Friday, 23 January 2015

जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संकट- कौन है इसका जिम्मेदार?-भूमिका

जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी प्रभावों के कारण हमारी धरती माता और पूरी मानव सभ्यता के ऊपर तबाही का खतरा मँडरा रहा है।
पृथ्वी लगातार तेजी से गर्म होती जा रही है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। समुद्र का जलस्तर ऊपर उठ रहा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यही हालत रही, तो बांग्लादेश से फ्लोरिडा तक करोड़ों लोगों को पनाह देने वाले गाँव-घर समुद्र में डूब जायेंगे। पीने का पानी जहरीला हो जायेगा। भारी वर्षा और भयावह सूखा दुनिया भर में तबाही मचायेंगे। खेती-बाड़ी उजड़ जायेगी। जीवों की कई प्रजातियाँ लुप्त हो जायेंगी और जंगली इलाके उजाड़ होकर रेगिस्तान बन जायेंगे। ये बातें महज अनुमान या आशंका नहीं, बल्कि ऐसी सच्चाइयाँ हैं जो आज भी हमारी आँखों के आगे घटित हो रही हैं। इस विकट समस्या का समाधान करने के लिए अविलम्ब और त्वरित कार्रवाई की जरूरत है। लेकिन दुनिया भर के शासक अपने संकीर्ण स्वार्थों और मुनाफे की हवस में इस दिशा में तत्काल कदम उठाने के बजाय टालमटोल कर रहे हैं। अगर यही स्थिति रही तो जल्दी ही यह संकट इतना विकट हो जायेगा कि धरती के पर्यावरण को फिर से पुरानी अवस्था में लौटाना सम्भव नहीं होगा।
जलवायु, परिवर्तन के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार विकसित पूँजीवादी देश हैं। कार्बन-डाइ-आक्साइड के उत्सर्जन में वे ही सबसे आगे हैं और पर्यावरण संकट को हल करने की जिम्मेदारी से वे ही मुँह चुरा रहे हैं। इसकी भारी कीमत दुनिया की गरीब आबादी को चुकानी पड़ रही है। दुनिया भर में 5 साल से कम उम्र के एक करोड़ बच्चे हर साल खसरा, डायरिया और साँस की बीमारी से मारे जाते हैं, जो दूषित पर्यावरण और मानवद्रोही शासन व्यवस्था की देन है। पिछले 200 सालों के औद्योगिक विकास ने जहाँ दुनिया में मुट्ठीभर लोगों के लिए समृद्धि के पहाड़ खड़े किये हैं, वहीं बहुसंख्य जनता को भयानक गरीबी की खाई में धकेल दिया है। गरीब जनता अपनी जीविका के लिए जल, जंगल, जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर ज्यादा निर्भर रहती है, जिनके क्षरण से उनकी जीविका तबाह होती जा रही है।
धरती माँ अपनी किसी संतान के साथ विकसित-अविकसित, धनी-गरीब या ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं करती। लेकिन धनी आदमी पर्यावरण संकट से उत्पन्न परेशानियों से बच सकता है। उसके पास गर्मी से बचने के लिए ए. सी., धूप से बचने के लिए सनस्क्रीम आदि महँगे संशाधन उपलब्ध हैं। मगर गरीब आदमी को पेट भरने के लिए तपती धूप में भी अपना खून जलाकर मजदूरी करनी पड़ती है। बाढ़ और सूखे के समय उनके पास इतने आर्थिक साधन नहीं होते कि वे दो वक्त की रोटी जुटा सकें। सरकार की उपेक्षा के कारण उन्हें दर-दर की ठोकर खानी पड़ती है। गरीब औरतों पर तो इसका और भी बुरा प्रभाव पड़ता है, क्योंकि ऐसी स्थिति में पुरुष फिर भी कहीं जाकर रोजी-रोटी कमा सकते हैं, लेकिन सामाजिक बेड़ियों में जकड़ी औरतें ऐसा नहीं कर सकतीं। पिछले साल बंुदेलखण्ड में सूखा पड़ा तो कई औरतों को अपना शरीर बेच कर रोटी का जुगाड़ करना पड़ा था।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जलवायु परिवर्तन ने सन् 2000 में 55 लाख लोगों को अपंग बना दिया जिसमें से 84 प्रतिशत उपसहारा अफ्रीका और पूर्वी व दक्षिण एशिया जैसे पिछड़े इलाकों की गरीब जनता थी। विकासशील देशों में गर्मी बढ़ते ही मलेरिया और डेंगू का प्रकोप होने लगता है। देश के कई इलाकों में सूखा-बाढ़ या भूजल स्तर नीचे जाने के चलते खेती और किसानों की जिन्दगी तबाह हो रही है। ऊपर से उन पर सरकार की किसान विरोधी नीतियों की दोहरी मार पड़ रही है। अनाज की उपज कम होने के कारण भुखमरी और कुपोषण बढ़ता जा रहा है। गन्दी जलवायु और कुपोषण के कारण लोगों की प्रतिरोध क्षमता कम हो रही है जिससे बहुत आसानी से वे बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं। संकट के इस दौर में बाजार की हृदयहीन शक्तियों की चैतरफा मार गरीब जनता पर पड़ रही है। इसके कारण समाज का आर्थिक और सामाजिक ढाँचा तहस-नहस हो रहा है।
बाढ़, सूखा, तूफान, ओलावृष्टि और लू जैसी प्राकृतिक आपदाओं ने अतीत की कई सभ्यताओं का विनाश किया है। ई.पू. 2300 के आसपास तुर्की में फारस की खाड़ी तक फैली मेसोपोटामिया की ग्रामीण सभ्यता को विनाशकारी सूखे ने निगल लिया था। यही हश्र कई अन्य सभ्यताओं का भी हुआ। अंग्रेजों के क्रूर शासन काल के दौरान 1770 में बंगाल के अकाल ने वहाँ की एक तिहाई जनता, लगभग एक करोड़ लोगों की जान ले ली थी। 1875 से 1900 के बीच देश भर में अकाल की चपेट में आकर 2 करोड़ 60 लाख लोगों ने जान गँवायी थी। इन अकालों के पीछे खराब मानसून के अलावा अंग्रेजों की लुटेरी आर्थिक और प्रशासनिक नीतियाँ जिम्मेदार थीं। अंग्रेजों द्वारा बेहिसाब लगान, युद्धकर, आयात-निर्यात पर मनमाना कर और अपनी जरूरतों के अनुरूप अफीम, चावल, गेहूँ, नील और कपास की खेती को बढ़ावा देने के कारण अकाल की भयावहता सैकड़ों गुना बढ़ गयी थी। लेकिन आज तेजी से होने वाले जलवायु परिवर्तन के इन विनाशकारी नतीजों के आगे पुराने दौर की बाढ़ और सूखा तो कहीं भी नहीं ठहरते। प्रकृति की    निर्बाध लूट पर फलने-फूलने वाली पूँजीवादी सभ्यता ने इस विनाश को निमंत्राण दिया है। मनुष्य की जिन्दगी पर इसका चैतरफा हमला शुरू हो गया है और जिन्दगी का कोई पहलू इसकी मार से अछूता नहीं है।
जलवायु संकट को लेकर आज पूरी दुनिया में तीखी बहसें चल रही हैं। इस संकट के स्वरूप, कारण और समाधान को लेकर अपने-अपने खर्चों के अनुरूप विभिन्न सामाजिक शक्तियाँ अलग-अलग अवस्थिति अपना रही हैं। प्रश्न यह है कि क्या यह प्रकृति की अनिवार्य परिघटना है या मनुष्य द्वारा धरती की स्वार्थपूर्ण, अनियन्त्रिात लूट-खसोट का परिणाम? इस संकट के लिए कौन जिम्मेदार है और किसे इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है? जलवायु परिवर्तन पर होने वाले वैश्विक सम्मेलनों की असफलता के क्या कारण हैं? विभिन्न वर्गों, समुदायों और संगठनों का इस संकट के प्रति क्या रुख है? इसके प्रति दुनिया के शासकों की लापरवाही और उपेक्षा का क्या कारण है? क्या यह विपदा सचमुच भयावह है या केवल इसे बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जा रहा है? मन-मस्तिष्क को मथने वाले इन्हीं सवालों का जवाब इस पुस्तिका में तलाशने का प्रयास किया गया है।
पुस्तिका के अन्त में दो महत्त्वपूर्ण दस्तावेज परिशिष्ट के रूप में दिये जा रहे हैं। इनमें पहला है पृथ्वी सम्मेलन (1992) में फिदले कास्त्रो का भाषणµ‘‘मानव जाति: खतरे में पड़ी एक प्रजाति’’ जो पर्यावरण संकट को सही संदर्भों में और पूरी गम्भीरता के साथ प्रस्तुत करते हुए इसके अविलम्ब समाधान की माँग करता है। दूसरा दस्तावेज ‘‘जलवायु परिवर्तन और धरती माता के अधिकारों पर वैश्विक जन-सम्मेलन (अप्रैल 2010) कोचाबाम्बा, बोलीविया का घोषणापत्रा’’ है जो इस संकट को समग्रता में निरूपित करते हुए, इसका सच्चा और स्थायी समाधान भी प्रस्तुत करता है।
इस पुस्तिका की तैयारी में मन्थली रिव्यू पत्रिका के सम्पादक जाॅन बेलामी फोस्टर की रचनाओं और इसी पत्रिका में समय-समय पर प्रकाशित अन्य लेखों का उपयोग किया गया है। फोस्टर की दो पुस्तकें--वलनरेबुल प्लानेटऔर इकोलाॅजी अगेंस्ट कैपिटलिज्मइस विषय पर अत्यन्त तथ्यपरक, सारगर्भित और विचारोत्तेजक कृतियाँ हैं। हम उनके आभारी हैं। पुस्तिका के बारे में आपकी आलोचनाओं और सुझावों का स्वागत है।

