आज दुनिया भर में तीसरी दुनिया तथा अन्य तमाम
देशों के प्रगतिशील और जनवादी आन्दोलनों के द्वारा बुनियादी तौर पर दो तरह की मांग
उठायी जा रही है. इसमें पहली है-- आर्थिक न्याय की मांग और दूसरी है-- पारिस्थितिक
न्याय की मांग. सिर्फ मेहनतकश किसान और मजदूर ही नहीं बल्कि मध्यवर्ग तथा उच्चवर्ग
के कुछ लोग भी आर्थिक न्याय की मांग उठाने वालों में शामिल है. जबकि मध्यवर्ग के
अधिकांश शिक्षित लोग पारिस्थितिक न्याय की मांग उठाने वालों में सबसे आगे हैं. अक्सर
ये दोनों मुद्दे एक-दूसरे से टकराते भी हैं. इस टकराहट का नतीजा यह है कि पर्यावरण
का मुद्दा आम जनता के लिए ख़ास मायने नहीं रख पाता और वह आर्थिक मांग के इर्द-गिर्द
ही गोलबन्द होती है. पर्यावरण के मुद्दे पर जन-आन्दोलन तो हुए हैं लेकिन वे
व्यवस्था परिवर्तन तक नहीं जा पाए क्योंकि इन आन्दोलनों का जनाधार बहुत कमजोर होता
है. इसका फायदा तमाम देशों के शासक वर्ग तथा कॉर्पोरेट घरानों को मिलता है. एक तरफ
साफ़ हवा और पानी के लिए मांग है तो दूसरी तरफ रोटी-कपड़ा-मकान की मांग. जैसे भारत
में पश्चिमी घाट पर प्रोफ़ेसर माधव गाडगिल की रिपोर्ट में सुझाव दिया गया कि पर्यावरण
के मामले में सीकड़ों किलोमीटर में फैला पश्चिमी घाट बहुत संवेदनशील है. लिहाजा, इस
इलाके में कोई उद्योग न लगाया जाए और अगर पहले से कोई उद्योग चल रहां हो तो उसे
बंद कर दिया जाए. यह सुझाव कार्यरत उद्योग के खिलाफ तो था ही, इसके साथ ही इन
उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों के लिए रोजी-रोटी का संकट पैदा करने वाली था.
इससे मजदूर सीधे गाडगिल की पर्यावरण रिपोर्ट के खिलाफ खड़े हो गये. उनके लिए तो
ज़िंदा रहने का सवाल पहले नंबर पर था. ऐसी स्थिति में सवाल यह है कि जब दोनों मुद्दों
में टकराव हो तो किसका समर्थन किया जाये?
रोटी-कपड़ा-मकान की जरूरत
पूरी करने के लिए फैक्ट्री, खादान, विनिर्माण तथा खेती के उत्पादन में बढ़ोतरी
आवश्यक है. जबकि आज विकास के इन्हीं तरीकों से प्रदूष्ण तेजी से फ़ैल रहा है. इसलिए
लोगों को साफ़ हवा और पानी मिले, इसके लिए भूमि का अतिरिक्त शोषण, खनिजों का
अतिरिक्त दोहन, पक्की सड़के तथा विनिर्माण के लिए सीमेंट, सरिया आदि के इस्तेमाल को
कम करने की जरुरत है. ऐसा लगता है कि दुनिया की इतनी बड़ी आबादी को रोटी-कपड़ा-मकान
और साफ़ हवा-पानी एक साथ मुहैया कराना सम्भव नहीं है.
इस बात पर गौर करना जरूरी है कि दुनिया भर में एक
बड़ी आबादी के लिए रोटी-कपड़ा-मकान का मांग पूरा न होने की क्या वजह है? मानव सभ्यता
जैसे-जैसे आगे बढ़ी उसके साथ लोगों की बुनियादी जरुरत भी बढती गयी. यानी आदिमानव
जंगल से कंद-फल, पशु शिकार आदि के जरिये खाना जुटाता था, लेकिन आगे चलकर खेती और
पशुपालन के लिए औजारों की जरुरत पड़ी. शुरू में पत्थर के औजार होते थे. धीरे-धीरे
धातु के औजारों का आविष्कार किया गया. धातु के औजारों ने ज़िन्दगी को आसान बनाने
में बहुत मदद की. इस पूरी प्रक्रिया में इंसान ने प्रकृति के विभिन्न संसाधनों को
रूपांतरित करके उत्पादन को आगे बढ़ता रहा. इससे लगातार इंसान का जीवन स्तर ऊँचा
होता गया. लेकिन एक बड़ी आबादी इस उन्नति से हमेशा वंचित ही रही. इसके बावजूद उत्पादन,
उत्पादन प्रक्रिया और औजार में उन्नति ने इंसान के ज्ञान को बढाया. हजारों साल
पहले आज की तरह दानवाकार कारखानें, होटल, सड़कें और रेलगाडियों का जाल नहीं था.
