Tuesday, 30 December 2014

After Lima fiasco, Bolivia plans global assembly to fight climate change

इवो मोरलेस के शब्दों में ---
"But there are some greedy countries that want to consume by themselves what remains of the atmospheric space. Those countries have been stealing from us since colonial times and they want to continue stealing. They are stealing our future, the future of our children and grandchildren, and they are robbing us of the possibility that we can develop in a sustainable way.
And if a developing country, with the obligation to feed and provide a more dignified life to its people, emits greenhouse gases, they begin to point accusing fingers at us. Yes, they want to sanction and punish those who take a little to eat and feed their people, but not to punish themselves, they who have stolen huge amounts in order to grow rich and feather their own nests.… 

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http://climateandcapitalism.com/2014/12/16/lima-fiasco-bolivia-plans-global-assembly-fight-climate-change/

Wednesday, 24 December 2014

मधुमक्खियों पर मंडराते खतरे

    फूल वाले पौधों में परागण एक जरूरी क्रियाहै । परागण क्रिया हवा, पानी, पक्षियों एवं कीट-पतंगों द्वारा की जाती है । इसमें मधुमक्खियों प्रमुख भूमिका निभाती हैं । दुनिया की लगभग १०० फसलों में मधुमक्खियों द्वारा ही परागण होता है । हमारे देश में पांच करोड़ हैक्टर फसलों का परागण मधुमक्खियों पर निर्भर है । दुनिया भर में मधुमक्खी परागित फसलों का मूल्य लगभग एक हजार अरब रूपए है । 
    दुर्भाग्यपूर्ण है कि कृषि के लिहाज से महत्वपूर्ण मधुमक्खियों पर कई प्रकार के खतरे मंडरा रहे   हैं । मधुमक्खियों की संख्या घटने के साथ-साथ उनके छत्तों की संख्या भी कम हो रही है । पिछले ६-७ वर्षोंा में दुनिया भर में लगभग एक करोड़ से ज्यादा छत्ते नष्ट हुए हैं । युरोप के कई देशों में छत्तों के नष्ट होने की दर ३० प्रतिशत आंकी गई है ।
     संख्या में लगातार आ रही कमी के कई भौतिक, रासायनिक व जैविक कारण हैं । कीटनाशकों का बढ़ता प्रयोग इनकी संख्या पर विपरीत प्रभाव डाल रहा है । नियोनिकोटिनइड युक्त कीटनाशी संख्या घटाने में ज्यादा असरकारी साबित हुए हैं । यह रसायन प्रजनन को प्रभावित करता है और मधुमक्खियां भ्रमित होकर अपना रास्ता भूल जाती है । कीटनाशियों के प्रतिकूल प्रभाव का मामला यू.उस. की अदालत में मार्च २०१३ में चार मधुमक्खी पालकों ने दायर किया  है ।
    डिस्पोजेबल कप का उपयोग भी मधुमक्खियों की संख्या में कमी का एक कारण बन गया है । मदुरैकामराज विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकां ने मई २०१० से एक वर्ष तक पांच कॉॅफी हाऊस में अध्ययन किया । इन कॉफी हाऊस में रोजाना १२०० से ज्यादा डिसपोजेबल कप फेंके जाते थे । शकरयुक्त पेय पदार्थोंा की थोड़ी मात्रा इनमें शेष रह जाती  थी । इससे मधुमक्खियां आकर्षित होकर उनका सेवन करती थी । सेवन के बाद या तो वे फूलों पर जाना भूल जाती थीं या वहीं चिपककर मर जाती थीं । चाय एवं कॉफी में उपस्थित कैफीन इन्हें भ्रमित भी करता हैै ।
    औद्योगिक कार्योंा, खनन एवं पेट्रोलियम शोधन के कामों में उपयोगी सेलेनियम के कारण भी इन पर विपरित प्रभाव हो रहा है । लार्वा अवस्था सेलेनियम के प्रति ज्यादा संवेदनशील देखी गई है । सेलेनियम के प्रभाव से लार्वा की परिवर्धन क्रिया धीमी हो जाती है एवं मोत भी संभावित है । सेलेनियम मधुमक्खियों में परागकण एवं मकरंद द्वारा पहंुचता है । छत्तों में भी सेलेनियम की उपस्थिति का आकलन किया गया है । एक अध्ययन के मुताबिक मोबाइल टॉवर्स एवं सेलफोन से पैदा विकिरण के प्रभाव से भी मधुमक्खियोंकी संख्या में गिरावट आई है । विकिरण के प्रभाव से मजदूर मक्खियों के छत्तों पर नहीं पहुंचने से वहां पनप रही अवयस्क मक्खियों की देखभाल नहीं हो पाती है जिस कारण वे मर जाती हैं ।
    कीटनाशियों के नियंत्रित उपयोग एवं विकिरण की रोकथाम के साथ-साथ बरगद एवं पीपल जेसे वृक्षों को बचाना भी जरूरी है जिन पर छत्तें बहुतायात में पाए जाते हैं । फरवरी २०१३ में बेंगलोर में आयोजित चौथी अंतर्राष्ट्रीय कीट विज्ञान कांग्रेस में ३५ देशों के वैज्ञानिकों ने एक पस्ताव पारित किया थ कि बैगलोर के आसपास के कुछ गावोें मे लगे बरगद एवं पीपल के उन वृक्षों को बचाया जाए जिन पर सैकडो़ छत्ते लगे है ।

