन और कनहर का पानी बुरी तरह विषाक्त हो चुका है। 2011 में सोनभद्र जिले के म्योरपुर ब्लॉक के रजनी टोला गाँव में भूजल में प्रदूषण का स्तर इतना बढ़ गया कि पेट की विभिन्न बीमारियों के चलते 15 बच्चों की मौत हो गयी थी। सोनभद्र में जो तथाकथित विकास हुआ उसका लाभ भी विकसित लोगों को ही मिला। यहाँ की स्थानीय आबादी को सिर्फ विस्थापन, कम मजदूरी, प्रदूषण और बीमारी मिली। तो यही वह परिदृश्य है जिसमें रहकर हम कनहर बाँध की कहानी को समझ सकते हैं। सत्तर के दशक से सोनभद्र के निवासियों पर तलवार की तरह लटकी यह परियोजना अब नये सिरे से गाँव, जंगल, पहाड़ और इनसान के लिए डूब और विस्थापन का सन्देश लेकर आयी है।
कनहर बाँध की अजीब दास्तान
कनहर बहुद्देशीय परियोजना की कहानी शुरू होती है 6 जनवरी 1976 से जब तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने इस परियोजना का शिलान्यास किया था। सोन की सहायक नदी कनहर और पागन के संगम पर बननेवाली इस परियोजना का असर उत्तर प्रदेश के सोनभद्र, छत्तीसगढ़ के सरगुजा और झारखण्ड के गढ़वा जिले पर पड़ना है। अगर यह बाँध बनता है तो सोनभद्र के चैदह गाँव प्रभावित होंगे। एक अनुमान के अनुसार छत्तीसगढ़ और झारखण्ड के भी कई गाँव इससे डूब जायेंगे। कुल डूब क्षेत्र 4000 हेक्टेयर से ज्यादा होगा और 10,000 से ज्यादा किसान उजड़ जायेंगे। 25 से ज्यादा गाँव और तकरीबन एक से डेढ़ लाख ग्रामीण आबादी अपनी पुश्तैनी जमीन से हमेशा के लिए उजड़ जायेगी।
कनहर बहुद्देशीय परियोजना को सितम्बर 1976 में केन्द्रीय जल आयोग की अनुमति मिली और इसकी प्रारम्भिक अनुमानित लागत 27 करोड़ रुपये आँकी गयी। 1979 में इसे 55 करोड़ रुपये के साथसाथ तकनीकी अनुमति मिली। मध्य प्रदेश (अब छत्तीसगढ़), बिहार और उत्तर प्रदेश के बीच पानी और डूब क्षेत्र को लेकर चलनेवाले विवादों को अनदेखा कर परियोजना को अनुमति दी गयी। बाद में जब प्रदेशों में पर्यावरण मंत्रालय की स्थापना हुई तो इन मंत्रालयों ने इस इलाके में होनेवाले भयानक नुकसान की आशंका को नजर अन्दाज किया और ऐसा कोई सर्वेक्षण नहीं कराया गया जो परियोजना द्वारा पर्यावरण और आबादी पर  पड़नेवाले दुष्प्रभाव का ठीकठीक आकलन कर सके। एक शुरुआती अध्ययन में यह अनुमान लगाया गया कि तकरीबन 9 लाख पेड़, 2500 कच्चे घर, 200 पक्के घर, 500 कुएँ, 30 सरकारी स्कूल और कुछ अन्य इमारतें डूब जायेंगी। यह भी काफी शुरुआती आँकड़े हैं अब इसमें कितना कुछ जुड़ गया होगा इसे सिर्फ नये अध्ययन से ही मालूम किया जा सकता है।
कनहर सिंचाई परियोजना केन्द्र और उत्तर प्रदेश सरकार का संयुक्त उपक्रम है। इस परियोजना का निर्माण करने के लिए उत्तर प्रदेश की तत्कालीन सरकार ने 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून की धारा 4 और 6 के तहत नोटिस जारी किया और भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू की। अधिग्रहण करने के लिए 1894 के कानून की धारा 17 का इस्तेमाल किया गया। यानी अधिग्रहण के लिए इमरजेन्सी