Saturday, 11 October 2014

ग्लोबल वार्मिंग

सूर्य से पृथ्वी पर आने वाली ऊष्मा को कार्बन डाइ ऑक्साइड, मिथेन, नाइट्रस ऑक्साइड आदि गैसें अपने अन्दर सोख लेती हैं और उसे वायुमण्डल के रास्ते आकाश में लौटने नहीं देती हैं। ये गैसें यदि उचित मात्र में रहें तो पृथ्वी की सतह के लिए कम्बल का काम करती हैं, ताकि पृथ्वी बिलकुल ही ठण्डी न हो जाए। वैज्ञानिकों के अनुसार इन गैसों से युक्त वायुमण्डल एक हरे घर (ग्रीन हाउस) के समान होता है, जिसमें सूर्य की ऊष्मा एक बार आ जाने के बाद दुबारा वापस नहीं जा पाती। इसलिए इन गैसों को ग्रीन हाउस गैस कहते हैं। पिछले 200 सालों के औद्योगिक विकास ने वायुमण्डल में कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्र बहुत अधिक बढ़ा दी है जिसने सूर्य की गर्मी को वायुमण्डल में सोखकर पूरी धरती का औसत तापमान बढ़ा दिया है। इसे ही ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं। इसके चलते जीव-जन्तुओं और पेड़-पौधों की हजारों प्रजातियाँ विलुप्त हो गयीं और अब खुद मनुष्य की बारी है। हर नया दशक पिछले से अधिक गर्म हो रहा है। दुनिया भर के तापक्रम का रिकार्ड बताता है कि पिछले 130 वर्षों के इतिहास में वर्ष 2005 सबसे अधिक गर्म था जबकि 2009 दूसरा सबसे गर्म साल था। वर्ष 2100 तक धरती के तापमान में औसतन 1.5 से 6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होने का अनुमान है।
ग्लोबल वार्मिंग के घातक परिणाम अब सामने आने लगे हैं और भविष्य में इससे अपूरणीय क्षति होने की सम्भावना है। 1970 से 2007के बीच आर्कटिक सागर की 40 प्रतिशत बर्फ कम हो गयी। ग्रीनलैण्ड और अन्टार्कटिक में बर्फ की चादर टूटने से समुद्र के पानी का तापमान बढ़ रहा है और इसी के साथ-साथ समुद्र का जलस्तर भी ऊपर उठ रहा है। दुनिया भर के ग्लेशियर पिघलने से भी समुद्र के जलस्तर में तेजी से वृद्धि होगी। इसके कारण चीन सहित कई देशों के निचले हिस्से डूब जायेंगे। दुनिया के 40 करोड़ लोग समुद्र तल से 5 मीटर और एक अरब लोग 25 मीटर तक की ऊँचाई में रहते हैं। जाहिर है कि समुद्र का जलस्तर बढ़ने से ऐसे करोड़ों लोग बेघर हो जायेंगे। दुनिया भर के 90 प्रतिशत ग्लेशियर पीछे खिसकते जा रहे हैं। हिमालय के ग्लेशियर एशिया के कई देशों में करोड़ों लोगों के लिए पानी के अक्षय स्रोत हैं। उनका सिकुड़ना एक तरफ बाढ़ और दूसरी तरफ पानी की भारी कमी का कारण बनेगा। बोलीविया और पेरू में पानी की कमी के पीछे ग्लेशियर का गायब होना ही है। वायुमण्डल की गर्मी बढ़ने से उसमें वाष्प की मात्र बढ़ जायेगी जो मौसम में तेजी से बदलाव लाएगी। एक ही समय में कहीं बाढ़ और कहीं सूखा कहर ढायेंगे, जिससे कई इलाकों की खेती चौपट हो जायेगी। इसके परिणामस्वरूप एक तरफ खाद्यान्न संकट और भुखमरी की समस्या और विकराल रूप धारण करेगी जबकि इस स्थिति का फायदा उठाकर अनाज व्यापारी कम्पनियाँ महँगा अनाज बेचकर बेहिसाब मुनाफा निचोड़ेंगी। वायुमण्डल में उपस्थित ग्रीन हाउस गैस का 72 प्रतिशत कार्बन डाइ ऑक्साइड है। ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण यही है। औद्योगिक क्रान्ति से अब तक (1750 से 2007) वायुमण्डल में कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्र में 38 प्रतिशत, मेथेन में 150 प्रतिशत और नाइट्रस ऑक्साइड में 16 प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है। इसी से समझा जा सकता है कि पिछले 200 सालों के औद्योगिक विकास का कितना विनाशकारी परिणाम सामने आया है। दरअसल निजी मुनाफे से प्रेरित पूँजीवाद ने अपने जन्मकाल से ही औद्योगिक विकास करके जहाँ समाज को आगे बढ़ाया, वहीं इसका एक स्याह पहलू यह भी है कि मुनाफे की हवस में पूँजीपतियों ने कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस के उत्सर्जन को कभी नियन्त्रिात नहीं किया। यही वजह है कि आज बिजली उत्पादन, उद्योग, यातायात, घरेलू उपकरणों और पेट्रोलियम से कुल 73.7 प्रतिशत कार्बन डाइ ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। ऐसा कोई उपाय भी नहीं है जिससे इस गैस को पुनः वायुमण्डल से हटाया जा सके।
औद्योगिक क्रांति से पहले मनुष्य और प्रकृति के बीच काफी हद तक संतुलन बरकरार था, क्योंकि उस दौरान हानिकारक गैसों को आसपास के पेड़-पौधे सोख लेते थे। लेकिन तेजी से औद्योगिकरण के बाद बढ़ते असंतुलित कार्बन उत्सर्जन और उसी रफ्तार से कटते जंगलों ने पृथ्वी पर इस गैसों की मात्र बढ़ा दी। ऐसा कोई साधन नहीं बचा जिससे वायुमण्डल में इन गैसों की मात्र को कम किया जा सके। तभी से इन गैसों की मात्र लगातार बढ़ती जा रही है। उल्लेखनीय है कि कार्बन उत्सर्जन के लिए हर देश और हर इन्सान की जिम्मेदारी एक बराबर नहीं है। इसे निम्न तालिका से समझ सकते हैं:
सन् 2005 में दुनिया के 5 बडे़ उत्सर्जक
देश            वैश्विक उत्सर्जन              प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन
                                    का प्रतिशत                  (टन में)
अमरीका              16                                                24.1
इण्डोनेशिया            06                                               12.9
यूरोपीय संघ           11                                               10.6
चीन                 17                                               05.8
भारत                05                                               02.1

कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन जैसे अमरीकी खेमे के तेल उत्पादक देशों का प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन 30 टन से भी ज्यादा है। अमरीका, आस्ट्रेलिया, कनाडा और सऊदी अरब का प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन 15 से 30 टन के बीच है, जबकि भारत जैसे विकासशील देशों का उत्सर्जन 5 टन से भी कम है।
ग्रीनपीस का एक सर्वे बताता है कि कार्बन उत्सर्जन में एक ही देश के भीतर गरीब और अमीर लोगों का हिस्सा भी एक समान नहीं है। सर्वे के अनुसार 3000 रुपये मासिक आमदनी वाले परिवार औसतन 335 किलोग्राम सालाना कार्बन उत्सर्जन करते हैं, जबकि तीस हजार की मासिक आमदनी वाले परिवार उनसे चार गुणा ज्यादा, 1499 किलोग्राम कार्बन उत्सर्जित करते हैं। इसी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि लाखों-करोड़ों की आय वाले परिवार कितना अधिक कार्बन उत्सर्जित करते होंगे। जाहिर है कि ऊँची आय वाले 15 करोड़ भारतीय ही निर्धारित सीमा से अधिक कार्बन उत्सर्जित करते हैं जो कारए.सी., रेफ्रीजरेटर, वाशिंग मशीन, प्लाज्मा टी.वी. और अन्य उपकरणों का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं। लेकिन इसकी सबसे अधिक कीमत सादगी से जीने वाली 85 प्रतिशत गरीब जनता को चुकानी पड़ती है।
कार्बन उत्सर्जन और वैश्विक तापमान अब धीरे-धीरे नहीं, बल्कि छलांग लगाकर बढ़ रहा है जिसके नतीजे विनाशकारी हैं। आर्कटिक सागर का विशाल बर्फीला इलाका, सूर्य की ऊष्मा को दर्पण की तरह परावर्तित कर उसे वायुमण्डल से बाहर धकेल देता था। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव से बर्फ पिघलने के कारण अब यह ऊष्मा परावर्तित न होकर पृथ्वी को गर्माने लगी है। उत्तरी टुंड्रा प्रदेश की बर्फ पिघलने से मिथेन गैस निकलती है, जो पृथ्वी को कार्बन डाइ ऑक्साइड से कई गुना अधिक गरम करती है। एक अन्य मामले में समुद्र अधिक मात्र में कार्बन डाइ ऑक्साइड सोखकर अम्लीय होता जा रहा है जिससे विभिन्न समुद्री प्रजातियाँ मर रही हैं। साथ ही समुद्री जल की कार्बन डाइ ऑक्साइड सोखने की क्षमता भी लगातार कम होती जा रही है जिससे वायुमण्डल में इस गैस के जमा होने की दर बढ़ती जा रही है।
जलवायु परिवर्तन पर अन्तरसरकारी पैनल (आई पी सी सी) के अनुसार समुद्र का जलस्तर बढ़ने की रफ्तार 1961 में 1.8 मिलीमीटर सालाना थी जो सन् 1993 से 2003 के बीच 3.1 मिलीमीटर हो गयी। इस तरह जलवायु परिवर्तन को नियन्त्रिात करने की सम्भावना दिनोंदिन कम होती जा रही है। अनुमान है कि सन् 2025 तक पृथ्वी का 
70 प्रतिशत इलाका सूखाग्रस्त हो जायेगा जबकि आज पृथ्वी का 40 प्रतिशत इलाका ही सूखे का शिकार है।