Monday, 12 January 2015

कारपोरेट-चालित “हरित अर्थतंत्र”- रियो सम्मलेन का एक नया तमाशा

-जनेट रेडमैन

फेयरफैक्स, वर्जीनिया निवासी मेरी एक करीबी दोस्त को उसकी पहली संतान होने वाली है. जब वह बच्ची 60 साल की होगी, उस वक्त उसे इतनी तपती हुई धरती पर जीना होगा, जितनी गरमी 25 लाख साल पहले इस धरती पर इंसान की चहलकदमी शुरू होने से लेकर आज तक नहीं रही.

आज भी यह दुनिया ठीक एक पीढ़ी पहले की तुलना में बहुत ही अलग दिख रही है. जिस खतरनाक दर से पौधे और जीव-जंतु गायब हो रहे हैं कि वैज्ञानकों को यह पूछना पड़ रहा है- क्या हम छठे व्यापक विलोप के युग में प्रवेश कर रहे हैं. समुद्र में मछलियों की मात्रा, जो एक अरब से भी अधिक लोगों के लिए प्रोटीन का मुख्य स्रोत है, तेजी से घट रही है और हाल के वर्षों में रहस्यमय कोरल रीफ (मूंगे की दीवार) का विलुप्त होना पहले से ही खराब स्थिति को और भी बदतर बना रहा है. इस ग्रह की सतह के आधे से भी अधिक हिस्से पर आज “एक स्पष्ट मानव पदचिह्न” मौजूद है.

यही वे हालात हैं जिनसे बचने की उम्मीद लेकर दुनिया भर के राजनेता अब से बीस साल पहले रियो द जेनेरियो, ब्राजील के पृथ्वी सम्मलेन 1992 में जमा हुए थे.
बीस साल पहले ही, नीति निर्माताओं को यह पता था कि मानव क्रियाकलाप पर्यावरण को नुकसान पहुँचा सकते हैं. लेकिन वे इस सच्चाई से भी रूबरू थे कि दुनिया की लगभग आधी आबादी गरीबी में जी रही है तथा उनको जमीन, पानी, भोजन, सम्मानपूर्ण रोजगार और बेहतर जीवन के लिए आवश्यक सामग्री हासिल करना जरूरी है.

इन दोनों सच्चाइयों को एक साथ मिलाने के लिए रियो सम्मलेन ने “टिकाऊ विकास” को अंगीकार किया- एक ऐसा आर्थिक माडल जो भावी पीढ़ियों की अपनी जरूरतें पूरी करने की क्षमता के साथ बिना कोई समझौता किये, आज की जरूरतों को पूरा करता हो. सरकारों ने एजेंडा 21 नाम से टिकाऊ विकास का खाका स्वीकृत किया, जो 21 वीं सदी कि ओर उन्मुख था. साथ ही उन्होंने जैवविविधता, जलवायु परिवर्तन और रेगिस्तानीकरण के बारे में वैश्विक पर्यावरण समझौतों की भी शुरुआत की.  

