Saturday, 19 September 2015

जलवायु परिवर्तन और धरती माँ के अधिकारों के बारे में

जनता का राजीनामा
26 अप्रैल, 2010
(परिशिष्ट-2 कोचाबाम्बा मसविदा दस्तावेज)
(जलवायु परिवर्तन के ढाँचागत कारणों पर विचार-विमर्श करने और मानवता के सामने प्राकृतिक जगत के साथ सामंजस्यपूर्ण जीवन का एक वैकल्पिक प्रारूप प्रस्तावित करने के लिए कोचाबाम्बा (बोलीविया) में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया। इसमें दुनिया भर से 18,000 लोग शामिल हुए जिनमें वैज्ञानिक, बुद्धिजीवी, वकील उपदेशों के सरकारी प्रतिनिधि और 132 देशों के सामाजिक संगठनों ने भाग लिया।
यह सम्मेलन कॉपेनहेगन जलवायु सम्मेलन, दिसम्बर 2009 की असफलता के जवाब में आयोजित किया गया। कोपेनहेगन में अमरीकी चौधराहट वाले मुट्ठी भर विकसित पूँजीवादी देशों ने क्वेटो प्रोटोकॉल द्वारा निर्धारित कार्बन उत्सर्जन में कटौती की बाध्यताओं को अस्वीकार कर दिया। इस तरह उन्होंने धरती माता को बचाने के लिए वैश्विक प्रयासों की रही सही उम्मीद पर भी पानी फेर दिया।
कोचाबाम्बा सम्मेलन के उद्घाटन भाषण में बोलीविया के राष्ट्रपति इवो मोरालिस ने कहा था कि ‘‘हमारे पास दो ही रास्ते हैं-धरती माँ या मौत।’’ बोलीविया के उपराष्ट्रपति पूर्व छापामार योद्धा अलवारो गार्सियां किनेरा ने कहा था कि ‘‘धरती माँ की अवधारणा महज एक नारा नहीं है। इसका अर्थ उत्पादन करने तथा प्रकृति और एक दूसरे के साथ सम्बन्ध बनाने का एक नया रास्ता है। यह सम्बन्ध वर्चस्व का नहीं समानता का है, बातचीत का, लेने और देने का सम्बन्ध है। यह महज लोक संस्कृति का दर्शन नहीं है। यह नयी नैतिकता, टेक्नोलोजी  ओर उत्पादन प्रणाली विकसित करने का नया रास्ता है।’’ -सम्पादक)
धरती माँ के हक और जलवायु परिवर्तन पर कोचाबाम्बा (बोलीविया) में सम्पन्न विश्व जनगण के सम्मेलन की निर्णायक घोषणा,
आज हमारी धरती माँ आहत है और मानवता का भविष्य खतरे में है।
यदि भूमण्डल का ताप 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा बढ़ जाता है, जो स्थिती कोपनहेगन समझौते के कारण पैदा हो सकती है, तो 50 फीसदी सम्भावना यही है कि हमारी धरती माँ को इससे जो नुकसान होगा उसकी भरपाई पूर्णतया असम्भव होगी।      20 से 30 फीसदी प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा पैदा हो जायेगा। बड़े पैमाने पर जंगल प्रभावित होंगे, बाढ़ और सूखा इस ग्रह के विभिन्न क्षेत्रों को प्रभावित करेंगे, रेगिस्तानों का फैलाव होगा तथा ध्रुवों के हिमशिखर और हिमालय व एंडीज के ग्लेशियर और भी बुरी तरह पिघलने लगेंगे। बहुत से द्वीप-देश गायब हो जायेंगे और अफ्रीका को 3 डिग्री सेल्सियस से भी अधिक तापमान वृद्धि का शिकार होना पड़ेगा। इस तरह दुनिया का अनाज उत्पादन घट जायेगा और दुनिया में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या जो पहले ही 1.02 अरब का आँकड़ा पार कर चुकी है, अचानक तेजी से बढ़ जायेगी।
तथाकथित ‘‘विकसित’’ देशों के निगमों और सरकारों ने वैज्ञानिक समुदाय के थोड़े से लोगों के साथ मिलकर हमें जलवायु परिवर्तन के बारे में एक ऐसी बहस में उलझाया है जिसमें इस समस्या को केवल तापमान में वृद्धि तक ही सीमित कर दिया गया है। वे इसके कारणों की कोई चर्चा नहीं करते क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था ही इस समस्या की जड़ है।
हमारा सामना सभ्य बनाने का दावा करने वाले एक मॉडल के चरम संकट से हो रहा है, जो वंशानुगत है तथा मानव जाति और प्रकृति की उस गुलामी और विनाश पर आधारित है जिसकी रफ्तार औद्योगिक क्रान्ति के समय से ही काफी तेज हो गयी थी।
पूँजीवादी व्यवस्था ने हम लोगों के ऊपर प्रतियोगिता, प्रगति और असीम विकास का एक तर्क थोप दिया है। उत्पादन और उपभोग की यह शासन प्रणाली मानवजाति को प्रकृति से अलग करके, प्रकृति पर अधिपत्य का तर्क थोपकर, जल, जमीन, मानव जीनोम, पुरखों की संस्कृति, जैव विविधता, न्याय, नैतिकता, जनता के अधिकार और खुद जीवन समेत हर चीज को माल में तब्दील करके बेशुमार मुनाफा बटोरना चाहती है।
