जोन बेलामी फोस्टर
अनुवाद-– दिगम्बर
बीसवीं सदी के दौरान मानव जनसंख्या
में तीन गुनें की वृद्धि हुई है और दुनिया का सकल घरेलू उत्पाद बीस गुनें बढ़ा।
ऐसे विस्तार ने इस ग्रह की पारिस्थितिकी पर लगातार दबाव बढ़ाया। हर जगह जब हम
वायुमंडल, समुद्र, जलाशय, जंगल, मिट्टी को देखते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि
पारिस्थितिकी मे बहुत तेजी से गिरावट हो रही है।1
 |
साभार कोस्टल केयर |
वैश्विक पारिस्थितिक संकट की जुझारू
सच्चाई का सामना होने पर कई लोग यह आह्वान कर रहे हैं कि ऐसी नैतिक क्रान्ति हो जो
हमारी संस्कृति के भीतर पारिस्थितिक मूल्यों को समाहित करे। पारिस्थितिकी की
नैतिकता की यह माँग, मेरे ख्याल से हरित चिन्तन का सार है। इस तरह के नैतिक
रूपान्तरण की परिकल्पना को अल़्डो नियोपोल्ड के भूमि आचार मे गहराई से समझया गया
है, जिसमें कहा गया है “हम जमीन के साथ दुराचार करते हैं
क्योंकि हम मानते हैं कि यह एक माल है जो हमारी सम्पत्ति है। जब हम जमीन को उस
समुदाय के रूप में देखना शुरू करते हैं, जिसके हम अंग हैं तो हम प्यार और आदर से
उसका उसका उपयोग करना शुरू करते हैं।” फिर भी पारिस्थितिक नैतिकता की
अधिकांश अपीलों के पीछे यह अनुमान काम करता है कि हम एक ऐसे समाज में रहते हैं,
जहाँ व्यक्ति की नैतिकता ही समाज की नैतिकता की कुंजी है। अगर एक व्यक्ति के रूप
में लोग सिर्फ प्रकृति के प्रति अपने रुख में बदलाव लायें तथा फैलाव, उपयोग और
आचार संहिता में सुधार कर लें, तो सब कुछ सही हो जाएगा।2
नैतिक रूपान्तरण के ऐसे आह्वानों में
जिस बात की आम तौर पर अनदेखी की जाती है वह हमारे समाज का केन्द्रीय संस्थागत तथ्य
है- जिसे वैश्विक “उत्पादन का ट्रेडमिल” कहा जा सकता है। इस ट्रेडमिल के तर्क
को छ: अवयवों में विश्लेशित किया जा सकता
है। पहला, यह वैश्विक व्यवस्था के अन्दर् निर्मित हुआ है और अपना जो केन्द्रीय
तर्क निर्मित करता है, वह है, समाजिक पिरामिड के शीर्ष पर आबादी के एक अपेक्षतया
छोटे से हिस्से द्वारा सम्पत्ति का बढ़ता संचय। दूसरा, कामगारों का स्वरोजगार से
मजदूरी पर की ओर दीर्घकालिक गमन जो उत्पादन के लगातार विस्तार के लिये फौज का काम
करते हैं। तीसरा, पूंजीपतियों के बीच प्रतियोगी संघर्ष, विलुप्त हो जाने के क्लेश
के कारण अपने संचित धन को ऐसी नयी, क्रान्तिकारी तकनोलोजी में लगाना जरूरी हो जाता
है जो उत्पादन के विस्तार में सहायक होता है। चौथा, जरूरतें इस तरह से गढ़ी जाती
हैं कि ज्यादा से ज्यादा पाने की भूख कभी शान्त नहीं होती है। पांचवा, सरकार
दिनोंदिन राष्ट्रीय आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने के लिये जिम्मेदार होती जाती
है जबकि अपने नागरिकों के कम से कम एक हिस्से के लिए कुछ हद तक “समाजिक सुरक्षा” सुनिश्चत करती है। छठा, संचार और
शिक्षा के प्रभावी साधन ट्रेडमिल के पुर्जे होते हैं, जो इसकी प्राथमिकताओं और
मूल्यों को प्रभावी बनाने के काम आते हैं।3
इस व्यवस्था का निर्णायक लक्षण यह है
