Saturday, 6 June 2015

मातृ तकनीकी और विकास


22 मई 2015 को जनसत्ता पेपर में अरुण डिके का लेख “खेतों में छिपे हैं समृद्धि के बीज” छपा. लेख बहुत ही विचारोत्तेजक है. विकास के लिए विदेशी वैज्ञानिक ज्ञान पर भरोसा किया जाय या अपने देश की मातृ तकनीकी पर. यह सवाल कई सालों से चर्चा के केंद्र में है. हरित क्रान्ति की तात्कालिक सफलता और दूरगामी दुष्परिणामों से इस बहस में तीखापन आ गया है. मुझे याद है इस मुद्दे पर पी साईनाथ की “तीसरी फसल” किताब आयी थी जिसमें उन्होंने आँख मूंदकर पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान की नकल के चलते हो रहे विनाश की तरफ ध्यान दिलाया था. कई गाँवों का दौरा करके तथ्य जुटाए थे. जिससे व्यवहारिक स्तर पर योजनाओं की असफलता का पता साफ़ तौर पर चलता है.
अरुण डिके का यह लेख एकांगी है. यह पुरानी सामन्ती खेती को गौरवान्वित करती है. उस खेती की कमियों की कहीं भी आलोचना नहीं है. लेकिन यह लेख इस लिहाज से महत्त्वपूर्ण है कि इसमें पुरानी खेती के उस पहलू पर जोर दिया गया है जिसमें मातृ तकनीकी और पर्यावरण सरंक्षण एक जरूरी चीज थी. जिसे वैज्ञानिक विकास के साथ न केवल संरक्षित करना था बल्कि उसे विकसित करके पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान में समाहित कर लेना था. इससे पश्चिम का विज्ञान और हमारी मातृ तकनीकी मिलकर एक अजेय शक्ति बन जाती लेकिन पश्चिम के विज्ञान और पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली पर एक-तरफा जोर दिया गया. अपनी मातृ तकनीकी को भूला दिया गया. नतीजा, एक तरफ तो हर बात के लिए पश्चिम का मुँह देखना जैसे हमारी नियति बन गयी, तो दूसरी ओर पर्यावरण को इतना नुकसान पहुंचाया गया कि वह अब अस्तित्व के लिए संकट बनता जा रहा है.
अरुण डिके बहुलतावादी कृषि संस्कृति और जैविक विविधता पर जोर डालते हुए बताते हैं कि “कम पानी में भी सामान्य स्तर की मिट्टी में पैदा होने वाला ज्वार, बाजरा, मक्का जैसा अनाज और कोदो-कुटकी, रागी, राला, जौजई जैसे मोटे अनाज छोड़ कर केवल गेहूं की महंगी फसल के अनुसंधान और उनके फैलाव पर देश की तिजोरी क्यों खाली हुई? क्यों मूंगफली, तिल, रामतिल अलसी, सरसों जैसी आसानी से पकने वाली दलहनी और तिलहनी फसलों को छोड़ केवल सोयाबीन का फैलाव इस देश में हुआ? जबकि गांव-गांव में तेल की घानियां चलती थीं, चरखे चलते थे और रोजगार उपलब्ध थे।
समृद्धि दो तरीके की होती है। एक धन यानी कागजी मुद्रा, जिसके बल पर गरीबी और अमीरी नापी जाती है। दूसरी समृद्धि है दौलत की यानी आपके खेत, उनमें खड़े पेड़-पौधे, झाड़ियां, लहलहाती फसलें, कुएं, तालाब, मछलियां, पशुधन आदि। कागजी मुद्रा कमाने के चक्कर में हमने किसानों को अपनी ही दौलत लूटना सिखाया। ट्रैक्टर आए तो बैल गायब हो गए। झाड़ियां, पेड़ खेतों से गायब हो गए। खाद, दवाई, बीज आदि महंगे होते गए, फसलें सस्ती हो गर्इं। किसान गांव छोड़ कर शहरों की तरफ पलायन करने लगे। जिनमें हुनर था वे छोटा-मोटा कोई व्यवसाय और मजदूरी करने लगे, जिनमें नहीं था वे भटक गए।
आजादी के बाद जगह-जगह जो कृषि विश्वविद्यालय और अनुसंधान केंद्र खोले गए उन्होंने हमारी पारंपरिक वैज्ञानिक खेती को देखे-समझे बिना ही विदेशी तकनीकों को अपना लिया।“
कम्पोस्ट खाद के इस्तेमाल से खेतों में कार्बन की ऊँची मात्रा बरकरार रखी जा सकती है. लेकिन खेतों को लगातार मथकर मख्खन तो निकाला जाता रहा लेकिन खेती के सडे-गले अंश और जानवरों के गोबर वापस खेतों में न जा पाने के चलते उसमें कार्बन का स्तर गिरता गया. जिससे खेतों में लाभदायक जीवाणु और केचुए जैसे कृषि मित्र जीव भी खत्म हो गये. इनके ख़त्म होने का एक और कारण था- कीटनाशक और खर-पतवार नाशक का अंधाधुंध इस्तेमाल. तीव्र शहरीकरण ने मुश्किलें और बढा दी हैं. गाँवों से लगातार अनाज और सब्जियां शहर ले जाए गये लेकिन शहर का कचरा वापस खेतों में नहीं डाला गया. शहर गन्दगी से भर गये. खेतों में जरूरी तत्वों की कमी हो गयी.
