Friday, 20 March 2015

हरित क्रान्ति- पूँजीवादी खेती का कहर

यह निर्विवाद है कि हरित क्रांति ने खाद्यान्न के मामले में देश को एक हद तक आत्मनिर्भर बनाया, लेकिन उससे भी बड़ा सच यह है कि हरित क्रांति का अगुआ प्रान्त पंजाब आज इसके बुरे अंजाम भुगत रहा है। अमरीका की सलाह और सहायता से 1960 के दशक से शुरू हुई हरित क्रांति पूँजीवादी खेती का एक नमूना है जिसमें अनाज का उत्पादन लोगों की भूख मिटाने के लिए नहीं, बल्कि बाजार के लिए किया जाता है। इसके तहत अधिक मुनाफा देने वाली गेहूँ, धान, कपास और गन्ने की एकफसली खेती को बढ़ावा दिया गया, जबकि दलहन, तिलहन और मोटे अनाज की परम्परागत फसलों की उपेक्षा की गयी। इससे फसल चक्र प्रभावित हुआ तथा मिट्टी की उर्वरता, नमी और भुरभुरेपन में कमी आयी। इसकी भरपाई के लिए रासायनिक खाद, कीटनाशक और भूजल का बेअन्दाज इस्तेमाल किया जाने लगा जिससे भूजल खतरनाक स्तर तक गिर गया, जमीन जहरीली हो गयी और किसानों के मित्र कहे जाने वाले जीव-जन्तुओं और खरपतवारों का भारी पैमाने पर विनाश हुआ। मिट्टी के आवश्यक अवयव-कार्बनिक पदार्थ और खनिज लवण नष्ट हो गये तथा मिट्टी की उ$परी परत कठोर हो गयी। खेती का प्राकृतिक और संतुलित ढाँचा चरमरा गया और पर्यावरण को अपूरणीय क्षति हुई। इसके अलावा पंजाब की जनता आज हरित क्रांति के तीन बुरे नतीजों-कर्ज, कैंसर और पेयजल संकट की मार झेल रही है।
पूँजी और तकनीक पर निर्भर, छोटे और सीमान्त किसानों को हरित क्रान्ति का लाभ नहीं मिला। ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ साधन-सम्पन्न लोगों की सम्पत्ति में तो बेहिसाब बढ़ोतरी हुई, लेकिन बड़ी संख्या मंे गरीब किसानों का जीवन-स्तर बद से बदतर होता चला गया। इसने एक नये वर्ग-विभाजन को जन्म दिया। इसी का परिणाम है कि भारत का अन्न भण्डार माना जाने वाला पंजाब आज भूख और कुपोषण के मामले में अफ्रीका के गरीब देशों से भी आगे है। यहाँ तक कि भरपेट खाने वाले लोगों को भी पर्याप्त मात्र में पोषक-तत्व नहीं मिलता जिससे वे कुपोषण के शिकार हैं। एक चौंकाने वाली खबर यह है कि यहाँ माँ-बाप अपने बच्चों के लिए खिलौने की जगह व्हीलचेयर खरीदने को मजबूर हैं।
एक अध्ययन के अनुसार उत्तर भारत के सबसे अधिक उपजाउ क्षेत्र गंगा-यमुना के दोआबा में सतह से एक फुट नीचे की जमीन पथरीली होने लगी है और पूरे देश की 14.6 करोड़ हेक्टेयर उपजाउ$ भूमि बंजर हो गयी है। हरित क्रान्ति के अदूरदर्शी पुरोधाओं ने तात्कालिक लाभ के लिए देश को पर्यावरण संकट में धकेल दिया और वर्तमान शासक वैश्वीकरण के तहत खेती को साम्राज्यवादी देशों की दैत्याकार कम्पनियों के हवाले करते जा रहे हैं। इसे ही वे दूसरी हरित क्रान्ति का नाम दे रहे हैं। जैव विविधता का विनाश करने वाले निरवंसिया (बी.टी.) बीज, जीन टेक्नोलॉजी और कारपोरेट खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। देश के कई अन्य इलाकों में डॉलर कमाने के लोभ में खाद्यान्न की जगह जट्रोफा, केला, युक्लिप्टस, नारियल, फूल, सफेद मूसली और पीपरमेन्ट की खेती को बढ़ावा देकर पर्यावरण का विनाश किया जा रहा है। बैंक या साहूकारों से कर्ज लेकर इन फसलों की खेती करने वाले किसान फसल बर्बाद होने या उचित दाम न मिलने से तबाह हो रहे हैं। देश भर में लाखों किसान आत्महत्या कर चुके हैं। और कई इलाकों में वे आत्महत्या करने के बजाय साहूकारों के साथ-साथ सरकार की किसान विरोधी नीतियों के खिलाफ भी संघर्ष कर रहे हैं, ताकि कर्ज वसूली के भय से भविष्य में कोई अन्य किसान आत्महत्या करने को मजबूर न हो।