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डॉ. ओ.पी. जोशी


Tuesday, 16 December 2014

पूँजीवाद ही समस्या है-फ्रेड मैगडोफ़

1.      पर्यावरण संकट
वास्तव में “पर्यावरण संकट “ के अन्दर अनेक संकट शामिल हैं जैसे-
                    i.            जलवायु परिवर्तन
                  ii.            महासागरों में तेजाब घुलना(बढे हुए कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर से सम्बंधित
                iii.            नुकसानदायक पदार्थों के जरिये हवा, पानी, मिट्टी और जीवों का प्रदूषित होना
                 iv.            खेती योग्य भूमि की अवनति
                   v.            दलदलीय और उष्णकटिबंधीय वनों का विनाश
                 vi.            जैविक प्रजातियों का त्वरित विलोप
     इन संकटों ने सामान्य रूप से अमीरों की तुलना में गरीबों पर अधिक प्रतिकूल प्रभाव डाला है और शायद डालना जारी रहे. यह अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि पर्यावरण न्याय की लड़ाई को पर्यावरण स्वास्थ्य के लिए होने वाले संघर्ष से जोड़कर आगे बढाया जाय.
2.      प्रस्तावित “समाधान” संकट के कारणों से सम्बंधित परिकल्पना पर आधारित है.
3.      संकट के लिए कारणों का सुझाव इस प्रकार है:-
वाल्ट केली का मशहूर “पोगों” कार्टून –“हम दुश्मन को जानते हैं और वह हम खुद हैं.” यह उद्धरण
ज्यादातर कारणों को समझाता है जो इस बहुत ख़राब पर्यावरण के लिए ठहराये जाते हैं. इनमें से कुछ की रूपरेखा इस प्रकार है-
-पर्यावरण पर चर्चा के सन्दर्भ में इस कार्टून का आशय है कि हममें से प्रत्येक व्यक्तिगत रूप से या सारे इंसान एक साथ पर्यावरण और हमें कमज़ोर बनाने के लिए जिम्मेदार हैं.
यहाँ पर्यावरण संकट के लिए अनेक तर्क दिए जा रहे हैं
*दुनिया में बहुत ज्यादा लोग हैं और हमें जनसंख्या को तेजी से कम करने की जरूरत है-आमतौर पर यह दुनिया के गरीब देशों विशेषकर अफ्रीका में, परिवार नियोजन के आह्वान में दिखाई देता है.
*औद्योगिक समाज समस्या है-हमें पूर्व औद्योगिक समाज में लौटना होगा. जिस व्यवस्था में बहुत कम लोगों की जरूरत होगी. यह मुद्दे से भटकना होगा कि यहाँ बहुत सारे लोग हैं लेकिन यह दृष्टिकोण उनसे अलग है जो मानते हैं कि जनसंख्या बहुत अधिक है.
* अगला प्रस्तावित कारण जनता के ऊपर दोष नहीं मढ़ता और यह देखना शुरू करता है कि  अर्थव्यवस्था की कार्यप्रणाली समस्या हो सकती है. यह दृष्टिकोण पूँजीवाद के बाहरी कारकों को समस्या मानता है, इस व्यवस्था को नहीं.
जैसा कम्पनी के मामलों में, इन सह उत्पादों(जिसके लिए भुगतान नहीं करते) की बात है इसकी सामाजिक कीमत होती है जो हम सबको नुकसान पहुंचती है और जिसकी कीमत हम सभी अदा करते हैं. इनमें शामिल है-
                                   i.            वित्तीय सुधार के लिए अभियान (धन की सत्ता को राजनीति में लाया जाय)
                                 ii.            नया व्यापार मॉडल
                               iii.            ऐसे उत्पाद बनाना जो टिकाऊ, बहुमुखी और आसानी से मरम्मत करने योग्य हो, जिसमें ऐसे पुर्जे हों जिनका पुनः उपयोग या पुनर्संस्करण किया जा सके.
                                iv.            पारिस्थितिकीय सेवाओं का व्यापार या बाजारीकरण और निजीकरण
                                  v.            व्यापार योग्य कार्बन क्रेडिट
                                vi.            कार्बन ऑफसेट योजना
                              vii.            सभी आर्थिक गतिविधि में एहतियाती सिद्धांत का उपयोग आदि
इसके बाद एक प्रतिष्ठित समिति ने पाया कि इस व्यवस्था के बाह्य कारकों को दुरुस्त करने में सचमुच कोई खर्च नहीं आएगा. इस सप्ताह की शुरुआत में न्यूयॉर्क टाइम्स के एक लेख का शीर्षक था, “जलवायु परिवर्तन को दुरुस्त करने में कोई खर्च नहीँ” रिपोर्ट आगे इस प्रकार थी –