पूँजीवाद के अन्तर्गत, धरती माँ को कच्चे माल के एक स्रोत और मानव जाति को उपभोक्ता और उत्पादन के एक साधन में तब्दील कर दिया गया है, जहाँ लोगों की कीमत इससे तय होती है कि वे कितने मालदार हैं, इस बात से नहीं कि वे कौन हैं। अपनी पूँजी संचय की प्रक्रिया को जारी रखने तथा प्राकृतिक संसाधनों और स्वायत्त क्षेत्रों पर कब्जे के खिलाफ होने वाले जन-प्रतिरोधों को कुचलने के लिए पूँजीवाद को एक शक्तिशाली सैन्य उद्योग की जरूरत होती है। यह इस ग्रह के उपनिवेशीकरण की एक साम्राज्यवादी व्यवस्था है।
मानवता आज एक भारी दुविधा का सामना कर रही है- पूँजीवाद, लूटपाट और मौत के रास्ते पर आगे बढ़ना जारी रखे या प्रकृति के साथ समन्वय और जीवन के प्रति सम्मान का मार्ग अपनाये।
एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना बेहद जरूरी है जो प्रकृति के साथ और मानव जाति के बीच आपसी तालमेल के लिए फिर से बहस करे। प्रकृति के साथ सन्तुलन कायम करने के लिए मानव जाति के बीच समानता का होना जरूरी है। हम विश्व जनगण के समक्ष और हर देश के मूल निवासियों के ज्ञान, विवेक और रीति-रिवाजों का उद्धार करने, उनको और अधिक समृद्ध करने तथा मजबूती प्रदान करने का प्रस्ताव रखते हैं। मूल निवासी ‘‘अच्छी जिन्दगी’’ के विचार और व्यवहार में पूरी तरह विश्वास करते हैं और धरती माँ को जीवित प्राणी मानते हुए उसके साथ अविच्छिन्न, परस्पर निर्भर, सम्मानपूर्ण और आत्मीय सम्बन्ध रखते हैं। जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए हमें धरती माँ को जीवन का स्रोत मानते हुए और निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधारित एक नयी व्यवस्था का निर्माण करना जरूरी है
1.   सभी लोगों के बीच व सभी चीजों के साथ सन्तुलन और समन्वय;
2.  परिपूरकता, भाईचारा और समानता;
3.    प्रकृति के साथ जनता का सामन्जस्य;
4. मनुष्यों की पहचान इस बात से तय होना कि वे कौन हैं, इससे नहीं कि वे किन-किन चीजों के मालिक हैं;
5.   उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद और दखलन्दाजी के सभी रूपों की समाप्ति;
6.  जनता के बीच और धरती माँ के साथ शान्ति;
हम    जिस मॉडल के हिमायती हैं वह अमर्यादित और विनाशकारी विकास का मॉडल नहीं है। सभी देशों को अपनी जनता की मूलभूत जरूरतों की पूर्ति के लिए माल और सेवाओं के उत्पादन की जरूरत होती है, लेकिन हम किसी भी सूरत में सर्वाधिक धनी देशों द्वारा अपनाये गये उस रास्ते पर नहीं चल सकते जिसने इस ग्रह के ऊपर उसकी क्षमता से पाँच गुना बड़ा पारिस्थितिक बोझ डाल दिया है। आज इस ग्रह की पुनर्रुत्पादक क्षमता अपनी चरम सीमा से 30 फीसदी ज्यादा बढ़ चुकी है। यदि हमारी धरती माँ के बेलागाम शोषण की यही रफ्तार जारी रही तो सन् 2030 तक हमें ऐसे दो ग्रहों की जरूरत होगी। एक परस्पर निर्भर तन्त्रा, मानव जाति जिसका केवल एक घटक है, केवल मानव पक्ष के अधिकारोें को ही स्वीकार किया जाना, इस पूरे तन्त्रा में असंतुलन को बढ़ावा दिये बिना बिल्कुल सम्भव नहीं। मानवधिकारों की गारण्टी करने और प्रकृति के साथ फिर से समन्वय स्थापित करने के लिए धरती माँ के आधिकरों को प्रभावी ढंग से स्वीकारना और उन्हें लागू करना आवश्यक है। इस उद्देश्य के लिए हम धरती माँ के अधिकारों पर सार्वभौम-घोषणा पत्रकी योजना प्रस्तावित करते हैं जो यहाँ संलग्न है, जिसमें यह दर्ज है कि-
1.   जिन्दा रहने और अस्तित्व बनाये रखने का अधिकार;
2.   जैविक क्षमता को पुनर्जीवित करने और अपने प्रमुख चक्रों और प्रक्रियाओं को मानवीय परिवर्तन से बचाते हुए उन्हें जारी रखने का अधिकार;
3.   अलग-अलग जीवों के रूप में अपनी स्व-नियंत्रित और परस्पर-सम्बन्धित पहचान और  एकजुटता कायम रखने का अधिकार;
4.   जीवन के स्रोत के रूप में पानी का अधिकार;
5.   स्वच्छ हवा का अधिकार;
6.   सम्पूर्ण स्वास्थ्य का अधिकार;
7.   जहरीले और रेडियोधर्मी कचरे से, गन्दगी और प्रदूषण से मुक्त होने का अधिकार;
8.   जैविक संरचना में ऐसी फेरबदल और तोड़-मरोड़ से मुक्ति का अधिकार जो इसकी अखण्डता या जीवन्त और स्वस्थ क्रियाशीलता के लिए खतरा पैदा करते हैं;
9.   इस घोषण पत्र में दिये गये अधिकारों का यदि मानवीय क्रिया कलापों के चलते उल्लंघन हो तो  उसकी तत्काल और पूरी तरह भरपाई का अधिकार;
