ग्लोबल वार्मिंग
सूर्य से पृथ्वी पर आने वाली ऊष्मा को कार्बन
डाइ ऑक्साइड, मिथेन, नाइट्रस
ऑक्साइड आदि गैसें अपने अन्दर सोख लेती हैं और उसे वायुमण्डल के रास्ते आकाश में
लौटने नहीं देती हैं। ये गैसें यदि उचित मात्र में रहें तो पृथ्वी की सतह के लिए
कम्बल का काम करती हैं, ताकि पृथ्वी बिलकुल ही ठण्डी न हो जाए।
वैज्ञानिकों के अनुसार इन गैसों से युक्त वायुमण्डल एक हरे घर (ग्रीन हाउस) के
समान होता है, जिसमें सूर्य की ऊष्मा एक बार आ जाने के बाद
दुबारा वापस नहीं जा पाती। इसलिए इन गैसों को ग्रीन हाउस गैस कहते हैं। पिछले 200
सालों के औद्योगिक विकास ने वायुमण्डल में कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्र बहुत अधिक
बढ़ा दी है जिसने सूर्य की गर्मी को वायुमण्डल में सोखकर पूरी धरती का औसत तापमान
बढ़ा दिया है। इसे ही ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं। इसके चलते जीव-जन्तुओं और
पेड़-पौधों की हजारों प्रजातियाँ विलुप्त हो गयीं और अब खुद मनुष्य की बारी है। हर
नया दशक पिछले से अधिक गर्म हो रहा है। दुनिया भर के तापक्रम का रिकार्ड बताता है
कि पिछले 130 वर्षों के इतिहास में वर्ष 2005
सबसे अधिक गर्म था जबकि 2009 दूसरा सबसे गर्म साल था। वर्ष 2100 तक
धरती के तापमान में औसतन 1.5 से 6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होने का
अनुमान है।
ग्लोबल वार्मिंग के घातक परिणाम अब सामने आने
लगे हैं और भविष्य में इससे अपूरणीय क्षति होने की सम्भावना है। 1970 से
2007 के बीच आर्कटिक सागर की 40
प्रतिशत बर्फ कम हो गयी। ग्रीनलैण्ड और अन्टार्कटिक में बर्फ की चादर टूटने से
समुद्र के पानी का तापमान बढ़ रहा है और इसी के साथ-साथ समुद्र का जलस्तर भी ऊपर उठ
रहा है। दुनिया भर के ग्लेशियर पिघलने से भी समुद्र के जलस्तर में तेजी से वृद्धि
होगी। इसके कारण चीन सहित कई देशों के निचले हिस्से डूब जायेंगे। दुनिया के 40
करोड़ लोग समुद्र तल से 5 मीटर और एक अरब लोग 25
मीटर तक की ऊँचाई में रहते हैं। जाहिर है कि समुद्र का जलस्तर बढ़ने से ऐसे करोड़ों
लोग बेघर हो जायेंगे। दुनिया भर के 90 प्रतिशत ग्लेशियर पीछे खिसकते जा रहे
हैं। हिमालय के ग्लेशियर एशिया के कई देशों में करोड़ों लोगों के लिए पानी के अक्षय
स्रोत हैं। उनका सिकुड़ना एक तरफ बाढ़ और दूसरी तरफ पानी की भारी कमी का कारण बनेगा।
बोलीविया और पेरू में पानी की कमी के पीछे ग्लेशियर का गायब होना ही है। वायुमण्डल
की गर्मी बढ़ने से उसमें वाष्प की मात्र बढ़ जायेगी जो मौसम में तेजी से बदलाव
लाएगी। एक ही समय में कहीं बाढ़ और कहीं सूखा कहर ढायेंगे, जिससे
कई इलाकों की खेती चौपट हो जायेगी। इसके परिणामस्वरूप एक तरफ खाद्यान्न संकट और
भुखमरी की समस्या और विकराल रूप धारण करेगी जबकि इस स्थिति का फायदा उठाकर अनाज
व्यापारी कम्पनियाँ महँगा अनाज बेचकर बेहिसाब मुनाफा निचोड़ेंगी। वायुमण्डल में
उपस्थित ग्रीन हाउस गैस का 72 प्रतिशत कार्बन डाइ ऑक्साइड है। ग्लोबल
वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण यही है। औद्योगिक क्रान्ति से अब तक (1750 से
2007) वायुमण्डल में कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्र में
38 प्रतिशत, मेथेन
में 150 प्रतिशत और नाइट्रस ऑक्साइड में 16
प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है। इसी से समझा जा सकता है कि पिछले 200
सालों के औद्योगिक विकास का कितना विनाशकारी परिणाम सामने आया है। दरअसल निजी
मुनाफे से प्रेरित पूँजीवाद ने अपने जन्मकाल से ही औद्योगिक विकास करके जहाँ समाज
को आगे बढ़ाया, वहीं इसका एक स्याह पहलू यह भी है कि मुनाफे की
हवस में पूँजीपतियों ने कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस के उत्सर्जन को कभी नियन्त्रिात
