Saturday, 29 November 2014

पर्यावरण संकट के खिलाफ संघर्ष को सामाजिक सम्बन्धों में आमूल परिवर्तन के लक्ष्य से जोडें !!!

(-जन-सार्क के काठमांडू सम्मेलन (24-25-26 नवम्बर 2014) में विक्रम प्रताप द्वारा प्रस्तुत)

जन-सार्क का काठमांडू सम्मेलन

एक विराट संकट दुनिया के सामने मुँह बाये खड़ा है। यह संकट द्वितीय विश्वयुद्ध से भी अधिक विनाशकारी है। यह संकट महामारी से भी अधिक तेजी से दुनिया को अपनी गिरफ्त में लेता जा रहा है। पारम्परिक बमों से अधिक जानलेवा है। धरती से जीव जन्तुओं के सफाये पर आमादा यह संकट इन्सान और इन्सानियत को मिटा देगा। यह संकट कोई दैवीय आपदा नहीं है। इंसान ने ही इसे विकास की अपनी चिरन्तन भूख को तृप्त करने के लिए बुलाया है। लेकिन इसे जल्द नियऩ्ित्रत न किया गया तो यह धरती का नाश कर देगा। दुनिया के विनाश पर तुला यह संकट जलवायु में अवांछित परिवर्तन है। पैदा होते ही इसने दुनिया पर कहर बरसाना शुरू कर दिया। जलवायु परिर्वतन हर साल लाखों लोगों को असमय ही मौत की ओर धकेल देता है। दसियों लाख लोगों को अपंग बना देता है। कई अर्थव्यवस्थाओं को तबाही के कगार पर धकेल रहा है।
यह किसी परिकथा, गल्प या तिलिस्मी उपन्यास का बयान नहीं हैं और न ही अतिरेकपूर्ण मध्ययुगीन युद्धों के नजारों का वर्णन है। बल्कि यह 21वीं  सदी की एक जीती-जागती सच्चाई है। यह आज उन विकराल समस्याओं में से एक है जिसका सामना दुनिया कर रही हैं। ये ऐसी सच्चाइयाँ हैं जो आज भी हमारी आँखों के आगे घट रही हैं। इस भयानक समस्या का हल ढूँढने के लिए तुरंत काम में जुट जाने की जरूरत है। लेकिन दुनिया भर के शासक अपने संकीर्ण और वर्गीय स्वार्थों के चलते मुनाफे की हवस अंधे हो गये हैं और इस दिशा में तत्काल कदम उठाने के बजाय टालमटोल कर रहे हैं। अगर यही स्थिति रही तो जल्दी ही यह संकट इतना विकट हो जायेगा कि धरती का पर्यावरण इतना क्षत-विक्षत हो जाए कि उसे फिर से पुरानी अवस्था में लौटाना सम्भव नहीं होगा।
पिछले 500 सालों के दौरान कार्बन डाई ऑक्साइड की बढ़ती मात्रा ग्रह को तपती भटठी में बदलती जा रही है। संभावना है कि ग्लोबल वार्मिग से वर्ष 2100 तक धरती के तापमान में 1.5 से 6 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि हो जायेगी। इसके नतीजे बेहद घातक होंगे। भारी वर्षा और बादल फटने से कई इलाके बाढ़ में डूब जायेंगे। जबकि इसके विपरित सूखे के चलते कुछ इलाकों में अकाल और महामारी फैल जायेगी। इसके चलते खेती का संकट पैदा होगा। किसान उजड़ जायेंगे और व्यापक आबादी खाद्यान्न के अभाव में भुखमरी का शिकार होगी। दुनिया में रेगिस्तानों का बढ़ना इसी दिशा में संकेत दे रहा है।