हमारा यह ‘‘साझा सपना’’ ग्रीन हाउस गैसों की सघनता को स्थिर करने की माँग करता है, ताकि जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र संघ के रूपरेखा सम्मेलनके अनुच्छेद-2 को प्रभावी बनाया जा सके, जिसमें कहा गया है कि वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की सघनता को एक खास स्तर तक स्थिर रखना होगा जो जलवायु प्रणाली के लिए खतरनाक मानव जनित दुष्परिणामों को रोकता हो। हमारा सपना इतिहाससम्मत, सामुहिक, लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारियों के सिद्धान्त पर आधारित है। यह विकसित देशों से माँग करता है कि वे उस सीमा तक उत्सर्जन में कमी लाने का वादा निभायें जितना समझौते में निर्धारित है। इससे ग्रीन हाउस गैसों की सघनता को 300 पीपीएम तक वापस लाया जा सकेगा, ताकि विश्व के तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस से अधिक वृद्धि न हो।
विकसित देशों को चाहिए कि वे इस सपने को साकार करने के लिए तुरन्त कार्रवाई की जरूरत को तरजीह दें तथा जनता और जन-आन्दोलनों के समर्थन से उत्सर्जन कम करने के शानदार लक्ष्य को पूरा करें। जो तात्कालिक उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक है, साथ ही वे सम्मेलन के अन्तिम उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए पृथ्वी के जलवायु तन्त्रा में सन्तुलन के हक में हमारे सपने को समर्थन प्रदान करें।
जलवायु परिवर्तन की वार्ताओं में ‘‘दीर्घकालिक सहयोगी कार्रवाई के लिए साझा सपने’’ को तापमान में वृद्धि और वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की सघनता की सीमा तय करने के स्तर तक नहीं गिरा देना चाहिए। साथ ही इसमें क्षमतासंवर्धन, उत्पादन और उपभोग के पैटर्न और दूसरे जरूरी कारकों, जैसे- प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए धरती माँ के अधिकारों को कबूल करने से सम्बन्धित उपायों को भी संतुलित और समन्वित ढंग से सम्मिलित किया जाना चाहिए।
विकसित देशों को जो जलवायु परिवर्तन के लिए मुख्य रूप से दोषी हैं, अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी मानते हुए, जलवायु परिवर्तन के न्यायसंगत, प्रभावशाली और वैज्ञानिक समाधान की बुनियादी शर्त के रूप में निश्चित ही अपने जलवायु कर्ज के सभी आयामों को स्वीकारना और सम्मान करना चाहिए।
इस संदर्भ में हम विकसित देशों से माँग करते हैं कि-
1. विकासशील देशों के वायुमण्डलीय क्षेत्र को फिर से स्वच्छ करें जो विकसित देशों द्वारा उत्सर्जित ग्रीन हाउस गैसों से भरा है। मतलब यह है कि अपने उत्सर्जन में कमी लायें और गन्दगी को सोखें, ताकि विकासशील देशांे के वायुमण्डल पर उनका औपनिवेशिक कब्जा समाप्त हो।
2. नियन्त्रिात वायुमण्डलीय क्षेत्रों में होने के कारण विकासशील देशों को विकास के अवसरों का जो नुकसान उठाना पड़ा है उसकी भरपाई के लिए वे तकनीकी स्थानान्तरण की जरूरतों और कीमतों की जिम्मेदारी अपने ऊपर लें।
3. विकसित देशों द्वारा किये गये जलवायु परिवर्तन के चलते जो करोडों लोग उजड़ने को मजबूर होंगे, उसकी जिम्मेदारी अपने ऊपर लें और अपनी प्रतिबन्धकारी आव्रजन नीतियों को खत्म करें, अपने देश में प्रवासियों के लिए मानवधिकारों की गारण्टी के साथ उन्हें सम्मानपूर्ण जीवन प्रदान करें।
4.  अपने अत्यधिक उत्सर्जन के चलते लगातार बढ़ते नुकसान की रोकथाम करने, उसे कम से कम करने और निपटाने के साधन मुहैय्या करें और विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को दूर करने के लिए कर्ज का जो बोझ उठाना पड़ रहा है उसकी जिम्मेदारी लें।
5.  धरती माँ के अधिकारों के बारे में संयुक्त राष्ट्र संघ के सार्वभौम घोषण-पत्र को स्वीकारते और लागू करते हुए धरती माँ के व्यापक कर्ज के एक हिस्से के रूप में वे इन कर्जों का भुगतान करें।
यह जरूरी है कि केवल वित्तीय मुआवजे पर ही नहीं बल्कि पुनरूद्धार कारक न्याय पर भी ध्यान रहे और इसे हमारी धरती माँ और इसके सभी जीवों की समन्वित पुनः प्रतिष्ठा मानते हुए पूरा किया जाय।
हम कई देशों द्वारा क्वेटो प्रोटोकॉल को रद्द करने के प्रयासों पर खेद प्रकट करते हैं। यह एक मात्र ऐसा दस्तावेज है जिसके जरिये विकसित देशों को ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन घटाने के लिए बाध्य किया जा सकता है।
