जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी प्रभावों के कारण
हमारी धरती माता और पूरी मानव सभ्यता के ऊपर तबाही का खतरा मँडरा रहा है।
पृथ्वी लगातार तेजी से गर्म होती जा रही है।
ग्लेशियर पिघल रहे हैं। समुद्र का जलस्तर ऊपर उठ रहा है। वैज्ञानिकों का कहना है
कि यही हालत रही, तो बांग्लादेश से फ्लोरिडा तक करोड़ों
लोगों को पनाह देने वाले गाँव-घर समुद्र में डूब जायेंगे। पीने का पानी जहरीला हो
जायेगा। भारी वर्षा और भयावह सूखा दुनिया भर में तबाही मचायेंगे। खेती-बाड़ी उजड़
जायेगी। जीवों की कई प्रजातियाँ लुप्त हो जायेंगी और जंगली इलाके उजाड़ होकर
रेगिस्तान बन जायेंगे। ये बातें महज अनुमान या आशंका नहीं, बल्कि ऐसी सच्चाइयाँ हैं जो आज भी हमारी आँखों
के आगे घटित हो रही हैं। इस विकट समस्या का समाधान करने के लिए अविलम्ब और त्वरित
कार्रवाई की जरूरत है। लेकिन दुनिया भर के शासक अपने संकीर्ण स्वार्थों और मुनाफे
की हवस में इस दिशा में तत्काल कदम उठाने के बजाय टालमटोल कर रहे हैं। अगर यही
स्थिति रही तो जल्दी ही यह संकट इतना विकट हो जायेगा कि धरती के पर्यावरण को फिर
से पुरानी अवस्था में लौटाना सम्भव नहीं होगा।
जलवायु, परिवर्तन के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार विकसित
पूँजीवादी देश हैं। कार्बन-डाइ-आक्साइड के उत्सर्जन में वे ही सबसे आगे हैं और
पर्यावरण संकट को हल करने की जिम्मेदारी से वे ही मुँह चुरा रहे हैं। इसकी भारी
कीमत दुनिया की गरीब आबादी को चुकानी पड़ रही है। दुनिया भर में 5 साल से कम उम्र के एक करोड़ बच्चे हर साल खसरा, डायरिया और साँस की बीमारी से मारे जाते हैं, जो दूषित पर्यावरण और मानवद्रोही शासन व्यवस्था
की देन है। पिछले 200 सालों के औद्योगिक विकास ने जहाँ
दुनिया में मुट्ठीभर लोगों के लिए समृद्धि के पहाड़ खड़े किये हैं, वहीं बहुसंख्य जनता को भयानक गरीबी की खाई में
धकेल दिया है। गरीब जनता अपनी जीविका के लिए जल, जंगल, जमीन
जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर ज्यादा निर्भर रहती है, जिनके क्षरण से उनकी जीविका तबाह होती जा रही
है।
धरती माँ अपनी किसी संतान के साथ विकसित-अविकसित, धनी-गरीब या ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं करती।
लेकिन धनी आदमी पर्यावरण संकट से उत्पन्न परेशानियों से बच सकता है। उसके पास
गर्मी से बचने के लिए ए. सी., धूप
से बचने के लिए सनस्क्रीम आदि महँगे संशाधन उपलब्ध हैं। मगर गरीब आदमी को पेट भरने
के लिए तपती धूप में भी अपना खून जलाकर मजदूरी करनी पड़ती है। बाढ़ और सूखे के समय
उनके पास इतने आर्थिक साधन नहीं होते कि वे दो वक्त की रोटी जुटा सकें। सरकार की
उपेक्षा के कारण उन्हें दर-दर की ठोकर खानी पड़ती है। गरीब औरतों पर तो इसका और भी
बुरा प्रभाव पड़ता है, क्योंकि ऐसी स्थिति में पुरुष फिर भी
कहीं जाकर रोजी-रोटी कमा सकते हैं, लेकिन
सामाजिक बेड़ियों में जकड़ी औरतें ऐसा नहीं कर सकतीं। पिछले साल बंुदेलखण्ड में सूखा
पड़ा तो कई औरतों को अपना शरीर बेच कर रोटी का जुगाड़ करना पड़ा था।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जलवायु
परिवर्तन ने सन् 2000 में 55 लाख लोगों को अपंग बना दिया जिसमें से 84 प्रतिशत उपसहारा अफ्रीका और पूर्वी व दक्षिण
एशिया जैसे पिछड़े इलाकों की गरीब जनता थी। विकासशील देशों में गर्मी बढ़ते ही
मलेरिया और डेंगू का प्रकोप होने लगता है। देश के कई इलाकों में सूखा-बाढ़ या भूजल
स्तर नीचे जाने के चलते खेती और किसानों की जिन्दगी तबाह हो रही है। ऊपर से उन पर
सरकार की किसान विरोधी नीतियों की दोहरी मार पड़ रही है। अनाज की उपज कम होने के
