आज नदियों में इतना जहर घुल गया है कि इनका
पानी जीवनदायी नहीं बल्कि जानलेवा हो गया है। यमुना में पानीपत, समालखा
और सोनीपत के कारखानों का विषैला गंदा पानी छोड़ने से अमोनिया का स्तर इतना बढ़ गया
है कि कई बार दिल्ली के जल- शोधक प्लांट भी बन्द करने पड़ते हैं। साफ करके इस्तेमाल
में लाने के लिए 100 मिलीलीटर पेयजल में 500 से अधिक खतरनाक फीकल कोलिफार्म जीवाणु
नहीं होने चाहिए जबकि कई स्थानों पर यमुना के जल में 4.4 लाख से ज्यादा जीवाणु
पाये गये जो नहाने लायक पानी से भी 100 गुना ज्यादा खतरनाक है। इस पानी में
ऑक्सीजन की मात्र भी खतरनाक स्तर तक कम पायी गयी और अब इसे पीने लायक बनाने का कोई
भी तरीका कारगर नहीं रह गया है। यही हाल गंगा नदी का भी है। तमाम प्रतिबन्धों के बावजूद हरिद्वार से लेकर मुजफ्फरनगर
तक सैकड़ों फैक्ट्रियों से बहाया जाने वाला रासायनिक कचरा गंगा में विष घोल रहा है।
वैसे तो गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाये रखने के लिए कड़े नियम कानून हैं, लेकिन
वे केवल कागजों और फाइलों तक सीमित हैं।
मुजफ्फरनगर के अन्तवाड़ा गाँव से निकलकर मेरठ
होते हुए कनौज के निकट गंगा में मिलने वाली काली नदी कैंसर का पर्याय बन चुकी है।
इसकी एक झलक नीचे दी गयी तालिका से मिलती है-
काली नदी का प्रदूषण
तत्व अधिकतम मानक काली नदी में प्रदूषण की अधिकता से होने वाली बीमारी
लैड 0.02 0.18 पेट की बीमारी, उल्टी,
नसों
में ढीलापन, किडनी
की खराबी
कैडमियम 0.01 0.06 बुखार, गुर्दे
फेल होना
क्रोमियम 0.05 0.16 नर्वस सिस्टम डैमेज
आयरन 1 7 चर्म
रोग, कैंसर
इन तत्वों के अलावा नदियों के पानी में बीएचसी, हैप्टाक्लोर
आदि प्रतिबन्धित- कीटनाशक भी खतरनाक मात्र में पाये गये हैं। हैण्डपम्पों से भी इस
नदी का दूषित जल निकल रहा है जिसे पीकर मेरठ के एक ब्लॉक में 250 परिवारों के लोग
कैंसर और चर्मरोग की चपेट में हैं और जिन्दगी से तंग आकर वे मौत की भीख माँग रहे
हैं। इस इलाके के लोगों में प्रशासन और प्रदूषण नियन्त्राण बोर्ड के प्रति नफरत और
आक्रोश है। कई बार वे अधिकारियों को बन्धक बना चुके हैं, फिर
भी सरकार के कानों पर जूँ नहीं रेंगती। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के भूजल में हर जगह
काफी अधिक मात्र में टीडीएस रसायन घुलमिल चुका है, जिससे
अनगिनत लोग पथरी की बीमारी से पीड़ित हैं। दिल्ली के पास से गुजरने वाली हिण्डन नदी
इतनी अधिक प्रदूषित हो गयी है कि उसके आस-पास के गाँवों में लोग अपनी बेटी की शादी
करने से भी कतराते हैं। उच्च वर्ग और उसकी सरपरस्त सरकारें भला इस बात से क्यों
चिन्तित होंगी? उनके लिए तो वाटर फिल्टर और मिनरल वाटर है ही।
पानी बेचने वाली कम्पनियाँ इस जानलेवा प्रदूषण का लाभ उठाते हुए करोड़ों-अरबों की
कमाई कर रही हैं। साथ ही इससे उत्पन्न बीमारियों का इलाज करने वाले डॉक्टर भी अपनी