मंगलवार को एक वैश्विक आयोग अपने खोज की घोषणा करेगा कि उत्सर्जन को सीमित करने के लिए इसके उपायों की एक महत्वाकांक्षी योजना का खर्च 400 अरब डॉलर होगा और अगले 15 सालों में इसमें लगभग 5% की वृद्धि होगी. ये वृद्धि तो है जिसे नये विद्युत् संयंत्र, परिवहन प्रणाली और दूसरे बुनियादी ढाँचे पर किसी भी प्रकार खर्च करना ही होगा. अर्थव्यवस्था और जलवायु पर वैश्विक आयोग की खोज के अनुसार - पर्यावरण संरक्षक नीतियों के गौण फायदे –जैसे ईंधन के कम दाम, वायु प्रदुषण से होने वाली अकाल मृत्यु का कम होना और स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च में कमी को ध्यान में रखा जाय तो इन बदलावों से बचत हो सकती है. जो यह दिखाते हैं कि बाह्य कारक ही समस्या (लक्षण के स्थान पर) हैं, वे कहते हैं कि हमें व्यवस्था के इन बाह्य कारकों को दुरुस्त करने के लिए बाजार आधारित पहुँच, कानून और नियामक इस्तेमाल करना चाहिए.
“बेहतर विकास, बेहतर पर्यावरण” रिपोर्ट में ऐसी उबाऊ बातों की कतारें हैं जो केवल बाह्य कारकों को संबोधित करने के लिए जरूरी है. और एक तरह से इनमें से कुछ बातों का वास्तव में कोई अर्थ है. उदाहारण के लिए जैसे- वैश्विक कार्य योजना के 10 सुझावों में से एक इस तरह है “शहरी विकास के बेहतर-प्रबन्धन को बढ़ावा देकर, दक्ष और सुरक्षित जन परिवहन प्रणाली में निवेश को वरीयता देकर नगर विकास के मुख्य रूप संयुक्त और सघन शहरों को मुख्य बनाया जाये. बिल्डरों को छोड़कर इससे किसे आपत्ति हो सकती है जबकि बिल्डर कुछ भी और कहीं भी बनाने के लिए खुली छूट चाहते हैं. वैश्विक कार्य योजना के साथ रिपोर्ट का सारांश यह है कि पूँजीवादी व्यवस्था तर्कसंगत है और सबकुछ ऐसे ही चलता रहेगा. क्योंकि उनके लिए यह सब ऐसे ही करने का कोई मतलब है. फिर भी इस अनुमान के साथ थोड़ी समस्या यह है कि पूँजीवादी व्यवस्था तर्कसंगत नहीं है और भारी लोकप्रिय संघर्षों की अनुपस्थिति में ज्यादातर अमीरों और ताकतवर आर्थिक शक्तियों की इच्छा से  सामान्य तौर पर सबकुछ जैसा है वैसा ही चलता रहेगा और इन लोगों की चिंता का विषय अपनी पूँजी को इकठ्ठा करते हुए, इसे आसान बनाना होता है. हमें आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए कि मेक्सिको के राष्ट्रपति फेलिपे काल्देरोंचैर, बैंक ऑफ अमेरिका के अध्यक्ष कैड हॉलिडे, डैन डॉक्टरऑफ ब्लूमबर्ग के अध्यक्ष और सी.ई.ओ जैसे प्रकांड विद्वानों वाली समिति भी इस दोषपूर्ण पूर्वानुमान पर आधारित रिपोर्ट बना सकते हैं कि पूँजीवादी आर्थिक/राजनीतिक व्यवस्था तर्कसंगत है.
4. पूर्व पूँजीवादी व्यवस्था की तुलना में आज इंसानों द्वारा पर्यावरण के नुकसान में क्या अंतर है?
*बहुत ज्यादा लोग हैं और आसानी से रहने योग्य भूमि के अधिकांश भाग में फैले हैं.
*कच्चे माल की निकासी और प्रसंस्करण और उत्पादन जैसी तीव्र आर्थिक गतिविधियों के अधिकांश स्थानों पर अधिक तेजी से विनाश हो रहा है.
*आधुनिक तकनीक और औजारों के इस्तेमाल, उदाहरण के लिए पहाड़ों की चोटी हटाना और तार-बालू के दोहन से व्यापक क्षेत्रों में अधिक तेजी से नुकसान होता है.
*पूँजीवाद ऐसी आर्थिक व्यवस्था है जिसकी कोई सीमा नहीं है और जो किसी सीमा का सम्मान नहीं करता. जहाँ तक निगमों की बात है उनके लिए पर्याप्त विकास या पर्याप्त लाभ जैसी कोई चीज़ नहीं हो सकती.
5. पूँजीवाद में ऐसा क्या है जो इसे सामाजिक और पर्यावरण की दृष्टि से एक विनाशकारी व्यवस्था बनाता है?
पूँजीवाद की पारिस्थिकीय प्राणवायु इसके तथाकथित ‘बाहरी कारकों’ में नहीं मिल सकती जो उतनी ही नुकसानदेह है जितनी वह खुद है. बल्कि यह इसके आंतरिक तर्क और व्यवस्था के आंतरिक नियमों में है. इसकी कार्यप्रणाली के डी.एन.ए में है.