कि यह एक तरह का गोल-गोल चक्कर खाता एक विराट पिंजरा है। हर कोई या लगभग सभी इस
ट्रेडमिल का पुर्जा है और उससे बाहर निकलने में असमर्थ या अनिच्छुक है। निवेशक और
प्रबन्धक सम्पत्ति संचित करने की आवश्यकता से प्रेरित होते हैं और उसे विश्वस्तरीय
प्रतियोगिता की हालत में अपने कारोबार का विस्तार करना होता है। बड़ी आबादी के लिए
ट्रेडमिल की वचनबध्दता काफी सीमित और अप्रत्यक्ष होती है- उन्हें केवल् जीने भर की
मजदूरी पर नौकरी पाना होता है। लेकिन इन परीस्थितियों में उस नौकरी को बचाये रखना,
एक निश्चित जीवन स्तर को बचाये रखने के लिए अनिवार्य होता है, थ्रू द लुकिंग
ग्लास की रेड क्वीन की तरह, जिसे एक
ही जगह पर बने रहने के लिए तेज से तेज दौड़ना पड़ता है।4
ऐसे वातावरण में, जैसा कि उन्नीसवीं
सदी के जर्मन दार्शनिक शोपेनहावर ने एक बार कहा था- “एक आदमी जैसा चाहे जी सकता है। लेकिन
वह जो चाहता है वह नहीं चाह सकता।” हमारी चाहतें उस समाज के द्वारा
अनुकूलित होती हैं जिसमें हम रहते हैं। इस तरह से अगर देखा जाये तो व्यक्ति अपनी
खुद की आन्तरिक इच्छाओ के अनुरूप कार्र्वाई नहीं करता है, बल्कि उत्पादन का
ट्रेडमिल उसे चलाता है जिस पर हम सब लोग स्थापित हैं और जो पर्यावरण का मुख्य
दुश्मन बन गया है।
जाहिर है कि यह ट्रे़डमिल उस दिशा में
बढ़ती है जो इस ग्रह के बुनियादी पारिस्थितिक चक्र से बेमेल है। अगर औद्योगिक
उत्पादन में लगातार तीन प्रतिशत औसत सालाना विकास दर हो, जितना 1970 से 1990 तक
हासिल हुआ, तो इसका मतलब यह है कि विश्व के उद्योग का आकार हर पच्चीस साल में दो
गुना हो जायेगा और सदी में सोलह गुना के लगभग बढ़ेगा, तीन सदी में 4000 गुना
बढ़ेगा इत्यादि। यही नहीं, वर्तमान उत्पादन ट्रेडमिल का रूझान कच्चे माल और उर्जा
की लागत में विस्तार करने की ओर है, क्योंकि लागत जितनी बढ़ेगी, उतना ही तैयार माल
को ग्राहक तक पहुँचाने के जरिये मुनाफा होगा। मुनाफा पैदा करने के दौरान ट्रेडमिल
बहुत ज्यादा उर्जा केन्द्रित, पूंजीकेन्द्रित तकनोलोजी पर भरोसा करती है, जो इसे
श्रम लागत पर पैसा बचाने में सहायक् होती है। फिर भी कच्चे माल की लागत बधाने और श्रम
की जगह उर्जा और मशीन का इस्तेमाल करने का मतलब है उच्च स्तर के उर्जा स्त्रोतों
औऱ प्राकृतिक संसाधनों को खत्म करना और भारी मात्रा में वातावरण में कचरा उड़ेलना।
इसलिए सम्पूर्ण विनाश का सामना किये बिना इस व्यवस्था के अन्तर्गत औद्योगिक
उत्पादन को अब और दुगना-तिगुना करके इस दुनिया को टिकाये रखना असम्भव होगा। वस्तुत: हम कुछ महत्वपूर्ण पारिस्थितिक
सीमाओं को पहले ही बहुत तेजी से लांघ चुके हैं।5
हालात और बदतर हो गये जब हाल के दशकों
में पर्यावरण के “घोर अपमान” से “सूक्ष्म विषैलेपन” की और रूझान बढ़़ा। जब सिन्थेटिक माल
(जैसे प्लास्टिक) ने प्राकृतिक वस्तुओं (जैसे- लकड़ी, ऊन) की जगह लेना शुरू किया,
तब उन्नीसवीं सदी के औद्योगिकरण से सम्बन्धित् तमाम प्रदूषकों की जगह कहीं ज्यादा