वैश्विक समुदाय फिर से रियो में इस दुखद सच्चाई का सामना करने के लिए एकत्र हो रहा है कि इस दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई है. हर किसी के दिमाग में वैश्विक वित्तीय संकट, उथल-पुथल मचा देने वाली आर्थिक असमानता और कारपोरेट की गलाकाटू प्रतियोगिता के भय से किसी फैसले को लागु करने की इच्छा का अभाव है.

आखिर गडबड क्या हुआ? इसका आंशिक उत्तर यह है कि मूल पृथ्वी सम्मलेन ने दो बेहद जरूरी मुद्दों को इस तरह नजरन्दाज किया, जैसे कोई कमरे में घुस आये हाथी की अनदेखी करे. पहला यह कि सीमित ग्रह पर असीम विकास एक बेकार की कवायद है. और दूसरा, कि उत्तरी अमरीका, यूरोप और जापान में रहनेवाली दुनिया की 20 फीसदी आबादी पृथ्वी के 80 फीसदी संसाधनों को गड़प कर जाती है. ऐसा नहीं लगता कि रियो+20, (इस नयी बैठक का यही नाम रखा गया है), इस मर्तबा भी इन दोनों हाथियों को पहचान पायेगा.

रियो की और कूच कर रहे नेता मिथकीय “हरित अर्थतंत्र” कि बढचढकर दलाली करते हुए बता रहे हैं कि इससे हमारी जलवायु सम्बंधी सभी समस्याओं का समाधान हो जायेगा. हालाँकि अभी तक इसे ठीक से परिभाषित भी नहीं किया गया है, फिर भी आम तौर पर वे लोग इसे आर्थिक विकास के एक ऐसे माडल के रूप में प्रचारित कर रहे हैं, जो स्वच्छ ऊर्जा, जलवायु-प्रतिरोधी खेती तथा दलदली इलाकों की जमीन सुखाने जैसी पारिस्थितिकी तंत्र से सम्बंधित सेवाओं के क्षेत्र में भारी पैमाने पर निजी पूँजी निवेश पर आधारित होगा. इस नई अवधारणा के तहत, व्यापार के इन तमाम नए-नए अवसरों के जरिये वाल स्ट्रीट बेहिसाब मुनाफा कमाएगा और धनी देशों की सरकारों को पर्यावरण की हिफाजत पर कोई खास खर्च नहीं करना पड़ेगा.

आश्चर्य की बात नहीं कि किसान, मूलनिवासी समुदाय, कर्ज-विरोधी कार्यकर्त्ता और जनसंगठन इस “हरित अर्थतंत्र” की लफ्फाजी को “हरित लीपापोती” कह कर ख़ारिज करते हैं.

ढेर सारे पर्यावरणवादियों और गरीबी-विरोधी संगठनों ने जिस खतरे को प्रतिध्वनित किया है वह यह कि पानी या जैवविविधता जैसी चीजों के उपयोग का प्रबंधन करने के नाम पर उनकी कीमत तय करके हम उन्हें माल में तब्दील कर देते हैं. साथ ही इस नीति के चलते इन बुनियादी जरूरतों और सेवाओं को सट्टेबाजों का मुहरा बना दिया जायेगा जो बेलगाम कीमतों के जरिये बेहिसाब मुनाफा कमाएंगे.
जरा इस बारे में सोचिये? क्या इसका कोई मतलब है कि हम अपने बचे-खुचे साझा संसाधनों- जंगल, जीन, वातावरण, भोजन को ऐसे लोगों को सुपुर्द कर दें जो हमारी अर्थ व्यवस्था को अपना निजी जुआघर समझते हैं?

यह कोई इत्तफाक नहीं कि जब जमीन और पानी का इंतजाम करने की जिम्मेदारी लोगों पर है, तब वे किसी दूर-दराज कार्यालय भवन में बैठे हेज फंड मैनेजरों की करामात पर नहीं, बल्कि अपनी बेहतर कमाई पर जीते और गुजारा करते हैं. प्रकृति के बारे में फैसला लेने का अधिकार वित्तीय क्षेत्र के हाथों में केंद्रित करने के बजाय, रियो+20 सम्मलेन को चाहिए कि प्राकृतिक संसाधनों के स्थानीय, लोकतान्त्रिक संचालन को प्रोत्साहित करे.

इस उपाय से कम से कम इतना तो होगा कि जब हमारी दोस्त की बेटी मतदान करने की उम्र में पहुँचेगी, तब तक यह धरती इस हालात में रह पायेगी कि इसे बचाने के लिए लड़ा जाय.
(जनेट रेडमैन, इन्स्टिच्युट फॉर पॉलिसी स्टडीज में सस्टेनेबुल इनर्जी एण्ड इकोनोमी नेटवर्क परियोजना के सह-निदेशक हैं. यह संस्था अमरीका और दुनिया भर में शांति, न्याय और पर्यावरण से जुड़े विद्वानों और कार्यकर्ताओं का एक समुदाय है. यह लेख काउंटरकरेंट डॉट ऑर्ग से आभार सहित ले कर प्रस्तुत किया गया है. अनुवाद- दिगम्बर.) 