Saturday, 14 March 2015

खेती और जलवायु परिवर्तन

खेती में रासायनिक खाद और डीजल का इस्तेमाल तथा फसलों से उत्सर्जित कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्र के चलते ग्लोबल वार्मिंग में बहुत अधिक वृद्धि नहीं होती है, क्योंकि पेड़-पौधे उसे अवशोषित कर इसके प्रभाव को कम कर देते हैं। साथ ही इंसान के अस्तित्व की शर्त होने के कारण खेती से होने वाले कार्बन डाइ ऑक्साइड उत्सर्जन को पूरी तरह रोकना सम्भव नहीं है। लेकिन इसे काफी हद तक नियोजित और नियन्त्रिात किया जा सकता है।
खेती पर जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव साफ तौर पर दिखने लगा है। जलवायु परिवर्तन के लिए अन्तरसरकारी पैनल (आई पी सी सी) के अनुसार वर्ष 2030 तक कुछ इलाकों को छोड़कर दुनिया के बड़े भूभाग के कृषि उत्पादन में 30 प्रतिशत तक गिरावट आएगी। दशकों से जारी सूखे और रेगिस्तानीकरण से ग्रसित अफ्रीका के दार्फुर में तब खूनी संघर्ष शुरू हो गया जब वहाँ के अगरा आदिवासी अपने मवेशियों के साथ पानी की तलाश में खेतिहर ग्रामीण समुदायों के इलाके में घुस गये।
रिपोर्ट के मुताबिक वायुमण्डल में कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्र बढ़ने से कुछ फसलों की पैदावार में वृद्धि हो सकती है। लेकिन अधिक गर्मी की चपेट में आकर फसलों का जीवन-चक्र छोटा हो जायेगा, जिससे उत्पादकता में बहुत ज्यादा गिरावट होगी। साथ ही, खाद्य पदार्थों में लौह, जिंक और प्रोटिन जैसे पोषक तत्त्वों की मात्र घट जायेगी, चारे की फसल में नाइट्रोजन की कमी से जानवरों के पाचन तंत्र कमजोर हो जायेंगे तथा बांग्लादेश, भारत और वियतनाम के समुद्र तट डूबने से धान के खेत उजड़ जायेंगे।
ग्लोबल वार्मिंग के कारण उत्तर प्रदेश में अब हर साल मानसून 10-20 दिन देरी से पहुँचता है और उसके बाद होने वाली मूसलाधार बारिश में छोटी नदियों में बाढ़ आ जाती है। गाँवों और मुहल्लों में पहले तालाब, गड्ढे, नाले और छोटी नहरें हुआ करती थीं, जिनसे होकर बरसात का पानी बह जाता था। इससे अतिवृष्टि अधिक तबाही नहीं मचा पाती थी। खेती और आवास के लिए जल निकासी के संसाधनों को पाट दिया गया, जिसके कारण बरसात का पानी सीधे खेतों को डूबोकर फसल चौपट कर देता है और कच्चे घरों को क्षतिग्रस्त कर देता है। उत्तर प्रदेश के 3.55 करोड़ लोग सीधे खेती से रोजगार पाते हैं जिनमें से 90 प्रतिशत छोटी जोत वाले किसान और भूमिहीन मजदूर हैं। इनमें से 70 प्रतिशत लोग पर्यावरण संकट की विभीषिका झेल रहे हैं।