पूँजीवाद और पूँजीवादी व्यवस्था के बाजार (जो पूँजीवाद से बहुत पहले भी था) या तथाकथित “स्वतंत्र बाजार ” (जिसका अस्तित्व नहीं है) के बारे में बहुत भ्रम बना हुआ है. सभी साक्ष्यों के विपरीत कुछ लोग ऐसे भी हैं जो पूँजीवाद को लोकतंत्र मानते हैं. लेकिन व्यवस्था की जड़ में जाने के लिए गहराई में देखने की जरूरत है.
पूँजीवाद की आंतरिक कार्यप्रणाली विकास को बढ़ावा देती है. व्यवस्था तभी तक “स्वस्थ” है जब तक यह तेजी से विकास कर रही है और अवरुद्ध विकास के समय या बहुत ही मंद विकास की स्थिति में यह व्यवस्था संकटग्रस्त हो जाती है जिससे ढेर सारे लोगों को पीड़ित होना पड़ता है. दूसरी तरफ मंद विकास पर्यावरण के लिए अच्छा है.
पूँजीपति के मुनाफा संचय की असीमित भूख को हरमन डैली का “असंभाव्य प्रमेय” नकारता है. पारिस्थिकीय अर्थशास्त्री हरमन डैली के “असंभाव्य प्रमेय” के  अनुसार “सीमित ग्रह पर असीमित विकास नहीं हो सकता है.” अंततः आप संसाधन से वंचित हो जाएंगे. “द लिमिट्स टू ग्रोथ” (लेखक-डोनेल्ला एच मिजिज) पुस्तक में मुख्य जोर इसी बात पर है. पुस्तक में दिए गए अनुमान घटनाओं की वास्तविकता के करीब साबित हुए हैं. पूँजीवाद का गतिशील हिस्सा जो इसे पूँजीवाद बनाता है. इसका सबसे अच्छा वर्णन ‘एम-सी-एम’ चक्र से हो सकता है जिसमें धन (पूँजी) का उपयोग कारखाना लगाने, मशीनरी खरीदने, मजदूरों को रखने में होता है. इसका उपयोग उत्पाद बनाने में किया जाता है जिसे उसकी लागत से ऊपर बेचा जाता है. (सेवा क्षेत्र की भी यही कहानी है.)
यह व्यवस्था अंतहीन मुनाफे की खोज पर टिकी हुई है. यह जनसंख्या के छोटे हिस्से पर आधारित है जो उत्पादन के साधनों के मालिक हैं और बड़ी आबादी जीविका कमाने के लिए इनके यहाँ काम करती है. संचय की ऐसी व्यवस्था में पर्याप्त मुनाफा या पर्याप्त उत्पाद और सेवाएँ जिसे बेची जा सके, जैसी कोई चीज़ नहीं होती. पूँजीपति मुनाफे का कुछ हिस्सा विलासितापूर्ण जीवन के लिए इस्तेमाल करता है और बाकी उसी या दूसरे व्यापार में निवेश कर देता है.  MCM’ आगे चलकर M’CM’’ में बदल जाता है और इससे M’’CM’’’... इस तरह यह चक्र आगे चलता रहता है.
कम्पनियां और निगम एक समान या मिलते-जुलते उत्पाद या सेवाएँ देती हैं जिसे बनाने के लिए वे एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करती हैं. प्रतिस्पर्धा के वातावरण में अपने अस्तित्व को बचाने के लिए इन्हें बाजार में हिस्सेदारी बढ़ानी होती है.
पिछले साल न्यूयॉर्क टाइम्स सन्डे मैगज़ीन में “जंक फूड”उद्योग के बारे में एक लेख था जिसमें कंपनियों के “उदर अंश” के लिए लड़ाई का विवरण था. उदर अंश का अभिप्राय बाजार में उपभोक्ता के उस हिस्से से है जिसे कोई कम्पनी प्रतिस्पर्धा से छिन सकती है.
प्रतिस्पर्धा में दूसरे प्रतियोगी भी खरीद लिए जाते हैं.
लेकिन किसी भी तरह, बड़े निगमों के हाथों आर्थिक गतिविधि के संकेन्द्रण में वृद्धि हुई है. शीर्ष 500 वैश्विक निगमों की आय पूरे विश्व की आय का 35-40 प्रतिशत है. भले ही हम पूँजीवाद के ऐसे दौर  में हैं जिसे एकाधिकार पूँजीवाद कहा जाता है, बड़ी कम्पनियां आपस में प्रतिस्पर्धा करती तो हैं लेकिन कीमतें घटाकर गलाकाट प्रतियोगिता नहीं करती हैं.
6. कम्पनियाँ सिंजेंटा, बायेर, बीएएसएफ, डोव, मोनसैन्टो और ड्यूपोंट 59.8 प्रतिशत व्यावसायिक बीज और 76.1 प्रतिशत कृषि-रसायन पर नियंत्रण रखती हैं. इन दो क्षेत्रों में यही 6 कंपनियाँ कम से कम 76 प्रतिशत सभी निजी क्षेत्र के अनुसंधान और विकास के लिए जिम्मेदार हैं.
इस तरह पूँजीवाद को आगे बढ़ाने वाली दो मुख्य ताकतें हैं
a)    अधिक मुनाफे से और अधिक धन संचय करने की खोज के लिए और मुनाफा कमाना ही इस व्यवस्था की चालक शक्ति है. निवेश इसलिए नहीं होते कि अधिकतर लोगों की  जरूरत की वस्तुएँ या सेवाएँ उपलब्ध हो, बल्कि इसलिए किए जाते हैं कि और अधिक मुनाफा हो. (कृषि व्यवस्था  मुनाफा पैदा करने के लिए है. भोजन उसका उप-उत्पाद है.)