Monday, 5 January 2015

डरबन जलवायु सम्मेलन- अडंगेबाज देशों की धींगामुश्ती

– माइकल जैकोब्स
(क्वेटो सम्मेलन से लेकर कोपेनहेगन और अब डरबन में भी जलवायु वार्ताओं के दौरान साम्राज्यवादी देशों का रवैया टालमटोल का रहा है. जिन देशों ने पर्यावरण का बेपनाह दोहन करके उसे तबही की गर्त में धकेल दिया, वे अब उसे बचने के नाम पर आनाकानी कर रहे हैं और पूरी मानवता का विनाश करने पर आमादा हैं. जहाँ एक-एक दिन भारी पड रहा हो वहाँ ये साल दर साल की मोहलत लेना चाहते हैं. इसी सम्बन्ध में प्रस्तुत है यह लेख.)
डरबन में जलवायु सम्मेलन का विरोध
मनोवैज्ञानिकों ने जब ज्ञान-वैषम्य (cognitiv dissonance) की परिघटना, यानी एक ही समय दो परस्पर विरोधी बातों पर यकीन करने की क्षमता को पहचाना तो शायद वे अंतरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन समझौतों की व्याख्या कर रहे थे.
केवल इसी महीने, दो आधिकारिक अंतरराष्ट्रीय संस्थानों ने ध्यान दिलाया है कि दुनिया के पास अब कुछ ही वर्ष बचे हैं जिसके भीतर खतरनाक ग्लोबल वार्मिंग से लड़ने के लिए पर्याप्त कार्रवाई शुरू कर देनी होगी.
संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम ने कार्बन उत्सर्जन की खाई पाटने सम्बंधी जो रिपोर्ट प्रस्तुत की है उसके अनुसार अगर सभी देश 2020 तक अपने उत्सर्जन लक्ष्यों को अधिकतम सीमा तक लागू कर दें, तब भी कुल उत्सर्जन उस लक्ष्य से अधिक होगा, जो संयुक्त राष्ट्र संघ ने ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक न बढ़ने देने के लिए निर्धारित किया है.
रिपोर्ट में बताया गया है कि यदि उत्सर्जन की इस खाई को पाटना है तो और भी आगे बढ़कर कार्रवाई करने की जरूरत है.
इसी समय अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ने चेतावनी दी है कि अब दुनिया के पास पेट्रोलियम पदार्थों की जगह कम कार्बन उत्सर्जन वाली ऊर्जा का इस्तेमाल और ऊर्जा कुशलता की दिशा में गंभीर शुरुआत करने के लिए केवल पांच वर्ष का समय है. 2017 तक जरुरी निवेश करने में असफलता, भविष्य में अत्यधिक उत्सर्जन की जकड़बंधी को इस हद तक पहुंचा देगी कि 2 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य हासिल करना असंभव हो जायेगा.
इसके बावजूद डरबन में संयुक्तराष्ट्र जलवायु वार्ता में शामिल प्रतिनिधि इस बात पर तर्क-वितर्क कर रहे हैं कि नए दौर की समझौता-वार्ताएँ 2015 से पहले शुरू हो भी पाएंगी या नहीं. कुछ देश तो लगता है कि 2 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को ही कूड़ेदान में फेंक देना चाहते हैं, भले ही वे इस पर सहमति जताने का शब्दजाल फैलाते हों.
अलग-अलग देश अपने निकम्मेपन को छुपाने के लिये गड़े गए इस झूठे आरोप के आधार पर अपना दृष्टिकोण तय कर रहे हैं की जलवायू वार्ताएँ हमेशा ही विकसित बनाम विकासशील देशों के मुद्दे पर जाकर अटकती रही है. इस तर्क-वितर्क के एक छोर पर वे देश हैं जो जलवायु परिवर्तन के आगे सबसे अधिक लाचार हैं- छोटे द्वीप और अल्प विकसित राष्ट्र और यूरोपीय संघ. ये देश चाहते हैं कि नए वैधानिक सहमति  को लेकर समझौते की शुरुआत अगले साल हो जाये, 2015 तक निष्कर्ष निकल आये और उसके बाद जितनी जल्दी संभव हो, उन्हें लागू कर दिया जाये (यूरोपीय संघ ने कहा है कि हद से हद 2020 तक). दूसरा छोर जो इस बात की वकालत कर रहा है कि नयी वार्ताएँ 2015 के बाद ही शुरू होनी चाहिए, वह परंपरागत विकसित देशों में फिसड्डी रहे- अमरीका, कनाडा, रूस और जापान तथा दो बड़ी उभरती अर्थव्यवस्थाएं चीन और भारत का एक असंभव सा गठजोड़ है.
डरबन में जलवायु सम्मेलन का विरोध
देर करने वाले दलील देते हैं कि एक नए चरण की वार्ताएँ करने का अभी समय नहीं आया है. एक साल पहले कानकुन में अंतिम दौर की वार्ता समाप्त होने के बाद, आज की प्राथमिकता उन निर्णयों को लागू करना है जिन पर सहमति बनी है. उनका कहना है कि देशों ने अभी-अभी तो अपने घरेलू उत्सर्जनों में कटौती की योजनाएँ लागू करना शुरू किया है. इनमें से अधिकांध देश निम्न कार्बन और हरित विकास की नीतियों को अपनाने के लिए जूझ रहे हैं, इसलिए वे नए समझौतों के बारे में सोचने के लिए तैयार नहीं हैं.
मौजूदा आर्थिक वातावरण में 2020 के लिए नयी वचनबद्धता पर सहमति की सम्भावनाएं लगभग नहीं के बराबर हैं. तर्क यह दिया गया है कि संयुक्तराष्ट्र 2013-15 में होने वाले 2 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य की समीक्षा के लिए पहले ही वचनबद्ध है जो उसके बाद के नए समझौतों के लिए उपयुक्त आधार प्रदान करेगा (एक भारतीय प्रतिनिधि ने डरबन में कहा कि इस बात का फैसला करने के लिये कि क्या तथ्यत: कोई उत्सर्जन की खाई है भी या नहीं, 2014 में इंटर गवर्मेंट पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की 2014 में अपनी अगली रिपोर्ट आने तक दुनिया को इंतजार करना चाहिये.) देर करने वाले समूह में शामिल कई देशों के लिए ये तर्क-वितर्क केवल इस बात को ढकने का बहाना भर है कि वे किसी नयी वैधानिक सहमति के लिए बिलकुल ही तैयार नहीं हैं.
क्वेटो को नकारने वाले (अमरीका, जिसके साथ अब कनाडा भी जुड़ गया) किसी भी तरह अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारी के बंधन को नापसंद करते हैं, जबकी चीन और भारत उस तारीख को टालकर आगे बढ़ाने की माँग कर रहे हैं, जिस दिन से ये समझौते लागू होने हैं. हालाँकि इस बात का जवाब किसी के पास नहीं कई कि जिस 2 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य को सबने गले लगाया, उसे देर करते जाने पर कैसे हासिल किया किया जा सकता है.
सच तो यह है कि इस बात को लेकर ‘तत्काल वार्ता शुरू करो’ खेमे के भीतर भी असहमति है. छोटे द्वीप और अल्पविकसित देश चाहते हैं की कोई भी अवधि केवल अगले पांच वर्ष (2013-17) तक बढ़ायी जानी चाहिये और नए चरण के लक्ष्य 2018 में शुरू हो जाने चाहिये. लेकिन यूरोपीय संघ को अपने घरेलू जलवायु नीतियों के विशाल और नाजुक ढांचे को दुबारा शुरू करने से नफ़रत है जो सभी 2020 से जुड़े हुए हैं. उन्हें भय है कि इन्हें कड़ा करने के बनिस्बत सुलझा लेने की सम्भावना अधिक है.
यह तय है कि समाधान इस बात में निहित है कि 2013-15 के लिए निर्धारित संयुक्त राष्ट्र समीक्षा, कितनी वृहतर तात्कालिक महत्वाकांक्षा उत्पन्न कर पाती है.
डरबन सम्मेलन में शामिल विभिन्न पक्षों के भीतर इस बात पर अभी तक मतभेद हैं की समीक्षा आखिर क्या बाला है. कुछ इसे महज एक रिपोर्टिंग प्रक्रिया के रूप में देखते हैं कि अलग-अलग देश अपनी वचनबद्धता को लागू करने के लिए क्या कर रहे हैं. लेकिन दूसरे इसे इस आकलन की सम्भावना के रूप में देखते हैं कि 2 डिग्री सेल्सियस वास्तव में सही वैश्विक लक्ष्य है भी या नहीं (छोटे द्वीप की सरकारें चाहती हैं कि यह 1.5 डिग्री सेल्सियस होना चाहिये) और उत्सर्जन में कमी लाने के लिए मिल-जुल कर प्रयास कैसे किया जा सकता है. यह न केवल 2025 और 2030 के लिए नयी वचनबद्धताएं निर्धारित करने की अनुमति देगा- जो निश्चय ही किसी नये लक्ष्य- क्वेटो प्रोटोकॉल के नए संसकरण के लिए आधारशिला का काम करेगी, बल्कि 2020 के लिए की गयी वचनबद्धता के लिए मजबूती प्रदान करेगी. इस बात की सम्भावना बहुत ही कम है कि फ़िलहाल कुछ हो पायेगा.
लेकिन 2015 तक, जब हो सकता है कि बदतरीन आर्थिक संकट (शायद) खत्म हो जाये और नयी आईपीसीसी रिपोर्ट एक बार फिर दुनिया को उस खतरे के प्रति आगाह करे जो जलवायु परिवर्तन के चलते उत्पन्न हो रहा है, उम्मीद है की शायद कुछ हो पाए.
(लेखक : माइकल जैकोब्स, लन्दन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में जलवायु परिवर्तन के अतिथि प्राध्यापक हैं.द हिन्दू 3 दिसम्बर 2011 में प्रकाशित. क्लाइमेट टाक्स : ‘डिलेयर कंट्रीज’ फ्लेक्स मसल्स का हिन्दी अनुवाद)