कारण भुखमरी और कुपोषण बढ़ता जा रहा है। गन्दी जलवायु और कुपोषण के कारण लोगों की
प्रतिरोध क्षमता कम हो रही है जिससे बहुत आसानी से वे बीमारियों की चपेट में आ रहे
हैं। संकट के इस दौर में बाजार की हृदयहीन शक्तियों की चैतरफा मार गरीब जनता पर पड़
रही है। इसके कारण समाज का आर्थिक और सामाजिक ढाँचा तहस-नहस हो रहा है।
बाढ़, सूखा, तूफान, ओलावृष्टि और लू जैसी प्राकृतिक आपदाओं ने अतीत
की कई सभ्यताओं का विनाश किया है। ई.पू. 2300 के आसपास तुर्की में फारस की खाड़ी तक फैली
मेसोपोटामिया की ग्रामीण सभ्यता को विनाशकारी सूखे ने निगल लिया था। यही हश्र कई
अन्य सभ्यताओं का भी हुआ। अंग्रेजों के क्रूर शासन काल के दौरान 1770 में बंगाल के अकाल ने वहाँ की एक तिहाई जनता, लगभग एक करोड़ लोगों की जान ले ली थी। 1875 से 1900 के
बीच देश भर में अकाल की चपेट में आकर 2
करोड़ 60 लाख लोगों ने जान गँवायी थी। इन अकालों के
पीछे खराब मानसून के अलावा अंग्रेजों की लुटेरी आर्थिक और प्रशासनिक नीतियाँ
जिम्मेदार थीं। अंग्रेजों द्वारा बेहिसाब लगान, युद्धकर, आयात-निर्यात पर मनमाना कर और अपनी जरूरतों के
अनुरूप अफीम, चावल, गेहूँ, नील और कपास की खेती को बढ़ावा देने के कारण
अकाल की भयावहता सैकड़ों गुना बढ़ गयी थी। लेकिन आज तेजी से होने वाले जलवायु
परिवर्तन के इन विनाशकारी नतीजों के आगे पुराने दौर की बाढ़ और सूखा तो कहीं भी
नहीं ठहरते। प्रकृति की निर्बाध लूट पर
फलने-फूलने वाली पूँजीवादी सभ्यता ने इस विनाश को निमंत्राण दिया है। मनुष्य की
जिन्दगी पर इसका चैतरफा हमला शुरू हो गया है और जिन्दगी का कोई पहलू इसकी मार से
अछूता नहीं है।
जलवायु संकट को लेकर आज पूरी दुनिया में तीखी
बहसें चल रही हैं। इस संकट के स्वरूप, कारण
और समाधान को लेकर अपने-अपने खर्चों के अनुरूप विभिन्न सामाजिक शक्तियाँ अलग-अलग
अवस्थिति अपना रही हैं। प्रश्न यह है कि क्या यह प्रकृति की अनिवार्य परिघटना है
या मनुष्य द्वारा धरती की स्वार्थपूर्ण, अनियन्त्रिात
लूट-खसोट का परिणाम? इस संकट के लिए कौन जिम्मेदार है और
किसे इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है? जलवायु
परिवर्तन पर होने वाले वैश्विक सम्मेलनों की असफलता के क्या कारण हैं? विभिन्न वर्गों, समुदायों और संगठनों का इस संकट के प्रति क्या
रुख है? इसके प्रति दुनिया के शासकों की
लापरवाही और उपेक्षा का क्या कारण है? क्या
यह विपदा सचमुच भयावह है या केवल इसे बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जा रहा है? मन-मस्तिष्क को मथने वाले इन्हीं सवालों का
जवाब इस पुस्तिका में तलाशने का प्रयास किया गया है।
पुस्तिका के अन्त में दो महत्त्वपूर्ण दस्तावेज
परिशिष्ट के रूप में दिये जा रहे हैं। इनमें पहला है पृथ्वी सम्मेलन (1992) में फिदले कास्त्रो का भाषणµ‘‘मानव जाति: खतरे में पड़ी एक प्रजाति’’ जो पर्यावरण संकट को सही संदर्भों में और पूरी
गम्भीरता के साथ प्रस्तुत करते हुए इसके अविलम्ब समाधान की माँग करता है। दूसरा
दस्तावेज ‘‘जलवायु परिवर्तन और धरती माता के
अधिकारों पर वैश्विक जन-सम्मेलन (अप्रैल 2010) कोचाबाम्बा, बोलीविया का घोषणापत्रा’’ है जो इस संकट को समग्रता में निरूपित करते हुए, इसका सच्चा और स्थायी समाधान भी प्रस्तुत करता
है।
इस पुस्तिका की तैयारी में मन्थली रिव्यू
पत्रिका के सम्पादक जाॅन बेलामी फोस्टर की रचनाओं और इसी पत्रिका में समय-समय पर
प्रकाशित अन्य लेखों का उपयोग किया गया है। फोस्टर की दो पुस्तकें--‘वलनरेबुल प्लानेट’ और ‘इकोलाॅजी
अगेंस्ट कैपिटलिज्म’ इस विषय पर अत्यन्त तथ्यपरक, सारगर्भित और विचारोत्तेजक कृतियाँ हैं। हम
उनके आभारी हैं। पुस्तिका के बारे में आपकी आलोचनाओं और सुझावों का स्वागत है।