क्लाजलगाया गया। इमरजेन्सी कैसी थी यह इससे ही साफ है कि अधिग्रहण के 38 साल बाद भी जमीन का भौतिक कब्जा नहीं लिया गया। अधिग्रहण की प्रक्रिया के दौरान 2200 रुपये प्रति बीघा की दर से मुआवजा दिया गया। ज्यादातर लोग जमीन देने और मुआवजा लेने को तैयार नहीं थे। स्थानीय निवासी बताते हैं कि भारी दबाव में मुआवजा लेने को तैयार कुछ लोगों ने कागज पर लिखा मुआवजा प्राप्त किया एतराज के साथ यह एतराज कितना बड़ा था, यह दशकों से जारी आन्दोलन के जज्बे से लगाया जा सकता है। लोगों ने एतराजके साथ मुआवजा तो ले लिया, लेकिन जैसा कि हर परियोजना के हाकिम जमीन के बदले जमीन और नौकरी जैसे वादे करते हैं वैसा कुछ नहीं हुआ। परियोजना पर जो भी थोड़ा बहुत काम हुआ उसमें बाहर से मजदूर बुलाये गये, स्थानीय लोगों को मजदूरी के लायक भी नहीं समझा गया।
1976 के कनहर के पहले शिलान्यास के बाद कहानी नाटकीय होती गयी और आधुनिक विकास के प्रहसन के रूप में तब्दील हो गयी। इसमें विस्थापन की आशंका में लटके ग्रामीण हैं और दूसरी ओर एक बड़ा आर्थिक घोटाला। 1976 के बाद कुछकुछ अन्तराल के बाद काम शुरू होता रहा और पुन: बन्द होता रहा। यहाँ कभी भी लगातार काम नहीं चला। सिंचाई विभाग और लोक निर्माण विभाग के दस्तावेज देखने से मालूम चलता है कि पैसे का खर्च लगातार दिखाया जाता रहा। 1984 में काम रुक गया और सूत्र बताते हैं कि उसका पैसा दिल्ली में होनेवाले एशियाई खेलों की तरफ स्थानान्तरित कर दिया गया। 1989 में पुन: काम शुरू हुआ और 16 परिवार उजाड़े दिये गये। इसके बाद दो दशक तक काम बन्द रहा। कनहर बाँध की वेब साइट पर जाकर देखा जा सकता है कि करोड़ों रुपये के यंत्र यूँ ही धूप, धूल और मिट्टी में बर्बाद हो रहे हैं। इस रुकी हुई परियोजना का एक नया शिलान्यास उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती के जन्मदिन पर 15 जनवरी 2011 को दुद्धी के विधायक सीएम प्रसाद ने किया किया। पुन: तत्कालीन बाढ़ एवं सिंचाई मंत्री उत्तर प्रदेश शिवपाल सिंह यादव ने बाँध के स्पिल वे के निर्माण के लिए 7 नवम्बर 2012 को शिलान्यास किया। शिलान्यास दर शिलान्यास चलता रहा, अधिकारियों और नेताओं की पौ बारह हाती रही और जनता तीन दशक तक विस्थापित की मन:स्थिति में जीती रही। 2014 में निर्माण कार्य शुरू करने की सरकारों और प्रशासन की जिद और प्रतिरोध का नया दौर कैसे शुरू हुआ इस पर हम आगे बात करेंगे।
कनहर बचाओ आन्दोलन
सिर्फ सरकारी षड़यंत्र ही नहीं चल रहे थे बल्कि सोनभ्रद की इस अर्द्धविस्थापित जनता के बीच बड़े पैमाने पर प्रतिरोध और आन्दोलन की तैयारी भी चल रही थी। लोगों ने स्वयं ही इस बाँध के भूत से पीछा छुड़ाने की तैयारी की। बाँध से डूबने या प्रभावित होनेवाले 14 गाँवों के तमाम लोगों ने इस बाँध के खिलाफ सतत और मजबूत संघर्ष चलाने का निर्णय ले लिया। दुद्धी (सोनभद्र) में 1984 से सक्रिय ग्राम स्वराज समितिके सहयोग और सलाह पर 23 मार्च 2002 को कनहर बचाओ आन्दोलनकी स्थापना हुई। तब से हर साल भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत के दिन 23 मार्च एवं गाँधी जयन्ती 2 अक्टूबर पर कनहर बचाओं आन्दोलन के आह्वान पर हजारों लोग इकट्ठा होकर संघर्ष की आवाज तेज करने लगे।