(http://vikalpmanch.wordpress.com/ से साभार)

Sunday, 4 January 2015

आर्कटिक महासागर की बर्फ अगले 10 सालों में गायब हो जाएगी- एक अध्ययन

यूरोपियन स्पेस एजेंसी द्वारा की गयी एक नयी पैमाइश के अनुसार आर्कटिक महासागर की बर्फ अगले 10 सालों में पूरी तरह पिघल जाएगी. बर्फ पिघलने की यह रफ़्तार पहले जितना  अनुमान लगाया गया था, उससे कहीं तेज है.

एक अध्ययन के मुताबित, 2004 से हर साल 900 घन किलोमीटर बर्फ गायब हुई है. आर्कटिक बर्फ की मोटाई नापने के लिए वैज्ञानिकों ने आर्कटिक के ऊपर उड़ने वाले नासा जहाजों से और बर्फ के अंदर चलने वाली पनडुब्बियों द्वारा अल्ट्रा-साउंड (सोनर) मापक से प्राप्त आकडों का उपयोग किया. साथ ही, उन्होंने इस काम के लिए खासतौर पर विकसित सैटेलाइट तकनोलोजी- क्रिस्टोसैट- 2 प्रोब का भी इस्तेमाल किया जो बर्फ की मोटाई नापने की ऐसी पहली तकनीक है.

लंदन सेंटर फॉर पोलर आब्जर्वेसन एण्ड माडलिंग के डॉ सीमूर लैक्सोन ने गार्जियन को बताया की “जल्द ही गरमी के मौसम में किसी दिन हम ऐसे यादगार पल का अनुभव कर सकते हैं कि जब हम सैटेलाइट से प्राप्त तस्वीरों पर नज़र डालें तो हमें आर्कटिक पर बर्फ की कोई चादर ही दिखाई न दे, केवल पानी ही पानी नजर आये.

एक नयी पैमाइश के मुताबिक न केवल ग्रीष्मकालीन समुद्री बर्फ से ढका क्षेत्र तेजी से पीछे सरका है, बल्कि बची-खुची बर्फ की मोटाई भी काफी तेज़ी से कम होती जा रही है.

अध्ययन से पता चलता है कि आर्कटिक बर्फ पहले लगाये गये अनुमान की तुलना में 50 प्रतिशत तेज़ी से पिघल रही है.

पिछली गर्मी के अंत में आर्कटिक पर लगभग 7000 घन किलोमीटर बर्फ ही बची रह पाई, जो 2004 में 13000 घन किलोमीटर बची हुई बर्फ की तुलना में लगभग आधी ही रह गई.

आर्कटिक की बर्फ पिघलने से समुद्र का तापमान बढ़ता है, जिससे समुद्र की सतह पर जमा मिथेन पिघलता है और भारी मात्रा में ग्रीनहाउस गैस वायुमंडल में जमा हो जाती है. इसके चलते बर्फ और भी तेजी से पिघलती है और इस चक्रीय गति के कारण जलवायु परिवर्तन की गति तेज हो जाती है.

यूसीएल के प्रोफेसर क्रिस राप्ले ने गार्जियन को बताया की “आर्कटिक और भूमध्य रेखा के बीच तापमान का जो अंतर आज बढ़ रहा है, उसके कारण ऊपरी वायुमंडल में स्थित जेट स्ट्रीम काफी अस्थिर हो सकती हैं. इसका नतीजा होगा निम्न अक्षांशो पर मौसम की अस्थिरता का बहुत ज्यादा बढ़ जाना, जैसा इस साल हम झेल चुके हैं.

(कॉमन ड्रीम्स डॉट ऑर्ग के प्रति आभार सहित. अनुवाद- सतीश)