 विकास योजनाओं के नाम पर खेती योग्य भूमि का अधिग्रहण, मानसून के दौरान सूखा पड़ना, छोटी नदियों में बाढ़, तेजी से कटते वृक्ष, बंजर होती जमीन और घटते भूजल के कारण खेती की उत्पादकता तेजी से गिर रही है। 2009 में मानसून की कमी से देश के कुछ भागों में सूखा और आकाल पड़ा। इसके बावजूद राहत पैकेज की जिम्मेदारी केन्द्र और राज्य सरकारें एक-दूसरे पर टालती रहती हैं। खाद, बीज, डीजल की तेजी से बढ़ती कीमतों ने किसानों की कमरतोड़ दी है। खेती घाटे का सौदा हो गयी है। कई किसान खेती से उजड़कर हमेशा के लिए उजरती मजदूर बन गये हैं और कई किसान साहूकारों के चंगुल में फँसकर आत्महत्या करने को मजबूर हो गये हैं।

Thursday, 5 March 2015

प्रदूषित पेयजल

आज नदियों में इतना जहर घुल गया है कि इनका पानी जीवनदायी नहीं बल्कि जानलेवा हो गया है। यमुना में पानीपत, समालखा और सोनीपत के कारखानों का विषैला गंदा पानी छोड़ने से अमोनिया का स्तर इतना बढ़ गया है कि कई बार दिल्ली के जल- शोधक प्लांट भी बन्द करने पड़ते हैं। साफ करके इस्तेमाल में लाने के लिए 100 मिलीलीटर पेयजल में 500 से अधिक खतरनाक फीकल कोलिफार्म जीवाणु नहीं होने चाहिए जबकि कई स्थानों पर यमुना के जल में 4.4 लाख से ज्यादा जीवाणु पाये गये जो नहाने लायक पानी से भी 100 गुना ज्यादा खतरनाक है। इस पानी में ऑक्सीजन की मात्र भी खतरनाक स्तर तक कम पायी गयी और अब इसे पीने लायक बनाने का कोई भी तरीका कारगर नहीं रह गया है। यही हाल गंगा नदी का भी है। तमाम प्रतिबन्धों  के बावजूद हरिद्वार से लेकर मुजफ्फरनगर तक सैकड़ों फैक्ट्रियों से बहाया जाने वाला रासायनिक कचरा गंगा में विष घोल रहा है। वैसे तो गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाये रखने के लिए कड़े नियम कानून हैं, लेकिन वे केवल कागजों और फाइलों तक सीमित हैं।
मुजफ्फरनगर के अन्तवाड़ा गाँव से निकलकर मेरठ होते हुए कनौज के निकट गंगा में मिलने वाली काली नदी कैंसर का पर्याय बन चुकी है। इसकी एक झलक नीचे दी गयी तालिका से मिलती है-
काली नदी का प्रदूषण
तत्व            अधिकतम मानक         काली नदी में प्रदूषण की        अधिकता से होने वाली बीमारी
लैड                    0.02                                0.18                                  पेट की बीमारी, उल्टी
                                                                                               नसों में ढीलापन, किडनी की खराबी
कैडमियम          0.01                                0.06                                बुखार, गुर्दे फेल होना
क्रोमियम           0.05                              0.16                                  नर्वस सिस्टम डैमेज
आयरन               1                                    7                                         चर्म रोग, कैंसर