ग्राम स्वराज समिति के सहयोग से कनहर बचाओ आन्दोलनने अपना खाका तैयार किया और अपनी लड़ाई की रणनीति विकसित की। नेतृत्व में मुख्यत: आदिवासी और महिलाएँ सक्रिय हुर्इं। महिलाओं की सक्रियता ने आन्दोलन के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। कनहर बचाओ आन्दोलन का प्रसार प्रभावित होनेवाले सभी 25 गाँवों में किया गया। सोनभद्र में एक केन्द्रीय समिति ने कनहर बचाओ आन्दोलन का नेतृत्व सम्भाल लिया। यह केन्द्रीय समिति प्रभावित ग्रामीणों से ही मिलकर बनी थी। सभी गाँवों में बनी स्थानीय समितियों की मदद तथा ग्राम स्वराज समिति और उसके संयोजक महेषानन्द जी के सहयोग से यही केन्द्रीय समिति आन्दोलन का संचालन करने लगी। कनहर बचाओ आन्दोलन ने अपना अभियान प्रचार, संगठन, कानूनी तथा जमीनी लड़ाई, हर जगह फैला दिया। कुछ ही सालों में संगठन की सदस्य संख्या हजारों में पहुँच गयी। जल्दी ही पीयूसीएल की इलाहाबाद इकाई और इलाहाबाद के टेªड यूनियन एवं विस्थापन विरोधी आन्दोलन के सदस्य भी कनहर बचाओ आन्दोलन के सहयोग में जुट गये। खासकर कानूनी संघर्ष के क्षेत्र में। आइये कनहर बचाओ आन्दोलन और उसके हमसफरों के कानूनी संघर्ष के बारे में जाने।
कानूनी संघर्ष के रास्ते
2011 से लेकर अभी तक इलाहाबाद उच्चन्यायालय में दो व राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी–– नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) में एक याचिका दायर की गयी। क्रमवार इन याचिकाओं और इनमें उठाये गये तर्कों को देखते हैं, क्योंकि यही वे तर्क हैं, जिन्हें कनहर बचाओ आन्दोलन एवं पीयूसीएल इलाहाबाद ने विकसित किया और भविष्य में इन्हीं मुद्दों के इर्दगिर्द संघर्ष के लामबन्द होने की सम्भावना है।
1– जनहित याचिका
डूब क्षेत्र में आनेवाली सभी ग्राम सभाओं ने अपने ग्राम प्रधानों के माध्यम से इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक याचिका (संख्या 697043/2011) 2011 में दायर की। हालाँकि यह याचिका अभी भी लम्बित है, लेकिन इसने आन्दोलन में एक निर्णायक मोड़ ला दिया है। इस याचिका की तैयारी के दौरान जो तैयारी हुई और तर्क विकसित हुए उसने आन्दोलन में नयी जान फूँक दी। आन्दोलनकारियों के लिए इन तर्कों को आत्मसात करना और उसे प्रचारित करना आन्दोलन का नया औजार बन गया।
जनहित याचिका में आये तर्क इस प्रकार थे। सन 1976 में शुरू की गयी यह परियोजना 1984 में परिव्यक्त कर दी गयी। 38 साल बाद बिना किसी नयी अनुमति या अध्ययन के उसे फिर से शुरू करने का क्या औचित्य है। यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि परियोजना के आरम्भ होने से पहले सरकार ने अधिसूचना जारी कर अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू की थी, किन्तु 1984 में योजना के परित्यक्त हो जाने के बाद अधिग्रहण की प्रक्रिया खुदखुद खत्म हो गयी।