हम विश्व को यह सूचित करते हैं कि उत्सर्जन को घटाने की अपनी वचनबद्धता के बावजूद विकसित देशों ने अपना उत्सर्जन 1990 से 2007 के बीच 11.2 प्रतिशत बढ़ा दिया है।
इसी अवधी में बेलगाम उपभोग के चलते अमरीका ने अपने ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन 16.8 प्रतिशत तक बढ़ा दिया जो प्रतिव्यक्ति औसतन 20 से 23 टन बव2 प्रतिवर्ष तक पहुँच गया है। यह औसत तीसरी दुनिया के निवासियों की तुलना में 9 गुणा और अफ्रीका के निवासियों की तुलना में 20 गुणा से भी अधिक है।
हम अवैध ‘‘कोपनहेगन सम्मेलन’’ को पूरी तरह खारिज करते हैं, जो धरती माँ की पर्यावरणीय सम्पूर्णता की अवहेलना करता है और हमें वैश्विक तापमान में 4वब की वृद्धि की ओर ढकेलता है, यह प्रस्ताव विकसित देशों को उनकी स्वैच्छिक और व्यक्तिगत वचनबद्धता के आधार पर ग्रीन हाउस गैसों में केवल मामूली कमी लाने का प्रस्ताव है।
जलवायु परिवर्तन पर अगला सम्मेलन 2010 के अन्त में मैक्सिको में होना तय है। इसमें 2013 से 2017 तक के दूसरे इकरार की अवधि के लिए क्वेटो प्रोटोकॉल में एक बदलाव लाया जाना चाहिए, जिसके तहत विकसित देशों के लिए 1990 के स्तर के आधार पर अपने घरेलू उत्सर्जन में कम से कम 50 फीसदी तक की कमी लाने पर सहमत होना अनिवार्य हो और जिसमें कार्बन बाजारों या भरपाई की अन्य क्रियाविधियों को, जिनकी आड़ में वे ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में वास्तविक कमी पर परदा डालते हैं, शामिल नहीं किया गया हो।
सबसे पहले हमें विकसित राष्ट्रों के समूह के लिए एक लक्ष्य निर्धारित करने की जरूरत है ताकि हर विकसित राष्ट्र से उस समूह में अपने हिस्से के रूप में निर्धारित कार्यभार पूरा करवाया जा सके। तभी हम उत्सर्जन में कमी लाने के एक तौर-तरीके के रूप में क्वेटो प्रोटोकॉल को कायम रख पायेंगे।
परिशिष्ट-1 के रूप में अमरीका पृथ्वी पर एक मात्र ऐसा देश है, जिसने क्वेटो प्रोटोकॉल का अनुमोदन नहीं किया जबकि दुनिया की समूूची जनता के प्रति उसकी महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी है कि इस दस्तावेज का समर्थन करे और अपनी अर्थव्यवस्था के कुल आकार के अनुरूप निर्धारित स्तर तक उत्सर्जन घटाने के लक्ष्यों का सम्मान और निर्वाह करने के लिए खुद को वचनबद्ध करे।
हम दुनिया के लोग जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से अपनी सुरक्षा का समान अधिकार रखते हैं और जलवायु परितर्वन के अनुरूप खुद को ढालने की धारणा को खारिज करते हैं क्योंकि हम इसे विकसित देशों के द्वारा पूरे इतिहास के दौरान किये गये उत्सर्जनों से उत्पन्न दुष्प्रभावों के आगे आत्मसमर्पण मानते हैं। यह जरूरी है कि मौजूदा संकटकालीन स्थितियों को देखते हुए विकसित देश खुद भी अपने जीवन और उपभोग के तौर तरीकों को इसके अनुकूल ढालें।
हम अनुकूलन को एक थोपी हुई चीज के बजाय एक प्रक्रिया के रूप में देखते हैं और इसे जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों का सामना करने की एक विधि मानते हैं। साथ ही हम इसे एक ऐसे उपकरण के रूप में देखते हैं जो उन दुष्प्रभावों को उलटने में मददगार साबित हो सकता है और जो यह निरूपित करता है कि जिन्दगी जीने के एक अलग तौर-तरीके के जरिये प्रकृति के साथ सामन्जस्य स्थापित करना सम्भव है।
जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए एक स्वायत्त, पारदर्शी और सभी देशों के लिए समान रूप से संचालित वित्तीय क्रियाविधि के रूप में बिल्कुल अलग से एक अनुकूलन कोष का निर्माण करना आवश्यक है। इस कोष से विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों और कीमतों का आकलन करना चााहिए तथा इन प्रभावों से उत्पन्न जरूरतों तथा विकसित देशों द्वारा दिये जाने वाले सहयोग की निगरानी करनी चाहिए। इससे वर्तमान और भविष्य के नुकसानों के लिए मुआवजा, जलवायु में उत्कट और कृमिक बदलावों के चलते अवसरों का नुकसान और यदि हमारा ग्रह परिस्थितिकीय संकट की चरम सीमा पार कर जाये तो उससे पैदा अतिरिक्त कीमतों, जैसे- ‘‘बेहतर जीवन’’ में बाधाएँ डालने वाले प्रभावों की क्षतिपूर्ती के लिए एक क्रियाविधि को शामिल करना जरूरी है।