धरती माँ अपनी किसी संतान के साथ विकसित-अविकसित, धनी-गरीब या ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं करती। लेकिन धनी आदमी पर्यावरण संकट से उत्पन्न परेशानियों से बच सकता है। उसके पास गर्मी से बचने के लिए ए. सी., धूप से बचने के लिए सनस्क्रीम आदि महँगे संशाधन उपलब्ध हैं। मगर गरीब आदमी को पेट भरने के लिए तपती धूप में भी अपना खून जलाकर मजदूरी करनी पड़ती है। बाढ़ और सूखे के समय उनके पास इतने आर्थिक साधन नहीं होते कि वे दो वक्त की रोटी जुटा सकें। सरकार की उपेक्षा के कारण उन्हें दर-दर की ठोकर खानी पड़ती है। बुन्देलखण्ड इलाके में सूखे और अकाल के चलते पूरे समाज का ताना बाना छिन्न-भिन्न हो गया। किसान दर-दर की ठोकरे खाने के लिए मजबूर हो गये। रोटी के लिए औरतों को अपने तन बेचने पड़ें। सूदखोरों और राजनितिज्ञों ने पीड़ित जनता को लूटने-खसोटने में कोई कोर-कसर न छोड़ी। वर्ष 2000 से 2004 के बीच दक्षिण एशिया में 4.62 करोड़ लोग सूखे के चलते मौत या विस्थापन के शिकार हो गये। द्वितीय विश्वयुद्ध में इतने लोग हिटलर के युद्धोन्माद से भी विस्थापित नहीं हुए होंगे।
पिछले चालीस सालों में समुद्र के जलस्तर में वृद्धि की रफ्तार लगभग दुगुनी हो गयी है। जल्द ही समुद्र के किनारे बसे करोड़ों लोग विस्थापन के शिकार होंगे। नदियों में जानलेवा प्रदूषण जमा हो रहा है। इसमें जहरीले रसायन जैसे लैड, कैडमियम, क्रोमियम और आयरन की मात्रा खतरनाक स्तर तक बढ़ गयी है। इससे पाचन, किडनी, कैंसर और नसों की बीमारियाँ लोगों को अपना आसान शिकार बना रही हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब कैंसर की चपेट में है। बलसाड में 300 कम्पनियों ने भारी तबाही मचायी है। पवित्र गंगा सैकड़ों कारखानों का जहरीला पानी पीकर जानलेवा बन गयी है। काली और हिण्डन नदी का पानी मौत का पर्याय बन चुका है।  इनके विषैले पानी की चपेट में आकर फसलें चौपट हो जाती हैं और मवेशी मारे जाते हैं। यमुना, गंगा, कोसी, गण्डक और ब्रह्मपुत्र सहित देश की अधिकांश नदियाँ बाढ़ के संकट से गुजर रही हैं।  भारी वर्षा और उफनते जल भराव से इनके तटबन्ध टूट जाते हैं। आस-पास का इलाका बाढ़ की भयानक तबाही से बर्बाद हो जाता है। मरते हुए जानवर, सड़ती हुई लाशें और बीमारियों की चपेट में तड़पकर दम तोड़ते लोगों के दिल दहला देने वाले मंजर पर्यावरण विभिषिका की कहानी बयान करते हैं। यही हाल 2013 में उत्तराखण्ड त्रासदी का था जब बादल फटने से केदारनाथ घाटी तबाह हो गयी। हजारों लोग मारे गये और पूरा इलाका वीरान हो गया। एक ओर इन आपदाओं की कीमत जनसमुदाय अपनी जिन्दगी देकर चुकाता है तो दूसरी ओर मुट्ठीभर लोगों की विलासिता और विकास के नाम पर इन समस्याओं को न्योता जाता है। बेहद संवेदनशील हिमालय पर्वत मालाओं के बीच बिजली परियोजनाआंे के लिए वनों के विनाश और सुरंगों के निर्माण का और क्या मतलब हो सकता है? कभी ऐसा दिन आयेगा कि भूकम्प के झटके इन पहाड़ों को रेत के महल की तरह ढहा देंगे।
आधुनिक उद्योग और यातायात ने शहरों को धुएँ से ढँक दिया है। दुनियाभर में इससे करोड़ों लोग ह्रदय और फेफड़े की बीमारियों से ग्रस्त होते हैं और हर साल दसियों लाख लोग अपनी जिन्दगी से हाथ धो देते हैं। भारत में बिजलीघर मुर्दाघर बनते जा रहे हैं। हर साल ये तीन लाख लोगों को अपने धुए से मार देते हैं। यह सवाल गौर करने लायक है कि आज अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर उससे पैदा होने वाले प्रदूषण की वृद्धि दर के आगे बौनी नजर आती है तो क्या विकास अब विनाश में बदल गया है?