केवल इतना ही नहीं, बल्कि अधिग्रहित जमीनों पर उसके मालिक ही काबिज रहे। वह इस जमीन पर खेती करते रहे और उसका कर्ज भरते रहे और कई लोगों ने इस जमीन के आधार पर कर्ज भी लिये। इस सबका रिकॉर्ड राजस्व विभाग की फाइलों में दर्ज है। इस सम्बन्ध में यह तथ्य भी महत्त्वपूर्ण है कि यदि भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया किसी कारण स्वत: समाप्त हो जाती है तो चाहे उस व्यक्ति ने मुआवजा ले भी रखा हो तो भी भूमि अधिग्रहण कानून 1894 की धारा 48 (3) के तहत ऐसे व्यक्ति को जो मानसिक व आर्थिक क्षति पहुँची है, इसके लिए सरकार उसे मुआवजा देने के लिए बाध्य है।
इस याचिका में एक महत्त्वपूर्ण संवैधानिक सवाल भी उठाया गया है। 73वें संविधान संशोधन के बाद अब ग्राम सभाएँ उतनी ही महत्त्वपूर्ण संस्थाएँ हैं जितनी कि संसद या विधानसभाएँ है। यानी कनहर क्षेत्र में भूमि सुधार, खेती के विकास या सिंचाई से सम्बन्धित योजनाएँ अगर बननी हैं तो यह ग्राम सभाओं का अधिकार क्षेत्र है। ये योजनाएं अब ग्राम सभाएं बनायेंगी न कि केन्द्र या राज्य सरकार उन पर लादेंगी। वास्तविकता यह है कि प्रभावित होनेवाली ग्राम सभाओं ने सर्वसम्मति से बाँध को नकार दिया है। इस लिहाज से देखा जाये तो यह परियोजना गाँव के संवैधानिक अधिकार को चुनौती देती है। केवल इतना ही नहीं इन क्षेत्रों में लगातार पंचायत चुनाव होते रहे हैं। पंचायतें निर्माण एवं विकास का काम करती रही हैं और यहाँ मनरेगा जैसी योजनाएँ भी लागू हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दायर याचिकाओं में वकील, सीनियर एडवोकेट एवं पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रवि किरन जैन कहते हैं कि कनहर बाँध सिर्फ गैर कानूनी नहीं, बल्कि असंवैधानिक भी है। इसने संविधान और पेसा जैसे कानूनों की भावना का उल्लंघन किया है। सरकारों को नियामगिरि के अनुभव से सबक लेना चाहिए।
2– उच्च न्यायालय में दूसरी याचिका
2014 में भूमि अधिग्रहण को केन्द्र में रखकर प्रभावित किसानों की ओर से एक दूसरी याचिका (संख्या–58444/2014) दायर की गयी। इनमें पहली याचिका के मुख्य मुद्दों खासकर जमीन के मालिकों का जमीन पर वास्तविक कब्जे के मसले को तो उठाया ही गया है साथ ही नये भूमि अधिग्रहण कानून 2013 की रोशनी में एक निर्णायक बिन्दु की ओर संकेत किया गया है।
2013 के भूमि अधिग्रहण की धारा 24 (2) साफ शब्दों में कहती है–– ‘उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी भूमि अर्जन अधिनियिम 1894 के अधीन आरम्भ की गयी भूमि अर्जन कार्रवाइयों के किसी मामले में, जहाँ उक्त धारा 11 के अधीन अधिनिर्णय इस अधिनियम के प्रारम्भ के पाँच वर्ष या अधिक पूर्व प्रारम्भ किया गया था, किन्तु भूमि का भौतिक कब्जा नहीं लिया गया या प्रतिकर का भुगतान नहीं किया गया, वहाँ उक्त कार्रवाइयों के बारे में यह समझा जायेगा कि वह रद्द हो गयी हैंं और सरकार यदि चाहे तो इस अधिनियम के उपबन्धों के अनुसार ऐसी भूमि अर्जन की कार्रवाइयाँ नये सिरे से प्रारम्भ करेगी।
