हर मानसून में भारत के बहुत से हिस्सों
में बाढ़ आना बहुत सामान्य घटना है, लेकिन इस साल केरल की बाढ़ एक ऐसा भयानक त्रासदी
बनी कि उसने पूरे प्रान्त को तबाह कर दिया. प्राथमिक बचाव कार्य के बाद, राहत और
पुनर्निर्माण केरल की प्राथमिकता बन चुकी है. सरकार अब मुआवजा देने की अक्षम्य
ज़िम्मेदारी निभा रही है - 450 से भी ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है और आजीविका के
नुक्सान होने के कारण बहुतेरे लोग अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं. इसमें कोई संदेह
नहीं है कि केरल को मदद की जरूरत है और भारत में इसकी कोई कमी नहीं है.


नेचर
कम्युनिकेशन में प्रकाशित एक निवंध
के अनुसार, एक ही साथ कुल बारिश की मात्रा में गिरावट और भारी बारिश की घटनाओं का
बारबार और भारी उछाल हो रही है, जिसमें 1950-2015 के दौरान मध्य भारत में व्यापक
भारी बारिश में तीन गुणा बढ़ोत्तरी हुई है. निश्चित रूप से इसका सम्बन्ध वैश्विक
जलवायु परिवर्तन से है. दुनिया के सामने वैश्विक जलवायु परिवर्तन स्वीकार्य रूप से
ही सबसे गंभीर समस्या है. इसकी भयावहता के बावजूद मुख्यधारा का अर्थशास्त्र इस
समस्या हल करने की कोशिश करने और इसके जड़ तक पहुँचने में असमर्थ है. वैश्विक
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था— ‘मिडास प्रभाव’ यानी यह अवधारणा की पारिस्थिकी मूल्य को
आर्थिक मूल्य में बदला जा सकता है, के
बावजूद गिर रही है.
भारत में नवउदारवादी शासन में
पारिस्थितिकी और पर्यवरणविदों की बारबार चेतावनी के बावजूद जलवायु परिवर्तन की
परिघटना बेलगाम “विकास” कार्यवाही के कारण – तुरंत मुनाफे की लालच में भारत के
बहुत हिस्सों को तबाह कर रही है.
केन्द्रीय जल आयोग ने दर्शाया है कि हर
साल बाढ़ के चलते 1650 से भी ज्यादा लोगों की मौत होती है, लगभग 3.2 करोड़ लोग
प्रभावित होते है. हर साल 94,000 से भी ज्यादा मवेशियों का नुकसान होता है, 70 लाख
हेक्टेयर से ज्यादा खेती की जमीन बर्बाद होती है. सन 1953 से 2016 तक के आँकड़ों के
आधार पर यह हिसाब किया गया है. अगर इस पुरी समयावधि को दो हिस्सों में बाँट लिया
जाये – 1953 से 1991 और 1992 से 2016 तक, तो दूसरा हिस्सा नवउदारवादी शासन को सूचित
करता है. कोई भी देख सकता है कि पहली समयावधि में सालाना 1520 लोगों की मौत हुई जो
दुसरी समयावधि में बढ़कर 1843 हो गयी है. और यह सब पिछले दो पीढ़ियों के तमाम
वैज्ञानिक, तकनीकी और चिकित्सकीय तरक्की/अगुयाई के बावजूद हुआ.
केरल की बाढ़ सभी तर्कशील लोगों को
पश्चिम घाट की पारिस्थितिकी पर आये दो रिपोर्टों पर गंभीर रूप से नज़र डालने को
मजबूर कर रही है – एक 2011 में वेस्टर्न घाट्स इकोलॉजी एक्सपर्ट पैनेल के तरफ से
माधव गाडगिल द्वारा पेश किया गया और दूसरा के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में हाई
लेवल वर्किंग ग्रुप द्वारा पहले रिपोर्ट का एक कम प्रभावी रूप. लेकिन सभी सम्बंधित
राज्यों – कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, गोवा, गुजरात और तामिलनाडू ने इस पैनेल द्वारा
दिये गये सुझावों को नज़रअंदाज़ किया; इसमें साफ़-साफ़ कहा गया था की पूरा पश्चिम घाट
क्षेत्र पारिस्थितिकी रूप से नाज़ुक घोषित करना (पैनेल ने पुरे क्षेत्र को तीन तरह
की पारिस्थितिकी रूप से नाज़ुक हिस्सों में बाँटा था) आर्थिक कार्यवाही को गंभीर
रूप से चोट पहूँचायेगा.