जन-सार्क काठमांडू में उपस्थित प्रतिभागी
जीवों की कई प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी है और कई लुप्त होने के कगार पर हैं। जैव विविधता भारी खतरें में हैं। हिमालय के ग्लेशियर तेजी से सिकुड़ रहे हैं। इससे बर्फीले पहाड़ नंगी चोटियों में बदलते जा रहे हैं। बारिश में इन ग्लेशियरों से उत्पन्न नदियाँ तराई क्षेत्र को बाढ़ में डुबो देती हैं। 2014 में जम्मू-कश्मीर में बाढ़ की विभिषिका इसी का नतीजा है।
दिनों-दिन बढ़ती जानलेवा बीमारियाँ आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था को बौना साबित कर रही है। आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था अपने दायरे को तोड़ पाने में अक्षम है। यह रोग विषाद की सम्मस्या को चिकित्सा विज्ञान के एकांगी नजरिये से देखता है। इस समस्या को सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के साथ जोडकर समग्रता में उठाने की जरूरत है।
नाभिकीय संयंत्रो के सहउत्पाद रेडियोएक्टिव कचरे बेहद घातक प्रदूषण हैं और दुर्घटनावश रिसने से भारी ंतबाही मचाते हैं। ये संयंत्र जिन्दा परमाणु बम हैं। चेर्नोबिल, थ्री माइल आइलैण्ड और फुकुशिमा की दुर्घटनाएँ परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण इस्तेमाल पर प्रश्न चिन्ह लगा चुकी हैं। अमरीका, इग्लैण्ड, फ्रांस, रूस, चीन, भारत और पाकिस्तान के पास परमाणु बमों का जखीरा है। आज दुनिया इन बमों के ढेर पर बैठी है। पिछले 500 सालों में पूँजीवाद ने व्यापारी पूँजी से शुरू करके औघोगिक पूँजी से होते हुए वित्तीय पूँजी तक की यात्रा पूरी की। इस दौरान उसने दुनिया का  कायाकल्प कर दिया। लगभग सभी देशों में मध्ययुगीन सामन्ती उत्पादन प्रणाली को हटाकर आधुनिक पूँजीवाद उत्पादन प्रणाली स्थापित कर दी गई। हस्त उद्योग का विशालकाय स्वचालित मशीनों ने ले लिया । बैलगाड़ी, रथ और नावों जैसे प्राचीन यातायात के साधन आधुनिक द्रुतगामी रेलगाड़ी, सुपर-सोनिक वायुयान और विशालकाय जहाज से विस्थापित कर दिये गये। इससे महीनों की दूरियाँ दिनों और दिनों की दूरियाँ घण्टों मे सिमट गई।  दुनिया के अगल-थलग महाद्वीप जुड़कर एक हो गये और इतिहास में पहली बार गोल पृथ्वी का दृश्य सामने आ सका। अन्तरिक्ष में सतत परिक्रमारत उपग्रहों से सेकण्ड से भी कम समय में किसी भूखण्ड की सटीक तस्वीर ले सकते हैं। इन्टरनेट और मोबाइल के जरीये दुनिया के दोनों गोलार्धाें के इन्सान को भी एक दूसरे से जोड़ दिया गया। मध्ययुग के दौरान कुल जितनी सूचनाओं का आदान-प्रदान हुआ होगा। उससे अधिक सूचनाएँ हर क्षण धरती के एक कोने से दूसरे कोने में पहुँच रही हैं। सात अरब लोगों के पेट भरने के लिए खाद्यानों और तन ढँकने के लिए वस्त्रों का उत्पादन, विलासिता के लिए लाखों वस्तुओं की भरमार और कई मंजिला इमारत के जरिये निवास की समस्या को चुटकी मे सुलझाने वाले कारनामें किये गयें। रोम, मेसोपोटामिया, मंगोल, चीन, आर्य और द्रविड़ जैसी पुरानी सभ्यताओं ने ऐसे कारनामें सपने में भी नहीं सोचा होगा। 500 सालों के पूँजीवादी विकास की उपलब्धियाँ करिश्माई हैं। आज इंसान प्रकृति को हराकर धरती का मालिक बन गया है। उसके अभियान मंगल, चाँद और तारों तक जारी है। लेकिन एक तरफा भौतिक प्रगति ने प्रकृति को तहस-नहस कर दिया। जंगल काट डाले गये। पहाड़ों को खोदकर खोखला बना दिया गया। इंसान जिन जड़ों से पैदा हुआ था उससे कटता चला गया और जड़विहिन हो गया। 