यानी यह धारा साफ शब्दों में कह रही है कि कनहर बाँध के लिए किया गया भूमि अधिग्रहण रद्द हो चुका है। कारण साफ है अधिग्रहण किये 38 साल गुजर चुके हैं और अभी तक अधिग्रहित  भूमि पर भौतिक कब्जा किसानों का ही है। अगर कहनर बाँध बनाना भी है तो नये सिरे से भूमि अधिग्रहण करना होगा, जबकि सरकार और प्रशासन गैर कानूनी तरीके से पुनर्वास पैकेज पर किसानों और आदिवासियों से समझौता चाहते हैं।
3– एनजीटी की तीसरी याचिका
कनहर और पागन नदी के रेत पर धरने पर बैठे आन्दोलनकारी उस वक्त बहुत खुश हुए जब उन्हंे पता चला कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यून (एनजीटी) ने कनहर बाँध का काम अगले आदेश तक रोक देने का निर्देश दिया है। 24 सितम्बर 2014 को कनहर बचाओ आन्दोलन की तरफ से पीयूसीएल और विन्ध्य बचाओ समिति द्वारा दायर याचिका पर सुनावई करते हुए एनजीटी ने अन्तिम निर्णय आने तक काम रोकने का आदेश दिया। एनजीटी ने आदेश दिया कि जब तक कानून के मुताबिक इस परियोजना के लिए एनवायरमेन्टल क्लियरेंसतथा फारेस्ट क्लियरेंसनहीं लिया जाता परियोजना स्थल पर कोई काम न हो और न ही कोई पेड़ काटा जाये।
यह याचिका इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है, कयोंकि जंगल और नदियों से घिरे सोनभद्र के पर्यावरण को इस परियोजना से बड़ा खतरा है। इस इलाके के पर्यावरण पर होनेवाले प्रभाव का कोई भी आकलन मौजूद नहीं है। याचिका में कहा गया था कि परियोजना के सन्दर्भ में सरकारों ने पर्यावरण कानून और वन कानून का उल्लंघन किया है। 38 साल बाद पुन: निर्माण कार्य करने के लिए पर्यावरण और वन कानून के तहत नयी अनुमति ली जानी थी, जो कि नहीं ली गयी। एनजीटी ने अपने 2008 के सर्कुलर में साफ कर दिया था कि ट्रिब्यूनल ने एन्वायरमेन्ट इम्पैक्ट असेसमेंट नोटीफिकेशन 2006 के तहत उन सभी परियोजनाओं को जिनके लिए 1994 से पहले जमीन अधिग्रहित की गयी थी फिर से एनवायरमेन्ट और फारेस्ट क्लियरेंस लेना अनिवार्य होगा। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने एक आरटीआई के जवाब में यह बताया था कि परियोजना के लिए 1980 में एनवायरमेंट क्लियरेंस लिया गया था, जबकि फारेस्ट क्लियरेंस तो लिया ही नहीं गया। इतने साफ निर्देश के बावजूद प्रशासन ने काम नहीं रोका और यही कहता रहा कि उसके पास क्लियरेंस मौजूद है।
शासन की इस जबरई के खिलाफ एनजीटी में न्यायालय की अवमानना का मुकदमा दायर किया गया। एनजीटी ने इन दोनों मुकदमों को आपस में जोड़कर सुनवाई की और पिछले 24 मार्च को सुनवाई पूरी करते हुए अपना फैसला सुरक्षित कर लिया। यह लेख लिखे जाने तक कोई फैसला नहीं आया है।
वर्तमान घटनाक्रम
