अभी नहीं
तो कभी नहीं! कल बहुत
देर हो जायेगी!!
पर्यावरण
की समस्या से सरोकार रखने वाले लोग 22 अप्रैल को ‘पृथ्वी दिवस’ के रूप में मनाते हैं।
चिन्ता का विषय यह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ, सभी देशों की सरकारों और दुनिया भर के गैर सरकारी संगठनों के तमाम
प्रयासों के बावजूद हमारी पृथ्वी तेजी से पर्यावरण संकट की गिरफ्त में फँसती जा
रही है। स्थानीय स्तर पर ही देखें तो उत्तराखंड भी इस समस्या से अछूता नहीं है।
भारत के सबसे प्रदूषित शहरों में देहरादून 5 वें स्थान पर है। 2017
के पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार देहरादून के आईएसबीटी और
घंटाघर की हवा में जहरीले तत्वों की उपस्थिति 193.5 और 276.5 के बीच है, जो प्रदूषण के अन्तर्राष्ट्रीय मानक से बहुत ऊपर है। उत्तराखड
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार शहर में प्रदूषण इतना बढ़ गया है
कि घंटाघर पर रोज किसी व्यक्ति के फेफड़े में 10 सिगरेट का धुआँ भर जाता है।
देहरादून
की अधिकांश दवा कम्पनियाँ अपना कचरा बिना ट्रीटमेंट के ही यमुना में बहा देती हैं।
सरकार भी मौन दर्शक बनी हुई है। कम्पनियाँ अपने प्रदूषित कचरे को कम करने के लिए
कोई ठोस उपाय नहीं कर रही हैं। इसके चलते यमुना का पानी जहर बनता जा रहा है। वह
दिन दूर नहीं जब इस इलाके में जानलेवा बीमारियाँ देश के अन्य हिस्सों की तरह
महामारी बनकर फैलेंगी।
उत्तराखंड
के दो महत्वपूर्ण औद्योगिक नगर उधम सिंह नगर और काशीपुर में वायु प्रदूषण का ग्राफ
तेजी से बढ़ रहा है। बिना किसी रोक–टोक के निरंतर बढ़ती जा रही फैक्ट्रियाँ इसका महत्वपूर्ण कारण है। ये
मुनाफे के लालच में प्रदूषण नियंत्रण के सामान्य मानकों का भी पालन नहीं करती है।
इसके चलते शहर जल्दी ही स्वास्थ्य की दृष्टि से रहने लायक नहीं रह जाएगा।
भारतीय
वन सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट के अनुसार राज्य में वन क्षेत्र के बाहर वन में 23 वर्ग किलोमीटर की बढ़ोतरी
हुई है और वनों के अन्दर 49 वर्ग
किलोमीटर वन में कमी आयी है। मुनाफे की भूख के कारण निरन्तर वन–कटाव, शहरीकरण, नदियों
के साथ छेड़छाड़, ग्लेशियर
का पिघलना, बड़े
बाँधों के कारण आने वाले महाविपदाओं का दुष्परिणाम तो उत्तराखंड की आबादी ही झेलती
है।
कोलकाता
के चितरंजन कैंसर रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में 22 लाख स्कूली बच्चों के फेफड़े
प्रदूषण से इतने खराब है कि उनकी तबीयत ठीक होना सम्भव ही नहीं यानी दिल्ली की
बाकी पीढ़ी खराब हो चुके फेफड़ों के साथ बड़ी हो रही है। ब्रिटेन के ‘द लांसेट’ जर्नल के अनुसार भारत में
वायु प्रदूषण के चलते 2012 में 6 लाख लोगों की मौत हुई थी और
2015 में 25 लाख लोगों की मौत हुई है।
अमरीका, रूस और जापान जैसे विकसित
देशों ने नाभिकीय संयंत्रों में होने वाली दुर्घटनाओं को देखते हुए अपने यहाँ नये
संयंत्र विकसित करना बन्द कर दिया है। लेकिन वह भारत जैसे देशों में नये–नये परमाणु संयंत्र लगाते
जा रहे हैं। जैसे गोरखपुर, मीठी
विर्दी, कुडानकुलम
और गोवा में जनता के तमाम विरोध के बावजूद सरकार ने परमाणु संयंत्रों को हरी झंडी
दे दी। इतना ही
नहीं गोवा में नारियल के 12,000
एकड़ के बाग को झाड़ी घोषित करके साफ करने की अनुमति दे दी। कुडानकुलम
में इसका विरोध करने वाले साढ़े आठ हजार गाँव वालों पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कर
दिया गया है।
पर्यावरण
विरोधी कामों को चलाने के लिए सरकार रोज–ब–रोज कानूनों