नहीं किया। यही वजह है कि आज बिजली उत्पादन, उद्योग, यातायात, घरेलू
उपकरणों और पेट्रोलियम से कुल 73.7 प्रतिशत कार्बन डाइ ऑक्साइड का उत्सर्जन होता
है। ऐसा कोई उपाय भी नहीं है जिससे इस गैस को पुनः वायुमण्डल से हटाया जा सके।
औद्योगिक क्रांति से पहले मनुष्य और प्रकृति के
बीच काफी हद तक संतुलन बरकरार था,
क्योंकि उस दौरान हानिकारक गैसों को
आसपास के पेड़-पौधे सोख लेते थे। लेकिन तेजी से औद्योगिकरण के बाद बढ़ते असंतुलित
कार्बन उत्सर्जन और उसी रफ्तार से कटते जंगलों ने पृथ्वी पर इस गैसों की मात्र बढ़ा
दी। ऐसा कोई साधन नहीं बचा जिससे वायुमण्डल में इन गैसों की मात्र को कम किया जा
सके। तभी से इन गैसों की मात्र लगातार बढ़ती जा रही है। उल्लेखनीय है कि कार्बन
उत्सर्जन के लिए हर देश और हर इन्सान की जिम्मेदारी एक बराबर नहीं है। इसे निम्न
तालिका से समझ सकते हैं:
सन् 2005 में दुनिया के 5
बडे़ उत्सर्जक
देश वैश्विक
उत्सर्जन प्रतिव्यक्ति
उत्सर्जन
का प्रतिशत (टन में)
अमरीका 16 24.1
इण्डोनेशिया 06 12.9
यूरोपीय संघ 11 10.6
चीन 17 05.8
भारत 05 02.1
कुवैत, संयुक्त
अरब अमीरात और बहरीन जैसे अमरीकी खेमे के तेल उत्पादक देशों का प्रतिव्यक्ति
उत्सर्जन 30 टन से भी ज्यादा है। अमरीका, आस्ट्रेलिया, कनाडा
और सऊदी अरब का प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन 15 से 30 टन
के बीच है, जबकि भारत जैसे विकासशील देशों का उत्सर्जन 5 टन
से भी कम है।
ग्रीनपीस का एक सर्वे बताता है कि कार्बन
उत्सर्जन में एक ही देश के भीतर गरीब और अमीर लोगों का हिस्सा भी एक समान नहीं है।
सर्वे के अनुसार 3000 रुपये मासिक आमदनी वाले परिवार औसतन 335
किलोग्राम सालाना कार्बन उत्सर्जन करते हैं, जबकि
तीस हजार की मासिक आमदनी वाले परिवार उनसे चार गुणा ज्यादा, 1499 किलोग्राम कार्बन उत्सर्जित करते हैं। इसी से
अन्दाजा लगाया जा सकता है कि लाखों-करोड़ों की आय वाले परिवार कितना अधिक कार्बन
उत्सर्जित करते होंगे। जाहिर है कि ऊँची आय वाले 15
करोड़ भारतीय ही निर्धारित सीमा से अधिक कार्बन उत्सर्जित करते हैं जो कार,
ए.सी., रेफ्रीजरेटर, वाशिंग
मशीन, प्लाज्मा टी.वी. और अन्य उपकरणों का धड़ल्ले से
इस्तेमाल करते हैं। लेकिन इसकी सबसे अधिक कीमत सादगी से जीने वाली 85
प्रतिशत गरीब जनता को चुकानी पड़ती है।
कार्बन उत्सर्जन और वैश्विक तापमान अब
धीरे-धीरे नहीं, बल्कि छलांग लगाकर बढ़ रहा है जिसके नतीजे
विनाशकारी हैं। आर्कटिक सागर का विशाल बर्फीला इलाका, सूर्य
की ऊष्मा को दर्पण की तरह परावर्तित कर उसे वायुमण्डल से बाहर धकेल देता था। लेकिन
ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव से बर्फ पिघलने के कारण अब यह ऊष्मा परावर्तित न होकर
पृथ्वी को गर्माने लगी है। उत्तरी टुंड्रा प्रदेश की बर्फ पिघलने से मिथेन गैस
निकलती है, जो पृथ्वी को कार्बन डाइ ऑक्साइड से कई गुना
अधिक गरम करती है। एक अन्य मामले में समुद्र अधिक मात्र में कार्बन डाइ ऑक्साइड
सोखकर अम्लीय होता जा रहा है जिससे विभिन्न समुद्री प्रजातियाँ मर रही हैं। साथ ही
समुद्री जल की कार्बन डाइ ऑक्साइड सोखने की क्षमता भी लगातार कम होती जा रही है
जिससे वायुमण्डल में इस गैस के जमा होने की दर बढ़ती जा रही है।
जलवायु परिवर्तन पर अन्तरसरकारी पैनल (आई पी सी
सी) के अनुसार समुद्र का जलस्तर बढ़ने की रफ्तार 1961 में
1.8 मिलीमीटर सालाना थी जो सन् 1993 से 2003 के
बीच 3.1 मिलीमीटर हो गयी। इस तरह जलवायु परिवर्तन को
नियन्त्रिात करने की सम्भावना दिनोंदिन कम होती जा रही है। अनुमान है कि सन् 2025 तक
पृथ्वी का 70 प्रतिशत
इलाका सूखाग्रस्त हो जायेगा जबकि आज पृथ्वी का 40 प्रतिशत
इलाका ही सूखे का शिकार है।
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