गिनीचुनी सरकारों द्वारा विकासशील देशों पर थोपा गया ‘‘कोपेनहेगन समझौता’’ एक तरफ जहाँ अपर्याप्त संसाधन मुहैय्या कराता है वहीं जनता में फूट डालने और उनके बीच टकराव पैदा करने का प्रयास करता है। साथ ही यह अनुकूलन प्रशासन के लिए संसाधन प्राप्त करने से सम्बन्धित कठोर शर्तें लगाकर विकासशील देशों को लूटता है। अन्तरराष्ट्रीय वार्ता की प्रक्रियाओं में जलवायु परिवर्तन के आगे विकासशील देशों की दुर्बलता की अलग-अलग श्रेणीयाँ बनाकर उनके बीच विवादों, असमानताओं और अलगाव को जन्म देने के प्रयास को भी हम दृढ़तापूर्वक अस्वीकार करते हैं।
आज मानवता ग्लोबल वार्मिंग को रोकने और ग्रह को ठण्डा करने की जिस कठिन चुनौती का सामना कर रही है उसे केवल खेती के तौर-तरीकों की दिशा बदलकर उन्हें ग्रामीण और मूलनिवासी किसानों द्वारा अपनाये गये उत्पादन के टिकाऊ ढंग-ढर्रे और साथ ही पीढ़ियों से चली आ रही कृषि और खाद्य सुरक्षा की समस्या को हल करने मे सहायक, दूसरी पद्धतियों की दिशा में मोड़कर ही सफलता प्राप्त की जा सकती है। इसे जनता का अपने बीजों, जमीनों, पानी और खाद्य उत्पादन पर नियंत्रण का अधिकार समझा जाता है, जिसके माध्यम से हर व्यक्ति और राष्ट्र के स्वायत्त उत्पादन (ंहिस्सेदारी, सामुदायिकता, और भागीदारी) को गहरा करते हुए धरती माँ और स्थानीय सांस्कृतिक अवस्थाओं के साथ सामंजस्यपूर्ण उत्पादन प्रणाली अपनाते हुए भरपूर मात्र में तरह-तरह के पौष्टिक भोजन हासिल करने की गारण्टी की जाती है।
जलवायु परिवर्तन अब पूरी दुनिया की खेती तथा किसानों और मूल निवासी जनता के लिए गंभीर खतरे पैदा कर रहा है जो भविष्य में और भी गम्भीर रूप धारण करेंगे।
वैश्विक पूँजीवादी उत्पादन के अपने सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक मॉडल के तहत कृषि व्यापार में लगे पूँजीपति समुचित पोषण का अधिकार पूरा करने के लिए नहीं बल्कि बाजार के लिए उत्पादन करते हैं और जलवायु परिवर्तन के मुख्य दोषियों में से एक है। इनका तकनीकी, व्यवसायिक और राजनीतिक दृष्टिकोण जलवायु परिवर्तन के संकट को और अधिक गहराने का ही काम करता है और दुनिया भर में भुखमरी को बढ़ाता है। यही वजह है कि मौजूदा संकट को और अधिक उग्र बनाने वाले मुक्त व्यापार संगठन समझौतों, जीवन पर बौद्धिक सम्पदा अधिकारों को लागू करने के सभी रूपों, मौजूदा तकनीकी पैकेजों (कृषि-रसायनों, जैविक संवर्धन) और फर्जी सामाधान पेश करने वाले उपायों (जैव-ईंधन, भू-अभियांत्रिकी, नैनो टैक्नोलोजी आदि) को हम पूरी तरह खारिज करते हैं।
इसी तरह हम उस तरीके की भी भर्त्सना करते हैं जिसके जारिये पूँजीवादी मॉडल ढाँचागत महापरियोजनाओं को थोपता है और लूट-खसोट वाली परियोजनाओं के जरिये देश की सीमाओं में घुसपैठ करता है, पानी का निजीकरण करता है, इलाकों को सैनिक छावनी में तब्दील करता है, वहाँ के मूल निवासियों को उनकी जमीनों से उजाड़ता है, खाद्य आत्मनिर्भरता में बाधा डालता है तथा समाज और पर्यावरण के संकट को बढाता है।
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के रूपरेखा सम्मेलन की वार्ताओं में प्रयुक्त वन की परिभाषा, जिसमें बागान को भी शामिल कर लिया गया है, हमें स्वीकार नहीं। एक फसली कृषि बागान वन नहीं हैं। इसलिए हमें वार्ता के उद्देश्य के लिए एक नयी परिभाषा की जरूरत है, जो स्थानीय जंगलों, वनों और पृथ्वी पर विविध पारिस्थितिक तन्त्रा को मान्यता देती हो।
मूल निवासी जनता के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के घोषणा-पत्र को जलवायु परिवर्तन की वार्ताओं में पूरी तरह स्वीकार किया जाना चाहिए, उसका क्रियान्वयन होना चाहिए और उसे वार्ताओं में समन्वित करना चाहिए। वनों को विनाश और विकृतीकरण से बचाने तथा प्राकृतिक जंगलों और वनों को बचाने के लिए सबसे बढ़िया रणनीति और कार्रवाई जमीन और भौगोलिक इलाकों के सामुहिक अधिकार को मान्यता देना और उसकी गारण्टी करना है, विशेषकर इस बात को ध्यान में रखते हुए कि अधिकतर जंगल मूल निवासी जनता तथा राष्ट्रों और अन्य पारम्परिक समुदायों के भौगोलिक क्षेत्र के भीतर अवस्थित हैं।
हम आरइडीडी (वन विनाशन और वन सधोगति के जरिये उत्सर्जन घटाना) और इसके बाजार क्रियाविधि जैसे रूपों की भर्त्सना करते हैं जो जनता की सम्प्रभुता तथा पूर्व सूचना के आधार पर और स्वतन्त्रा रूप से सहमति देने के अधिकार और साथ ही राष्ट्रीय राज्यों की स्वायत्ता, जनता के रीति रिवाज और प्रकृति के अधिकारों का उलंघन करता है।