खतरनाक प्रदूषकों का इस्तेमाल होने लगा, जैसेकि क्लोरीन से सम्बन्धित
(ऑर्गेनोक्लोरीन) उत्पादन के परिणाम स्वरूप पैदा होने वाले प्रदूषक - डीडीटी का
स्त्रोत, डायोक्सीन, एजेन्ट औरेन्ज, पीसीबी और सीएफसी इत्यादी। किसी निश्चित
उत्पादन के स्तर से सम्बन्धित विषैलेपन का अंश, पिछली आधी सदी के दौरान बहुत ही
ज्यादा तेजी से बढ़ा है।6
तब ऐसा लगता है कि एक पर्यावरण
परिप्रेक्ष्य से देखे तो हमारे पास उत्पादन के ट्रेडमिल का प्रतिरोध करने के अलावा
कोई विकल्प नहीं होगा। ऐसे प्रतिरोध का एक दूरगामी नैतिक क्रान्ति का रूप ग्रहण
करना जरूरी है। ऐसे नैतिक रूपान्तरण को संचालित करने के लिए, हालाँकि यह जरूरी है कि
हम उस चीज से टकरायें जिसे महान अमरीकी समाजशास्त्री सी राइट मिल्स ने “उच्चतर अनैतिकता” कहा है। मिल्स की निगाह में “उच्चतर अनैतिकता” एक “ढ़ांचागत अनैतिकता” थी, जिसका निर्माण हमारे समाज में
सत्ता की संस्था के भीतर हुआ था - खासकर उत्पादन की ट्रेडमिल के भीतर। उन्होंने
लिखा है कि “अमरीका जैसी पूरी तरह व्यापार से
गुंथी हुई सभ्यता में पैसा ही सफलता का एक सुस्पष्ट निशान हो जाता है...
सार्वभौमिक अमरीकी मूल्य।” ऐसा समाज जो कॉर्पोरेट धनवानों
द्वारा राजनीतिक सत्ता के कुलीनों के समर्थन से शासित हो, वह “संगठित गैरजिम्मेदारी” का समाज है, जहाँ सफलता से नैतिक
मूल्यों का और सत्ता से ज्ञान का कोई सम्बन्ध नहीं। सार्वजनिक संचार माध्यम, एक
लोकतन्त्र की मजबूती के लिए विचारों के आदान-प्रदान का जरूरी आधार निर्मित करने के
बजाय, आम तौर पर “मालों के प्रचार के आश्चर्यजनक
पैमानों के सुपुर्द कर दिया है...जो दिल और दिमाग की जगह पेट और जननांग को
सम्बोधित होते है।” इन सबका आम जनता पर कितना भ्रष्टकारी
प्रभाव होता है, यह नैतिक आवेश की क्षमती की क्षती, मानवद्वेष में वृध्दि,
राजनीतिक भागिदारी में गिरावट और एक निष्क्रिय हानिलाभ केन्द्रित अस्तित्व के उभार
के रूप में दिखाई देता है। संक्षेप में, उच्चतर अनैतिकता, एक अर्थपूर्ण अनैतिकता
और राजनीतिक समुदाय के खात्में की ओर संकेत करता है।7
इस सर्वोच्च अनैतिकता की अभिव्यक्ति-
जिसमें पैसे का सभी लिहाज से अलग-थलग हो जाना, सर्वोच्च यथार्थ बन गया है- हमारे
चारों ओर दिखाई देती है। अकेले 1992 में ही अमरीकी पूंजीपतियों ने लोगों को इस बात
पर सहमत करने के लिए कि वे ज्यादा से ज्यादा माल का उपभोग करें, 1000 अरब डॉलर
मार्केटिंग पर खर्च किया जिसने सार्वजनिक और निजी, हर तरह की शिक्षा पर खर्च किये
गये 600 लाख डॉलर को पीछे छोड़ दिया। ऐसी परीस्थिती में हम उम्मीद कर सकते हैं कि
लोग बेचने लायक उपभोक्ता माल के बारे में जानकारियों से अपने दिमाग को भरकर बड़े
होंगे, जबकि उनका दिमाग मानव इतिहास, नैतिकता, संस्क्रिति, विज्ञान और पर्यावरण के
बारे में जानने से खाली होगा। जो चीज ऐसे समाज में सबसे ज्यादा मूल्यवान है वह है
- नये-नये फैशन, बेहद मंहगे कपड़े, बेहतरीन कार। इसलिए इसमें आश्चर्य की बात नहीं
कि 1980 के दशक के उत्तरार्ध में किये गये एक सर्वे में जब किशोरियों से पूछा गया