इन तत्वों के अलावा नदियों के पानी में बीएचसी, हैप्टाक्लोर आदि प्रतिबन्धित- कीटनाशक भी खतरनाक मात्र में पाये गये हैं। हैण्डपम्पों से भी इस नदी का दूषित जल निकल रहा है जिसे पीकर मेरठ के एक ब्लॉक में 250 परिवारों के लोग कैंसर और चर्मरोग की चपेट में हैं और जिन्दगी से तंग आकर वे मौत की भीख माँग रहे हैं। इस इलाके के लोगों में प्रशासन और प्रदूषण नियन्त्राण बोर्ड के प्रति नफरत और आक्रोश है। कई बार वे अधिकारियों को बन्धक बना चुके हैं, फिर भी सरकार के कानों पर जूँ नहीं रेंगती। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के भूजल में हर जगह काफी अधिक मात्र में टीडीएस रसायन घुलमिल चुका है, जिससे अनगिनत लोग पथरी की बीमारी से पीड़ित हैं। दिल्ली के पास से गुजरने वाली हिण्डन नदी इतनी अधिक प्रदूषित हो गयी है कि उसके आस-पास के गाँवों में लोग अपनी बेटी की शादी करने से भी कतराते हैं। उच्च वर्ग और उसकी सरपरस्त सरकारें भला इस बात से क्यों चिन्तित होंगी? उनके लिए तो वाटर फिल्टर और मिनरल वाटर है ही। पानी बेचने वाली कम्पनियाँ इस जानलेवा प्रदूषण का लाभ उठाते हुए करोड़ों-अरबों की कमाई कर रही हैं। साथ ही इससे उत्पन्न बीमारियों का इलाज करने वाले डॉक्टर भी अपनी तिजोरी भर रहे हैं।
पर्यावरण संकट के कारण भूजल स्तर में भी तेजी से गिरावट आयी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ट्यूबवेलों ने पानी देना कम कर दिया है। कई ट्यूबवेल सूख चुके हैं। महँगे सबमर्सिबल पम्प लगाने के बावजूद उनसे पर्याप्त पानी नहीं आ रहा है। सन् 2007 में गंगा नहर में भी पानी की मात्र काफी कम हुई है। भूजल स्तर गिरने के पीछे मुख्य कारण नहरों की तली पक्की होना, तालाबों का सूखना और भराव, बारिश की कमी और भूजल का बेहिसाब दोहन है। प्रदूषण और कचरा जमा होने से नदियाँ छिछली हो गयी हैं और कटाव रोकने में सरकार की लापरवाही के कारण उनके कगार टूट कर कमजोर होते गये हैं। संकरी हो चुकी यमुना वर्ष 2010 में बारिश का पानी सम्भाल नहीं पायी और उसके कमजोर तटबन्ध टूट गये जिससे हरियाणा के ग्रामीण इलाकों में बाढ़ आ गयी। यही स्थिति दूसरे देशों की भी है। वर्ष 2000 से 2004 के बीच जल उपलब्धता में भारी कमी के चलते दक्षिण एशिया के 46.2 करोड़ लोग सूखे की चपेट में आकर मौत या विस्थापन के शिकार हुए।
देश के अन्य इलाकों में भी जल संकट गहरा रहा है। 230 किलोमीटर क्षेत्र में फैली राजस्थान की खारे पानी की सांभर झील सूखने के कगार पर है। इस झील से सालाना दो लाख नब्बे हजार टन नमक उत्पादन के बावजूद इस इलाके में भयावह गरीबी है। भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण आस-पास के गाँवों में पेयजल की समस्या पैदा हो गयी है।  दरअसल नमक के बाजार मूल्य 10 रुपये प्रति किलो में से 40 पैसे ही मेहनत करने वाले उत्पादकों को मिलता है। बाकी उद्योगपति और व्यापारी डकार जाते हैं। नमक उत्पादन के काम में छोटी-बड़ी कई कम्पनियाँ कारोबार फैला चुकी हैं। इनमें से 74 प्रतिशत कम्पनियाँ गैर कानूनी हैं। मजदूरों से यहाँ प्रतिदिन 9-10 घण्टे नंगे पैर काम कराया जाता है जिससे उनके चेहरों पर झुर्रियाँ और पैरों में फफोले पड़ जाते हैं। इसने वहाँ की एक पूरी पीढ़ी को जवानी में ही बूढ़ा बना दिया है। ये लोग 45 की उम्र तक पहुँचने से पहले ही मर जाते हैं। यही हाल देश के उन समुद्र तटीय इलाकों का भी है जहाँ नमक बनाया जाता है।
दक्षिण गुजरात के बलसाड जिले का तदगाम समुद्री किनारा बदबूदार विषैले कीचड़ से पट चुका है। इस इलाके की रसायन, उर्वरक, कीटनाशक, खरपतवार नाशक और दवाईयाँ बनाने वाली 300 कम्पनियाँ विषैले कचरे को दसियों किलोमीटर लम्बे पाइपों के जरिये किनारे पर बहाती रहती है। कानून के मुताबिक इन कचरों को समुद्र में छोड़ने से पहले इन्हें कचरा ट्रीटमेंट प्लांट से शोधित करना चाहिए और दिन में दो बार शोधित कचरे की गुणवत्ता की जाँच होनी चाहिए। कम्पनियाँ ऐसे किसी कानून की परवाह नहीं करती हैं। कचरा ले जाने वाली पाइपें सड़ चुकी हैं। उनसे रिसने वाला जहरीला पानी गाँवों के पेयजल को प्रदूषित कर रहा है जिससे वहाँ के 60 प्रतिशत स्थानीय लोगों में पाचन, त्वचा और साँस सम्बन्धी बीमारियाँ फैल चुकी हैं। साथ ही इससे वहाँ की फसल चौपट हो रही है और पालतू मवेशी मर रहे हैं।
गुजरात प्रदूषण नियन्त्राण बोर्ड के मानक के अनुसार परीक्षण में वही जल शुद्ध माना जायेगा जिसमें मछलियाँ कम से कम 90 दिनों तक जिन्दा रह सकें। इस इलाके के समुद्री जल का आलम यह है कि परीक्षण के लिए भेजे गये जल में मछली 5 मिनट में ही मर गयी। यही वजह है कि मछली, केकड़ा और झींगा के अभाव में इन पर निर्भर बगुला, टिटिहरी और समुद्री पक्षी भी दुर्लभ होते जा रहे हैं।