नोट:- इंसान परोपकार से लेकर हिंसा तक, सभी प्रकार की विशेषता प्रदर्शित करतें हैं. पूँजीवाद में जीने और फलने-फूलने के लिए कुछ विशिष्ट व्यवहार जैसे- व्यक्तिवाद, प्रतिस्पर्धा लालच, स्वार्थ, दूसरों का शोषण, उपभोक्तावाद आदि लाभप्रद हैं और इन पर जोर दिया जाता है. साथ ही वे सभी मानवीय विशेषताएँ जैसे सहयोग, सहानुभूति और परोपकारिता का क्षरण होना है जिससे समाज में सौहार्द कायम रहता है. प्रतिष्ठित पत्रिका ‘प्रोसीडिंग्स ऑफ़ नेशनल अकादमी ऑफ़ साइंस’ में एक लेख  का सार है कि उच्च सामाजिक वर्ग के अनैतिक व्यवहार में वृद्धि”. वालस्ट्रीट सिनेमा में काल्पनिक गोंर्डन गेको ने कहा  “लालच अच्छा है. यह सही है कि पूँजीवादी समाज में लालच न केवल अच्छा है बल्कि यह लगभग जरूरी है कि अगर आप पूँजीपति हैं तो आपके अन्दर यह बड़ी मात्रा में होनी चाहिए और हमारे पूरे आश्चर्य के विपरीत यह निष्कर्ष निकलता है कि अमीर ज्यादा लालची होते हैं और उच्च वर्ग के लोगों में अनैतिक व्यवहार की प्रवृत्ति होती है. यातायात नियमों के उल्लंघन से लेकर सार्वजनिक सामान चुराने के काम में इन्हें हिचक नहीं होती.
b)    ज्यादातर मामलों में कम्पनियां दूसरी कंपनियों से प्रतिस्पर्धा करके अपने मार्केट शेयर में वृद्धि करना चाहती हैं. जैसे- ‘मार्केटिंग मैनेजमेंट’ (अब 14वें संस्करण में) के लेखक और मार्केटिंग गुरु फिलिप कोटलर ने टिपण्णी की:-
अगर ज्यादा जरूरतें नहीं हैं-जिससे मेरा मतलब है कि जितनी भी चीजें हम सोच सकें, कोई उनकी आपूर्ति कर रहा है-तब हमें नई ज़रूरतों का आविष्कार करना होगा... अब मुझे पता है कि उसकी आलोचना की गयी है. लोग कहते हैं :”तुम हमारे लिए यह सब क्यों कर रहे हो? हमें अकेला क्यों नहीं छोड़ देते? लेकिन यह ऐसी व्यवस्था है जहाँ हमें लोगों को उत्पादों की ज़रुरत के लिए प्रेरित करना होगा ताकि वे इन चीजों को हासिल करने के लिए काम करें. अगर उन्हें और जरूरत नहीं होगी तो वे कठिन परिश्रम नहीं करेंगे. वे सप्ताह में 35 घंटे चाहेंगे, फिर 30 घंटे... और इसी तरह. हाँ, बाजार ही हमें नयी इच्छाओं की ओर धकेलता है.