कि उनके फुर्सत के समय में की जानेवाली पसन्दीदा गतिविधी क्या है तो 93 प्रतिशत से
ज्यादा ने जवाब में खरीदारी करना बताया। ज्यादा समय नहीं हुआ जब फॉरचुन पत्रिका ने
विसा बैंक कार्ड संचालक डी हॉक को उध्द्रत किया, जिसमें उनका कहना था “ऐसा नहीं है कि लोग पैसे को महत्व
देते हैं, बल्कि यह कि वे हर चीज को इतना कम महत्व देते हैं- यह नहीं कि वे ज्यादा
लालची हैं बल्कि उनके पास कोई और मूल्य नहीं जिससे वे अपने लालच को रोक सकें।” जर्मन पर्यावरणविद ने बताया कि
“हमारा
समाजिक जीवन इस तरह से संगठित है, कि यहाँ तक कि जो लोग हाथ से काम करते हैं, वे
भी धरती के दक्षिणी अर्धांश पर झोपड़पट्टियों में रहने वाले लोगों के एक वक्त के
खाने या वहाँ के किसानों के लिए पानी की जरूरत या यहाँ तक कि अपनी खुद की चेतना, अपने खुद के आत्म बोध
का विस्तार करने की चिन्ता से भी कहीं ज्यादा एक बेहतरीन
कार में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं।”
हमारे समाज में कीटनाशकों के बढ़ते
उपयोग पर राय जाहिर करते हुए राचेल कार्सन ने लिखा कि यह “उद्योग के वर्चस्व वाले एक युग का
घोतक है, जिसमें दूसरों को चाहे जो भी कीमत चुकानी पड़े, फिर भी पैसा बनाने के
अधिकार को शायद ही चुनौती दी जाती हो।”8
हम जिस समाज में रहते हैं उसके स्वभाव
को देखते हुए, किसी को भी पर्यावरण समस्याओं के समाधान के बारे में चौकन्ना रहना
चाहिए, जिसमें व्यक्ति की भूमिका पर बहुत ज्यादा जोर दिया जाता हो या उत्पादन की ट्रेडमिल
और उसके द्वारा पैदा की जाने वाली उच्चतर नैतिकता पर कम ही जोर दिया जाता हो।
निश्चय ही व्यक्ति के लिए यह जरूरी है कि वह अपने जीवन को इस तरह संगठित करने के
लिए संघर्ष करे, ताकि वे उपभोग के मामले में ज्यादा सरल और पारिस्थितिक तौर-तरीके
से जीयें। लेकिन केवल इसी बात पर बहुत ज्यादा जोर देना, व्यक्ति पर बहुत ज्यादा
बोझ डालना, जबकि संस्थगत तथ्यों को नजरन्दाज करना है। उध्दाहरण के लिए वर्ल्डवाच
इन्टीट्यूट के अलान डुर्निंग तर्क देते हैं कि
हम उपभोक्ताओं के ऊपर अपने उपभोग पर
नैतिक नियन्त्रण लगाने की जिम्मेदारी है, क्योंकि यह भावी पीढ़ी के लिए सम्भावनाओ
को जोखिम में डालता है। यदि हम उपभोग की सीढ़ी से कुछ पायदान नीचे नहीं उतरते, तो
हमारी भावी संतति को हमारी विफलताओं के चलते उत्तराधिकार में एक कंगाल ग्रहआवास
मिलेगा।
यह सरल सामान्य लग सकता है, लेकिन यह
अमरीका जैसे उच्चतर अनैतिकता वाले समाज को नजरन्दाज करता है जिसमें प्रभावी
संस्थाएं जनता को महज उपभोक्ता मानती हैं आधुनिक मार्केटिंग की तमाम तकनीकों
द्वारा निशाना बनाया जा सकता है। अमरीका में औसत वयस्क एक साल में 21000 टीवी
विज्ञापन देखता है, जिनमें से 75 प्रतिशत का 100 बड़े कॉर्पोरेशन करते हैं। यह इस
तथ्य को भी नजरन्दाज करता है कि उत्पादन का ट्रेडमिल उपभोग पर नहीं, बल्कि उत्पादन
पर आधारित है। इस व्यवस्था के सन्दर्भ में इसलिए यह सोचना बचकानापन है कि महज
