लेखक
जॉन बेलामी फोस्टर
अनुवाद
दिगम्बर
इस पुस्तक का सार यह है कि पारिस्थितिकी
और पूँजीवाद के क्षेत्र एक दूसरे के विरोधी हैं । हर अलग–अलग उदहारण में नहीं, लेकिन समग्र रूप से उनके बीच परस्पर
क्रिया के मामले में । यह पहुँच उनसे अलग है जो वर्तमान पारिस्थितिक संकट को आम
तौर पर स्थायी मानव स्वभाव, आधुनिकता, औद्योगीकरण या यहाँ तक कि आर्थिक विकास के मत्थे मढ़ते हैं, जिसमें इस उम्मीद के लिऐ भरपूर आधार है
कि मानव प्रगति की सम्भावना का परित्याग किये बिना ही हमारी बेहद गम्भीर
पारिस्थितिक समस्याओं का समाधान किया जा सकता है । लेकिन यह तभी होगा जब हम इस
प्रकार से सामाजिक परिवर्तन को आगे बढ़ाना चाहते हों जिसमें पर्यावरण के साथ अधिकतम
सम्भव टिकाऊ सम्बन्ध बनाया जाये ।
जिन अध्यायों से मिलकर पारिस्थितिकी :
पूँजीवाद के खिलाफ तैयार हुई है वे वर्ष 1992 से 2001 के बीच अलग–अलग निबन्धों के रूप में लिखे गये थे, जिनमें पूँजीवाद के अन्तर्गत पर्यावरण संकट के प्रति मुख्यधारा के आर्थिक
दृष्टिकोणों की आँखों देखी आलोचना प्रस्तुत की गयी थी । इस पुस्तक का लेखन उसी
दौरान हुआ जब मैं द वलनरेबुल प्लानेट : ए शॉर्ट इकोनोमिक हिस्ट्री ऑफ द
इन्वायर्मेन्ट (1994–1999) और मार्क्स’ इकोलोजी : मैटिरियलिज्म एण्ड नेचर (2000) पुस्तकों पर शोध और लेखन का काम कर रहा था । हालाँकि इन तीनों रचनाओं में
थोड़ा दुहराव है, जो कुछ–कुछ एक दूसरे के पूरक हैं । द वलनरेबुल प्लानेट में प्राक्पूँजीवादी समाजों
से आज तक के पारिस्थितिक क्षरण का एक संक्षिप्त ऐतिहासिक रेखाचित्र प्रस्तुत किया
गया है । मार्क्स’ इकोलोजी प्रकृति और पारिस्थितिक संकट की भौतिकवादी समझ की विरासत को खोज
निकालने के कठिन कार्यभार से शुरू होती है और यह कहानी 1882–1883 में डार्विन और
मार्क्स की मृत्यु तक जाती है । (मैं उसके अगले खण्ड पर काम कर रहा हूँ जो कहानी
को और आगे बढ़ायेगा ।) इकोलोजी अगेन्स्ट कैपिटलिज्म, दूसरी रचनाओं से इस मामले में भिन्न है
कि इसकी दिलचस्पी एक अकेली ऐतिहासिक कहानी प्रस्तुत करने में नहीं है । बजाय इसके
यह पूँजीवाद और पर्यावरण के ऊपर चलने वाले समसामयिक राजनीतिक–आर्थिक बहस में सीधे हस्तक्षेप का एक
प्रयास करती है । इस प्रक्रिया में इसमें चित्तीदार उल्लू, हानिकारक कचरे का निर्यात और ग्लोबल
वार्मिंग जैसे ठोस मुद्दों को उठाया गया है ।
......