लेकिन ऐसा लग रहा है जैसे प्रकति अपनी हार का बदला इंसानों से ले रही है। वह अपने अपमान का बदला लेने के लिए उग्र हो गयी है। दुनिया पर अपना कहर बरपा रही है। गरीबों की जिन्दगी खतरे में है। धनी व्यक्ति अपनी दौलत की बदौलत इस कहर से कुछ हद तक बच जाते हैं। और पर्यावरण विनाश की कीमत पर अपनी अययाशियों को जारी रखे हुए है। लेकिन भविश्य में वे भी इससे नहीं बच सकंेगे। स्पष्ट है कि विकास के लिए हमने अपने विनाश को न्यौता दे रखा है। आज स्वार्थपरता अपने चरम पर है। लालची इसानों के समूह पूँजीवादी निगमों के इर्द-गिर्द इकटठा हो गये हैं। मुनाफा उनका देवता है। वे इसकी भक्ति में अंधे हैं। इनकी एकमात्र संस्कृति है मुनाफे के ताल पर नाचना। ये मुट्ठीभर लोग वे सभी तरीके अपनाते हैं, जिससे इनका मुनाफा दिन दुना, रात चौगुनी रफतार से बढ़े। दुनिया के कार उद्योग पर अपना दबदबा रखने वाली अमरीका की जनरल मोटर्स, फोर्ड और क्रिसलर जैसी दैत्याकार निगमें कार की बिक्री बढ़ाने की फिराक में बेहिसाब प्रदूषण को बढ़ावा दे रही हैं। भारत के शासक वर्ग अमरीका से कार संस्कृति के आयात में किसी से पीछे नहीं है।
500 दैत्याकार निगमें दुनिया की तीन चौथाई आर्थिक गतिविधियों पर अपना नियन्त्रण रखती हैं। इनकी कार्यशैली पर्यावरण के विनाश पर टिकी है। सभी प्राचीन संस्कृतियाँ प्रकृति को देवी तुल्य मानकर उसकी पूजा करती थीं और साथ-साथ उसका संरक्षण भी करती थीं। इससे अलग पूँजीवादी संस्कृति प्रकृति के बेलगाम दोहन पर टिकी है और लगातार इसका विनाश कर रही है। दुनियाभर की सभी सरकारें पूँजीवाद को विकास का मॉडल मानती है। आर्थिक उन्नित के उनके तर्क में पर्यावरण विनाश और बड़े स्तर का कंगालीकरण शामिल नहीं है।
पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली प्रकृति और मजदूर वर्ग के बेलगाम शोषण पर टिकी हुई है। निजी मुनाफे को बनाये रखने के लिए यह प्रकृति के विनाश की कोई परवाह नहीं करती। औद्योगिक कचरे और धुँए के अलावा अन्य कई तरीकों से यह दुनिया को नारकीय बनाती है और धरती को इन्सानों के रहने लायक नहीं छोड़ती। पूँजीपति अपने अतिरिक्त माल की अधिक से अधिक बिक्री के लिए विज्ञापन के एक से बढ़कर एक तरीके अपनाता है। साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के मौजूदा दौर में पूँजीवाद पूरी दुनिया को माल में बदल देने पर आमादा है। हवा, पानी, जमीन, आदमी, इन्सानी रिश्ते, धर्म, संस्कृति, प्रेम, वात्सल्य हर चीज उसकी निगाह में माल है जिन्हें बेचने और उपभोक्तावाद को बढ़ावा देने के लिए अन्धाधुन्ध विज्ञापन करना जरूरी है। आज दुनिया भर में विज्ञापनों का हजारों अरब रुपये का कारोबार है जिससे सैकड़ों अस्पताल, स्कूल और बेघरों के लिए घर बनाये जा सकते हैं। विज्ञापनों में इस्तेमाल होने वाले कागज के लिए हर साल लाखों पेड़ काटे जाते हैं और सड़कों के किनारे विज्ञापनों के चमकीले बोर्ड को रोशन करने के लिए करोड़ों यूनिट बिजली फूँक दी जाती है।
प्लास्टिक बैग, उत्पादों के पैकेट, प्लास्टिक के बर्तन, बोतल और डिब्बे इधर-उधर फेंक दिये जाते हैं। जो नालियों में फँसकर उन्हें जाम कर देते हैं। इसके कारण नालियों का कचरा सड़ता रहता है जिससे मच्छर और बीमारी के कीटाणु फैलते हैं। प्लास्टिक का निबटारा करना कठिन है। यह जल्दी सड़ता नहीं, जलाने पर जहरीली गैस पैदा करता है और जमीन को बंजर बना देता है। अपने माल को आकर्षक बनाकर अधिक मात्रा में बेचने के लिए कम्पनियाँ प्लास्टिक की आकर्षक पैकिंग करती हैं। इस तरह यह खतरनाक प्रदूषक हमारी दिनचर्या में पूरी तरह शामिल है। इस पर प्रतिबन्ध लगाने का कोई भी आदेश लागू नहीं हो पाता क्योंकि यह पूँजीपतियों के स्वार्थ में आड़े आता है।