तिजोरी भर रहे हैं।
पर्यावरण संकट के कारण भूजल स्तर में भी तेजी
से गिरावट आयी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ट्यूबवेलों ने पानी देना कम कर दिया
है। कई ट्यूबवेल सूख चुके हैं। महँगे सबमर्सिबल पम्प लगाने के बावजूद उनसे
पर्याप्त पानी नहीं आ रहा है। सन् 2007 में गंगा नहर में भी पानी की मात्र काफी कम
हुई है। भूजल स्तर गिरने के पीछे मुख्य कारण नहरों की तली पक्की होना, तालाबों
का सूखना और भराव, बारिश की कमी और भूजल का बेहिसाब दोहन है।
प्रदूषण और कचरा जमा होने से नदियाँ छिछली हो गयी हैं और कटाव रोकने में सरकार की
लापरवाही के कारण उनके कगार टूट कर कमजोर होते गये हैं। संकरी हो चुकी यमुना वर्ष
2010 में बारिश का पानी सम्भाल नहीं पायी और उसके कमजोर तटबन्ध टूट गये जिससे
हरियाणा के ग्रामीण इलाकों में बाढ़ आ गयी। यही स्थिति दूसरे देशों की भी है। वर्ष
2000 से 2004 के बीच जल उपलब्धता में भारी कमी के चलते दक्षिण एशिया के 46.2 करोड़
लोग सूखे की चपेट में आकर मौत या विस्थापन के शिकार हुए।
देश के अन्य इलाकों में भी जल संकट गहरा रहा
है। 230 किलोमीटर क्षेत्र में फैली राजस्थान की खारे पानी की सांभर झील सूखने के
कगार पर है। इस झील से सालाना दो लाख नब्बे हजार टन नमक उत्पादन के बावजूद इस
इलाके में भयावह गरीबी है। भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण आस-पास के गाँवों में
पेयजल की समस्या पैदा हो गयी है। दरअसल
नमक के बाजार मूल्य 10 रुपये प्रति किलो में से 40 पैसे ही मेहनत करने वाले
उत्पादकों को मिलता है। बाकी उद्योगपति और व्यापारी डकार जाते हैं। नमक उत्पादन के
काम में छोटी-बड़ी कई कम्पनियाँ कारोबार फैला चुकी हैं। इनमें से 74 प्रतिशत
कम्पनियाँ गैर कानूनी हैं। मजदूरों से यहाँ प्रतिदिन 9-10 घण्टे नंगे पैर काम
कराया जाता है जिससे उनके चेहरों पर झुर्रियाँ और पैरों में फफोले पड़ जाते हैं।
इसने वहाँ की एक पूरी पीढ़ी को जवानी में ही बूढ़ा बना दिया है। ये लोग 45 की उम्र
तक पहुँचने से पहले ही मर जाते हैं। यही हाल देश के उन समुद्र तटीय इलाकों का भी
है जहाँ नमक बनाया जाता है।
दक्षिण गुजरात के बलसाड जिले का तदगाम समुद्री
किनारा बदबूदार विषैले कीचड़ से पट चुका है। इस इलाके की रसायन, उर्वरक, कीटनाशक, खरपतवार
नाशक और दवाईयाँ बनाने वाली 300 कम्पनियाँ विषैले कचरे को दसियों किलोमीटर लम्बे
पाइपों के जरिये किनारे पर बहाती रहती है। कानून के मुताबिक इन कचरों को समुद्र
में छोड़ने से पहले इन्हें कचरा ट्रीटमेंट प्लांट से शोधित करना चाहिए और दिन में
दो बार शोधित कचरे की गुणवत्ता की जाँच होनी चाहिए। कम्पनियाँ ऐसे किसी कानून की
परवाह नहीं करती हैं। कचरा ले जाने वाली पाइपें सड़ चुकी हैं। उनसे रिसने वाला
जहरीला पानी गाँवों के पेयजल को प्रदूषित कर रहा है जिससे वहाँ के 60 प्रतिशत