उपभोक्तओं को उपभोग से विमुख करके और अपने लाभ को बचाकर उसे निवेश करके ही इस
समस्या को हल किया जा सकता है। निवेश करने का मतलब है उत्पादन क्षमता के स्तर का
विस्तार, ट्रेडमिल के आकार को बढ़ाना।9
ज्यादा बड़ा सवाल उन लोगों कि
अन्तर्निहित धारणा है जो न केवल आम तौर पर व्यक्तियों से और समाजिक पिरामिड के
शीर्ष पर खड़े व्यक्तियों से और निगमों से अपील करके पर्यावरण के पतन को रोकना
चाहते हैं। इसीतरह पॉल हॉकेन ने अपनी बहुप्रचलित पुस्तक द इकोलोजी ऑफ कॉमर्स
में पूजींपतियों और निगमों के लिए एक नयी पर्यावरण नैतिकता का निर्माण किया है।
पारिस्थितिक परिवर्तन के लिए एक महत्वकांक्षी कार्यक्रम की वकालत करने के बाद,
हॉकेन कहते हैं, “लिखित, अनुशंसित् या प्रस्तावित कोई
भी बात सम्भव नहीं जब तक हम जिस दुनिया में रहते हैं, पूंजीपती उसे गले लगाने और
राह दिखाने का काम नहीं करते।” हॉकेन के अनुसार, व्यापार का अन्तिम
उद्देश्य केवल पैसा कमाना नहीं, और न ही होना चाहिए, न ही यह सिर्फ सामान बनाने और
बेचने वाली व्यवस्था है। व्यापार का उद्देश्य सेवा, एक रचनात्मक खोज और नैतिक
दर्शन के जरिये मानवजाति की आम खुशहाली को बढ़ाना है।
इस तरह वे आगे चलकर बताते हैं; अगर डू पोण्ट, मोनसेन्टो और डाउ यह विश्वास करते हैं कि वे
सिन्थेटिक रसायन के उत्पादन के कारोबार में हैं और इस विश्वास को बदल नहीं सकते तो
वे और हम परेशानी में हैं। अगर वे विश्वास करते
हैं कि वे लोग की सेवा के लिए, समस्या समस्या को हल करने में सहायता के लिए,
प्रकृति से सीखकर अपने इर्दगिर्द के लोगों की जिन्दगी को बेहतर बनाने के लिए
मजदूरों की प्रतिभा उपयोग करते हैं और उन्हें काम में लगाते हैं, तो यह हमें जीवन
देता है ऐसा अवसर हमें है।”10
यहाँ मुख्य सन्देश यही है कि
पूंजीपतियों को केवल अपने आचार-व्यवहार का नैतिक आधार बदलना है और पर्यावरण की
सारी गड़बड़ियाँ सही हो जायेंगी। ऐसे दृष्टिकोण उस विस्तार को कम करके आँकते हैं
कि किस हद तक उत्पादन के ट्रेडमिल और उच्चतर नैतिकता को हमारे समाज में निर्मित
किया गया है। विडम्बना तो यह है कि हॉकेन के तर्क व्यक्तिगत रूप से निगमों के
मैनेजर पर बहुत ज्यादा जिम्मेदारी और दोष मंढ़ते हैं। जबकि वे इस व्यवस्था के
पहिये के सिर्फ एक दाँता हैं। जैसा कि महान भाषाशास्त्री और मीडिया समीक्षक
नोमचोम्स्की ने व्याख्यायित किया है-
बोर्ड का चेयरमैंन आपसे हमेशा यही
कहेगा कि वह हर जाग्रत घंटा मेहनत करते हुए बिताता है, ताकि लोगों को सस्ते से
सस्ते दाम पर बढ़िया से बढ़िया सामान हासिल हो और वे यथासम्भव बेहतर दशाओं में काम
करें। लेकिन यह एक स्थापित तथ्य है, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता बोर्ड का चेयरमैंन
कौन है, कि वह मुनाफा बढ़ाने और बाजार में हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए जोरदार कोशिश करता है और अगर उसने ऐसा नहीं किया तो वह
बोर्ड का चेयरमैंन नहीं रह पायेगा। वह जो बात करता है उसके भ्रम का शिकार हो जाये