Friday, 3 October 2014

पानीपत थर्मल प्लांट



                                                     -आशु वर्मा
       पानीपत थर्मल प्लांट के सामने से गुज़रते समय अक्सर दैत्याकार चिमनियाँ और उनसे निकलता धुआँ, दूर तक फैली राख की पहाड़ियाँ और बंजर खेत, धूल और राख से अटी बस्तियाँ, गर्द में सने पेड़, उदास और बेरौनक दुकानें ध्यान खींचती थीं. नेहरू ने जिन बड़े सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को आधुनिक युग के मंदिर और कमांडिंग हाइट्सकहा था, उन्हीं में से एक, इस प्लांट के आसपास की हवा इतनी बोझल क्यों महसूस होती है? हवा में एक घुटन क्यों तारी रहती है? आसपास का मंजर इतना डरावना क्यों है? क्या वास्तव में यह मंदिर ही है? मन में प्रश्न उठता कि अगर यह मंदिर हैं तो देश में तमाम जगहों में बन रहे पावर-प्लांटो के खिलाफ आन्दोलन क्यों चल रहे हैं और लोगों का विरोध कहाँ तक उचित है? ख़बरों के पीछे की सच्चाई क्या है? इन्हीं बातों को जानने-समझने और अपनी आँखों से देखने हम पानीपत थर्मल प्लांट गए और उसके आस-पास के गाँवों के लोगों से बातचीत की. अमर उजाला, पानीपत के पत्रकार श्री प्रीतपाल ने इस काम में हमारी बहुत मदद की. उनके हवाले से जो जानकारियाँ हमें मिलीं वह परेशान करने वाली हैं.
     यह प्लांट 1974 में 110मेगावाट बिजली उत्पादन के साथ शुरू हुआ  और आज यहाँ 1368 मेगावाट बिजली का उत्पादन हो रहा है. प्लांट का परिसर 2182 एकड़ में फैला हुआ है जिसमें से प्लांट से निकलने वाली राख के लिए 900 एकड़ जमीन में तालाब (ऐश पौण्ड) बना हुआ है. इस तालाब की गहराई पच्चीस मीटर है. इस प्लांट में बिजली उत्पादन के लिए रोज़ 20,000 टन कोयला लगता है जो धनबाद (झारखंड) और इंडोनेशिया से मंगवाया जाता है. इस 20,000टन कोयले से 17,000टन राख बनती है जिसे पानी के साथ पाइपों के ज़रिये ऐश पौण्ड में डाला जाता है. दशकों से लगातार राख और पानी