1905 में ब्रितानी हुकूमत ने वैज्ञानिक अलबर्ट हॉवर्ड को भारत के किसानों को रासायनिक खेती सिखाने के लिए भेजा था लेकिन अलबर्ट हॉवर्ड भारत की कम्पोष्ट खाद पर आधारित खेती के कायल हो गये. उनहोंने 1923 में इंदौर में इंस्टीट्यूट ऑफ प्लांट इंडस्ट्री की स्थापना की। लेकिन उनके कामों को आजाद भारत में याद नहीं किया गया.
अरुण डिके खेती पर आधारित कुटीर उद्योग पर जोर देते हुए लिखते हैं कि “केवल फसलें उगा कर किसानों का पेट नहीं भरता। फसलों से गांव-गांव कुटीर उद्योग भी जरूरी हैं। यही भारतीय खेती की विशेषता थी।... हमारे देश में फसलों की इतनी विविधता है कि अगर किसानों को प्रशिक्षित किया जाए तो वह उनकी अतिरिक्त आय का साधन बन सकती है। कुछ सालों से विदर्भ के किसानों ने हमारी पुरानी पारिवारिक फसल लाल अंबाडी पर सफल कुटीर उद्योग चला कर नई राह दिखाई है। लाल अंबाडी एक क्रांतिकारी फसल है। इसके पत्तों की खटास से बहुत अच्छी तरकारी बनती है। अंबाडी के लाल फूल सुखा कर उनसे शीतल पेय, दवाई, चटनी और मुरब्बा तैयार होता है। अंबाड़ी के तने को पानी में रखने से उससे बहुत अच्छा तागा निकलता है, जो नल बांधने के काम आता है। उससे फर्नीचर भी तैयार होता है।...
पिछले साठ वर्षों में कृषि विश्वविद्यालयों से निकले लाखों विद्यार्थियों ने खाद, बीज, कीटनाशक बनाने वाली कंपनियों में ऊंची तनख्वाहों पर नौकरी कर ली, बैंकों में और अन्य रोजगार पकड़े और शहरों में बस गए। बहुत कम विद्यार्थियों ने गांव की राह पकड़ी। हमारी कृषि शिक्षा प्रणाली ने विद्यार्थियों को गांवों से तोड़ा। ...
जब देश आजाद हुआ तब हमारे खजाने के एक रुपए में छप्पन पैसे भागीदारी हमारे गांवों की थी। किसानों की आत्महत्या अगर पिछले पचास वर्षों की सबसे बड़ी त्रासदी है, तो खेतों, किसानों और गांवों के प्रति हमारा नकारात्मक नजरिया उससे भी ज्यादा त्रासद है।...
जब देश आजाद हुआ तब हमारे खजाने के एक रुपए में छप्पन पैसे भागीदारी हमारे गांवों की थी। किसानों की आत्महत्या अगर पिछले पचास वर्षों की सबसे बड़ी त्रासदी है, तो खेतों, किसानों और गांवों के प्रति हमारा नकारात्मक नजरिया उससे भी ज्यादा त्रासद है।...“
वह खेती की समस्या को सही तरीके से चिन्हित करते हैं लेकिन उन समस्याओं के पीछे काम करने वाले आर्थिक-राजनीतिक कारणों को समझने-समझाने के जहमत नहीं उठाते या यूँ कहा जाए कि उसका खतरा मोल लेना नहीं चाहते इसीलिए उनके समाधान बहुत निम्न स्तरीय और एनजीओ की विचारधारा से ओत-प्रोत है. वह कहते हैं, “... कई इंजीनियर, सॉफ्टवेयर इंजीनियर भारी-भरकम तनख्वाह छोड़, गांवों में जाकर बस गए हैं, धन छोड़ प्राकृतिक दौलत जुटाने में लगे हैं।... ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए कार्य कर रही सामाजिक संस्थाओं को चाहिए कि कार्वर, हॉवर्ड, सालुंखे फूकुओका और दाभोलकर के कार्यों पर लिखी पुस्तकों का अध्ययन करें और किसानों के हाथ मजबूत करें। यही समय की मांग है “
सवाल यह है कि इसके बावजूद किसानों की दुर्दशा और आत्महत्या का सिलसिला थम नहीं रहा है. सभी जानते हैं कि देश के सारे संसाधन सरकार और पूंजीपतियों के हाथ में हैं. उसे छोड़ दिया जाय और व्यवस्था के लूटतंत्र को चलते रहने दिया जाए तो थोड़े संसाधन में खेती की उन्नति और किसानों का भला कैसे किया जा सकता है?

-विक्रम प्रताप