तेजी से फैलते प्रदूषण से यह ओजोन की परत क्षरित हो रही है। खतरनाक पराबैंगनी किरणों के सम्पर्क में आने से शरीर का झुलस जाना, त्वचा कैंसर और मोतियाबिंद का खतरा पैदा होता है। स्प्रे, रेफ्रीजरेटर आदि में इस्तेमाल किया जाने वाला क्लोरोफ्लोरो कार्बन ओजोन परत में छेद के लिए जिम्मेदार है। अन्टार्कटिका की ओजोन परत में बड़ा छेद होने से इस इलाके में गर्मी तेजी से बढ़ रही है। चिकित्सा में उपयोग किये जाने वाले उपकरणों का उचित निपटारा न होने से ये बीमारी फैलाने के स्रोत बन गये हैं। ऐसे ही एक रसायन कोबाल्ट 60 के कचरे से विकिरण होने के चलते पिछले दिनों दिल्ली में कई व्यक्ति घायल हो गये। इसका असर वातावरण में काफी समय तक रहता है और लोगों को मौत का शिकार बनाता है।
टेलीविजन, मोबाइल, कम्प्यूटर, रेफ्रीजरेटर और अन्य इलेक्ट्रॉनिक सामानों से भारत में हर साल 38 लाख क्विन्टल कबाड़ पैदा होता है। इतना ही नहीं, भारत के कबाड़ी हर साल 5 लाख क्विन्टल कचरा विदेशों से आयात करते हैं। इस कबाड़ को दुबारा इस्तेमाल के लिए गलाने के दौरान बड़ी मात्रा में विषैली गैस और रसायन उत्पन्न होते हैं जो पर्यावरण को बुरी तरह प्रभावित करते हैं। धनी देश अपने यहाँ से पुराने रद्दी कपड़े, जूते, कम्प्यूटर, बेल्ट, बैग और अन्य घरेलू सामान हमारे देश में गरीबों के लिए दान के रूप में भेज देते हैं। हर छोटे-बड़े शहर में इन पुराने सामानों की धड़ल्ले से बिक्री होती है। दरअसल यह उन देशों का कचरा ही है। जिसे निबटाना उनके लिए एक भारी समस्या है। इस तरह गरीब देशों को कूड़ेदान बनाया जा रहा है और इस पर इन देशों के शासकों की मौन सहमति है।
1990 में रूसी धु्रव के टूटने पर अमरीका दुनिया का सरपरस्त बन गया। विकास हो या विनाश वही सभी देशों का मॉडल माना जाता है। अमरीकी सरकार में परजीवी सट्टेबाजों और वित्तपतियों का ऐसा गुट काबिज है। जिसकी नजर में प्राकृतिक संसाधन उसके मुनाफे की लूट का एक साधन है क्या ऐसी संस्थाएँ दुनिया को कोई विकल्प दे सकती है
1992 में रियो द जेनेरियों में पृथ्वी सम्मेलन के दौरान ही साम्राज्यवादी देशो की नीयत सामने आ गयी थी। जब उन्होने अपने घोषणापत्र में कहा कि आर्थिक विकास ही ऐसी परिस्थिति तैयार करता है। जिसमें पर्यावरण की सबसे अच्छी तरह रक्षा की जा सकती है। यह समस्या से मुँह चुराना था लेकिन 1997 में जारी क्योटो प्रोटोकाल में पहली बार औद्योगिक देशों को कानूनी रूप से बाध्य किया गया कि वे अपने ग्रीन हाउस उत्सर्जन को  2008 से 2012 तक आते-आते 1990 के स्तर से 5.2 प्रतिशत कम करेगे। लेकिन आज डेढ़ दशक बाद कार्बन उर्त्सजन मे 5.2 प्रतिशत की कमी के बजाय 11 प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है। क्योटो सम्मेलन की सफलता यह थी कि पर्यावरण संकट की भयावहता का सटीक आकलन हो सका और पर्यावरण विनाश के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार देशों को चिन्हित किया गया। इस मामले में अमरीका 24.1 टन प्रति व्यक्ति उत्सर्जन और 16 प्रतिशत वैश्विक उत्सर्जन के साथ  पहले स्थान पर है। तेल उत्पादक देश यूरोपीय संघ के देश और इण्डोनेशिया अन्य प्रमुख उत्सर्जक हैं। लेकिन बाली, कोपेनहेगेन और कानकुन सम्मेलन जलवायु परिवर्तन