Saturday, 3 January 2015

धरती- एक वर्जित ग्रह

-जोर्ज मोनबियट
मानवता के सबसे बड़े संकट के साथ-साथ एक ऐसी विचारधारा का भी उदय हुआ, जो उस संकट के समाधान को असंभव बना देती है. 1980 के दशक के उत्तरार्ध में, जब यह साफ़ हो गया कि मानव निर्मित जलवायु परिवर्तन ने इस जानदार ग्रह और इसके निवासियों को खतरे में डाल दिया है, उसी समय दुनिया एक अतिवादी राजनीतिक सिद्धांत की गिरफ्त में आ गयी, जिसके जड़सूत्र ऐसे किसी भी हस्तक्षेप का निषेध करते हैं जो इस संकट से निजात पाने के लिए जरूरी हैं.
नवउदारवाद, जो बाजार-कट्टरपन्थ या मुक्त-बाजार अर्थव्यवस्था के नाम से भी जाना जाता है, इसका अभिप्राय बाजार को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करना है. इसका जोर इस बात पर है कि राज्य को बाजार की हिफाजत करने, निजी सम्पत्ति की रक्षा करने और व्यापार के रास्ते की बाधाएँ हटाने के अलावा और कुछ नहीं करना चाहिए. व्यवहार में यह चीज देखने को नहीं मिलती. नवउदारवादी सिद्धांतकार जिसे सिकुड़ना कहते हैं, वह लोकतंत्र के सिकुड़ने जैसा दिखता है- नागरिक जिन साधनों से अभिजात वर्ग की सत्ता पर अंकुश रख सकते हैं, उन्हें कम करते  जाना. जिसे वे “बाजार” कहते हैं, वह वास्तव में बहुराष्ट्रीय निगमों और चरम-धनवानों का स्वार्थ ही दिखाई देता है. लगता है, जैसे नवउदारवाद केवल अल्पतन्त्र को उचित ठहराने का साधन मात्र हो.
इस सिद्धांत को पहलेपहल 1973 में चिली पर आजमाया गया था. शिकागो विश्वविद्यालय के एक पुराने विद्यार्थी ने जो मिल्टन फ्रीडमैन के अतिवादी नुस्खों में दीक्षित हुए थे, सीआइए के पैसे से जेनरल पिनोचे के साथ मिल कर वहाँ इस सिद्धांत को जबरन लागू करवाया, जिसको किसी लोकतान्त्रिक देश में थोपना असंभव होता. इसका नतीजा एक ऐसी आर्थिक तबाही के रूप में सामने आया जिसमें धनी वर्ग, जिसने चिली के उद्योगों के निजीकरण के बाद उनका मालिकाना हथिया लिया था और वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों पर पूरी तरह कब्ज़ा कर लिया था, लगातार समृद्ध होता गया.
इस पंथ को मारग्रेट थैचर और रोनाल्ड रीगन ने अपना लिया. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश और विश्व बैंक ने इसे गरीब देशों पर जबरदस्ती थोपा. जब 1988 में जेम्स हानसेन ने अमरीकी सीनेट में पहली बार धरती के तापमान में भावी बढ़ोतरी के बारे में अपना विस्तृत माडल प्रस्तुत किया, तब इस सिद्धांत को पूरी दुनिया में लागू करवाया जा रहा था.
जैसा कि हमने 2007 और 2008 में देखा (जब नवउदारवादी सरकारों को बाध्य किया जा रहा था कि वे बैंकों को उबारने से सम्बंधित अपनी नीति को त्यागें), तब किसी तरह के संकट का सामना करने की इतनी खराब परिस्थिति इससे पहले शायद ही कभी रही हो. जब कोई विकल्प न रह जाय तबतक, संकट चाहे जितना ही तीक्ष्ण हो और उसके परिणाम चाहे जितने भी गम्भीर क्यों न हों, आत्म-घृणाशील राजसत्ता दखल नहीं देगा. लेकिन नवउदारवाद सभी तरह की मुसीबतों से अभिजात वर्ग की हिफाजत करता है.
विश्व बैंक, अंतरार्ष्ट्रीय ऊर्जा एजेन्सी और प्राइसवाटरहाउसकूपर जैसे हरित अतिवादियों ने इस शताब्दी के लिए चार डिग्री, पांच डिग्री और छः डिग्री ग्लोबल वार्मिंग का जो पूर्वानुमान लगाया है, उसके चलते होनेवाले पर्यावरण विनाश से बचने का मतलब होगा- तेल, गैस और कोयला उद्योग से सीधे टक्कर लेना. इसका मतलब है उद्योगों पर इस बात के लिए दबाव डालना कि वे अपने अस्सी फीसदी से भी अधिक खनिज तेल भंडार का त्याग करें, जिसे जलाए जाने से होने वाला नुकसान हमारे बर्दास्त से बाहर है. इसका मतलब है नए तेल भंडारों का पता लगाने और उन्हें विकसित करने कि कार्रवाइयों को रद्द करना, क्योंकि जब हम पहले वाले भण्डार का ही इस्तेमाल नहीं कर सकते, तो नया खोजने से क्या फायदा? और इसका मतलब होगा ऐसे किसी भी नए संरचनागत ढाँचे के निर्माण (जैसे- हवाई अड्डे) पर रोक लगाना, जिसे बिना तेल के चलाना ही सम्भव न हो.
लेकिन आत्म-घृणाशील राजसत्ता कोई कार्रवाई कर ही नहीं सकती. जिन स्वार्थों से लोकतंत्र को बचना चाहिए, उनकी गिरफ्त में होने के चलते वे केवल बीच सड़क पर बैठे, कान खोदते और मूँछ ऐंठते रहेंगे, जबकि धड़धड़ करता ट्रक उनकी ओर आता जायेगा. टकराहट वर्जित है, कार्रवाई करना प्राणघातक पाप है. आप चाहें तो कुछ पैसे वैकल्पिक ऊर्जा पर बिखेर सकते हैं, लेकिन पुराने कानूनों की जगह कोई नया कानून नहीं बना सकते.
बराक ओबामा वे उस नीति को आगे बढ़ाते हैं जिसे वे “सबसे श्रेष्ठ” बताते हैं- हवा, सौर, तेल और गैस को प्रोत्साहन देना. ब्रिटिश जलवायु परिवर्तन सचिव, एड डेवी पिछले हफ्ते सामान्य सदन में ऊर्जा बिल पेश करते हैं, जिसका उद्देश्य ऊर्जा आपूर्ति को कार्बन रहित बनाना है. उसी बहस के दौरान वे वादा करते हैं कि वे उत्तरी सागर और दूसरे विदेशी तेल कुओं में तेल और गैस के उत्पादन की “क्षमता को बढ़ाएंगे.”
लोर्ड स्टर्न ने जलवायु परिवर्तन को परिभाषित करते हुए कह था कि यह “यह बाजार व्यवस्था की ऐसी विराटतम और व्यापक दायरे वाली असफलता है, जो पहले कभी देखने में नहीं आई थी.” जून में बेमतलब का पृथ्वी सम्मेलन, दोहा में आजकल जिस पर बहस हो रही है वे बोदे उपाय, ऊर्जा बिल और ब्रिटेन में पिछले हफ्ते जारी बीजली की माँग घटाने से सम्बंधित परचा (बेहतर होता कि ये सारे उपाय समस्या की गंभीरता के मद्देनजर इतने गये-गुजरे न होते), ये सब कुछ बाजार कट्टरपंथ की विराटतम और व्यापकतम असफलता को बेनकाब करते हैं- यह हमारे अस्तित्व से जुड़ी इस समस्या को हल करने में इस व्यवस्था की अक्षमता को दर्शाता है.
हजार वर्षों की विरासत में मिला मौजूदा कार्बन उत्सर्जन ही मानव सभ्यता से मिलतीजुलती किसी भी चीज को चकनाचूर कर देने के लिए काफी है. जटिल समाजों ने समय-समय पर साम्राज्यों के उत्थान-पतन, प्लेग, युद्ध और अकालों को  झेल लिया. वे छः डिग्री जलवायु परिवर्तन को नहीं झेलपाएंगे जिसे शहस्राब्दी तक जारी रहना है. 150 वर्षों के विस्फोटक उपभोग की एवज में, जिसके ज्यातर हिस्से का मानवता की भलाई से कोई लेना-देना नहीं रहा, हम प्राकृतिक विश्व और उस पर निर्भर मानवीय व्यवस्था को खंड-खंड बिखेर रहे हैं.
दोहा जलवायु शिखर (या तलहटी) वार्ता तथा नए उपायों के बारे ब्रिटिश सरकार की चीख-पुकार से यह थाह लग जाता है कि मौजूदा राजनीतिक कार्रवाइयों की कितनी सीमाएं हैं. आप आगे बढ़े नहीं कि सत्ता के साथ आपकी प्रतिज्ञा भंग हुई, दोनों तरह की प्रतिज्ञाएं- चाहे वह परदे के पीछे की गयी हो या नवउदारवादी पंथ द्वारा उसे मान्यता मिली हो.       
नवउदारवाद इस समस्या की जड़ नहीं है – अक्सर इस विचारधारा का इस्तेमाल बेलगाम अभिजात वर्ग द्वारा दुनिया के पैमाने पर सत्ता, सार्वजनिक सम्पत्तियों और प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़ा ज़माने को उचित ठहराने के लिए किया जाता है. लेकिन इस समस्या का तब तक समाधान नहीं किया जा सकता जब तक एक प्रभावशाली राजनितिक विकल्प के जरिये इस सिद्धांत को चुनौती नहीं दी जाती.     
दूसरे शब्दों में जलवायु परिवर्तन- और वे तमाम संकट जो मानव तथा प्रकृति को अपने शिकंजे में जकड़े हुए हैं- उनके खिलाफ संघर्ष में तब तक  जीत हासिक नहीं  की जा सकती है जब तक एक  व्यापक राजनीतिक संघर्ष न छेडा जाय, धनिक तंत्र के खिलाफ व्यापक जनता कि जनवादी गोलबंदी न की जाय. मेरा मानना है कि इसकी शुरुआत उस वित्तीय व्यवस्था के खिलाफ सुधार अभियान के जरिये होनी चाहिए जिसके माध्यम से बहुराष्ट्रीय निगम और धनाढ्य वर्ग राजनीतिक फैसलों और नेताओं की खरीद-फरोख्त करते हैं. अगले कुछ हफ़्तों के भीतर ही हमारे साथियों में से कुछ लोग ब्रिटेन में एक याचिका दायर करके इस मुहीम की शुरुआत करेंगे. मुझे यकीन है कि आप उस पर जरुर हस्ताक्षर करेंगे.          
लेकिन यह तो एक विनम्र शुरुआत भर होगी. निश्चय ही हमें एक नयी राजनीति की रूपरेखा तैयार करनी होगी- जो जन हस्तक्षेप को न्यायसंगत मानती हो, जिसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों  द्वारा बाजार को मुक्त कराने के घिनौने मकसद से कहीं ज्यादा महान उद्देश्य अन्तर्निहित हो, जो मुठी-भर उद्योगों को को खास तरजीह देकर उन्हें बचने के बजाय, आम जनता और इस सजीव संसार के अस्तित्व को ज्यादा अहमियत देती हो. दूसरे शब्दों में, एक ऐसी राजनीति जो हमारी अपनी हो, न कि मुट्ठी भर चरम अमीर तबके के लिए.
(4 दिसम्बर को गार्जियन में प्रकाशित लेख का आभार सहित प्रस्तुति. अनुवाद – दिगम्बर)
इस लेख में दिये गये पाद-टिप्पणियों का अनुवाद नहीं किया गया है. 