पाइप बिछाने और विषैले अवशिष्टों से इलाके के पर्यावरण को क्षति पहुँचाने के बारे में ग्रामीणों से सलाह लेना तो दूर, उन्हें इसकी सूचना भी नहीं दी गयी। यही है हमारे देश की जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन! एक अपाहिज लोकतंत्र जिस पर मुट्ठीभर पूँजीपतियों का वर्चस्व है। इन कम्पनियों के संचालन में न तो सामान्य ग्रामीण और न ही उनका कोई प्रतिनिधि शामिल है। प्रदूषण के खिलाफ ग्रामीणों के विरोध करने पर उनके नेता को या तो जान से हाथ धोना पड़ता है या उन्हें खरीद लिया जाता है। स्थिति बदतर हो चुकी है। गुजरात प्रदूषण नियन्त्राण बोर्ड और गुजरात औद्योगिक विकास संघ भी नियम-कानूनों का पालन नहीं करता है। ग्रामीणों ने फोटो, विडियो, वैज्ञानिक रिपोर्टों और आँकड़ों के आधार पर याचिका दायर की थी, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात। इस तरह जनता की लड़ाई कानूनी दाँव-पेंच की भूल-भूलैय्या में उलझकर रह जाती है और इन्हीं कमजोरियों का फायदा उठाकर कम्पनियाँ अपने अपराध को बदस्तूर जारी रखती हैं। प्रदूषण नियन्त्राण बोर्ड के मानकों और न्यायालय के आदेशों को वे अपने जूते की नोक पर रखती हैं। अलंग (गुजरात) का पुराने, सड़े-गले विदेशी जहाजों को निपटाने का काम हो या तमिलनाडु का कपड़ा उद्योग, देश के अन्य इलाकों के औद्योगिक क्षेत्र का भी यही हाल है। आगरा की फैक्ट्रियों से निकलने वाले अम्लीय धुएँ से ताजमहल जैसी सांस्कृतिक धरोहर भी नहीं बच पाया। उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियन्त्राण बोर्ड और न्यायालय के द्वारा भेजे गये नोटिस को इन फैक्ट्रियों ने नजरअन्दाज कर दिया। उद्योगपति कहते हैं कि अगर फैक्ट्री बन्द हुई, तो वहाँ काम करने वाले मजदूर बेरोजगार हो जायेंगे। लेकिन उनको असली चिन्ता अपने मुनाफे की है। वे मजदूरों का निर्मम शोषण करते हैं, उनके वेतन और भत्ते डकार जाते हैं और मजदूरों के द्वारा विरोध करने पर पुलिस और स्थानीय गुण्डों से उनका दमन करवाते हैं। सरकार की ओर से उन्हें मनमानी करने की खुली छूट है। जब देशी-विदेशी पर्यावरणवादी संस्थाओं का दवाब पड़ता है, तो कुछ बयानबाजी और बंदर घुड़की दी जाती है, लेकिन फिर सब कुछ पुराने ढर्रे पर चलने लगता है। निजी मुनाफे के आगे सार्वजनिक विनाश की भला कौन परवाह करे।