प्रदूषण फैलाने वाले देशों की यह जिम्मेदारी है कि वे देशों, जनता और मूलनिवासियों के पुरखों की जैविक संरचनाओं की हिफाजत करने तथा वनों के पुनरुद्धार और रख-रखाव की कीमत चुकाने के लिए जरूरी आर्थिक और तकनीकी संसाधनों का सीधे हस्तान्तरण करें। क्षतिपूर्ति निश्चित ही, कार्बन मार्केट के बाहर विकसित देशों द्वारा पहले स्वीकारे गये फंण्डिंग के स्रोतों के अतिरिक्त होनी चाहिए और उसका भुगतान सीधे होना चाहिए। हम माँग करते हैं कि विकसित देश अपने स्थानीय वनों के बारे में ऐसी कार्रवाइयों पर रोक लगाएँ जो बाजार क्रियाविधी पर आधारित हो और जिनका इरादा अप्रचलित और सशर्त नतीजे हासिल करना हो। हम सरकारों का आह्वान करते हैं कि वे प्राकृतिक वनों और जंगलों के पुनरुद्धार के लिए एक विश्वव्यापी कार्यक्रम तैयार करें जिसमें वनों का प्रशासन और प्रबन्धन जनता के हक में हो और जिसमें जंगली बीजों, फलदार वृक्षों और देशज पेड़-पौधों को प्रयोग में लाया जाय। सरकारों को जंगल सम्बन्धी रियायतों को खत्म करना चाहिए, धरती के गर्भ में स्थित पैट्रोलियम भंडारों के संरक्षण का समर्थन करना चाहिए और जंगल की जमीनों से हाइड्रोकार्बन के दोहन पर तुरन्त रोक लगानी चाहिए।
हम सरकारों का आह्वान करते हैं कि वे जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए वार्ताओं, नीतियों और मानदण्डों में प्रयुक्त सभी जरूरी उपकरणों के साथ-साथ  मानवाधिकार के अन्तरराष्ट्रीय मानदण्डों और मूलनिवासी जनता के अधिकारों को स्वीकार करें, उनका सम्मान करें और उनको प्रभावी ढंग से लागू करने को गारण्टी करें जिनमें अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन सम्मेलन के अन्तर्गत मूल निवासी जनता के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र का घोषणा पत्र भी शामिल है। हम खासतौर पर सरकारों का आह्वान करते हैं कि हमारी पारम्परिक जीवन शैली को समर्थ और सशक्त बनाने के लिए वे हमारे भौगोलिक क्षेत्रों, जमीनों, और प्राकृतिक संसाधनों के ऊपर कानूनी अधिकार प्रदान करें और जलवायु परिवर्तन का समाधान करने में प्रभावी योगदान दें।
हम सभी वार्ता प्रक्रियाओं में, और जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित उपायों के प्रारूप और क्रियान्वयन में मूल निवासी जनता के परामर्श, भागीदारी तथा पूर्व सूचना के आधार पर और स्वतन्त्रा रूप से सहमति देने के अधिकार के पूर्ण और प्रभावी क्रियान्वयन की माँग करते हैं।
आज पर्यावरण की अधोगति और जलवायु परिवर्तन नाजुक स्तर तक पहुँच गया है। घरेलू और अन्तरराष्ट्रीय विस्थापन इसके प्रमुख दुष्परिणामों में से एक है। अनुमानों के अनुसार जलवायु परिवर्तन के परिणाम स्वरूप उत्पन्न परिस्थितियों के चलते 1995 तक लगभग 2.5 करोड़ लोग उजड़ चुके थे 2050 तक 20 करोड़ से 1 अरब के बीच लोग उजड़ जायेंगे। विकसित देशों को जलवायु विस्थापितों को परिभाषित करने वाले अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों को महत्त्व देते हुए उनके मूलभूत अधिकारों को मान्यता देनी चाहिए और सभी सरकारों को पूरी दृढ़ता के साथ उस पर कायम रहना चाहिए।
राज्यों, कम्पनियों और दूसरे एजेन्टों की जिम्मेदारियों को साफ तौर पर चिन्हित करते हुए, उद्गम, पारगमन और लक्षित देशों के भीतर अप्रवासियों, शरणार्थियों और उजड़े हुए लोगों के अधिकारों के हनन के मामलों की निन्दा करने, उन्हें सामने लाने, लिखित प्रमाण जुटानेन्याय करने और सजा देने के लिए एक विवेकशील अन्तरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल की स्थापना करनी चाहिए।
जलवायु परिवर्तन के मद में विकासशील देशों को दिया जाने वाला मौजूदा कोष और कोपेनहेगन समझौते का प्रस्ताव अप्रयाप्त है। विकासशील राष्ट्रों में जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के लिए यह जरूरी है कि विकसित राष्ट्र आधिकारिक विकास सहायता और सार्वजनिक स्रोतों के साथ-साथ अपने सकल घरेलू उत्पाद की 6 फीसदी राशि का एक सालान कोष मुहैय्या करें। ऐसा करना व्यावहारिक है क्योंकि वे इतनी ही राशि राष्ट्रीय सुरक्षा पर खर्च करते हैं और इससे 5 गुनी राशि दिवालिये होते बैंकों और सट्टेबाजों को बचाने के लिए झोंक चुके हैं जो उनकी वैश्विक प्राथमिकताओं और राजनीतिक इच्छाशाक्ति पर गम्भीर प्रश्न है। यह नया सहायता कोष शर्तनामों से मुक्त और प्रत्यक्ष होना चाहिए तथा इसे सर्वाधिक प्रभावित समुदायों और समुहों की राष्ट्रीय सम्प्रभुता और आत्मनिर्णय के अधिकार में कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