लेकिन आज से लगभग पांच-छह
सौ साल पहले दुनिया में एक बड़ी तबदीली आयी, जिससे न सिर्फ बड़े पैमाने का उत्पादन
शुरू हुआ, बल्कि इसने बेरोज़गारी को भी जन्म दिया. भारी मशीनों के रूप में मानों
बोतल से जिन्न बाहर निकल आया हो, जिसने इंसान की आज्ञा से हवा, पानी और जमीन पर
अचरज भरे करतबों को रच दिया. यह पूरी
मानवता के इतिहास में एक नयी क्रान्ति थी. लेकिन इसके साथ ही उस जिन्न ने धरती को
गंदगी से पाट दिया. इससे पहले इंसान द्वारा पैदा किये गए कचरों की मात्रा भी बहुत
कम हुआ करती थी और उसको प्रकृति सोख लेती थी. लेकिन तूफानी उत्पादन ने बेइंतहा
प्रदूष्ण पैदा किया है. साथ ही इसने इंसान की एक ख़ास मानसिकता को जन्म दिया है. वह
मानसिकता है—अपनी जरुरत से ज्यादा पैदावार को बेचकर मुनाफ़ा कमाना. अब उपभोग के लिए
नहीं बल्कि मुनाफे लिए उत्पादन हो रहा है. अपने पूर्वजों की तरह आज शासक वर्ग बंधुआ
मजदूर नहीं रखता है बल्कि उसने पूरे मजदूर वर्ग को अपना बधुआ बना लिया है. यह इतना
आकर्षक है कि गाँव छोड़कर किसान-मजदूर शहर के कारखानों की तरफ भागने लगे हैं
क्योंकि अधिकाँश उद्योग शहरों में या उसके आस-पास केन्द्रित हैं. इस तरह मानवता के
इतिहास में पहली बार बड़े औद्योगिक शहरों का निर्माण हुआ.
औद्योगिक शहरों में मजदूर
जमा होने लगे. इसने बेरोज़गारी को विकराल बना दिया. शुरू में कुछ लोग इसलिए
बेरोज़गार हुये कि किसी एक शहर के कारखानों में जितने लोगों की जरुरत थी, गाँव से उससे
ज्यादा लोग आ पहुंचे थे. इनमें से कुछ लोग अपनी मर्ज़ी से गाँव से शहर आये थे और कुछ
लोगों को सरकार और निजी कम्पनियों की सांथ-गाँठ से बाकायदा गाँव से उजाड़ा गया था
ताकि उनकी जमीन पर कब्जा किया जा सके. इसके लिए सेना-पुलिस की मदद से किसानों और
मजदूरों को बाकायदा भेड़-बकरियों की तरह शहर की तरफ खदेड़ा गया. इस मामले में हम यूरोप
का इतिहास, ख़ास कर इंग्लैण्ड का इतिहास पढ़ सकते हैं. उससे अच्छे उदाहरण हमारे देश
में भूमि अधिग्रहण के मामलों में मिल जायेंगे. बड़ी कम्पनियों ने लघु और माध्यम
उद्योग को भी तबाह किया. इसके चलते कुछ मालिक भी सड़क पर आ गये. बर्बाद हुए लोगों
के पास कम मजदूरी पर काम करने के अलावा और कोई चारा नहीं है. बेरोजगारी बदने का
कारण जनसंख्या में वृद्धि नहीं है और न ही लोगों के द्वारा कुर्सी मेज की नौकरी
मांगना है, जैसा कि प्रचारित किया जाता है. बेरोजगारी का असली कारण मुनाफे पर
आधारित यह व्यवस्था है.
इस दौरान खेती धनी किसानों और कारपोरेट कम्पनियों
के हाथों में सिमटती जा रही है. इससे खेती के उत्पादन में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है.
लेकिन मुनाफे के लिए होने के चलते खेती बहु-फसली नहीं रह गयी. इसकी जगह पर एक-फसली
खेती पर जोर बढ़ता गया. खेती कहीं लालच देकर तो कहीं ज़बरदस्ती से शुरू की गयी. तर्क
यह था कि जहां गन्ने के लिए अनुकूल स्थिति है, वह इलाका गन्ना ही पैदा करे. नतीजन,
किसान न केवल अपने कृषि उत्पाद के लिए, बल्कि अपनी जरूरत के लिए भी बाजार पर
निर्भर हो गया. बाजार ने दोनों ओर से किसानों की बाहें मरोड़ दी. इस मुनाफे पर
आधारित खेती ने जो पैदा किया वह है—तबाह खेती और बर्बाद किसान. इसके अतिरिक्त इसने
एक और तबाही के गुल खिलाएं हैं, खाद-कीटनाशक के अधिक इस्तेमाल और भूजल के अतिरिक्त
दोहन से धरती बंजर होती जा रही है और पेय जल का संकट पैदा होता जा रहा है.