Friday, 2 January 2015

जहर उगलते मोबाइल टावर

             
21 वीं सदी के लिए वरदान कही जाने वाली टेलिकॉम इंडस्ट्री कहीं इस धरती और मानव जीवन के लिए अभिषाप न बन जाये। चौबीस घंटे बिजली के भूखे मोबाइल टावरों द्वारा किये जा रहे जहर के उत्सर्जन से कुछ एसे ही संकेत मिल रहे हैं। भारत में मोबाइल टावरों को चलाने के लिए एक साल की डीजल खपत लगभग 7.5 अरब लीटर है। क्योंकि इन्हें लगातार चालू रखना होता है, इसलिए बिजली के जाने पर जनरेटर चलाने होते हैं। जनरेटर की खपत शहरी इलाकों में थोड़ी कम और ग्रामीण इलाकों में ज्यादा है। अकेले दिल्ली के इलाके में, टेलिकॉम इंडस्ट्री ने 2011 में 6.6 लाख मेगावाट ऊर्जा का उपयोग किया। इतनी ऊर्जा को उत्पन्न करने में 382 टन कार्बनडाई ऑक्साइड और 2123 टन दूसरे हानिकारक पदार्थ उत्सर्जित होते हैं। नए टावर लगने से यह आंकड़ा और बढ़ गया है। दिल्ली में 14 हज़ार से भी अधिक टावर हैं। यह दिल्ली का आलम है, जहां बिजली की आपूर्ति नियमित है। सिर्फ दिल्ली क्षेत्र में टेलिकॉम इंडस्ट्री से निकलने वाले हानिकारक पदार्थों की मात्रा अन्य स्रोतों से निकलने वाले कचरे का तीन गुना है।

            भारत में 8.6 लाख बीटीएस (जहां टावर लगा होता है) हैं। शहरों मे औसत बिजली आपूर्ति 20 घंटे प्रतिदिन जबकि ग्रामीण इलाकों में यह 13 घंटे प्रतिदिन है। टेलिकॉम इंडस्ट्री से सालाना 2.79 करोड़ टन कार्बन डाई ऑक्साइड और 2.95 लाख टन नाइट्रोजन ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। यह आंकड़े हैं, आंकड़ों की जुबान नहीं होती। इनकी विभीषिका का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि सैकड़ों तरह की पक्षियों की प्रजाति विलुप्त हो चुकी हैं और हजारों विलुप्त होने के कगार पर हैं। इन्सानों में तरह-तरह के मानसिक विकार तेजी से बढ़ रहे हैं। अरबों में राजस्व रखने वाली टेलीकॉम कंपनियां अपनी सिर्फ एक ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाती हैं, वह है रुपया वसूली। इसके अलावा उन्हें दुनिया-दारी से कोई मतलब नहीं। सभी रंग की सरकारें भी कंपनियों की भाषा बोलती नजर आती हैं।