जिस परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण ही सवाल के घेरे में हो, उसके लिए पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना की चाल चलना कितना दुर्भावनापूर्ण है यह कनहर के सबक से सीखा जा सकता है। इन तमाम याचिकाओं और जनआन्दोलन की भावना को दरकिनार करते हुए स्थानीय प्रशासन ने समाजवादी पार्टी से विधायक रूबी प्रसाद की अध्यक्षता में पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना के मसले पर ग्रामीणों की एक सभा बुलाई। 16 जून 2014 की इस सभा में हजारों लोग मौजूद थे। कनहर बचाओ आन्दोलन की रणनीति यह थी कि प्रशासन द्वारा बुलाई गयी इस सभा को जनसभा में तब्दील कर दिया जाय। हुआ भी ऐसा ही। वहाँ मौजूद हजारों लोग प्रशासन के बुलाने पर नहीं, बल्कि अपने आन्दोलन के आह्वान पर पहुँचे थे। मंच पर आकर सभी ग्रामीण आदिवासियों ने कनहर बाँध के विरोध में अपनी बात रखी। यहाँ वक्ताओं में वे ग्राम प्रधान भी मौजूद थे, जिन्होंने बाँध के विरोध में प्रस्ताव पारित कर किया था। अन्त में मुख्यमंत्री को सम्बोधित एक ज्ञापन भी सौंपा गया। लेकिर कुछ दिनों बाद जब इस सभा का कार्यवृत्त प्रधानों के पास पहुँचा तो इसे देखकर वे चकित रह गये। कार्यवृत्त में सिर्फ सरकारी अधिकारी और विधायक के ही वक्तव्य थे। जनता के विरोध को इसमें जगह नहीं दी गयी थी। इससे पता चलता है कि प्रशासन एक कृत्रिम सहमति बनाने की कोशिश में लगातार लगा रहा। 12 जुलाई 2014 को पुनर्वास समिति की बैठक में प्रशासन के रवैये पर अपना विरोध जताते हुए फिर से ज्ञापन दिया गया। और साथ ही साथ जगहजगह पर परियोजना प्रस्ताव एवं पुनर्वास प्रस्ताव की प्रतियाँ जलाने का निर्णय लिया गया।
सरकार और प्रशासन काम तो धीमी गति से बढ़ा रहे थे, लेकिन वे चैतरफा दबाव में थे। तीन याचिकाएँ और बढ़ते हुए आन्दोलन की वजह से पुलिस एवं प्रशासन की गाँव में घुसने की हिम्मत नहीं हो रही थी। इसी बीच दिसम्बर माह में बाँध निर्माण स्थल से करीब 200 मीटर की दूरी पर नदी के पेटे में कनहर बचाओ आन्दोलन की ओर से अनिश्चित कालीन धरने की शुरुआत हुई। यह धरना शान्तिपूर्ण था और दिन में यहाँ सभी गाँवों से हजारों लोग मौजूद रहते थे। भीषण ठंड में रात के खाने से लेकर, जलावन की लकड़ियों तक का इंतजाम था और लोग वहाँ डटे थे। रात में लोेग कम हो जाते थे, लेकिन धरना बदस्तूर जारी था। इसी बीच 24 दिसम्बर को ही पुलिस के साथ आन्दोलनकारियों की हल्की झड़प हुई। कई मुकदमे भी आन्दोलनकारियों पर लादे गये, लेकिन किसी को न तो गिरफ्तार किया गया और न ही कोई दबिश दी गयी। आन्दोलन की चैतरफा रणनीति की वजह से प्रशासन लगातार दबाव में था।
इसी बीच कुछ ऐसे लोगों ने आन्दोलन को अपनी तरह से चलाने की कोशिश की जिन्हें इस आन्दोलन की रणनीति, इतिहास और लामबन्दी का ज्ञान नहीं था। उन्होंने आते ही आन्दोलन के नाम से लेकर उसकी रणनीति तक सब कुछ बदल देना चाहा। डेढ़ दशक से आन्दोलन से जुड़े लोगों को बदनाम करने से लेकर उन्होंने आन्दोलन की व्यापक एकता को तोड़ने की कोशिश की। उन्होंने बगैर नतीजों के अनुमान लगाये, बगैर ठोस रणनीति बनाये 14 अप्रैल 2015 को लोगों से जबरन काम रुकवाने की अपील की। मजे की बात यह है