माधव गाडगिल अपने निवंध “वेस्टर्न घाट्स
इकोलॉजी एक्सपर्ट पैनेल: एक पांच अंकों का नाटक” (इपीडब्लू, मई 2014) में बताया -
वेस्टर्न घाट्स इकोलॉजी एक्सपर्ट पैनेल रिपोर्ट .... ने एक तीखा बहस पैदा किया है,
यहाँ तक कि प्रदर्शन, विरोध और हिंसा भी. इसका मालयाली अनुवाद जो खूब बिका है,
सरकार ने जब रिपोर्ट को दबा दिया तब केरल शाश्त्र साहित्य परिषद्, एक जनविज्ञान
आन्दोलन ने प्रकाशित की ...... महाराष्ट्र में सरकार अपनी वेबसाईट पर जानबुझकर
विकृत संक्षिप्त रूप मराठी में प्रकाशित किया जिसमें कहा गया की वेस्टर्न घाट्स
इकोलॉजी एक्सपर्ट पैनेल ने कुछ ऐसे दानवीय प्रतिबंधनों को लोगों पर थोपने का
नुस्खा दिया है जिसमें लोगों की राय नहीं है. साथ ही साथ कई राजनेता और नौकरशाह तथा
केरल के चर्च के कुछ सदस्यों ने इस रिपोर्ट के बारे में भ्रम फैलाने का एक अभियान
शुरू किया. इस अभियान ने नवम्बर 2013 में कन्नूर की पहाड़ी इलाकों में, कालिकट,
मल्लापुरम, वायनाड और इडुक्की जिले में बड़े पैमाने पर हिंसा भड़काया.
हिन्दुस्तान टाइम्स को दिये गये एक
साक्षात्कार में, गाडगिल ने कहा, “केरल में अभी आयी बाढ़ और भूस्खलन के लिए गैरज़िम्मेदार
पर्यावरण नीति ज़िम्मेदार है. हद से ज्यादा पत्थर तोड़ना और पर्यटन के नाम पर
कुकुरमुत्ते की तरह ऊँची-ऊँची इमारतें बनना, और निजी संस्थाओं द्वारा वनभूमि पर
गैरकानूनी कब्ज़ा करना ही केरल में आई बाढ़ के पीछे बड़ा कारण है.” गाडगिल के अनुसार
कुल 1605 पत्थर खोदने का मशीन लगा हुआ है जिनमें से सिर्फ 150 को सरकारी अनुमति
मिली है. गौर करने वाली बात यह है की बरसात से प्रभावित इलाकों में से ज्यादातर
हिस्सा वही जिसे WGEEP
रिपोर्ट में कभी पारिस्थितिकी रूप से नाज़ुक बताया गया था.
उत्तराखंड के बाढ़ पर सन 2013 में प्रफुल
बिदवई ने गार्जियन में लिखा था कि उत्तराखंड की खतरनाक बाढ़ जिसने हज़ार से अधिक
आदमी मर गए, 70,000 लोग कई दिनों तक फंसे रहे और जानमाल की भारी तबाही हुई,
“सरकारी रूप से इसे एक प्राकृतिक तबाही कहा गया जो बादल फटने और अभूतपूर्व मानसूनी
भारी बारिश के चलते हुआ है. हालाँकि, इस महात्रासदी की असली बजह पिछले कुछ समय से
इलाके की पारिस्थितिकी को बिगाड़ने वाले पर्यटन उद्योग का तेजी से बढ़ोत्तरी,
पारिस्थितिक रूप से नाज़ुक इलाकों में सड़कों, होटलों, दुकानों और बहुमंजिला मकानों
का तीव्र फैलाव और सर्वोपरि कुकुरमुत्ते की तरह जलविद्युत बाँध का निर्माण जो जल
संतुलन को बिगाड़ता है, उसमे निहित है. इस तबाही के लिए तरह तरह की सरकारी विफलता
भी जिम्मेदार है.”
नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ डिजास्टर
मैनेजमेंट ने ‘उत्तराखंड डिजास्टर 2013’ में एक ज़ोरदार निष्कर्ष के तहत कहा –
‘पहाड़ी तराई क्षेत्र में सड़कों का निर्माण पारिस्थितिकी संतुलन को बिगाड़ने वाला
प्रधान कारक है. ये जलनिकासी के ढाँचे को (सतही और भूगर्भ दोनों में) नुकसान पहूँचा
सकता है, भुस्खलन बढ़ा सकता है, और मिटटी और चट्टानों में भारी हलचल पैदा करता है.
अगर भूवैज्ञानिक, भू-रूपात्मक, पारिस्थितिकी पहलुओं को नज़रअंदाज़ करके सड़कों का
निर्माण किया जाए तो पर्यावरण में गड़बड़ी और ज्यादा त्वरित होता है. वैज्ञानिकों ने
गणना किया है की सड़कों के आस-पास भुस्खलन खेती की जमीन की तुलना में 10 गुणा ज्यादा, घास के मैदान की तुलना में 100
गुणा ज्यादा और वन-आच्छादन की तुलना में 2000 गुणा ज्यादा होता है. पहाड़ी तराई में
एक किलोमीटर सड़क बनाने के लिए लगभग 60,000 क्यूबिक मीटर मलवा उस जगह से हठाना पड़ता
है.’ उत्तराखंड में दुर्भाग्यवश ज्यादातर सड़कें ऐसे मुद्दों पर सोचे बिना ही बनाया
जाता है, नतीजन अस्थिरता बढती है और भूस्खलन के लिए परिस्थिति तैयार हो जाती है.’
लेकिन 27 दिसम्बर, 2016 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उत्तराखंड के देहरादून
में चार धाम राज मार्ग परियोजना का शिलान्यास किया. इस परियोजना का अनुमानित खर्चा
12,000 करोड़ रूपया है जिसका मकसद हिमालय में चार श्रद्धेय हिन्दू तीर्थस्थानों को
सड़कों से बेहतर तरीके से जोड़ना. इसमें चार धाम स्थानों की दिशा में – गंगोत्री,
यमुनोत्री, बद्रीनाथ, केदारनाथ - 900 किलोमीटर राष्ट्रीय राजमार्ग का चौड़ीकरण
शामिल है. सरकार का मौखिक मकसद बारहमासी सड़क तथा सुरंगों, बाईपास और पुलों की
श्रृंखला बनाकर इन जगहों तक की यात्रा और सुरक्षित और तेज करना है. निहित स्वार्थ
तथा उद्दंडता और अज्ञान के चलते कैसे वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर दी गयी चेतावनी
को धार्मिक भावना तथा क्षुद्र आर्थिक लाभ के लिए नकारा जाता है, यह साबित करने के
लिए व्याख्या की जरूरत नहीं है.
कोई भी संवेदनशील व्यक्ति इस बात में
असहमत नहीं होगा कि तुरंत मुनाफे के लक्ष्य को सर्वोपरि रखने की नवउदारवादी नीति
लाजिमी तौर पर भारत में लगातार बढ़ती हुई पारिस्थिकी तबाही लाएगी. यह विवरण दिखाता
है कि जब धार्मिक भावना के साथ राजनीतिक तिकड़म घुलमिल जाता है तो स्थिति और खराब
होता है. यह दोहरा भ्रम – जिससे हमारी मौजूदा राजनीति पहले से ही जुड़ी हुई है – कि
मुनाफे का अँधा दौड़ या किसी दैवीय रामवाण के चलते
आने वाली पर्यावरण तबाही हमारे बच्चे और उनके बच्चों को निगल जायेगी, बचा
जा सकता है, एक ऐसा दुश्मन है जिसका सामना तर्कवादी कार्यकर्ताओं को करना पड़ेगा.
नवउदारवादी हमले के खिलाफ जनता की रोज़-रोज़ की लड़ाई में जनविज्ञान आन्दोलन एक
महत्वपूर्ण मित्र है और इसे जितना हो सके हमें हर संभव सहयोग देना होगा.
सुभाष
आयकात