तो उसे बाहर कर दिया जायेगा।11
इस समाज के किसी भी क्षेत्र में सफल
होने का मतलब है कि उस व्यक्ति ने उच्चतर अनैतिकता से जुड़े तमाम मूल्यों को पूरी
तरह आत्मसात किया है। अर्थशास्त्री जॉन केनेथ गालब्रेथ ने बताया है कि सामाजिक
सोपानक्रम के शीर्ष पर एक “संतुष्टी संस्कृति है” - जो लग मौजूदा व्यवस्था से सबसे
ज्यादा लाभ हासिल करते हैं उनमें बदलाव की इच्छा नहीं के बराबर होती है।12
इसलिये उत्पादन के ट्रेडमिल का
प्रतिरोध समाज के निचले समुदायों और सामाजिक आन्दोलनों के जरिये ही होगा,
व्यक्तियों से नहीं। जर्मन ग्रीन पार्टी की नेता पेट्रा केली के शब्दों में, यह
तभी होगा जब पारिस्थितिक चिन्ताएँ “आर्थिक मुद्दों- धनवानों द्वारा
गरीबों के शोषण से जुड़ी हो।” आज के हर पर्यावरण सम्बन्धी संघर्ष
के पीछे वैश्विक ट्रेडमिल के विस्तार के खिलाफ संघर्ष हैं - भूमिहीन मजदूरों और
ग्रामीणों का विनाश करने पर बाध्य किया जाता है, या बड़े निगमों का मामला अपने
मुनाफे को बढ़ाना चाहते हैं लेकिन प्राकृतिक या समाजिक तबाही की कोई चिन्ता नहीं
करते जो अपने पीछे छोड़ जाते हैं। पारिस्थितिक विकास संभव है, लेकिन तभी जब
ट्रेडमिल से जुड़े आर्थिक और पारिस्थतिक अन्याय को समाप्त किया जाये। अर्थव्यवस्था
के बारे में पारिस्थितिक पहुँच जीनेभर के लिए पर्याप्त होना है, न कि ज्यादा से
ज्यादा हसिल होना। उसकी पहली प्राथमिकता जनता होना जरूरी है, खासकर गरीब जनता,
उत्पादन और यहाँ तक कि पर्यावरण भी नहीं, बल्कि उसे बुनियादी जरूरतों और
दीर्घकालिक सुरक्षा पर जोर देना जरूरी है। यही वह सार्वजनिक नैतिकता है, जिसके दम
पर हमें ट्रेडमिल की उच्चतर नैतिकता का मुकाबला करना जरूरी है। सबसे बढ़कर, हमें
पुराने सच को स्वीकारना होगा, जिसे बहुत पहले पूंजीवाद के रूमानी और समाजवादी
आलोचकों ने समझा था कि उत्पादन बढ़ाने से गरीबी खत्म नहीं होती।13
वास्तव में वैश्विक ट्रेडमिल को इस
तरह गढ़ा गया है कि दुनिया के गरीब देश अक्सर धनी देशों का वित्तपोषण करके उनकी
मदद करते हैं। 1982 से 1990 की अवधि में तीसरी दुनिया के देश “विकासशील देशों को दुर्लभ मुद्रा के
शुध्द निर्यातक थे, औसतन 30 लाख डॉलर प्रतिवर्ष।” इसी अवधि में तीसरी दुनिया के
कर्जदारों ने धनी देशों में स्थित अपने कर्जदाताओं को हर महीने 12.5 अरब डॉलर
सिर्फ भुग्तान के रूप में अदा किया। यह तीसरी दुनिया के सभी देशों द्वारा हर महीने
स्वास्थ्य और शिक्षा पर किये जाने वाले कुल खर्च के बराबर है। वैश्विक असमानता की
यही व्यवस्था अतिजनसंख्या (क्योंकि गरीबी जनसंख्या को बढ़ावा देती है) और तीसरी
दुनिया के उष्णकटिबंधीय वर्षावनों की तबाही से जुड़े एक तरह के हिंसक विकास को बल
प्रदान करती हैं।14
आप लोगों में से जिनका झुकाव
व्यवहारवाद की ओर हो, उनको हमारी बातें बहुत ज्यादा वैश्विक और बहुत ज्यादा अमूर्त
लग सकती हैं। हालाँकि जो जरूरी मुद्दा मैं आप तक पहुँचाना चाहता हूँ वह यह धारणा
है कि भले ही हम सब ट्रेडमिल पर हैं, हम सभी एक ही तरीके से और एक ही स्तर की