को रोकने और पर्यावरण संरक्षण के लिए स्थायी समाधान देने में असफल हो गये। क्योटो प्रोटोकोल की बाध्यकारी कटौती से हटते हुए बाकी सम्मेलन खानापूर्ती की कार्यवाही बनकर रह गये। अमरीका पृथ्वी को तबाह करने में अकेले एक चौथाई हिस्से के लिए जिम्मेदार है। लेकिन इन सम्मेलनों में उसका रूख बेहद गैर-जिम्मेदाराना था। विकसीत देशों ने कम कार्बन उत्सर्जन तकनीकी के विकास, बेहिसाब उपभोग पर लगाम और अपनी विलासितापूर्ण जीवनशैली पर रोक लगाने से हाथ खींच लिया है। कुछ लोग विकसीत देशों और उनके सम्मेलनों से उम्मीद बाँधे देख रहे है। कितने भोले हैं ये लोग।
1970 और 1980 के दशक में हिमालय के जंगलों को बचाने के लिए चिपको आन्दोलन, मध्य और दक्षिण भारत में बड़े बाँधों के खिलाफ आन्दोलन तथा विदेशी कम्पनियों को मछली मारने का लाइसेन्स देने के खिलाफ मछुआरों के आन्दोलन के बाद सरकार को पर्यावरण सम्बन्धित कई नियम-कानून पारित करने पड़े। लेकिन 1991 में उदारीकरण, वैश्वीकरण और नई आर्थिक नीतियों ने विदेशी निवेशकों को लुभाने के लिए इन कायदे-कानूनों की धज्जियाँ उड़ानी शुरू की। विदेशी लुटेरों के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था के कपाट खोलना, निर्यातोन्मुखी विकास को बढ़ावा देना, विदेशी मालों की खपत बढ़ाने के लिए मध्यमवर्ग में विलासिता और उपभोक्तावाद का प्रचार-प्रसार करना, सरकारी उपक्रमों का निजीकरण तथा श्रम और पर्यावरण कानूनों में ढील देना इन्हीं नीतियों का परिणाम था। फिर तो एक तरफ जहाँ मुट्ठी भर ऊपरी तबके के लिए विकास की बयार बहने लगी, वहीं दूसरी तरफ भयंकर गरीबी की काली आँधी चलने लगी। गिने-चुने अभिजात वर्ग के लिए समृद्धि के पहाड़ खड़े किये गये, जबकि देश की बहुसंख्य जनता कंगाली-बदहाली के भँवर में फँसती गयी। करोड़ों मजदूरों की जिन्दगी नरक से भी बदतर हो गयी, लाखों किसानों ने आत्महत्या की और देश के भावी कर्णधार युवा वर्ग के भविष्य में अन्धकार छा गया। इतना ही नहीं, देशी-विदेशी पूँजीपतियों ने हमारी धरती माँ को इतनी बेरहमी से लूटा कि जल, जंगल, जमीन और सम्पूर्ण वातावरण को नष्ट कर डाला।
आज एक-एक गाँव, कस्बा और शहर पर्यावरण विनाश की दर्दनाक कहानी बयान कर रहा है। विश्व पर्यावरण सम्मेलन में बड़ी-बड़ी डींगें हाँकने वाले हमारे शासक हमारी थालियों में जहरीला खाना और प्रदूषित जल परोस रहे हैं, जिससे नयी-नयी बीमारियों की चपेट में आकर लाखों देशवासी असमय मौत के शिकार हो रहे हैं।
नयी आर्थिक नीति के तहत 1997 से अब तक खनन के लिए 70 हजार हेक्टेयर जंगलों का कटान किया गया। 1947 से अब तक विकास के नाम पर अपनी जमीन से उजाड़े गये 6 करोड़ लोग विस्थापितों की जिन्दगी जी रहे हैं। इसके लिए पूँजीपति, प्रशासन और नेताओं ने कई हथकण्डे अपनाये हैं, जैसे-इलाके के मुखर तबके और मुखिया को पैसे से खरीदना और पटाना, जन विरोधी, पर्यावरण नाशक नीतियों का विरोध करने वालों को विकास विरोधी और देशद्रोही बताकर उन्हें जेल में डालना, आदिवासी इलाकों में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस भेजकर स्थानीय लोगों के विरोध का दमन करना और जनता में फूट डालकर एक हिस्से को दूसरे से लड़ाना। इन इलाकों में रहने वाले इंसान जब इतनी बुरी तरह प्रभावित हैं, तो जंगली जीवों का क्या हश्र हुआ होगा? बाघों और कछुओं के लुप्त होने पर हाय-तौबा मचाने वाले स्वयं सेवक और मीडिया क्या कभी पर्यावरण के दुश्मन सत्ताधारियों को बेनकाब करते हैं?