पानी में घुलती राख
बहाए जाने से मीलों तक फैला भयानक दलदल बन गया है जो पानी की तलाश में आये जानवरों को लील जाता है. राख के साथ पानी मिलाये जाने से आस-पास के लगभग दस गाँवों का भूजल स्तर जीरो हो गया है. फसलें खराब हो जाती हैं, मकानों में भयंकर सीलन है और रेह, सेम या नूनी जमी रहती है, काफी सारे मकानों में दरार आयी हुई है. नए मकान भी ज्यादा दिन नहीं बच पाते. लोग दहशत-भरा जीवन जी रहे हैं. प्रीतपाल जी ने खुखराना गाँव का सरकारी स्कूल दिखाया जो बेहद जर्जर हालत में था. दीवारों में भयंकर सीलन थी, ईंटे झड़ी हुई थीं. एक अजीब सी मनहूसियत पूरे प्रांगण में पसरी हुई थी. ज़मीन के नीचे पड़े हुए पानी के पाइप की चूड़ी बंद थी फिर भी लगातार पानी बह रहा था. हमें बताया गया कि भूजल के जीरो लेवल पर होने के कारण पानी बहुत ऊपर आ गया है. बहुत से खेत अधिक पानी के कारण खराब हो गए हैं.
     प्लांट से लगातार निकलने वाली राख के कारण पच्चीस मीटर गहरा राख का तालाब भरते-भरते अब ज़मीन की सतह तक आ पहुंचा है. आस-पास के गाँवों में लगातर राख उड़-उड़कर आती रहती है और जब हवा चलती है तब खुखराना, सुताणा, असन, लुहारी, जाटकलां और अन्य गाँव राख से ढँक जाते हैं. यह राख दस किलोमीतर के दायरे मे उड़ कर जाती है. यह राख आपके कपडे, शरीर, मुँह, फेफड़े, मकान, पशु ... सब को अपनी गिरफ्त में ले लेती है. हर जगह राख ही राख होती है. कोई बाहर सो नहीं सकता.
   