स्थानीय लोगों में पाचन, त्वचा और साँस सम्बन्धी बीमारियाँ फैल चुकी
हैं। साथ ही इससे वहाँ की फसल चौपट हो रही है और पालतू मवेशी मर रहे हैं।
गुजरात प्रदूषण नियन्त्राण बोर्ड के मानक के
अनुसार परीक्षण में वही जल शुद्ध माना जायेगा जिसमें मछलियाँ कम से कम 90 दिनों तक
जिन्दा रह सकें। इस इलाके के समुद्री जल का आलम यह है कि परीक्षण के लिए भेजे गये
जल में मछली 5 मिनट में ही मर गयी। यही वजह है कि मछली, केकड़ा
और झींगा के अभाव में इन पर निर्भर बगुला, टिटिहरी
और समुद्री पक्षी भी दुर्लभ होते जा रहे हैं।
पाइप बिछाने और विषैले अवशिष्टों से इलाके के
पर्यावरण को क्षति पहुँचाने के बारे में ग्रामीणों से सलाह लेना तो दूर, उन्हें
इसकी सूचना भी नहीं दी गयी। यही है हमारे देश की जनता के द्वारा, जनता
के लिए, जनता का शासन! एक अपाहिज लोकतंत्र जिस पर
मुट्ठीभर पूँजीपतियों का वर्चस्व है। इन कम्पनियों के संचालन में न तो सामान्य
ग्रामीण और न ही उनका कोई प्रतिनिधि शामिल है। प्रदूषण के खिलाफ ग्रामीणों के
विरोध करने पर उनके नेता को या तो जान से हाथ धोना पड़ता है या उन्हें खरीद लिया
जाता है। स्थिति बदतर हो चुकी है। गुजरात प्रदूषण नियन्त्राण बोर्ड और गुजरात
औद्योगिक विकास संघ भी नियम-कानूनों का पालन नहीं करता है। ग्रामीणों ने फोटो, विडियो, वैज्ञानिक
रिपोर्टों और आँकड़ों के आधार पर याचिका दायर की थी, लेकिन
नतीजा ढाक के तीन पात। इस तरह जनता की लड़ाई कानूनी दाँव-पेंच की भूल-भूलैय्या में
उलझकर रह जाती है और इन्हीं कमजोरियों का फायदा उठाकर कम्पनियाँ अपने अपराध को
बदस्तूर जारी रखती हैं। प्रदूषण नियन्त्राण बोर्ड के मानकों और न्यायालय के आदेशों
को वे अपने जूते की नोक पर रखती हैं। अलंग (गुजरात) का पुराने, सड़े-गले
विदेशी जहाजों को निपटाने का काम हो या तमिलनाडु का कपड़ा उद्योग, देश
के अन्य इलाकों के औद्योगिक क्षेत्र का भी यही हाल है। आगरा की फैक्ट्रियों से
निकलने वाले अम्लीय धुएँ से ताजमहल जैसी सांस्कृतिक धरोहर भी नहीं बच पाया। उत्तर
प्रदेश प्रदूषण नियन्त्राण बोर्ड और न्यायालय के द्वारा भेजे गये नोटिस को इन
फैक्ट्रियों ने नजरअन्दाज कर दिया। उद्योगपति कहते हैं कि अगर फैक्ट्री बन्द हुई, तो
वहाँ काम करने वाले मजदूर बेरोजगार हो जायेंगे। लेकिन उनको असली चिन्ता अपने
मुनाफे की है। वे मजदूरों का निर्मम शोषण करते हैं, उनके
वेतन और भत्ते डकार जाते हैं और मजदूरों के द्वारा विरोध करने पर पुलिस और स्थानीय
गुण्डों से उनका दमन करवाते हैं। सरकार की ओर से उन्हें मनमानी करने की खुली छूट
है। जब देशी-विदेशी पर्यावरणवादी संस्थाओं का दवाब पड़ता है, तो
कुछ बयानबाजी और बंदर घुड़की दी जाती है, लेकिन फिर सब कुछ पुराने ढर्रे पर चलने
लगता है। निजी मुनाफे के आगे सार्वजनिक विनाश की भला कौन परवाह करे।