वचनबध्दता के साथ इससे नहीं जुड़े हैं। मैंनें उत्तरपूर्व में प्राचीन वन संघर्ष
के बारे में अपने शोध में पाया और दूसरे लोगों ने भी दूसरी परीस्थितीयों में वही
चीज खोज निकाली कि साधारण मजदूरों में मजबूत पर्यावरण मूल्य होते हैं, यहाँ तक कि
उनमें भी जो पर्यावरण आन्दोलन के विरोधियों के साथ खड़े हैं। सारतः वे अपनी जिन्दगी
और जीविका के लिए बिलकुल बुनियादी स्तर पर लड़ रहे हैं।15
हमें पर्यावरण को संरक्षित करने की
प्रक्रिया में जनता को पहले रखने का रास्ता खोजना होगा। इस ट्रेडमिल में जिन लोगों
का अपना आर्थिक हित दांव पर नहीं लगा है, पर्यावरण विनाश में उनकी ओर से आर्थिक
हिस्सेदारी घटाने के कई तरीके हैं। लेकिन इसका मतलब है पर्यावरण विनाश के साथ-साथ
सामाजिक और आर्थिक असमानता के मुद्दों को भी गम्भीरता से लेना। जिसे आजकल “पर्यावरण सम्बंधी न्याय” (पर्यावरण की चिन्ता और सामाजिक
न्याय को एक साथ मिलाना) कहते हैं, उसके साथ अपने आप को जोड़कर ही पर्यावरण
आन्दोलन उन वर्गों के व्यक्तियों से अलग - थलग पड़ने को टाल सकता है जो सामाजिक
जमीन पर ट्रेडमिल का सबसे ज्यादा प्रतिरोध करते हैं। विकल्प है एक ऐसे पर्यावरण
आन्दोलन को आगे बढ़ाना जो उन लोगों को अलग - थलग करने में सफल हो और “दूर रहो” का समर्थक बनते हों और फिर भी
उत्पादन के व्यापक ट्रेडमिल से मिलीभगत करते हों। यह स्वीकार कर ही कि पर्यावरण के
दुश्मन लोग (व्यक्ति के रूप में और कुल मिला कर) नहीं, बल्कि एतिहासिक रूप से
विशिष्ट सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था है जिसमें हम रहते हैं, मेरे विचार से हम
पृथ्वी को बचाने वाली एक सच्ची नैतिक क्रान्ति के लिए पर्याप्त साझा जमीन हासिल कर
सकते हैं।
टिप्पणियाँ
1) एन्थनी बी बोल्बार्स्ट, इनवार्मेन्ट
इन पेरिल् में जेम्स गुस्ताव स्पेथ, कैन दी वर्ल्ड बी सेव्ड, (वाशिंगटन, स्थित
सोनियन इन्स्टीट्यूट प्रेस, 1991)
2) लिपोपोल्ड, द सेण्ड काउन्टी अलमैनक
(न्यूयॉर्क, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस-1949) पृष्ठ-8।
3) “उत्पादन के ट्रेडमिल” की अवधारणा अलान श्नैबर्ग की द
एन्वायरमेन्ट फ्रॉम सरप्लस टू स्कारसिटी (न्यूयॉर्क, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी
प्रेस-1980) पृष्ठ 205 - 50 तथा श्नैबर्ग और केनेल अनाल गौल्ड, एन्वायरमेन्ट एण्ड
सोसायटी, न्यूयॉर्क, सेन्ट मार्टिन्स प्रेस-1949) पृष्ठ-8 से ली गयी है।
श्नैबर्ग के शुरूआती लेखन में ट्रेडमिल उसी तरह एकाधिकारी पूंजीवाद के ऐतिहासिक
संदर्भ में अवस्थित है, पौल बारन और पौल स्वीजी की पुस्तक मोनोपोली केपिटल
(न्यूयॉर्क, मन्थली रिव्यू प्रेस-1966) में और जेम्स ओ कोनोर की पुस्तक फिस्कल
क्राइसिस ऑफ द स्टेट (न्यूयॉर्क, सेन्ट मार्टिन्स प्रेस-1973) में। यह ध्यान
देने योग्य है कि ऊपर के पाठ में गिनाये गये ट्रेडमिल के तीसरे तत्व में - समाप्त
हो जाने की कीमत पर उत्पादन के साधनों का क्रान्तिकारीकरण - वह एकाधिकारी पूंजीवाद