मौजूदा क्रियाविधि की अक्षमता के मद्देनजर, 2010 में मैक्सिकों में होने वाले जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में एक नयी अनुदान क्रियाविधि को स्थापित किया जाना चाहिए जो जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के रूपरेखा सम्मेलन के तहत कॉन्फ्रेन्स ऑफ पार्टीज (सी पी ओ) के प्राधिकरण के तहत काम करता हो और उसी के प्रति जवाबदेह हो। परिशिष्ट 1 के देशों द्वारा अनुदान के किये गये वायदे का पूरी तरह पालन सुनिश्चित करने के लिए इस प्राधिकरण में विकासशील देशों का समुचित प्रतिनिधित्व हो। पहले ही बताया गया है कि 1990 से 2007 तक के काल में विकसित देशों ने अपने उत्सर्जन को भारी मात्र में बढ़ाया है, जबकि उन्होंने खुद यह कहा था कि बाजार क्रियाविधियाँ उत्सर्जन में कमी लाने में भरपूर सहायता प्रदान करेंगी।
हमारी धरती माँ को मॉल में बदलकर कार्बन बाजार एक भारी मुनाफे का बाजार बन गया है इसलिए यह जलवायु परिवर्तन से निपटने का कोई विकल्प नहीं हो सकता क्योंकि यह भूमि, जल, और यहाँ तक कि स्वयं जीवन को लूटता और उनका विनाश करता है।
ताजा वित्तीय संकट यह प्रदर्शित कर चुका है कि सट्टेबाजी, बिचौलियों दलालों के उद्भव के कारण क्षणभंगुर-और अनिश्चित बाजार इस वित्तीय तन्त्रा को चलाने में असमर्थ है। इसलिए मानव अस्तित्व और हमारी धरती माँ की देखभाल और सुरक्षा का दायित्व उनके हाथों में सौंपना एकदम गैर-जिम्मेदाराना होगा।
कहने की जरूरत नहीं कि वर्तमान में जारी वार्ताएँ एक नयी क्रियाविधि प्रस्तावित करती हैं जो कार्बन बाजार को विस्तारित और प्रोत्साहित करती है जबकि मौजूदा क्रियाविधियाँ न तो जलवायु परिवर्तन की समस्या को हल कर पायी हैं और न ही ग्रीन हाउस गैसों को कम करने वाली वास्तविक और प्रत्यक्ष कार्रवाई कर पायी हैं। यह माँग करना अनिवार्य है कि विकास और तकनीक हस्तान्तरण से सम्बन्धित जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के रूपरेखा सम्मेलन के तहत विकसित राष्ट्रों द्वारा प्रास्तावित ‘‘तकनीकी दिखावे’’ को रद्द करना भी जरूरी है जो केवल तकनीक बेचकर मुनाफा बटोरता है। भागीदारी युक्त नियंत्रण, प्रबन्धन और तकनीकी लेन-देन के मूल्यांकन के लिए बहुपक्षीय और बहुअनुशासित क्रियाविधि निर्मित करने के लिए यह जरूरी है कि दिशा-निर्देशों की स्थापना की जाय। इन तकनीकों का उपयोगी, स्वच्छ और सामाजिक रूप से विश्वस्त होना जरूरी है। इसी तरह एक ऐसे कोष की स्थापना करना भी बुनियादी जरूरत है जो समुचित और बौद्धिक सम्पदा अधिकार से मुक्त तकनीकी खोज में पूँजी लगाने के काम आये। कम लागत और आसानी से उपलब्ध तकनीकी को प्रोत्साहित करने के लिए, मुख्यतः पेटेन्टांे को निजी एकाधिकारियों के हाथांे से छीन कर आम लोगांे के दायरे में लाना चाहिए।
ज्ञान सार्वभौमिक है। ज्ञान या ज्ञान की तकनीकी उपयोगिता को किसी भी हाल में निजी सम्पत्ति या निजी उपयोग की वस्तु नहीं होना चाहिए। विकसित देशों का यह दायित्व है कि वे अपनी तकनीक विकासशील देशों के साथ साझा करें ताकि विकासशील देशों में तकनीकांे की रचना और नई खोजों के लिए अनुसन्धान केन्द्र बनाए जा सकें और ‘‘बेहतर जीवन’’ के लिए तकनीक के विकास और प्रयोग को सुरक्षित और प्रोत्साहित किया जा सके। इस ग्रह के विनाश को रोकने और धरती माँ के सामन्जस्य से दुबारा बेहतर जीवन क्षमता प्राप्त करने के लिये दुनिया की जनता से उनके पुस्तैनी सिद्धान्तों और पद्धतियों को फिर से हासिल करना सीखना होगा। साथ ही पुस्तैनी ज्ञान, साधना और रिवाजों को प्रोत्साहित करना होगा।