में नये–नये
बदलाव कर रही है। करोड़ों रुपये खर्च करके ‘पर्यावरण बचाओ और पेड़ लगाओ’ का कार्यक्रम चला रही है। मुनाफे के लालच में भी कम्पनियाँ पुरानी पड़
चुकी विदेशी तकनीक को अपनाती हैं जिससे पर्यावरण अधिक प्रदूषित होता है। इसे भी
रोकने में सरकार कामयाब नहीं हो पा रही है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार भारत
में हर साल पर्यावरण के विनाश को रोकने के लिए 80 अरब डॉलर खर्च किये जाते हैं। सवाल यह है कि यह
अकूत सम्पत्ति जा कहाँ रही है,
जमीन पर तो कहीं लागू होती दिख नहीं रही है।
प्लास्टिक
ने तबाही मचा रखी है। प्रशांत महासागर में अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य के बराबर
तैरता हुआ प्लास्टिक द्वीप बन गया है। स्पेन के समुद्र तट पर मरे एक ह्वेल के पेट
से 29 किलो
प्लास्टिक निकला। पर्यावरण
प्रदूषण के क्षेत्र में प्लास्टिक बेहद खतरनाक प्रदूषक बन गया है। इसी के चलते
संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इस साल पृथ्वी दिवस का विषय ‘प्लास्टिक मुक्त विश्व’ घोषित किया है।
लेकिन
सवाल तो यह है कि प्लास्टिक मुक्त विश्व की संकल्पना तब तक सफल नहीं हो सकती, जब तक दैत्याकार मल्टीनेशनल
कम्पनियाँ प्रदूषण फैलाती रहेंगी,
अपनी फैक्ट्री चलाती रहेंगी और पैकिंग के लिए प्लास्टिक का इस्तेमाल
करती रहेंगी। सच्चाई तो यह है कि विश्व में सबसे ज्यादा प्रदूषण पैदा करने वाली
कम्पनियों में अमरीकी कम्पनियाँ शामिल हैं। ग्रीन हाउस गैसें ही ग्लोबल वार्मिंग के लिए
जिम्मेदार होती हैं। सबसे बड़े औद्योगिक देश अमरीका और जर्मनी ग्रीन हाउस गैस
उत्सर्जन के मामले में सबसे आगे हैं और पूरी दुनिया को ही नरक की ओर धकेल रहे हैं।
ग्लोबल वार्मिंग की मार के चलते जलवायु असंतुलन पैदा हो रहा है। प्रदूषित हवा और
पानी से सबसे अधिक दिक्कत गरीबों को होती है। अमीर तो फिर भी इससे बच जाते हैं।
मुनाफे
की हवस में निजी कम्पनियाँ जल,
जंगल, जमीन का
बेहिसाब दोहन करके धरती को तबाह करने के कगार पर पहुँचा रही हैं। अमरीका
खुद में सबसे ताकतवर देश होने का दम भरता है लेकिन पर्यावरण के मामले में होने
वाले अन्तरराष्ट्रीय संधियों को मानने से इनकार भी करता है।
ऐसे में
जनता के सही आंदोलन ही प्रकृति और धरती विरोधी दैत्याकार निगमों और सरकारों को रोक
सकते हैं। जहाँ–जहाँ
जनता ने समझदारी और हौसला दिखाया है, वहाँ–वहाँ वह
सफल हुई है। जैसे चिपको आंदोलन,
बोलीविया का जल–युद्ध, केरल में पेप्सी विरोधी
आंदोलन। डचों के वन विरोधी नीति के खिलाफ लड़ते हुए इंडोनेशिया के क्रांतिकारी नेता
सुरान्तिको सामिन ने कहा था कि जब सरकारें जल, जंगल, हवा और
जमीन को बना नहीं सकती तो उसे नष्ट करने का उन्हें क्या अधिकार है। इस बात को
हमारे देश की जनता जिस दिन समझ जाएगी कि पर्यावरण जनता की धरोहर है, न कि चन्द मुनाफाखोर
कम्पनियों की। उस दिन वह धरती को बदलने के लिए लड़ना भी शुरू कर देगी और तब हमारी
धरती को तबाह होने से वास्तव में बचाया जा सकेगा।
आप सभी सम्माननीय नागरिकों से हमारी अपील है कि पर्यावरण और धरती को
बचाने की इस मुहीम का हिस्सा बनें। 22 अप्रैल को इस मौके पर हमने एक सभा का आयोजन किया है। इस
कार्यक्रम में शामिल होकर पर्यावरण संरक्षण के इस प्रयास में हमारा साथ दें।
स्थान : डेस्टीनेशन कोचिंग सेंटर,
क्लेमेंट टाडन झील के नजदीक, देहरादून
समय : सुबह 11
बजे
दिनांक : 22
अप्रैल 2018,
रविवार
आयोजक : पर्यावरण लोक मंच, देहरादून