भारत की लगभग एक लाख बीस हजार वनस्पतियों और 10 फीसदी जन्तुओं की प्रजातियाँ लुप्त होने वाली हैं। खनिज पदार्थों के बेलगाम दोहन के चलते 90 राष्ट्रीय उद्यानों और अभ्यारण्यों का अस्तित्व खतरे में है। इन अनमोल प्राकृतिक संसाधनों का अपने देश के हित में इस्तेमाल नहीं होता बल्कि उन्हें विदेशी मुद्रा के लोभ में निर्यात कर दिया जाता है।
पर्यावरण संरक्षण कानूनों को बेअसर और कमजोर बनाकर कांग्रेस की तरह मौजूदा भाजपा सरकार पूंजीपतियों को फायदा पहुँचाने में लगी हुई है। जनान्दोलनों के दबाव के कारण सन् 2006 में केंद्र सरकार को राष्ट्रीय पर्यावरण नीति की घोषणा करनी पड़ी, लेकिन इसमें भी आर्थिक मुद्दों को पर्यावरण से ऊपर रखा गया। लोगों की जीविका को संरक्षित करने के लिए बनाया गया जैव-विविधता अधिनियम नख-दन्त विहीन है। विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) में पर्यावरण के मुद्दे की पूरी तरह अनदेखी की जा रही है। आज मुट्ठी भर सम्पन्न लोग जितना अधिक प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग कर रहे हैं, वह धरती के पर्यावरण संतुलन को कायम रखने की क्षमता से काफी अधिक है। पिछले चार दशकों में विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों के अन्धाधुंध दोहन से धरती की यह क्षमता आधी रह गई है। इसके बावजूद सरकार और उसके बुद्धिजीवी टिकाऊ और संतुलित विकास की लफ्फाजी करते रहते हैं।
जहाँ शोषण, अन्याय और पर्यावरण का विनाश हो रहा है वहीं इस विनाशकारी विकास के खिलाफ जनता के स्वतःस्फूर्त, स्थानीय और मुद्देवार आन्दोलन भी हो रहे हैं। बड़े बाँधों के विनाशकारी प्रभाव के खिलाफ उत्तराखण्ड के पर्यावरणविदों, सिक्किम के भिक्षुओं, अरूणाचल प्रदेश के नौजवानों, नर्मदा के तट पर बसे हजारों गाँवों के निवासियों और असम के किसानों का विरोध, जहरीला रासायनिक कचरा फैलाने वाली कोका कोला कम्पनी के खिलाफ कई इलाकों में ग्रामीणों का आन्दोलन, हाइटेक शहर कारपोरेट खेती और विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिए जमीन अधिग्रहण के खिलाफ किसानों का संघर्ष और देश के विभिन्न इलाकों में सालेम, वेदान्ता और पॉस्को जैसी मुनाफाखोर विदेशी कम्पनियों के खिलाफ आदिवासियों और स्थानीय जनता के आंदोलन आज काफी हद तक सरकार और लुटेरी कम्पनियों की राह में रोड़े अटका रहे हैं। लेकिन एकजुटता के अभाव, शासक वर्ग की कुटिल चाल और बर्बर दमन-उत्पीड़न के चलते ये आन्दोलन कमजोर पड़ जाते हैं। इन जनान्दोलनों के प्रभाव और बढ़ती जागरुकता के कारण कई राज्यों में जैविक खेती, प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित उत्पादन, सूखा पीड़ित इलाकों में विकेन्द्रित जल उपयोग की तकनीक और स्थानीय जनता की पहल पर जंगल और जंगली जानवरों का संरक्षण शुरू हुआ है। लेकिन पूँजीपतियों द्वारा जारी पर्यावरण विनाश के आगे ये सुधारवादी कदम नाकाफी साबित हो रहे हैं। देशी-विदेशी पूंजी के गठजोड़ से अस्तित्व में आयी लूट-खसोट की इन नीतियों पर जब तक समवेत और संगठित प्रहार नहीं होगा, तब तक इनकी विनाशलीला इसी तरह चलती रहेगी।
जलवायु, परिवर्तन के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार विकसित पूँजीवादी देश हैं। कार्बन-डाइ-आक्साइड के उत्सर्जन में वे ही सबसे आगे हैं और पर्यावरण संकट को हल करने की जिम्मेदारी से वे ही मुँह चुरा रहे हैं। इसकी भारी कीमत दुनिया की गरीब आबादी को चुकानी पड़ रही है। दुनिया भर में 5 साल से कम उम्र के एक करोड़ बच्चे हर साल खसरा, डायरिया और साँस की बीमारी से मारे जाते हैं, जो दूषित पर्यावरण और मानवद्रोही शासन व्यवस्था की देन है। पिछले 200 सालों के औद्योगिक विकास ने जहाँ दुनिया में मुट्ठीभर लोगों के लिए समृद्धि के पहाड़ खड़े किये हैं, वहीं बहुसंख्य जनता को भयानक गरीबी की खाई में धकेल दिया है। गरीब जनता अपनी जीविका के लिए जल, जंगल, जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर ज्यादा निर्भर रहती है, जिनके क्षरण से उनकी जीविका तबाह होती जा रही है।