पानीपत थर्मल प्लांट से निकला राख का ढेर
लोगों ने बताया की विश्वबैंक ने पहले राख के प्रबन्धन के लिए पैसा दिया था, पर उसका इस्तेमाल नहीं किया गया. अब तो इस मद में कोई पैसा भी नहीं आता. राख से सीमेंट बनाने के लिए जे. पी. सीमेंट की फैक्टरी लगी है पर उसमें रोज़ निकलने वाली
1700  टन राख में से मात्र  200 टन ही इस्तेमाल होती है. पहले ईंट भट्टे वाले कुछ राख लेते थे, पर ईंट की गुणवत्ता खराब हो जाने से उन्होंने राख लेना बंद कर दिया. अब मुफ्त देने पर भी वे नहीं लेते. इस राख के कारण टीबी से आस-पास के गाँवों के लगभग चालीस लोगों की मौत हो चुकी है. खुखराना के एक सरपंच की मौत भी टीबी से ही हुई थी... खुखराना के नम्बरदार ने एलरजी से खराब हुआ अपना हाथ दिखाया. आस-पास के गाँवों के 80 प्रतिशत लोग दमा, एलरजी, टीबी या आँख के रोगी हो चुके हैं. पहले कभी इन गाँवों में मेडिकल कैम्प लगते थे और प्लांट से डॉक्टर आते थे, पर अब धीरे-धीरे यह सब बंद हो गये हैं. उच्च न्यायालय का आदेश था कि यहाँ के बाशिंदों की हर हफ्ते जाँच होनी चाहिए, कुछ दिनों तक जाँच हुई पर थोड़े समय बाद वह भी बंद हो गयी. गाँवों के उप स्वास्थ्य केंद्र में शायद ही कोई दवाई मिलती है. लोगों के स्वास्थ्य और जीवन को किस्मत के भरोसे छोड़ दिया गया है. लोगों ने बताया कि लगातार बीमार रहने के कारण अब एक बीमारी ठीक होने से पहले दूसरी बीमारी पकड़ लेती है. इस इलाके में मलेरिया और टाईफाईड आम है. पहले पीने का टैंकर आता था, अब वो भी आना बंद हो गया है. हैण्डपम्पों से शोरायुक्त पानी आता है. जिन लोगों की आर्थिक हालत थोड़ी ठीक है, उन्होंने तो आर.ओ. लगवा लिए हैं, पर गरीब तो वही पानी पी रहे हैं जो प्लांट से निकल कर ऐश पौण्ड में जाता है और सीपेज के द्वारा पम्पों तक पहुँच जाता है. सुताना गाँव में कोई अपनी लड़की की शादी नहीं करना चाहता. लोगों ने बताया कि प्लांट लगने के बाद सरकार की ओर से आसपास के लोगों के स्वास्थ्य या उनकी दूसरी समस्याओं का पता लगाने के लिये कभी कोई सर्वे नहीं करवाया गया.  
     लोगों का कहना था कि फसलों पर धूल की परत जमा रहती है और बाजार में उसके दाम कम मिलते हैं. मार्च-अप्रैल में जब फसलों की कटाई होती है, तब राख की आंधी के कारण खुखराना और जाटकलां गाँवों में कटाई के लिए मजदूर नहीं मिलते. खुखराना गाँव के लोगों ने बताया की प्लांट के लिए जब सरकार यह ज़मीन ले रही थी तो यहाँ के बाशिंदों और किसानों को आनेवाले समय में यहाँ के पर्यावरण और लोगों के स्वास्थ्य पर पड़नेवाले इन दुष्प्रभावों के बारे में नहीं बताया गया था.
     किसानों को यह अफ़सोस है की आज उनके जिन खेतों की प्रति एकड़ कीमत एक करोड़ है वह उनसे बेहद सस्ते दामों पर ली गई थी.  1970 में बहुत सारे किसानों को मात्र 580 रुपये तो कुछ को 2000 रूपये  प्रति एकड़ ज़मीन का मुआवजा मिला.  1977 में मुआवज़े की राशि 8000 रुपये और  1990 में 70000रुपये  प्रति एकड़ ज़मीन की कीमत मिली. आज किसान अपनी ज़मीनों से भी हाथ धो बैठे हैं और स्वास्थ्य से भी. अपने बच्चों को देने के लिए उनके पास बीमारियों के अलावा कुछ भी नहीं है. कुछ लोगों को तो मुआवजा भी नहीं मिला. लोगों ने बताया की इमरजेंसी के समय ज़मीन ली गयी. पहले हमने पैसे लेने से इनकार किया था. फिर ले ली. पहले जे.सी.बी. नहीं थी. सबको काम मिल जाता था. आज प्लांट में भी जिन्हें काम मिला है उनकी संख्या ज़्यादा नही है. कम पढ़े लिखे होने से काम भी छोटे पदों पर ही मिला है.
     खुखराना गाँव के मौजूदा सरपंच ने बताया की गाँव वालों ने हाई कोर्ट में मुकदमा लड़ा कि स्वास्थ्य कारणों से उन्हें कहीं और बसाया जाए. मुक़दमे के लिए भी उन्हें अपना वकील करना पडा, ताकि कोई गड़बड़ी न हो जाये. मुकदमा जीते दस साल हो गए हैं पर इस बिना पर कि इस गाँव को विस्थापित कर अब पास के सौदापुर गाँव मे बसाना है, इसलिए अब कोई ग्रांट भी नही मिलती.खुखराना गाँव जिसकी ज़मीन पर प्लांट लगा है, उसके बाशिंदों ने ही हाई कोर्ट से अपने लिए स्वास्थ्य कारणों से नयी जगह की माँग की थी. वह फैसला आये भी दस साल बीत चुके हैं, अभी तक न तो उन्हें सौदापुर में बसाया गया है और ना ही किसी प्रकार की ग्रांट सरकार की ओर से मिल रही है. इसके विरोध में कई गाँवों की महापंचायत भी हो चुकी है. दूसरे, सरकार ने गाँव में
प्रदूषण से गिर गये घरों के प्लास्टर
बसाने के लिए सिर्फ
54 एकड़ जमीन ही तय की है. बहुत सारी जमीन, मसलन पंचायती जमीन के कुछ हिस्सों को छोड़ दिया गया है. लाल टोर के अंदर की जमीन का ही मुआवजा तय हुआ है. गाँव का कुल मुआवजा 1.5लाख प्रति एकड़ निर्धारित किया गया है.
     खुखराना, सुताना और आसपास के दस गाँव के लोग देश की राजधानी दिल्ली की जगमगाहट के बदले अपने पुरखों की ज़मीन खो बैठे है. खुद तिल-तिल कर मर रहे हैं और विरासत में अपने बच्चों को अन्धकारमय भविष्य देने को अभिशप्त है. वे विकास के ऐसे भयानक मॉडल का शिकार हो गए हैं जिसमें आम मनुष्य के जीवन की कोई कद्र नहीं. जो आम आदमी के जीने के अधिकार तक को चोट पहुचाता है. जो लोगो को अपनी ज़गह जमीन से उजाड़ देता है और पर्यावरण का भयानक विनाश करता है. यह मॉडल पहले लुभावने सपने दिखाता है और फिर आसपास के प्रभावित लोगों को बीच भंवर में छोड़ कर उन्हें पूरी तरह लाचार बना देता है.
     नेहरु के ‘आधुनिक युग के मंदिर’ तो फिर भी सार्वजानिक क्षेत्र के अधीन थे. उनके लिए सरकार जवाबदेह थी. आज निजीकरण और उदारीकरण के दौर में नीजि पूँजी को लूट कि खुली छोट है और उसके मार्ग में आने वाली हर कानूनी अड़चन कोको हटाया जा रहा है, चाहे भूमि अधिग्रहण कानून हो, श्रम कानून हो या पर्यावरण सम्बंधी कानून, सबको विकास दर के आगे कुर्बान किया जा रहा है. जो लोग इस विनाविनाश्कारी रास्ते का विरोध करते हैं उन्हें विकास में बाधक घोषित कर दिया जाता है.