कोटलर यह बात सीधे नहीं बताते कि “समस्या” यह नहीं है कि लोग कम घंटे काम करेंगे और बाकी समय मस्ती काटेंगे लेकिन यह है कि अगर वे ऐसा करेंगे तो कम सामान खरीदेंगे. कम्पनी और ऐसी अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचेगा जिसमें अधिक से अधिक सामान बेचना उद्देश हो लडखडा जायेगी.
इसलिए- विकास इस व्यवस्था का अविभाज्य अंग है. लेकिन यह हमेशा विकास या पर्याप्त विकास नहीँ करता. धीमे या अवरुद्ध विकास के दौरान क्या होता है? बेरोजगारी बड़ी समस्या बन जाती है. जबकि कुछ अपवादों को छोड़कर, पूँजीवादी व्यवस्था में हमेशा बेरोजगारी बनी रहती है और अर्थव्यवस्था में मंदी आने पर समस्या बदतर हो जाती है. बेरोजगारी को कम करने के लिए सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 2 या 3 प्रतिशत होनी चाहिए. काम करने वालों की संख्या आज भी बढ़ रही है और नये आगंतुकों की भर्ती के लिए नयी नौकरियों की जरूरत है. साथ ही पूँजीपतियों के मुख्य लक्ष्यों में एक दक्षता को  बढ़ाना होता है ताकि कम मजदूरों से ज्यादा काम निकाल सके, यही इस व्यवस्था का नारा है और ऐसे तरीके मशीनें (रोबोट) और कंप्यूटर सॉफ्टवेयर को लाना जिससे उत्पादन की एक अवस्था के लिए कम मजदूरों की जरूरत पड़े. बढ़ी दक्षता से नौकरी खोने वाले पीड़ित लोगों के लिए नए रोजगार के सृजन की जरूरत होती है.
अमेरिका में एक स्वस्थ अर्थव्यवस्था को बनाये रखने में 2 प्रतिशत का वार्षिक वृद्धि दर अपर्याप्त है. जिसका मतलब 35 सालों में जी.डी.पी. का दुगना हो जाता है. अगर अर्थव्यवस्था 3 प्रतिशत के स्वस्थ दर से विकास करती है तो वह 23 सालों में दुगनी हो सकती है. हालांकि जी.डी.पी. के दोगुना हो जाने का मतलब यह नहीं है कि संसाधन का उपयोग और प्रदूषण भी दोगुना हो जाए लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि इससे पर्यावरण की क्षति में उल्लेखनीय वृद्धि होती है.
इसका आशय यह है कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में पर्यावरण को बचाने के लिए कम विकास
या कोई विकास न हो, यह संभव नहीं है. इसके अलावा पूँजीपति से मुनाफा कमाने की ताकत छिनने के लिए, सरकार को चालक शक्ति और व्यवस्था का उद्देश्य अपने हाथ में लेने के लिए नौकरी देने वाला आखिरी सहारा बनना पड़ेगा क्योंकि इससे हटकर नई नौकरियाँ पैदा नहीं होंगी और मजदूरों के दक्षता बढ़ने से नौकरियाँ ख़त्म होंगी. मौजूदा व्यवस्था में सरकारी नियामकों के जरिये पर्यावरण क्षरण को कम करने के लिए कुछ काम किया जा सकता है. उदाहारण के लिए अमेरिका में “क्लीन वाटर एक्ट” के बाद नदियाँ पहले से ज्यादा साफ़ हो गयी. 1970 और 80 के दशक की तुलना में आज पूर्वोत्तर राज्यों में तेजाब की बारिश कम होती है और उसमें सलफेट की मात्रा भी कम होती है. अनेक संरक्षण कार्यक्रमों की वजह से अमरीका में भू-क्षरण की समस्या पहले की तुलना में कम हो गयी है. ऐसी क्षेत्रीय और स्थानीय गंभीर समस्याओं का हल  सरकारी नियामकों का नतीजा है. लेकिन व्यापर को सामान्य अवस्था में जारी रखते हुए उन्हें आसानी से हल किया जा सकता था. लेकिन ऐसे व्यापर के साथ नहीं जो नियामकों के खिलाफ लड़ता है या उसमें तोड़-फोड़ करता है.