किसी समस्या को जड़ से मिटाने के लिए उसकी जड़ तक पहुँचना जरूरी होता है। पर्यावरण संकट के बारे में भी यह जानना जरूरी है कि आखिर प्रकृति का विनाश क्यों हो रहा है? इस प्रश्न पर विचार करते ही यह स्पष्ट हो जाता है कि आज पर्यावरण से जुड़ी जितनी समस्यायें हैं ग्लोबल वार्मिंग, वायु और जल प्रदूषण, नयी-नयी बीमारियाँ, जीव जन्तुओं का लुप्त होना, उन सब के पीछे हमारी मौजूदा आर्थिक व्यवस्था की कार्यप्रणाली दोषी है। यह मनुष्य के जन्मजात लोभ-लालच या लापरवाही का नतीजा नहीं है। इसे किसी पूँजीपति या अधिकारी की निजी करतूत के रूप में न देखकर हमें उस सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था पर विचार करना होगा जो इस विनाश का मूल कारण है।
पूँजीवादी व्यवस्था का चरित्र सभी सामाजिक व्यवस्थाओं से इस मामले में विचित्र और न्यारा है कि यह व्यक्तिवाद, चरम स्वार्थ और गलाकाटू प्रतियोगिता को फलने-फूलने का मौका देती है। अपनी निर्बाध लूट को जारी रखने के लिए यहाँ अर्थव्यवस्था के अनुरूप राजनीति, न्याय प्रणाली, प्रचार माध्यम, शिक्षा, संस्कृति का पूरा ताम-झाम खड़ा किया जाता है। यहाँ पूँजीपतियों, राजनेताओं और कानून के बीच अपवित्र गठबन्धन, घूसखोरी, भ्रष्टाचार, सिफारिश साफ दिखाई देती है। जलवायु संकट की वार्ताओं में ऐसा ही हुआ, जब धरती को नरक बनाने वाले पूँजीपतियों के पक्ष में पत्रकार वैज्ञानिक, कानूनविद, नौकरशाह और राजनीतिक प्रतिनिधि मजबूती से खड़े हुए। उनकी निगाह में पूँजीपति वर्ग का तात्कालिक हित ही देश का हित और पूरी जनता का हित है। यही कारण है कि पूँजीपति अपने मुनाफे की कीमत पर बहुसंख्य जनता को स्वास्थ्य, शिक्षा, भोजन, रोजगार, स्वच्छ वातावरण, साफ पानी और जीवन के लिए जरूरी साधनों से वंचित रखता है और पर्यावरण का विनाश करता है। लेकिन यह भी सच है कि पूँजीवादी व्यवस्था से पहले का इतिहास इससे कहीं लम्बी अवधि का, मानव सभ्यता की कुल अवधि का 99 प्रतिशत रहा है जब सामूहिकता और परस्पर हितों को बढ़ावा मिलता रहा है।
आज हमें कुछ ऐसे ठोस कदम उठाने होंगे जिससे पर्यावरण संकट को हल करने की दिशा में बढ़ा जा सकता है। कभी भी दुनिया सदियों पुराने ऐसे जांगल युग में नही लौट सकती। जब इंसान प्रकृति से अभिन्न था। लेकिन अपनी भूलों से सबक लेकर धरती की पुरानी प्राकृतिक छटा वापस लायी जा सकती है। खेती में मशीनों, कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों के हस्तक्षेप को न्यूनतम कर दिया जाय। इनके स्थान पर प्राकृतिक संसाधनों को बढ़ावा दिया जाय। आधुनिक शोध संस्थानों और उद्योग-धन्धों को चिकित्सा विज्ञान तक सीमित कर दिया जाय। कृषि आधारित लधु उद्योगों को बढ़ावा दिया जाय। इससे एक ओर पर्यावरण संकट से मुक्ति मिलेगी। तो दूसरी ओर बेरोजगार हाथों को काम मिलेगा। इसके लिए हमें अपनी जीवन शैली में बदलाव लाना जरूरी है और कम कार्बन उत्सर्जन तकनीक को बढ़वा देना होगा जो निजी मुनाफे के बजाय बहुसंख्यक जनता के हितों का पक्ष लेती हो। पर्यावरण विनाश की कीमत पर मुनाफे पर आधारित पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष ही इस दिशा में सही कदम है। अन्यायपूर्ण पूँजीवादी व्यवस्था के खात्में और एक न्यायपूर्ण समाजवादी व्यवस्था के निर्माण से ही पर्यावरण की समस्या को पूरी तरह हल किया जा सकता है।
आज भी ऐसे लोग ही सबसे अधिक संख्या में हैं जिनकी भलाई इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को समाप्त करने और एक न्यायपूर्ण, समतामूलक और प्रकृति की हिफाजत करने वाली वैकल्पिक व्यवस्था के निर्माण में है। जागरूक लोगों और संगठनों की यह ऐतिहासिक जिम्मेदारी है कि वे उन तक सही विचार पहुँचायें, उन्हें संगठित करें और बुनियादी बदलाव में उनका मार्गदर्शन करें। ऐसे में हमे इस संकट का सामना करने के लिए मिल-जुलकर काम करना होगा।
जलवायु परिर्वतन नहीं!!!                         व्यवस्था परिर्वतन!!!
इन्कलाब जिन्दाबाद!!!