         यह समस्या असमाधेय नहीं है, सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा का उपयोग करके इस समस्या को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। लेकिन कंपनियों को इस तरह का निवेश अतिरिक्त लगता है। भारत सरकार भी उनके सुर में सुर मिलाती है। इन कंपनियों पर दबाब बनाकर जनहित में नीतियाँ बनाना आज समय की मांग है। लेकिन कंपनियों को तरह तरह की सब्सिडी और छूट देने वाली सरकारों से एसी उम्मीद करना नासमझी है। इस मानवीय संकट से उबरने कि लिए तत्काल इसके विरोध में खड़े होने की जरूरत है।

-राजेश चौधरी

Thursday, 1 January 2015

The Modi Government’s war on environment

The Modi Government is pushing through reforms that weaken India’s existing environmental laws and threaten the rights of those who rely on the forests for their livelihoods.
Despite the bold warning from the recent Intergovernmental Panel on Climate Change (IPCC) report of the catastrophic impacts of rising temperature on the global climate, Narendra Modi's Government is all set to enact changes to weaken the existing environment and land acquisition laws of India, in order to promote industrialisation and ensure high economic growth, allege activists and environmental experts.
The Minister of State for Environment, Prakash Javadekar, has “delinked forest clearance from clearance by the National Board of Wild Life and halved NBWL clearance requirements from 10 km to 5km around forest reserves, besides emasculating the Board by replacing eminent experts and concerned NGOs with rubber stamps. He has also relaxed procedures for the application of the Forest Conservation Act (FCA) in precisely those areas where FCA is most required: Naxal-affected areas; linear projects in forest areas; and in eco-sensitive areas along the international border”, says Mani Shankar Aiyar, a Congress leader and Member of Parliament in the Rajya Sabha (upper house of Indian Parliament).
“Modi’s government has further threatened to heavily dilute the landmark Land Acquisition Act that they themselves voted for but a year ago, and amend with a view to diluting a whole raft of environmental protection legislation ranging across the gamut of the Environment Protection Act, the Wildlife Protection Act, the Forest Conservation Act, and the Water and Air Pollution Act, while preserving the highly discriminatory colonial legislation that is the Mother of all forest Acts in its current form - the Indian Forests Act, 1927”, Aiyar adds.

Diluting the Forest Rights Act

In its attempt to dilute the norms of the Forest Rights Act (FRA) from 2006, the Ministry of Environment, Forests and Climate Change (MoEFCC) has exempted projects seeking the conversion of plantations categorised as forests after December 13, 1930 that have no tribal population as per the recent census, from the requirements of “initiation and completion of the process for recognition and vesting of forest rights of scheduled tribes and other traditional forest dwellers.” The recent order from the Ministry empowers the district administrative authorities to clear the land conversion proposals at their level in these cases.
Most of the forests across the country can thus be handed over to corporations without any hassle because most standing plantations presently operating under various working plans of the forest department have emerged after this cut-off date (1930), says Soumitra Ghosh of the All India Forum of Forest Movements (AIFFM).
Condemning the attempts to empower District Collectors or other officials to take decisions over the conversion of forest land, Campaign for Survival with Dignity (CSD), a non-government organisation working for the proper implementation of FRA, says, “It amounts to empowering precisely the same officials who are responsible for the denial of forest rights to date.”

Undermining village councils

The MoEFCC order, issued on October 28, 2014, discards the specific provision in the 2006 Forest Rights Act, which seeks "prior informed consent" of gram sabhas ( the village council body) before acquiring forested land and clearing forests for industrial or any other non-forest activity.
“The Ministry has also weakened clauses for public consultation with communities affected by mining and other infrastructure projects, and sought to dilute provisions mandating “free, prior and informed consent” of Adivasi (indigenous) communities, says the India chapter of Amnesty International.
In its original form, while recognising the rights of indigenous tribal communities and the non-tribal forest dwellers over the forest land, FRA empowers the communities to certify that their rights will not be violated by an upcoming project.  .................
Since several of the corporate-led infrastructure projects could severely affect the rights of communities, “to clean air, water, health, livelihood and a healthy environment.” people affected by these projects “must have a say in whether and how they go forward,” says Aruna Chandrasekhar, Business and Human Rights Researcher at Amnesty International India. She also believes that the recent attempts to shut these communities out of the decision-making process are, “short-sighted and counter-productive.”
“Some of the amended laws also fall short of international standards on consultation and consent, and could further marginalise vulnerable communities who seldom have a voice in decisions taken around their lands and resources,” Chandrasekhar added.   ................

Conflict and legal complications ahead

In view of the people’s resistance to most of the large industrial and mining projects across the country for issues relating to land, environment and water, it can only be hoped that the changes brought in by the government and its environment ministry may result in more conflict on the ground because, “in India, loss of forest cover is not just an environmental issue but an issue concerning livelihood and food security of the communities dependent on the forest,” says Ranjan Panda, an environmental activist and convener of Water Initiatives Odisha. 
Highlighting that these changes would lead to legal complications, the tribal affairs ministry has warned the MoEFCC by reiterating that “any action or process inconsistent with the due process laid under the Act would not be legally tenable and is likely to be struck down by the courts of law.  .....
Environment – government’s last concern
The order for weakening environmental laws is a clear indication that the Modi government is least concerned about environmental issues.
“It is clear that the government considers the environment laws, as currently implemented, as constituting a roadblock, and wishes to expedite the process of development at the cost of environmental protection and sustainable growth,” says Armin Rosencranz, co-author of Environmental Law and Policy in India.   .....

Modi government cuts through red tape to make working easier in India


For highway expansion projects, EC conditions have been eased so that a fresh clearance is only needed in cases where more than 100 km of roads are being widened and the right of way in question is more than 40 metres from the existing road.

Mining projects that have already obtained an environmental clearance no longer need to apply for a fresh EC while renewing the leases of their mines. To boost coal production, public hearings have been dispensed with in case of coal mine expansions up to 5 million tonnes per annum if the coal is transported via a rail line or a conveyor belt. ....