1997 से 2001 तक, क्योटो प्रोटोकोल को लागू किये जाने से सम्बन्धित अगले समझौतों में
मुख्यत% दो जरूरी बिन्दुओं पर ध्यान केन्द्रित किया गया–– पहला, खरीद–बिक्री
योग्य उत्सर्जन परमिट का प्रावधान,
जो देशों को यह अनुमति देता है कि उन देशों से उत्सर्जन परमिट खरीदकर, जिनको उसकी जरूरत न हो, वे अपने उत्सर्जन में कटौती का अनुपालन
कर सकें तथा दूसरा, ऐसी
“कार्बन कटौती” के बदले भत्ता देना शामिल करना जो जंगल
और खेती के लिए उत्सर्जन साख (धन) मुहैया करेगा । यूरोपीय संघ ने इन दोनों
प्रस्तावों का यह कहते हुए विरोध किया कि ये उत्सर्जन में कमी का लक्ष्य हासिल
करने में असली विफलता को छुपाने वाले एक झीने पर्दे के समान हैं । अमरीका, जापान, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया
और न्यूजीलैण्ड ने इन उपायों का समर्थन किया । नवम्बर 2000 में हेग में समझौता टूट गया जब दोनों
पक्षों ने इस विवाद पर पीछे हटने से मना कर दिया । मार्च 2001 में, जब ये मुद्दे अभी हल भी नहीं हुए थे और किसी भी बड़े औद्योगिक देश ने
अभी समझौते का अनुमोदन भी नहीं किया था, तभी बुश प्रशासन ने घोषणा की कि क्योटो प्रोटोकोल “घातक रूप से दोषपूर्ण” है और एलान किया कि यह जलवायु समझौते
से इकतरफा तौर पर बाहर जा रहा है ।
फिर भी जुलाइ 2001 में बॉन में क्योटो प्रोटोकोल के
संशोधन का रास्ता बनाने के लिए तैयार किये गये समझौते के खाके को आगे बढ़ाया गया ।
इस सन्धि को लागू करने के लिए वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन करने वाले 55 प्रतिशत देशों द्वारा इसका अनुमोदन
जरूरी था । इन परीस्थितियों में यूरोपीय संघ को एक–एक बिन्दु पर झुकने को मजबूर किया गया–– उसी अवस्थिति को अपनाने के लिए बाध्य किया गया
जिसे अमरीका (जापान, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड के साथ
मिलकर) ने पहले ही हेग में आगे बढ़ाया था ।
हालाँकि बॉन में
क्योटो प्रोटोकोल से अमरीका के बाहर निकल जाने के बावजूद उसे टिकाये रखा गया लेकिन
यह तमाम छेदों से भरा हुआ था जो उत्सर्जन की लक्षित कटौती को धता बताता था । खेतों
और जंगलों को कार्बन कटौती के रूप में लिया जाना था, जिसका परिणाम उत्सर्जन में कटौती के बदले में साख (धन) जमा होता था ।
परिणामत% उन देशों को महज अपने पेड़ों को बढ़ते हुए निहारने को ही “उत्सर्जन घटाने” में गणना की जाती । खरीद–बिक्री योग्य प्रदूषण परमिट की अनुमति
दी जानी थी जिससे जापान, कनाडा
और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश, जिन्होंने
1990 के बाद से अपने
ग्रीनहाउस गैस को काफी अधिक बढ़ाया था, उनको रूस जैसे देशों से उत्सर्जन परमिट खरीदने की इजाजत मिलती, जहाँ सोवियत संघ और अधिकांश औद्योगिक
ढाँचे के पतन के चलते 1990 के
बाद से अचानक उत्सर्जन में गिरावट आयी थी । उत्सर्जन कटौती के लक्ष्य को हासिल
करने में विफलता का एकमात्र जुर्माना इतना ही था कि उस देश का अगले चक्र का लक्ष्य
कुछ प्रतिशत बढ़ा दिया जाना था । यह प्रस्ताव कि जलवायु को नुकसान की क्षतिपूर्ति
की कीमत उस देश को चुकानी होगी जिसने लक्षित उत्सर्जन का पालन नहीं किया, उसे हटा दिया गया । जापान को एक बड़ी
छूट देते हुए मूल समझौते के “वैधानिक
बाध्यता” वाले चरित्र को
हटाकर उसकी जगह ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया गया कि यह समझौता “राजनीतिक रूप से बाध्यकारी” है । इस तरह, वह खास बात जो क्योटो प्रोटोकोल को मूल
यूएनएफसीसीसी से अलग करती थी–– उत्सर्जन
में कटौती को “वैधानिक
बाध्यता” के रूप में
स्थापित किया जाना–– उसे
त्याग दिया गया ।
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