कि यह रणनीति बनाने के बाद ये लोग सोनभद्र से नदारद हो गये। लोगों ने बहादुरी के साथ काम रोका और तीन दिन तक डटे रहे। लेकिन बगैर समुचित योजना, सटीक नेतृत्व और बगैर भारी जनबल उन्हें पहले 14 अप्रैल फिर 18 अप्रैल को पुलिस दमन का शिकार होना पड़ा। पुलिस ने 18 अप्रैल को धरना स्थल भी उजाड़ दिया और सुन्दरी गाँव में घुसकर, जो कि आन्दोलन का गढ़ है, हिंसा का नंगा नाच किया। पचासों लोग घायल हुए। गाँवों को छावनी में तब्दील कर दिया गया। बाहर से अवतरित हुए एडवेन्चरिस्ट लोगों की वजह से आन्दोलन की दूरगामी रणनीति का व्यापक नुकसान हुआ है।
इतना सब होने के बाद मीडिया भी दौड़ा, जाँच कमेटियों के लोग आये, सामाजिक आन्दोलन के लोग भी आ रहे हैं, लेकिन एक स्थाई और सतत कार्रवाई का जो सिलसिला चल रहा था वह फिलहाल टूट गया है। समाजवादी पार्टी और प्रशासन के लोग गाँवगाँव मीटिंग कर रहे हैं और लोगों को पुनर्वास पैकेज लेने के लिए बाध्य कर रहे हैं। यह पुनर्वास पैकेज 7 लाख 11 हजार रुपये का है। जिन कुछ लोगों ने पहले यह पैकेज लिया है उन्होंने बताया कि इस भीखमें भी अधिकारी अपना हिस्सा ले रहे हैं। लोगों को सिर्फ 2 लाख 11 हजार रुपया मिला है। प्रशासन इस मुद्दे पर बात नहीं करना चाहता कि जब यह पूरा बाँध और उसके लिए किया गया अधिग्रहण ही सवालों के घेरे में है तो पुनर्वास का सवाल ही कहाँ उठता है।
 पिछले कुछ सालों से प्रशासन द्वारा प्रायोजित बाँध बनाओहरियाली लाओअभियान के बाँध समर्थकों का समूह जो आन्दोलन के दबाव में दबादबासा था, आक्रामक हो उठा है। इसके जुड़े लोग जाँच कमेटियों और आन्दोलनकारियों पर हमला कर रहे हैं। प्रशासन का रुख इससे साफ है कि 20 अप्रैल की शाम 5 बजे जिलाधिकारी ने सुन्दरी गाँव में मीटिंगकर किसी की गिरफ्तारी न करने का आदेश दिया और इसी के ठीक ढाई घंटे बाद इलाहाबाद में गम्भीरा प्रसाद की गिरफ्तारी हुई।
इस समय आन्दोलन को पुन: संगठित करने की चुनौती सामने है। गाँव के लोग अभी पुलिसिया आतंक से उबरे नहीं हंै, नेतृत्व अभी बिखरा है। उत्तर प्रदेश सरकार और केन्द्र सरकार दोनों ही भूमि अधिग्रहण और जनान्दोलनों को कुचलने की जिस नीति पर चल रही है उससे आनेवाले दिन कठिन होनेवाले हैं। अभी जरूरत है कि लोगों का विश्वास फिर से असली मुद्दों पर कायम हो, वे फिर से अपना झण्डा उठाने के लिए तैयार हों। आन्दोलन को इस बार अदूरदर्शी लोगों से सावधान भी रहना होगा जो कि सतत लड़ाई का महत्त्व नहीं समझते और तात्कालिक एडवेन्चर में लड़ाई को उलझा देते हैं। एक बार फिर उसी व्यापक जनगोलबन्दी को बढ़ाना होगा, जिसमें जनान्दोलन की ऊर्जा भी हो और अदालती लड़ाई के लिए धैर्य भी। जिसमें संगठन बनाने की सूझबूझ भी हो और प्रदर्शनों और कार्रवाइयों का उत्साह भी। हमें फिर से अपने को यकीन दिलाना होगा कि कनहर बाँध असंवैधानिक, गैर कानूनी, पर्यावरणद्रोही व मानव विरोधी है और एक सतत संगठित संघर्ष के माध्यम से हमें निश्चय ही जीत मिलेगी?

अंशु मालवीय
Desh videsh 20 se sabhar