के अन्तर्गत किसी न किसी तरीके से कम प्रभावी बना दिया जाता है, लेकिन फिर भी
व्यवस्था का लाभ रूझान बना रहता है।
4) अल्बर्ट आइन्सटीन की पुस्तक आइडियाज़
एण्ड ओपीनियन (न्यूयॉर्क, डेल-1964) पृष्ठ - 20 पर शोपेनहावर का उध्दारण।
5) चाण्डलर मोर्स, इन्वायर्न्मेन्ट एण्ड
सोशलिज़्म, मन्थली रिव्यू 30:11 (अप्रैल 1979) 12-5;
पेट्रा के केली, थिकिंग ग्रीन! (बर्कले, पारालैक्स प्रेस, 1994)
पृष्ठ 22-3 कच्चा माल और उर्जा की लागत पहले से बहुत ज्यादा बढ़ने के प्रति
व्यवस्था का रूझान विकसित पूंजीवादी देशों में 1970 के दशक और 1980 के पूर्वीध्द
में कुछ हद तक उर्जा दक्षता में बढ़ोतरी से बराबर हो जाता था (सकल घरेलू उत्पाद और
व्यवसायिक ईंधन उपयोग के अनुपात द्वारा मापने पर)। 1980 के दशक के मध्य से,
हालाँकि अमरिका में ऊर्जा की कीमत घटने के परिणाम स्वरूप इस लिहाज से प्रगति धीमी
रही, जो ऊर्जा का उपयोग पूरी तीसरी दुनिया के लगभग बराबर करता है, वहाँ 1986 तक
ऊर्ज दक्षता सारतः अपरिवर्तित रही। देखें लेस्टर ब्राउन इत्यादि, वाइटल साइन्स,
1992, न्यूयार्क डब्ल्यू.डब्ल्यू नॉर्टन, 1992 ) पृष्ठ 126-7।
6) स्पेल, कैन द वर्ल्ड बी सेण्ड
पृष्ठ-65।
7) मिल्स, द पावर एलीट (न्यूयॉर्क
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्तसिटी प्रेस 1996) पृष्ठ 338-61।
8) केविन जे क्लान्सी और रॉबर्ट एस
सुलमान, एक्रोस द बोर्ड, अक्टूबर 1993, पृष्ठ-38; द स्टेटिकल एक्सट्रैक्ट ऑफ द
युनाइटेड स्टेट्स (लान्हम एम डी बर्नान प्रेस, 1993) पृष्ठ-147; “द मनी सोसायटी” फोरचुन 6 जुलाई 1987, पृष्ठ 26-31;
बाहरो, सोशलिज़्म एण्ड सर्वाइवल
(लन्दन, हेरेटिक बुक्स, 1982) पृष्ठ-31; कार्सन साइलेन्ट स्प्रिंग-3, द
न्यूयॉर्क 38:19 (30जून 1962) पृष्ठ-67।
9) डुर्निंग, हाउ मच इज
इनफ?
(न्यूयॉर्क, डब्ल्यू.डब्ल्यू नॉर्टन,
1992) पृष्ठ 136-7; जेरी मैन्डर, इन द एब्सेन्स ऑफ
सेकरेड (सैन फ्रान्सिस्को, सियरो क्लब बुक्स 1991) पृष्ठ 78-9।
10) हाउकेन, द इकोलोजी ऑफ कॉमर्स
(न्यूयॉर्क, हार्पर एण्ड कोलिन्स, 1993) पृष्ठ 1-2, 55-6, 216।
11) चोम्स्की साक्षात्कार बिल मोयर्स
सम्पादित ए वर्ल्ड ऑफ आइडियाज़ (न्यूयॉर्क, डबलडे, 1989) पृष्ठ-42।
12) गालब्रेथ, द कल्चर ऑफ
कन्टेन्टमेन्ट, (न्यूयॉर्क, हॉफटन, मिफिलन, 1992)
13) केली, थिंकिंग ग्रीन! पृष्ठ-25, बेन जैक्सन, पोवर्टी एण्ड
द प्लानेट (हमेडिसवर्थ: पेंग्विन, 1990) पृष्ठ 182-3;
रेमण्ड विलियम्स, रिसोर्सेज ऑफ होप
(लन्दन, वर्सो, 1989) पृष्ठ 221।
14) उध्दरण- चेरिल पेयर की किताब से, लेन्ट
एण्ड लॉस्ट (लन्दन, जेड बुक 1991) पृष्ठ 115; साथ ही सुसन जॉर्ज, “द डेब्ट बुमरैंग” केविन डानाहर सम्पादित, फिफ्टी
इयर्स इज इनफ (बोस्टन सउथ एण्ड प्रेस, 1994) पृष्ठ-29।
15) फोस्टर “द लिमिट्स ऑफ इन्वायर्न्मेंटलिज्म
विदाउट क्लास” यह खण्ड थोमस “टॉकिंग अबाउट ट्रीज;
इम्पलोयमेंट एण्ड सोसायटी इन फोरेस्ट
वर्कर्स’ कल्चर” द कनाडियन रिव्यू ऑफ सोशियोलोजी, 31:1
(फरवरी1994) पृष्ठ 14-34।