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के रूपरेखा सम्मेलन और क्वेटो प्रोटोकॉल के अन्तर्गत लिए गये संकल्पों और दायित्वों का प्रभावी तरीके से पालन करने के मामले में विकसित देशों की राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव को देखते हुए हम धरती माँ और मानवता के अधिकारों की अवहेलना करने वालांे के खिलाफ जलवायु और पर्यावरण सम्बन्धी न्याय प्राधिकरण की स्थापना की माँग करते है जिसके पास उन सरकारों उद्योगांे और लोगों को रोकने, फैसला करने और दण्ड देने की कानूनी क्षमता हो, जिन्होंने जाने-अन्जाने जलवायु परिवर्तन को दूषित किया हो या भड़काया हो।
जो सरकारें जलवायु और पर्यावरणीय न्याय प्राधिकरण में उन विकसित देशों के खिलाफ दावा पेश करती हैं जो जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र रूपरेखा सम्मेलन और क्वेटो प्रोटोकॉल की वचनबद्धता को पूरा करने में असफल हों, जिसमें ग्रीन हाउस गैसों को कम करने का वचन भी शामिल है, हम उन का समर्थन करते हैं।
हम लोगों से संयुक्त राष्ट्र में गम्भीर सुधारों को प्रस्तावित और प्रोत्साहित करने की अपील करते हैं, ताकि सभी सदस्य सरकारें अन्तरराष्ट्रीय जलवायु और पर्यावरण न्याय प्राधिकरण के फैसलों का अनुसरण करें।
मानवता का भविष्य खतरे में है और हम विकसित देशों को फैसला लेने की इजाजत नहीं दे सकते, जिसका असफल प्रयास उन्होंने कोपेनहेगेन में पार्टियों के सम्मेलन में किया था। इस निर्णय का सरोकार हम सबसे है। अतः जलवायु परिर्वतन के बारे में विश्वस्तर पर जनमत संग्रह या व्यापक जन विमर्श करना आवश्यक है जिसमें सभी लोगों से निम्न मुद्दों पर मंत्रणा की जायेः- विकसित देशों और पारराष्ट्रीय निगमों की तरफ से की गयी उत्सर्जन में कमी का स्तर, विकसित देशों द्वारा प्रस्तावित किया गया वित्त, एक अन्तरराष्ट्रीय जलवायु एवं पर्यावरणीय न्याय प्राधिकरण का निर्माण, धरती माँ के अधिकारों के लिए सार्वभौमिक घोषणा की आवश्यकता और मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था को बदलने की जरूरत के बारे में  वैश्विक जनमत संग्रह या व्यापक जन-विमर्श की उस प्रक्रिया पर निर्भर करेगी जो इसके सफल विकास को सुनिश्चित करती हो।
हमारे अन्तरराष्ट्रीय कार्य में समन्वय के लिए और इस ‘‘जनता की सहमति’’ के परिणामों को लागू करने के लिए, हम धरती माँ के लिए सम्पूरकता के सिद्धान्तों पर आधारित एक ऐसे वैश्विक जन आन्दोलन का निर्माण करने का आह्वान करते हैं, जो विभिन्न दृष्टिकोणों और विविध स्थानों से आने वाले सदस्यों में एक दूसरे के लिए सम्मान, और पूरे विश्व में तालमेल और संयुक्त कार्रवाइयों के लिए एक व्यापक और लोकतान्त्रिाक मंच का निर्माण करे।
इस मोड़ पर हम यहाँ एक विश्वव्यापी कार्य योजना पारित करते हैं ताकि भावी मैक्सिको सम्मेलन में परिशिष्ट 1 में सूचीबद्ध विकसित देश मौजूदा वैधानिक ढाँचे का सम्मान करें और अपने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 50 फीसदी तक की कमी लायें और इस समझौते में निहित विभिन्न प्रस्ताव वहाँ परित हो सकें।
अंततः धरती माँ के हक में विश्वव्यापी जन आन्दोलन का निर्माण करने और इस साल के अन्त में कानकून, मैक्सिको में होने वाले जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के निष्कर्षों पर प्रतिक्रिया देने की इस प्रक्रिया के एक अंग के रूप में, हम 2010 में जलवायु परिवर्तन और धरती माँ के अधिकरों के बारे में ‘‘दुनिया की जनता के दूसरे सम्मेलन की जिम्मेदारी उठाने को तैयार हैं।’’

मानवता का भविष्य खतरे में है और हम विकसित देशों को फैसला लेने की इजाजत नहीं दे सकते, जिसका असफल प्रयास उन्होंने कोपेनहेगेन में पार्टियों के सम्मेलन में किया था। इस निर्णय का सरोकार हम सबसे है। अतः जलवायु परिर्वतन के बारे में विश्वस्तर पर जनमत संग्रह या व्यापक जन विमर्श करना आवश्यक है जिसमें सभी लोगों से निम्न मुद्दों पर मंत्रणा की जायेः- विकसित देशों और पारराष्ट्रीय निगमों की तरफ से की गयी उत्सर्जन में कमी का स्तर, विकसित देशों द्वारा प्रस्तावित किया गया वित्त, एक अन्तरराष्ट्रीय जलवायु एवं पर्यावरणीय न्याय प्राधिकरण का निर्माण, धरती माँ के अधिकारों के लिए सार्वभौमिक घोषणा की आवश्यकता और मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था को बदलने की जरूरत के बारे में  वैश्विक जनमत संग्रह या व्यापक जन-विमर्श की उस प्रक्रिया पर निर्भर करेगी जो इसके सफल विकास को सुनिश्चित करती हो।