औद्योगिक शहरों में कारखानें
बढ़ गये और उसमे काम करने वाले लोग भी बढ़ गये. इमारतें, झुग्गियां, स्कुल, अस्पताल,
मशीन और यातायात के साधन बढ़ने से पर्यावरण प्रदूष्ण भी बढ़ गया. उत्पादन बढाने के
लिए प्रकृति का निर्मम शोषण बड़े पैमाने पर हो रहा है. जंगल काटे जा रहे हैं और
पहाड़ उजाड़े जा रहे हैं. शहरों में सबकुछ एक जगह केन्द्रित होने के चलते उस जगह
पर्यावरण प्रदूष्ण बढ़ता जा रहा है. कचरे, शौच और नगरपालिका का अन्य कचरा फेकने उचित
व्यवस्था न होने के चलते शहर गंदगी के ढेर में बदलते जा रहे हैं. मुनाफे की भूख
में कम्पनियां अपना जहरीला धुआँ वायुमंडल में बिखेर देती हैं और जहरीला कचरा
नदियों में बहा देती हैं. नतीजन दुनिया भर की नदियाँ गंदे नालों में तब्दील हो
चुकी है.
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि मुनाफे के लिए
उत्पादन ने दुआहरा संकट पैदा किया है. एक ओर इसने दुनिया की बड़ी आबादी के आगे
रोजी-रोटी के संकट और बेरोजगारी को जन्म दिया है, तो दूसरी ओर उसी आबादी को साफ़
हवा-पानी से वंचित भी कर दिया है. लेकिन पर्यावरण का संकट एक तबके या वर्ग तक ही
सीमित नहीं है बल्कि इसका कहर पूरी इंसानियत को झेलना पड रहा है और जैव जगत भी इस
विनाश की जद में है. पिछले तीन सौ सालों में स्वच्छ पर्यावरण और विनाशकारी प्रदूषण
के बीच की खाई और ज्यादा बढ़ी है. दुनिया के 97 फ़ीसदी पर्यावरण और जलवायु
वैज्ञानिकों का कहना है कि पिछले 60-70 सालों में इसमें उससे पहले की ढाई सदी को
भी पीछे छोड़ दिया है.
विकास के मामले में दुनिया को दो हिस्से में बांटा
जा सकता है-– उत्तर और दक्षिण. उत्तर में सभी विकसित और धनवान देश है जबकि दक्षिण
में ज्यादातर देश गरीब और पिछड़े हैं. ये देश इतिहास के किसी न किसी मोड़ पर किसी
उत्तर के दशों के गुलाम रह चुके हैं. उत्तरी देशों का विकास दक्षिणी की जनता की
लूट पर टिका है. ‘हरित क्रांति’ की शुरुआत का मकसद भी यही था. इसकी शुरुआत मेक्सिको
में हुई थी. खेती में उत्पादन बढ़ाने के लिए ‘उच्च उत्पादक बीजों’, कीटनाशकों,
मशीनों और उर्वरकों के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया गया, जिससे सीधे इनका उत्पादन और
वितरण करने वाली कम्पनियों ने अकूत मुनाफ़ा लूटा. जायज सी बात है कि ये कम्पनियां
उत्तर के देशों की हैं. भारत में हरियाणा, पंजाब, और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में
हरित क्रान्ति को सबसे ज्यादा बढ़ावा दिया गया था, आज यही इलाके पर्यावरण प्रदुषण
के चलते तरह-तरह की बीमारियों के चपेट में हैं. आगे चलकर यही मॉडल विश्व व्यापार
संगठन की मदद से पूरी दुनिया में लागू किया गया. इसे विकास का नाम दिया गया. इस
विकास की बयार में खाद और कीटनाशक से मिटटी का खारापन बहुत बढ़ गया तथा बहुत से
आवश्यक कीडे भी मार डाले गए जो खेती के सहायक थे. विश्व व्यापार संगठन आज अमरीका,
जापान और यूरोपीय यूनियन के हित साधने का मुख्य हथियार है. राजनितिक रूप से आजाद
देश भी एकबार इस संगठन के सदस्य बनने के बाद अपनी आर्थिक नीति और विदेश नीति इस
सगठन के हस्तक्षेप के बिना नहीं बना सकते.
इस मोड़ पर आकर लगता है पारिस्थितिकी के बचाव में
लड़ने वालों के लिए यह सोचना भी जरुरी है कि इसके लिए खतरा कौन पैदा कर रहा है?
दुनिया पर हुकूमत चलाने वाली सरकारें और वित्त बाज़ार के बादशाहों या कंगाल मेहनतकश
बहुसंख्यक जनता. दूसरी तरफ हमें सोचना पड़ेगा बिना साफ़ हवा-पानी के रोटी-कपड़ा-मकान
मिल भी जाये तो जिंदा रहना क्या तब भी मुमकिन होगा? आज इसी रफ़्तार में यह कॉपोरेट
बादशाहों की लूट चलती रही तो धरती पर जिंदा रहने का संकट खडा हो जाएगा. इसलिए रोजी-रोटी
की लड़ाई को अनिवार्य रूप से पर्यावरण न्याय की लड़ाई में शामिल करना पड़ेगा. दूसरी
ओर पर्यावरण की लड़ाई का भी रोजी रोटी की लड़ाई के साथ रिश्ता बनाना जरुरी है.
--अमित इकबाल,