कंपनियाँ भी ये दिखाने का दावा करती हैं कि वे किस तरह से पर्यावरण के पक्ष में हैं. इस सप्ताह डनकिन डोनट और क्रिस्पी क्रीमी ने दावा किया है कि वो डोनट भुनने के लिए केवल “वर्षावन मित्र” तेल का इस्तेमाल करेंगी. वे पुराने वर्षावन की जमीनों पर  लगे पेड़ों से उत्पन्न तेल नहीं खरीदेंगे. हालांकि अगर इसे वे अच्छी तरह से जारी रखते, तो भी ऐसे दावों का इस्तेमाल वे अपने उत्पाद को बेचने के लिए करेंगे जो आज भी वृद्धि के प्रति वचनबद्ध है. सभी पर्यावरण संरक्षण के दावे भी सही नहीं होते. राजनीतिक और आर्थिक तौर पर व्यापारिक स्वार्थ पहले से भी ज्यादा शक्तिशाली हैं. इस प्रकार आज उनकी शक्ति में महत्वपूर्ण कमी के बारे में उसी प्रकार संभव नहीं दिखता जिस तरह भिन्न किस्म का समाज. अगर कभी सारी ताकतें ऐसे कानून और नियामक बनाने के लिए एक जुट हो जाय जो किसी तरह पर्यावरण के ‘बाह्य कारकों’ को खत्म कर दे, सामाजिक बाह्य कारकों को एक ओर धकेल दे इसके बजाए इस अर्थव्यवस्था को ही क्यों न बदल डाला जाय.
इसे एक बार अर्थशास्त्री जोन रोबिनसन ने स्पष्ट किया था, “कोई भी सरकार जिसके पास पूँजीवादी व्यवस्था के मुख्य गलतियों को ठीक करने की इच्छा और शक्ति दोनों हो उसके पास इस व्यवस्था को पूरी तरह समाप्त करने की भी इच्छा और शक्ति होगी.”
पर्यावरण पर विचार करते समय वाल्ट केली के पोगों कार्टून को दूसरे शब्दों में लेना चाहिए “हम दुश्मन को जानते हैं और वह पूँजीवाद है.”
6. पूँजीवाद को किसी दूसरी आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक व्यवस्था से हटा देना पारिस्थितिक रूप से स्वस्थ समाज की गारंटी नहीं देता है-लोगों को इस दिशा में काम जारी रखना चाहिए.
ऐसी व्यवस्था हमारी मौजूदा आर्थिक-राजनैतिक व्यवस्था से हर मायने में भिन्न अवश्य होगी. यदि आप उन्नत पारिस्थिकीय और न्यायसंगत समाज की विशेषताओं के बारे में विस्तारपूर्वक जानना चाहतें हैं तो आप सितंबर के मंथली रिव्यु में मेरा लेख “उन्नत पारिस्थितिकीय और न्यायसंगत सामाजिक अर्थव्यवस्था” पढ़ सकते हैं.
ऐसी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था पर सार्थक सामाजिक नियंत्रण होना चाहिए जिसके लिए समुदाय, क्षेत्र और विभिन्न क्षेत्रों के लोग प्रयास करते हों.
                      i.        अर्थव्यवस्था और राजनीति का सार्थक लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा विनियमन.
                    ii.        सभी इंसानों की मूलभूत जरूरतों को ध्यान में रखते हुए वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन.
इसके लिए आर्थिक योजना की जरूरत होगी लेकिन ऊपर से नीचे की ओर केन्द्रीय योजना की नहीं बल्कि सामुदायिक, क्षेत्रीय और बहुक्षेत्रीय स्तर पर योजना की जरूरत होगी. सामाजिक उद्देश्य की पूर्ती करने वाली अर्थव्यवस्था को बहुत सक्रिय प्रबंधन के साथ आगे बढ़ाना चाहिए. वेनेज़ुएला के 30 हजार से अधिक सामुदायिक परिषदों की तरह अल्पकालिक और दीर्घकालिक जरूरतों के लिए योजना बनाने की शुरुआत सामुदायिक स्तर पर होती है और क्षेत्रीय योजना में अन्य समुदायों के साथ ताल-मेल होना चाहिए. ऐसे निर्णय जो ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए व्यक्तियों द्वारा लिए जाते हैं. इसके विपरीत अगर एक बार कोई अर्थव्यवस्था सामाजिक उद्देश्य के लिए चलायी जाय तो उसे योजना के बिना तर्कसंगत ढंग से नहीं चलाया जा सकता. उत्पादन और विवरण के लिए योजनाओं के अभाव में हम यह कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं कि सभी लोगों को पर्याप्त भोजन, साफ हवा, घर, स्वस्थ्य सेवाएँ मिल रहीं हैं?
                   iii.        जीवन की महत्वपूर्ण आवश्यकताओं के लिए सामुदायिक या क्षेत्रीय स्तर पर आत्मनिर्भरता (हालांकि पूर्ण आत्मनिर्भरता जरूरी नहीं हैं)
                   iv.        कार्यस्थलों में श्रमिकों का स्वशासन और कार्यस्थल के सभी मुद्दों में आसपास के समुदायों को शामिल करना जिससे उनका सरोकार हो.
                    v.        आर्थिक बराबरी जिसमें की सभी लोगों की मूलभूत अवाश्यकताएँ पूरी हों (लेकिन बहुत ज्यादा नहीं)