Thursday, 2 October 2014

प्रकृति पर इन्सानी जीत के निहितार्थ


प्रकृति पर अपनी इन्सानी जीत को लेकर हमें बहुत ज्यादा डींग नहीं हाँकनी चाहिए, क्योंकि ऐसी हरेक जीत के बदले प्रकृति हमसे बदला लेती है। यह सही है कि हरेक जीत से पहले-पहल वे ही नतीजे हासिल होते हैं जिनकी हमें उम्मीद थी, लेकिन दूसरी-तीसरी मंजिल में उससे बिलकुल अलग किस्म के अनदेखे नतीजे सामने आते हैं जो अकसर पहले वाले नतीजों को बेअसर कर देते हैं।
मेसोपोटामिया, यूनान, एशिया माइनर और दूसरे इलाकों में जिन लोगों ने खेती की जमीन के लिए जंगलों को तबाह कर डाला, उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि उन जंगलों के साथ-साथ नमी इकट्ठा करने और उसे हिफाजत से रखने वाले खजाने को खाली करके वे इन देशों की मौजूदा तबाही की बुनियाद डाल रहे हैं। आल्प्स के इटलीवासियों ने जब दक्षिणी इलाकों पर से चीड़ के जंगलों को काट-काटकर पूरी तरह इस्तेमाल कर लिया, जिन्हें उत्तरी इलाकों ने बड़ी हिफाजत से पाला-पोसा था, तब उन्हें इस बात का अहसास नहीं था कि ऐसा करके वे अपने इलाके के पशुपालन की जड़ खोद रहे हैं। इस बात का तो उन्हें और भी कम अहसास था कि इसके चलते वे हर साल कई महीने के लिए अपने पहाड़ी झरनों के पानी से खुद को महरूम कर रहे हैं और दूसरी ओर उन स्रोतों को ऐसी हालत में पहुँचा रहे हैं कि वे बरसात के मौसम में मैदानी इलाकों में भयावह बाढ़ लाया करें। ...
इस तरह हर कदम पर हमें आगाह किया जाता है कि हम प्रकृति पर विदेशी हमलावरों की तरह हकूमत बिलकुल नहीं करते-जैसे कि हम प्रकृति से बाहर के लोग हों - बल्कि अपने खून, माँस और दिमाग के साथ हम प्रकृति का अपना हिस्सा हैं, हम उसके भीतर ही मौजूद हैं और इसके ऊपर हमारी सारी हकूमत इस बात में शामिल है कि दूसरे सभी जानवरों से हम इस मायने में बेहतर हालत में हैं कि हम प्रकृति के नियमों को सीख सकते हैं और उन्हें सही ढंग से लागू कर सकते हैं।

-फ्रेडरिक एंगेल्स