                   vi.        नोट: यह “मध्यम वर्गीय पश्चिमी जीवनशैली” के मानक से नीचे है. हमें चार धरती से अधिक की जरूरत होगी अगर हम यह मानक सबके लिए लागू करना चाहते हैं.
                  vii.        उत्पादन, निवास और परिवहन के लिए पारिस्थितिकीय नजरिये का इस्तेमाल.
6. पहुँचने का रास्ता
जन संघर्ष के द्वारा पूँजीवाद के स्थान पर सामाजिक नियंत्रण के अधीन समाजवादी समाज की स्थापना एक लम्बा रास्ता है. आज सबसे बेहतर उपाय यह है कि लोग पर्यावरण संतुलन और सामाजिक न्याय के लिए हो रहे संघर्षों में शामिल हो जाएँ. ये दोनों साथ ही चलने चाहिए. लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि केवल आम संघर्षों में ही भाग न लिया जाए बल्कि कल की तरह पर्यावरण के जुलूस जैसे कार्यक्रमों में भी शामिल हों. इस संघर्ष में हमें लोगों को अपने साथ जोड़ना चाहिए और शैक्षिक समूह का गठन करना चाहिए. इस तरह से हम उन लोगों की संख्या बढ़ा सकते हैं जो यह समझते हैं कि पूँजीवाद ही असली दुश्मन है और इसको एक स्वस्थ पारिस्थितिकीय और न्यायसंगत समाज के द्वारा बदल दिया जाय.

http://mrzine.monthlyreview.org/2014/magdoff260914.html

अनुवाद- अतुल तिवारी